भौगोलिक अनुसंधान/समस्या चिह्नीकरण एवं कथन

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समस्या चिह्नीकरण एवं समस्या कथन[सम्पादन]

वैज्ञानिक अनुसंधान में समस्या की स्पष्ट पहचान और उसका सटीक और स्पष्ट तरीके से कथन सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण है। यही वह धुरी है जिसके इर्द-गिर्द पूरा अनुसंधान (रिसर्च) आगे केंद्रित होती है और क्रियान्वित होती है। अतः समस्या की पहचान और उसका कथन पूरे अनुसंधान का भविष्य निर्धारण करते हैं।

सबसे पहले तो हमें यह जानना होगा कि समस्या के अंग अथवा घटक क्या होते हैं:

  • कोई व्यक्ति अथवा कोई समूह – होना अवाश्यक है जिसे कोई कठिनाई, समस्या है या जिसके कार्य में कोई अवरोध अथवा परेशानी उत्पन्न हो रही। यदि किसी तरह की कोई परेशानी ही नहीं है और कोई व्यक्ति अथवा व्यक्तियों का समूह ही नहीं है जिसे कठिनाई हो, तो ऐसी दशा में रिसर्च के लिए कोई समस्या ही नहीं निर्धारित की जा सकती है।
  • उद्देश्य तथा लक्ष्य – होने आवश्यक हैं। हमें यह स्पष्ट होना चाहिए कि हम आख़िर चाहते क्या हैं। अगर कुछ करना ही नहीं है – तो कोई समस्या है ही नहीं। उद्देश्य (objectives) एक प्रकार से दिशा तय करते हैं कि हमें किस दिशा में जाना है। लक्ष्य (targets) उन्ही उद्देश्यों को बिंदु के रूप में स्पष्ट करके निर्धारित किये जाते हैं। उद्देश्य और लक्ष्य में अंतर एक उदाहरण द्वारा समझ सकते हैं: आर्थिक विकास प्राप्त करना एक उद्देश्य हो सकता है, यह दिशा बताता है कि हमें क्या चाहिए और किस ओर जाना है; जब हम इसे बिंदु के रूप में परिभाषित कर लें कि हमें अगले 5 वर्षों तक 8 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल करनी है तो यह एक लक्ष्य (target) सेट करना हुआ।
  • उपलब्ध विकल्प – कठिनाई अथवा समस्या को पार करने के लिए एकाधिक विकल्प (Course of Action) उपलब्ध होने चाहिएँ। यानि, एक से अधिक ऐसे विकल्प होने चाहिएँ जिनका चयन हम समस्या से निबटने में कर सकते हों।
  • विकल्पों के चयन में शंका – विकल्प कई हों और उनमें निस्संदेह रूप से एक विकल्प पहले से ज्ञात हो कि बेहतर है तो कोई समस्या अनुसंधान के लिए नहीं बचती। अतः यह आवश्यक है कि अनुसंधानकर्ता के मन में उपलब्ध विकल्पों को लेकर कुछ शंका हो – कि कौन सा विकल्प चुनना उचित है अथवा बेहतर है।
  • एक सुनिश्चित परिवेश का होना – आवश्यक है जिस परिवेश, जिस सेटिंग में समस्या है, जिसमें कार्य करके समस्या का यथोचित समाधान किया जाना है। भौगोलिक अध्ययन और अनुसंधान में यह क्षेत्र के चयन के रूप में परिभाषित किया जाता है। उदाहरण के लिए यदि हमें भूमि उपयोग संबंधी समस्या का समाधान करना है तो स्पष्ट रूप से चिह्नित और परिभाषित करना होगा कि इसके लिए हम एक राज्य चुन रहे, जिला चुन रहे अथवा कोई एक विकासखंड (ब्लॉक) चुन रहे जिसके भूमि उपयोग का अध्ययन हम करेंगे।

समस्या चयन के कुछ ध्यातव्य बिंदु[सम्पादन]

अनुसंधान समस्या (रिसर्च प्रॉब्लम) अनुसंधानकर्ता (रिसर्चर) के चित्त में स्वोद्भूत होनी चाहिए। एक ऐसी समस्या जिसकी ओर अनुसंधानकर्ता का ध्यान स्वयमेव गया हो और वह उस समस्या के निदान और समाधान के लिए अनुसंधान करने में आपने को सक्षम पाता हो। हालाँकि, दिमाग में आने वाली हर समस्या को अनुसंधान का विषय बना ही लिया जाए यह न तो उचित है न संभव। अतः ऐसी स्वोद्भूत समस्याओं को अनुसंधान के लिए चुनने से पहले अनुसंधानकर्ता को कुछ बिंदुओं पर गंभीरता पूर्वक अवश्य विचार कर लेना चाहिए:

  • ऐसा विषय जिसपर पहले ही, उसी तरह का बहुत सारा कार्य हो चुका हो – अध्ययन एवं अनुसंधान के लिए ऐसा विषय या समस्या नहीं चुननी चाहिए। क्योंकि, पर्याप्त कार्य हो चुके होने की दशा में यह बहुत ही दुर्लभ है कि विषय पर नया प्रकाश डालना संभव हो। अतः अनुसंधानकर्ता को ऐसा विषय अथवा समस्या चुननी चाहिए जिस पर पहले से बहुत कार्य न हुआ हो।
  • विवादास्पद विषय – चुनने से परहेज करना चाहिए यदि अनुसंधानकर्ता एक औसत अनुसंधानकर्ता है। औसत से यहाँ तात्पर्य यह है कि यदि अनुसंधानकर्ता एक सुस्थापित व्यक्तित्व नहीं है और विषय पर एक कद्दावर विद्वान नहीं है तो उसे विवादास्पद विषय का चयन करने से बचना चाहिए। विषय कई कारणों से विवादास्पद हो सकते हैं: भौगोलिक क्षेत्र ही राजनीतिक सीमा इत्यादि को लेकर विवादित हो सकता है – ऐसे में उसका चयन एक अलग से परेशानी खड़ी कर सकता और सीमा विवाद का उत्तर देना अनुसंधान कर्ता के लिए अनावश्यक कार्य बन सकता; विषय की प्रकृति राजनीतिक, सामाजिक कारणों से विवादास्पद हो सकती है – जैसे, संबंधित विषय को लेकर किन्हीं सामाजिक समूहों में संघर्ष की स्थिति हो सकती जिसमें अनुसंधानकर्ता की तटस्थता और अखंडता (integrity) पर प्रश्नचिह्न खड़े किये जा सकते हैं और उसके लिए व्यर्थ ही परेशानी का सबब बन सकते हैं। एक ऊँचे क़द (starture) के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान के लिए यह समस्याएँ कम मायने रखती हैं और उसका अकादमिक क़द और अथौरिटी बहुत से विवादों से उसे ऊपर उठाते हैं, परंतु एक नए अथवा औसत अनुसंधानकर्ता को इन चीजों का ध्यान रखना चाहिए।
  • अति संकीर्ण अथवा अति-व्यापक विषय का चुनाव – नहीं करना चाहिए। समस्या की व्यापकता इस लायक होनी चाहिए कि उसे अनुसंधान के क़ाबिल समझा जाय और उसकी व्यापकता उस सीमा में भी होनी चाहिए कि अनुसंधानकर्ता शोध प्रक्रिया को सँभाल सके, उसकी कार्य-क्षमता से बाहर न निकल जाएँ। अतः विषय की व्यापकता का ध्यान रखना आवश्यक होता है।
  • उपरोक्त क्रम में, क्षेत्र का विस्तार – भौगोलिक रिसर्च में ध्यातव्य है। अनुसंधान के लिए चयनित क्षेत्र (geographical area) का विस्तार (extent) न तो बहुत अधिक होनी चाहिए न ही अत्यंत छोटी। आदर्श रूप से उतना ही बड़ा क्षेत्र चुना जाना चाहिए जो समस्या के स्वरूप को समझने, परीक्षित करने और अनुसंधानकर्ता के कार्य सीमा के दायरे में उचित प्रतीत हो।
  • उपादेयता – अर्थात अनुसंधान से प्राप्त लाभ, चाहे संबंधित व्यक्ति, समुदाय अथवा समाज के लिए क्या है और कितना है इसका ध्यान रखा जाना चाहिए। अनुसंधान में खर्च – समय का भी, संसाधनों का भी और धन का भी – उससे प्राप्त होने वाले लाभ के अनुसार ही न्यायसंगत ठहराया जा सकता है। अतः लागत-प्रभावित (कॉस्ट-इफेक्टिवनेस) का ध्यान रखना आवश्यक हो जाता है।
  • प्राथमिक (preliminary) अथवा पूर्वगामी (pilot) अध्ययन – आमतौर पर समस्या के सटीक निर्धारण से पूर्व एक प्रारंभिक अध्ययन आवश्यक होता है ताकि अनुसंधान की समस्या का स्पष्ट निर्धारण किया जा सके। अतः अनुसंधानकर्ता के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह समस्या के कथन से पूर्व एक पूर्वगामी संक्षिप्त अध्ययन अवश्य करे।

समस्या कथन के चरण[सम्पादन]

उपरोक्त ध्यातव्य बिंदुओं को अनुसंधान की प्रक्रिया में ध्यान में रखते हुए समस्या की पहचान और उसका स्पष्ट कथन किया जाता है। इस प्रक्रिया को भी हम कुछ चरणों में बाँट सकते हैं:

  1. समस्या का सामान्य कथन – आमतौर पर, शुरूआती रूप से समस्या को कुछ आम प्रश्नों के रूप में कहा जाता है। यह मूलतः प्रश्नवाचक होते हैं। समस्या को व्यापक सामान्य तरीके से – ब्रॉड जनरलाइजेशन के रूप से बताया जाता है। अतः इस शुरूआती दौर में इसमें विभिन्न अस्पष्टताएं हो सकती हैं जिन्हें ठंडे दिमाग से सोच-विचारकर और पुनर्विचार करके हल किया जाना चाहिए। साथ ही किसी विशेष समाधान (विकल्प) की व्यवहार्यता पर भी विचार करना होता है और समस्या बताते समय उपलब्ध विकल्पों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। इसमें पूर्वगामी अध्ययन का उपयोग किया जा सकता है।
  2. समस्या की प्रकृति को समझना – सामान्य और व्यापक कथन के उपरांत समस्या की मूलभूत प्रकृति को समझा जाता है। साहित्यिक सर्वेक्षण के मुख्य चरण की यह प्रारंभिक अवस्था होती है।
  3. साहित्य सर्वेक्षण – भले ही अनुसंधान का दूसरा चरण हो, इसकी उपादेयता समस्या के कथन के दौरान ही महत्वपूर्ण हो जाती है। उपलब्ध साहित्य का अध्ययन समस्या को समझने, उसे स्पष्ट तरीके से चिह्नित करने और उसके कथन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। कई बार साहित्य सर्वेक्षण के उपरांत प्रारंभिक रूप से व्यापक कथन के रूप में कही गई समस्या में बड़े बदलाव भी संभव हैं।
  4. चर्चा-परिचर्चा द्वारा विचार (Ideas) विकसित करना – समस्या के सटीक कथन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह शोध-पर्यवेक्षक से साथ अथवा सहकर्मियों और विषय के अन्य विशेषज्ञों के साथ परिचर्चा (discussion) के रूप में हो सकता है जिससे नए पहलू स्पष्ट हो सकें और अनुसंधान समस्या का सटीकता से निर्धारण किया जा सके।
  5. पुनर्कथन अथवा पुनर्विन्यास (rephrasing) – मूल प्रारंभिक कथित समस्या को इस प्रकार अंत में सभी उपरोक्त बातों का पालन करते हुए पुनः स्पष्टता और सटीकता के दृष्टिकोण से और बेहतर ढंग से कथन किया जाता है।
    1. इस दौरान अध्ययन के दायरे में आने वाले सभी तकनीकी टर्म्स को सटीकता से परिभाषित किया जाता है।
    2. सभी मान्यताओं और अभिधारणाओं (postulates) को स्पष्ट किया जाता है।
    3. अध्ययन का अवदान और मूल्य (value) कथित किया जाता है।
    4. समय-सीमा तथा आँकड़ों की उपलब्धता को ध्यान में रखकर भी समस्या को पुनार्विन्यासित किया जाता है।

अनुसंधान समस्या के गुण अथवा अभिलक्षण[सम्पादन]

अनुसंधान समस्या में निम्नलिखित गुण अथवा अभिलक्षण होने चाहिए:

  1. विषय और भौगोलिक क्षेत्र की दृष्टि से व्यवहार्य (feasible) होनी चहिए
  2. पर्याप्त तकनीकी एवं विषय विशेषज्ञता आधारित होनी चाहिए
  3. समय एवं खर्च के हिसाब से व्यवहार्य होनी चाहिए
  4. अपने कार्य विस्तार की दृष्टि से प्रबंधन योग्य (managable) होनी चाहिए
  5. रुचिवर्धक और ज्ञान के नए आयाम विकसित करने वाली होनी चाहिए
  6. वैज्ञानिक ज्ञान में अबिवृद्धि करने वाली होनी चाहिए
  7. नीतिगत निर्णय लेने में सहायक होनी चाहिए
  8. भावी अनुसंधान का मार्ग प्रशस्त करने वाली होनी चाहिए।

निष्कर्ष[सम्पादन]

अतः, निष्कर्ष यह कि एक शोध समस्या को परिभाषित करने का कार्य, अक्सर, एक अनुक्रमिक पैटर्न – एक के बाद एक क्रम – का पालन करता है - समस्या को सामान्य तरीके से बताया जाता है, अस्पष्टताएं और दुविधाएँ हल की जाती हैं, सोचने और पुनर्विचार करने की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप समस्या का अधिक विशिष्ट तरीके से सूत्रीकरण होता है। यह उपलब्ध डेटा और संसाधनों के संदर्भ में यथार्थवादी हो सकता है और विश्लेषणात्मक रूप से भी सार्थक हो सकता है। एक अच्छी तरह से परिभाषित अनुसंधान समस्या न केवल परिचालन अर्थात अनुसंधान के क्रियान्वयन के दृष्टिकोण से सार्थक होनी चाहिए, बल्कि कार्यशील परिकल्पनाओं (working hypotheses) के विकास और समस्या को हल करने के साधनों के लिए मार्ग प्रशस्त करने में भी समान रूप से सक्षम होनी चाहिए।