सदस्य:Emasterji

विकिपुस्तक से

ऐतरेये आरण्यक में प्राण विद्या

भारतीय दर्शन में प्राण विद्या का विशेष महत्व है इस विद्या का जितना चिंतन तथा अध्ययन हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों ने किया था उतना शायद ही किसी अन्य देश के विद्वानों ने किया होगा । सच तो यह है कि प्राण उपासना की विद्या हमारी अपनी संपत्ति है। प्राण के वास्तविक महत्व को समझना, इस शरीर तथा बाहरी जगत में उसके सच्चे कार्य तथा व्यापक प्रभाव को परखना, तथा किसी देवता का जप कर उस की उपासना करना । यह सब सिद्धांत इस भारत भूमि पर ही हमारे पूर्वजों की सात्विक बुद्धि तथा उर्वर मस्तिष्क के कारण ही प्राचीन काल में उत्पन्न हुए तथा अब भी हमें किसी न किसी रूप में दृष्टिगोचर होते हैं।

यह विद्या कब से चली? यह कहना बिल्कुल असंभव है, परंतु जब हमारे साहित्य तथा धर्म का प्रथम प्रभात हुआ, तभी से इस विद्या का उदय हुआ , यह हम बिना रोक-टोक के कह सकते हैं, क्योंकि हमारी वैदिक संहिताओं में रिक व अथर्ववेद की संहिता में सबसे पहले वर्णन किया गया मिलता है । विद्वानों से यह अपरिचित नहीं कि उपनिषद में प्राण विद्या भरी पड़ी है। परंतु उपनिषदों में नहीं आरण्यक तथा संहिता में इस विद्या का यथेष्ट वर्णन उपलब्ध होता है। बहुत से विद्वानों को यह सिद्धांत नवीन सा प्रतीत होगा, बात है बिल्कुल ठीक। इस महत्वपूर्ण प्राण विद्या के प्रथम निर्देश तथा संकेत उपनिषदों से पूर्व वैदिक संहिताओं तथा आरण्यकों में भी मिलते हैं । प्राण का विषय वेद के दो ही भाग है मंत्र तथा ब्राह्मण। मंत्रों के संग्रह को संहिता कहते हैं। ऐसी संहिताएं हमारे यहां बहुत हैं, रिक संहिता, साम संहिता आदि। उपनिषद में ब्रह्म विद्या का वर्णन है, यह ज्ञान कांड हुआ। ब्राह्मणों में यज्ञ याग आदि का सर्वत्र वर्णन है। इन का प्रधान विषय कर्मकांड हुआ। ये उनके लिए है जो घर द्वार बनाकर वेद विहित यज्ञ का अनुष्ठान अपने कल्याण के लिए किया करते हैं। आरण्यकों का स्थान ब्राह्मणों तथा उपनिषदों के बीच में आता है। आरण्यक नाम पढ़ने के दो कारण बतलाएं जाते हैं। यह हुआ कि यह ग्रंथ अरण्य में ही पढ़ने योग्य है, इनका अध्ययन तथा मनन अरण्य जंगल में ही करना चाहिए। अतः जंगल में पाठ होने के कारण इन ग्रंथों का नाम आरण्यक पड़ा। दूसरा कारण यह है कि यह उन लोगों के लिए है जो गृहस्थ आश्रम को छोड़कर वानप्रस्थ आश्रम में है। अतः जो लोग घर द्वार छोड़कर जंगल में कुटिया बनाकर अधिकतर निवास किया करते हैं उन्हें तृतीय आश्रम में रहने वालों के लिए आरण्यक ग्रंथ बने हुए हैं। इन ग्रंथों के विषय विवेचन से भी पूर्वोक्त नामकरण के हितों को किया जा सकता है। इन पुस्तकों में दार्शनिक का ही विवेचन नहीं है अन्य भी अनेक दार्शनिक सिद्धांतों के उद्धरण यहां दिखाई पड़ते हैं। आरण्यक में वर्णित दार्शनिक सिद्धांतों का अध्ययन करना भारतीय दर्शन की इतिहास की दृष्टि से अत्यंत महत्व रखता है। इनके मनन करने से हमें पता चलेगा कि वैदिक संहिताओं से आरंभ उपनिषदों में विकसित रूप प्राप्त होने के पहले भारतीय दार्शनिक वादों तथा सिद्धांतों के कौन-कौन से रूप थे? संक्षेप में उपनिषद सिद्धांतों के पूर्ण रूप से अवगत हो जाने के लिए आरण्यकों का अध्ययन विशेष महत्व रखता है। ऐतरेय आरण्यक अथर्ववेद को छोड़कर प्रत्येक वेद की एक या अनेक आरण्यक है। ऋग्वेद के दो आरण्यक हैं- ऐतरेय तथा शांखायन । ऐतरेय आरण्यक अपने विषय में विशेष महत्व का है। इसके 5 खंड हैं। उन्हें भी आरण्यक ही कहते हैं। प्रत्येक आरण्यक में कई अध्याय हैं। प्रथम में 5 अध्याय दूसरे के सात, तीसरे में दो, चौथे में एक और पांचवें में तीन। इस प्रकार पूरे ग्रंथ में 18 अध्याय हैं। इसमे कई खंड है। इनमें दूसरे आरण्यक को छोड़कर ऐसी विषय है जिनसे इस समय हमारा मतलब नहीं। ऐतरेय आरण्यक के 7 अध्याय में से अंतिम चार अध्याय मिलकर ऐतरेय उपनिषद है। । आदि के 3 अध्यायों में प्राण विद्या का विवेचन किया गया है इसलिए कभी इन्हीं अध्यायों में वर्णित प्राण विद्या का सार जिज्ञासु पाठकों के उपकार अर्थ प्रस्तुत किया जाएगा। इन अध्यायों में प्रमाण के लिए, विषय की पुष्टि करने के लिए ऋग्वेद के अनेक मंत्रों का निर्देश किया गया है अतः मुख्य विषय पर आने से पहले 1-2 मंत्र ऋग्वेद से दिए जाएंगे जिससे प्राण विद्या के महत्व का स्वल्प परिचय प्राप्त हो जाए। ऋग्वेद में प्राण स्वरूप दर्शन

इस आरण्यक की प्राण विद्या विषय के अध्ययन में ऋग्वेद के लगभग 8 या 10 मंत्रों को प्रमाण के लिए उद्धृत किया गया है। यहां पर केवल 2 मंत्रों का विचार है। मंत्रों का अर्थ भी श्री सायणाचार्य के भाष्य के अनुसार कर दिया गया है। प्राण समस्त विश्व को व्यक्त किए हुए हैं, इस विषय में यह मंत्र तदुक्त मृशिन आ के कर दिया गया है। मंत्र के दृष्टा दीर्घतमा ऋषि कह रहे हैं कि मैंने प्राण को देखा है साक्षात्कार किया है। यह प्राण सब इंद्रियों का गोप, रक्षक है। यह कभी नष्ट नहीं होने वाला है। यह भिन्न भिन्न मार्गों से अर्थात नाड़ियों के द्वारा आता और जाता है। मुख्य तथा नाशिका के द्वारा क्षण क्षण में इस शरीर में आता है फिर बाहर चला जाता है। यह प्राण शरीर में अध्यात्म रूप में वायु के रूप में है परंतु अधिदैव रूप में सूर्य है। श्रुति कहती है- यह प्राण आदित्य रूप से मुख्य तथा एवं दिशाओं को व्याप्त कर वर्तमान है और सब भुवनो के मध्य में बारंबार आकर निवास करता है। इस समस्त विश्व के देव, मनुष्य, पशु आदि समग्र प्राणी प्राणवायु के द्वारा व्याप्त हैं। प्राण अमृत रूप है। जब तक उसका हृदय में वास है यह शरीर मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। इस सिद्धांत की पुष्टि करने के लिए ऋग्वेद का यह मंत्र दिया गया है। आरण्यक का यह वर्णन उपनिषद के वर्णन से कई अंशों में भिन्न सा है। उपनिषद में तो प्राण के निकलते समय शरीर के अन्य इंद्रियों की खिन्न तथा निर्जीव होने की घटना का वर्णन है। परंतु इस आरण्यक में प्रवेश से पतित शरीर को खड़ा करा देने की योग्यता का एक नवीन उल्लेख प्राण के विषय में किया गया है। प्राण की श्रेष्ठता इस प्रकार उत्क्रमण से ही नहीं बल्कि प्रवेश से भी सिद्ध की गई है। इस आरण्यक के अध्ययन से यह भी पता चलता है कि यह विषय ऋग्वेद की संहिता में भी निर्दिष्ट किया गया है। इंद्रियों ने यह कहकर, तुम हमारे स्वामी हो और हम तुम्हारे भृते हैं , प्राण की श्रेष्ठता मानी है । प्राण की उपासना प्राण की सभी इंद्रियों में श्रेष्ठता प्रतिपादित करने के अनंतर उसकी उपासना के प्रकार का विस्तृत वर्णन इस आरण्यक में किया गया है। इस प्राण के अनेक गुणों का विशद विवेचन किया गया है। इसके बाद उसने भिन्न-भिन्न देवता तथा ऋषियों की दृष्टि कर प्राण उपासना के ढंग तथा उसके फल का वर्णन किया गया है। इस लेख में इस वर्णन का थोड़ा सा सारांश प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। शास्त्रों में इस पिंडाण्ड तथा ब्रह्मांड की एकता पर सर्वत्र जोर दिया गया मिलता है। । बाहर जो यह है विशाल ब्रह्मांड नाना आकारों से हमारे सामने उपस्थित है उसका एक छोटा प्रतिबिंब है यह हमारा लघु शरीर ।अतः भीतर तथा बाहर सब जगह भिन्न-भिन्न आकार से एक ही तत्व इस मानव शरीर तथा विश्वरूप में समभाव से व्याप्त दृष्टिगोचर हो रहा है। बाह्य जगत में जो विश्व का पोषक आदित्य है, इस शरीर में सब इंद्रियों की स्थिति का कारण वही प्राण है। । श्रुति में प्राण तथा आदित्य की एकता सर्वत्र प्रतिपादित की गई है, प्रश्नोपनिषद में कहा गया है आदित्य हुए ब्राह्मण उदयति सूचक सुमन अनुग्रहित। । आरण्यकों में भी इसी एकता का प्रतिपादन स्पष्ट शब्दों में किया गया है , अतः जिस प्रकार आदित्य हमारी उपासना का विषय है उसी प्रकार इस शरीर में प्राण भी हमारी उपासना का विषय है। हमारा यह सतत ध्येय रहना चाहिए कि हम उस प्राण की उपासना सदा किया करें। प्राण की महिमा प्राण इस विश्व का धारक है। प्राण की शक्ति से जैसे यह आकाश अपने स्थान पर स्थित है, उसी तरह सबसे बड़े प्राणी से लेकर चोटी तक समस्त जीव इस प्राण के द्वारा ही विधृत है। यदि प्राण नहीं होते तो इस विश्व का जो यह महान संस्थान हमारे नेत्रों के सामने सतत आश्चर्य पैदा किया करता है वह कहीं भी नहीं रहता। प्राण सर्वत्र व्याप्त है। प्राण से यह सारा जगत आवृत है अतः वह सब का रक्षक है इसीलिए प्राण को गोपा कहा गया है । प्राण ही आयु का कारण है। जब तक इस शरीर में प्राण रहता है तभी तक आयु है अतः श्रुति मंत्रों में प्राण के लिए गोपा शब्द का व्यवहार उचित ही है। प्राण के द्वारा अंतरिक्ष तथा वायु की सृष्टि हुई है। प्राण पिता तथा अंतरिक्ष ओर वायु उसकी संतान है। जिस प्रकार पुत्र अपने सत्कर्मो से पिता की सेवा किया करता है उसी प्रकार अंतरिक्ष और वायु रूप पुत्र भी प्राण की सेवा में लगे रहते हैं। अंतरिक्ष का अनुसरण करके ही प्राणी मात्र का संचरण होता है अंतरिक्ष की सहायता से आदमी दूर स्थान पर कहे गए शब्दों को सुन लिया करता है इस प्रकार अंतरिक्ष प्राण की परिचर्या करता है। वायु भी शोभन गंध ले जाकर प्राण को तृप्त कर देता है तथा इस प्रकार अपने पिता प्राण की सेवा किया करता है। ऐतरेय आरण्यक में प्राण की श्रेष्ठता व पिता होने के बात कहीं गई है- प्राणी निष्ठावंत अधिकतम समय उसके अंतरिक्ष सेवा अनुसार यंत्र अंतरिक्ष मनोजन में पुण्य गंधवानी। अर्थात प्राण से अंतरिक्ष और वायु की सृष्टि हुई है। अंतरिक्ष का अनुसरण करके प्राणी चलते हैं और अंतरिक्ष का अनुसरण करके सुनते हैं। वायु इसके पास पूण्य गंध ले जाता है। इस प्रकार ही अंतरिक्ष और वायु अपने पिता प्राण की परिचर्या करते हैं। प्राण की ध्यान विधि ध्यान करने के लिए प्राण के भिन्न-भिन्न गुणों का उल्लेख विस्तृत रूप से किया गया है। तत्व द्रुप से प्राण का ध्यान करना चाहिए। उन उन रूपों से उपासना करने से फल भी तदनुनुरूप ही उपासना को प्राप्त होंगे। कतिपय प्रकारों का यहां उल्लेख किया जाता है प्राण ही अहोरात्र के रूप में कालात्मक है। दिन प्राण रूप है तथा रात्रि अपानरूप है। सवेरे प्राण सब इंद्रियों को इस शरीर में अच्छी तरह से फैला देता है इस परत्नन को देखकर मनुष्य लोग कहते हैं प्रातः अर्थात प्रकर्ष रूप से प्राण विस्तृत हुआ। । इसी कारण दिन की आरंभ काल को जिसमे प्राण का प्रसारण दृष्टिगत होता है प्रातः सवेरा कहलाता है दिन के अंत होने पर इंद्रियों में संकोच देख पड़ता है। उस समय कहते हैं समागात। इसी कारण उस काल को सायं कहते हैं। दिन प्राण रूप है और संकोच केतु रात्रि अपान है। प्राण का ध्यान इस प्रकार अहोरात्र के रूप में करना चाहिए।

प्राण ही देवतात्मक है। वाग में अग्नि देवता का निवास है। चक्षु सूर्य है, मन चंद्रमा है श्रोत्र दिशाएं हैं। प्राण में इन सभी देवताओं की भावना करनी चाहिए। हिरण्यदन वैद नामक एक ऋषि ने तथा प्राण की देवता रूप से उपासना की थी। इस उपासना का जो विपुल फल उन्हें प्राप्त हुआ उसका वर्णन ऐतरेय आरण्यक में स्पष्ट शब्दों में किया गया है। प्राण ही ऋषि रूप है। ऋग्वेद के मंत्रों के दृष्टा अनेक ऋषि कहे गए हैं। इन सब ऋषियों की भावना प्राण में करनी चाहिए, क्योंकि प्राण ही इन मंत्र दृष्टा ऋषियों के आकार में विद्यमान है। प्राणी ही शयन के समय में वाग, चक्षु आदि इन्द्रियों के निगरान करने के कारण गृत्स कहलाता है। और रति के समय में वीर्य के विसर्जन में मद उत्पन्न करने के कारण अपान ही मद हुआ। अतः प्राण ओर अपान के संयोग को ही गृत्समद कहते हैं। प्राण ही विश्वामित्र क्योंकि इस प्राण देवता का यह समस्त विश्व भोग्य होने के कारण से मित्र । प्राण को देखकर वागद्दीमानी देवताओं ने कहा - यही हममे वाम वननीय,पूजनीय सेवनीय है क्योंकि यह हममे श्रेष्ठ है। इसी हेतु देवों में वाम होने से ही प्राण ही वामदेव है । प्राण ही अत्रि है क्योंकि इस प्राण ने समस्त विश्व को पाप से बचाया है। प्राण ही भरद्वाज है, गति संपन्न होने से मनुष्य के देह को वाज कहते हैं। प्राण इस शरीर मे प्रवेश कर उसकी रक्षा सतत किया करता है। प्राण ही ऋषिरूप है इसी कारण यह भारद्वाज है देवताओं ने प्राण को देख कर कहा था कि तुम वशिष्ठ हो क्योंकि इस शरीर में इंद्रियों के निवास करने का कारण प्राण ही है प्राण ही सबसे बढ़कर वास का निवास का हेतु है अतः यह वशिष्ठ हुआ इन वचनों से यही सिद्ध होता है कि प्राण ही ऋषि रूप है। अतः प्राण में इन विषयों की भावना करनी चाहिए तथा तद्रूप उपासना करनी चाहिए अन्य विषयों की भी भावना इसी प्रकार बतलाई गई है। जितनी ऋचाएं हैं , जितने वेद है जितने घोष हैं वह सब प्राण रूप हैं। प्राण को ही इन रूपों में समझना चाहिए तथा उसकी उपासना करनी चाहिए। प्राण की इन भिन्न-भिन्न रूपों तथा गुणों को जानकर तत्व रूप से उस की उपासना करनी चाहिए। ऊपर प्राण विद्या का जो एक परिचय दिया गया है उसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि प्राण की उपासना हमारे यहां अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही है। उपनिषद में तो इसके विपुल वर्णन उपलब्ध होते ही हैं, आरण्यकों में भी प्राण विद्या का प्रचुर वर्णन है। परंतु सच तो यह है कि संहिता के मंत्रों में भी इनके बहुत से निर्देश मिलते हैं। अतः इसके अध्यन के लिए ऋग्वेदस्त मंत्रों का इस दृष्टि से अध्ययन करना चाहिए तथा इस विद्या के उद्गम तथा विकास को ठीक-ठीक समझने का प्रयत्न करना चाहिए।