आधुनिक कालीन हिंदी कविता (छायावाद तक)/महादेवी वर्मा
विरह का जलजात जीवन विरह का जलजात[सम्पादन]
"विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात!
वेदना में जन्म करुणा में मिला आवास
अश्रु चुनता दिवस इसका; अश्रु गिनती रात;
जीवन विरह का जलजात!
आँसुओं का कोष उर, दृग अश्रु की टकसाल,
तरल जल-कण से बने घन-सा क्षणिक मृदुगात;
जीवन विरह का जलजात!
अश्रु से मधुकण लुटाता आ यहाँ मधुमास,
अश्रु ही की हाट बन आती करुण बरसात;
जीवन विरह का जलजात!
काल इसको दे गया पल-आँसुओं का हार
पूछता इसकी कथा निश्वास ही में वात;
जीवन विरह का जलजात!
जो तुम्हारा हो सके लीला-कमल यह आज,
खिल उठे निरुपम तुम्हारी देख स्मित का प्रात;
जीवन विरह का जलजात!"
व्याख्या[सम्पादन]
महादेवी वर्मा जी कहती है कि उनका जो जीवन है वह विरह रूपी मोती के समान है।
और उनका जन्म वेदना में हुआ है और उनका विस्तार करुणा में हुआ है। उनके जो मोती रूपी अश्रु है वह दिन रात अश्रु रूपी मोती को गिनने और चुनने में कट रहा है।
उनका जो जीवन है, विरह रूपी मोती के समान है।
महादेवी वर्मा जी कहती है कि की उनका हृदय आंसुओ का खजाना है और उस मोती रूपी आंसुओ का निर्माण हमारी आंखे ही कर रही है। महादेवी वर्मा जी अपने शरीर को बादल के समान बताते हुए कहती है कि उनका जो शरीर है वह बादल के समान क्षणिक है। जो तरल जल कड़ से बना है। और कहती की मेरा जीवन विरह रूपी मोती के समान है।
यहां महादेवी वर्मा जी कहती हैं कि बसन्त ऋतु को आनंद का प्रतिक मानती है और बरसात को करुणा का अर्थात सुख और दुःख दोनों की बात करती हैं।
यह मेरा जो जीवन है विरह रूपी मोती के समान है।
जो समय था मुझे मोती रूपी आंसू का हार पहना कर चला गया है। और इस कथा को सांस की हवा में पूछता है और चला जाता है। अर्थात उस दुःख की कथा को एक क्षण में पूछता है।
मेरा जीवन विरह रूपी मोती के समान है।
यह जो मेरा लीला स्वरूप अगर यह तुम्हरा हो सकता है तो तुम्हरी निरुपम सौन्दर्य को देख कर मेरी स्मित का प्रात अर्थात मेरी मुस्कान खिल उठेगी।
मेरा जीवन विरह रूपी मोती के समान है।
बीन भी हूँ...[सम्पादन]
"बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ!
नींद थी मेरी अचल निस्पन्द कण कण में,
प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पन्दन में,
प्रलय में मेरा पता पदचिन्ह जीवन में,
शाप हूँ जो बन गया वरदान बन्धन में,
कूल भी हूँ कूलहीन प्रवाहिनी भी हूँ!
नयन में जिसके जलद वह तृषित चातक हूँ,
शलभ जिसके प्राण में वह ठिठुर दीपक हूँ,
फूल को उर में छिपाये विकल बुलबुल हूँ,
एक हो कर दूर तन से छाँह वह चल हूँ;
दूर तुमसे हूँ अखण्ड सुहागिनी भी हूँ!
आग हूँ जिससे ढुलकते बिन्दु हिमजल के,
शून्य हूँ जिसको बिछे हैं पाँवड़े पल के,
पुलक हूँ वह जो पला है कठिन प्रस्तर में,
हूँ वही प्रतिबिम्ब जो आधार के उर में;
नील घन भी हूँ सुनहली दामिनी भी हूँ!
नाश भी हूँ मैं अनन्त विकास का क्रम भी,
त्याग का दिन भी चरम आसक्ति का तम भी
तार भी आघात भी झंकार की गति भी
पात्र भी मधु भी मधुप भी मधुर विस्मृत भी हूँ;
अधर भी हूँ और स्मित की चाँदनी भी हूँ!"
व्याख्या[सम्पादन]
मै वीणा भी हूं और उससे निकलने वाली झंकार भी हूं।
जिस समय इस संसार का प्रत्येक कण अस्पंदन हिन अवस्था में था उस समय मेरी नींद भी चेतना हीन अवस्था में थी।
जब संसार की जो प्रथम जागृति हुई उस समय मेरे अंदर भी चेतना की अनुभूति हुई।
महादेवी वर्मा जी कहती है कि अपने जीवन का जो पदचिह्न छोड़ कर चली जा रही है प्रलय में भी उसका ज्ञान करती रहेंगी।
कहती है कि मै वह शाप हूं जो प्रेम बंधन में बंध कर वरदान बन गई है।
कवित्री कहती है कि मै नदी की किनारा भी हूं और बिना किनारों की बहने वाली नदी भी हूं।
अर्थात महादेवी वर्मा जी कहती है कि मैं बंधनों से बंध कर भी मुक्त हूं।
मैं उस प्यासे पक्षी के समान हूं जो किसी विशेष नक्षत्र की जल का पान करता है।
मैं उस निष्ठुर दीपक के समान हूं जो पतंगे को अपने अग्नि में समाहित कर लेता है।
मैं उस व्याकुल बुलबुल के समान हूं जो अपने हृदय में फूल को छुपाए रहता है।
मैं वह छाया हूं अर्थात मेरे शरीर की छाया अपने शरीर से ही पृथक रह रही है।
यहां महादेवी वर्मा जी अपने अज्ञात प्रियतम के बारे मैं बताती हुई कहती हैं कि मै तुमसे दूर हूं लेकिन मैं सुहागिनी भी हूं।
मैं वह आग हूं जो ओस की बूंदों निकलते हैं।
मैं वह आकाश हूं
पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला[सम्पादन]
"पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला
घेर ले छाया अमा बन
आज कंजल-अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन
और होंगे नयन सूखे
तिल बुझे औ’ पलक रूखे
आर्द्र चितवन में यहां
शत विद्युतों में दीप खेला
अन्य होंगे चरण हारे
और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे
दुखव्रती निर्माण उन्मद
यह अमरता नापते पद
बांध देंगे अंक-संसृति
से तिमिर में स्वर्ण बेला
दूसरी होगी कहानी
शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी
आज जिस पर प्रलय विस्मित
मैं लगाती चल रही नित
मोतियों की हाट औ’
चिनगारियों का एक मेला
हास का मधु-दूत भेजो
रोष की भ्रू-भंगिमा पतझार को चाहे सहे जो
ले मिलेगा उर अचंचल
वेदना-जल, स्वप्न-शतदल
जान लो वह मिलन एकाकी
विरह में है दुकेला!"
व्याख्या[सम्पादन]
क्या पूजा क्या अर्चन रे![सम्पादन]
"क्या पूजन क्या अर्चन रे!
उस असीम का सुंदर मंदिर मेरा लघुतम जीवन रे!
मेरी श्वासें करती रहतीं नित प्रिय का अभिनंदन रे!
पद रज को धोने उमड़े आते लोचन में जल कण रे!
अक्षत पुलकित रोम मधुर मेरी पीड़ा का चंदन रे!
स्नेह भरा जलता है झिलमिल मेरा यह दीपक मन रे!
मेरे दृग के तारक में नव उत्पल का उन्मीलन रे!
धूप बने उड़ते जाते हैं प्रतिपल मेरे स्पंदन रे!
प्रिय प्रिय जपते अधर ताल देता पलकों का नर्तन रे!"
व्याख्या [सम्पादन]
यहाँ महादेवी वर्मा जी कहना चाहती हैं कि क्या पूजा क्या अर्चना।
वह अपने समग्र जीवन को अज्ञात प्रियतम का सुंदर मंदिर माना है और कहती है की मेरी साँसे नित अपने प्रियतम का अभिनंदन करती रहतीहै। और मेरे आंशु अपने प्रियतम के धूल सने से चरणों को धोने के लिए उमड़ आए है। वह कहती है की मेरे रोये प्रियतम के स्वागत के लिए पुलकित हो गए है और मेरी पीड़ा चन्दन के समान। वर्मा जी कहती है की मेरा मन अपने प्रियतम के लिये दीपक के समान झिलमिल जलता रहता है।
जाग तुझको दूर जाना[सम्पादन]
"चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!
जाग तुझको दूर जाना!
अचल हिमगिरि के हॄदय में आज चाहे कम्प हो ले!
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले;
आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया
जाग या विद्युत शिखाओं में निठुर तूफान बोले!
पर तुझे है नाश पथ पर चिन्ह अपने छोड़ आना!
जाग तुझको दूर जाना!
बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले?
पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले?
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबो देंगे तुझे यह फूल दे दल ओस गीले?
तू न अपनी छाँह को अपने लिये कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!
वज्र का उर एक छोटे अश्रु कण में धो गलाया,
दे किसे जीवन-सुधा दो घूँट मदिरा माँग लाया!
सो गई आँधी मलय की बात का उपधान ले क्या?
विश्व का अभिशाप क्या अब नींद बनकर पास आया?
अमरता सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?
जाग तुझको दूर जाना!
कह न ठंढी साँस में अब भूल वह जलती कहानी,
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी;
हार भी तेरी बनेगी माननी जय की पताका,
राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी!
है तुझे अंगार-शय्या पर मृदुल कलियां बिछाना!
जाग तुझको दूर जाना!"
व्याख्या [सम्पादन]
जाग तुझको दूर जाना 1. चिर सजग आँखें उनींदी -------------अपने लिये कारा बनाना!
सन्दर्भ - प्रस्तुत काव्यांश आधुनिक युग की मीरा और छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा की कविता ‘जाग तुझको दूर जाना’ से अवतरित है। उनकी यह कविता काव्य-संग्रह ‘सांध्य गीत’ (1936) में संग्रहित है।
प्रसंग - यह कविता सामान्य रूप से संबोधन या अपील की कविता है। इसमें प्रेरणा दी गयी है कि मनुष्य को निराश नहीं होना चाहिए। सच्ची आत्मप्रेरणा से भरकर हमें उत्साहित रहना चाहिए। यह मान लेना चाहिए कि विपरीत परिस्थितियों में भी हौंसला बनाए रखने पर मनुष्य का कल्याण होता है।
व्याख्या - महादेवी प्रेरणा देती हुई इस कविता में कहती हैं कि तुम्हें दूर तक जाना है, अर्थात् तुम्हारा उद्देश्य बड़ा है। तुम्हें महान उपलब्धियों से जुड़ना है। मैं देख रही हूँ कि हमेशा सजग रहनेवाली तुम्हारी आँखें आज नींद से अलसायी हुई लग रही हैं। आज तुम्हारी वेश-भूषा आलस्य से अस्त-व्यस्त क्यों हो गयी है? महादेवी उत्साह की बहुत बड़ी कसौटी सामने रख रही हैं। वे कहती हैं कि आज परिस्थिति विकट और विपरीत हो जाए तब भी घबराना नहीं है। हो सकता है कि प्रलय की घड़ी आ जाए और अचल-अडिग रहनेवाले हिमालय पर्वत के हृदय में कंपन हो जाए या आकाश ठिठककर प्रलय के आँसुओं को लेकर जार-जार बरस पड़े या अंधकार की घनी छाया जगत् के संपूर्ण आलोक को पी जाए या आकाशीय बिजली की चमक के साथ भयानक तूफान गरज उठे। मगर तुम्हें घबराना नहीं है। इन विपरीत परिस्थितियों में भी तुम्हें अपने सृजन की ताकत का प्रदर्शन करना है। विनाश से त्रस्त परिवेश में भी सृजन के अपने चिह्नों को बनाने का प्रयास तुम्हें करना है। इसके लिए जरूरी है कि तुम जागरूक बने रहो! जीवन के सृजन मार्ग में केवल विकट और भयानक लगनेवाली चीजें ही बाधक नहीं होती हैं, बल्कि मनोहर लगनेवाली कुछ चीजों से भी सावधान रहने की जरूरत है। महादेवी रूपक के माध्यम से कहती हैं कि मोम के सजीले बंधन और तितलियों के रँगीले पंख भी मार्ग भटकाने का काम करते हैं ख्क्या तुम इनके धोखे में आ जाओगे? रास्ते में भौरों की मधुर गुनगुन सुनायी पड़ेगी, मगर इसके आगे विश्व के क्रंदन को मत भुला देना! ओस से भीगी हुई फूलों की पंखुड़ियों में अपने को डूबने मत देना! देखो, कभी-कभी हम अपनी छाया की ही कैद में बँध जाते हैं द्यभ्रम और यथार्थ के अंतर को समझनेवाली दृष्टि पैदा करना! तभी तुम आगे बढ़ सकोगे!
काव्य-सौष्ठव/विशेष 1. यह जागरण गीत है। 2. अपने पथ पर सक्रिय बने रहने की अपील इस कविता में की गयी है। 3. बाहरी बाधाओं के साथ-साथ अपनी कमजोरियों से भी संघर्ष करते रहने की जरूरत पड़ती है। 4. मृत्यु के भय को मन से निकालकर ही कल्याण-पथ पर चला जा सकता है। 5. तत्सम शब्दावली का प्रयोग किया गया है तथा भाषा भावाभिव्यक्ति में सफल है।
2. वज का उर एक छोटे अश्रु-कण -------------मृदुल कलियाँ बिछाना!
सन्दर्भ - प्रस्तुत काव्यांश आधुनिक युग की मीरा और छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा की कविता ‘जाग तुझको दूर जाना’ से अवतरित है। उनकी यह कविता काव्य-संग्रह ‘सांध्य गीत’ (1936) में संग्रहित है।
प्रसंग - यह कविता सामान्य रूप से संबोधन या अपील की कविता है। इसमें प्रेरणा दी गयी है कि मनुष्य को निराश नहीं होना चाहिए। सच्ची आत्मप्रेरणा से भरकर हमें उत्साहित रहना चाहिए। यह मान लेना चाहिए कि विपरीत परिस्थितियों में भी हौंसला बनाए रखने पर मनुष्य का कल्याण होता है।
व्याख्या - कुछ और रूप गढ़ती हुई महादेवी कहती हैं कि तुमने वज की तरह सशक्त और मजबूत हृदय पाया है। इसे भाव-विगलित होकर आँसुओं से गला मत देना अर्थात् भावुक होकर अपने इरादों को कमजोर मत कर लेना। अपने जीवन के अमृत को किसी की दो घूँट मदिरा के आकर्षण में न््यौछावर मत कर देना। तुम्हारे भीतर उत्साह की प्रचण्ड आँधी बहती है, उसे मलय की सुखद हवा के सहारे सुला मत देना। तुम जागरण के दूत हो इसलिए नींद के वशीभूत मत हो जाना। यह नींद विश्व के लिए अभिशाप बन जाएगी। याद रखो कि तुम अमरता के पुत्र हो, तुम्हें अपने हृदय में मृत्यु के भय को जगह देने की जरूरत नहीं है। कविता के अंत में महादेवी मनुष्य को साधक के भाव से जीवन को देखने का आह्वान करती हुई कहती हैं कि अफसोस के साथ मत जिओ। ठंडी आहें भरकर बात मत करो! संघर्ष को भूलने के बहाने मत बनाओ। संघर्ष की ज्वलंत स्मृतियाँ तुम्हें ताकत देती रहेंगी। हृदय में बसी हुई संघर्ष-गाथा तुम्हारी आँखों में करूणा का संचार करेगी। इस मार्ग पर चलते हुए तुम्हें पराजय का सामना भी करना पड़ सकता है, मगर याद रखो कि संघर्षरत रहने के कारण तुम्हारी हार भी तुम्हारी विजय की पताका बनेगी। पतंग का जलकर राख हो जाना एक क्षणिक घटना है और दीपक से उसके प्रेम की कहानी एक अमर कहानी है। कष्ट से भरे इस संसार की अंगार-शय्या पर तुम्हें कोमल कलियों को बिछाना है। यह सब तभी सम्भव है जब तुम जागरण के भाव से जिओगे और कर्मरत रहोगे!
काव्य-सौष्ठव/विशेष 1. यह जागरण गीत है। 2. अपने पथ पर सक्रिय बने रहने की अपील इस कविता में की गयी है। 3. बाहरी बाधाओं के साथ-साथ अपनी कमजोरियों से भी संघर्ष करते रहने की जरूरत पड़ती है। 4. मृत्यु के भय को मन से निकालकर ही कल्याण-पथ पर चला जा सकता है। 5. तत्सम शब्दावली का प्रयोग किया गया है तथा भाषा भावाभिव्यक्ति में सफल है।
रे पपीहे पी कहाँ[सम्पादन]
"रे पपीहे पी कहाँ?
खोजता तू इस क्षितिज से उस क्षितिज तक शून्य अम्बर,
लघु परों से नाप सागर;
नाप पाता प्राण मेरे
प्रिय समा कर भी कहाँ?
हँस डुबा देगा युगों की प्यास का संसार भर तू,
कण्ठगत लघु बिन्दु कर तू!
प्यास ही जीवन, सकूँगी
तृप्ति में मैं जी कहाँ?
चपल बन बन कर मिटेगी झूम तेरी मेघवाला!
मैं स्वयं जल और ज्वाला!
दीप सी जलती न तो यह
सजलता रहती कहाँ?
साथ गति के भर रही हूँ विरति या आसक्ति के स्वर,
मैं बनी प्रिय-चरण-नूपुर!
प्रिय बसा उर में सुभग!
सुधि खोज की बसती कहाँ?"
व्याख्या [सम्पादन]
कहाँ से आए बादल काले[सम्पादन]
"कहाँ से आये बादल काले?
कजरारे मतवाले!
शूल भरा जग, धूल भरा नभ,
झुलसीं देख दिशायें निष्प्रभ,
सागर में क्या सो न सके यह
करुणा के रखवाले?
आँसू का तन, विद्युत् का मन,
प्राणों में वरदानों का प्रण,
धीर पदों से छोड़ चले घर,
दुख-पाथेय सँभाले!
लाँघ क्षितिज की अन्तिम दहली,
भेंट ज्वाल की बेला पहली,
जलते पथ को स्नेह पिला
पग पग पर दीपक वाले!
गर्जन में मधु-लय भर बोले,
झंझा पर निधियाँ धर डोले,
आँसू बन उतरे तृण-कण ने
मुस्कानों में पाले!
नामों में बाँधे सब सपने,
रूपों में भर स्पन्दन अपने
रंगों के ताने बाने में
बीते क्षण बुन डाले!
वह जड़ता हीरों से डाली,
यह भरती मोती से थाली,
नभ कहता नयनों में बस
रज कहती प्राण समा ले।"