जनपदीय साहित्य सहायिका/कठपुतली/

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जनपदीय साहित्य सहायिका/कठपुतली

कठपुतली का खेल अत्यंत प्राचीन नाटकीय खेल है, जो समस्त सभ्य संसार में प्रशांत महासागर के पश्चिमी तट से पूर्वी तट तक-व्यापक रूप प्रचलित रहा है। यह खेल गुड़ियों अथवा पुतलियों (पुत्तलिकाओं) द्वारा खेला जाता है। गुड़ियों के नर मादा रूपों द्वारा जीवन के अनेक प्रसंगों की, विभिन्न विधियों से, इसमें अभिव्यक्ति की जाती है और जीवन को नाटकीय विधि से मंच पर प्रस्तुत किया जाता है। कठपुतलियाँ या तो लकड़ी की होती हैं या पेरिस-प्लास्टर की या काग़ज़ की लुग्दी की। उसके शरीर के भाग इस प्रकार जोड़े जाते हैं कि उनसे बँधी डोर खींचने पर वे अलग-अलग हिल सकें।


इतिहास कठपुतली का इतिहास बहुत पुराना है। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में पाणिनी की अष्टाध्यायी में 'नटसूत्र' में 'पुतला नाटक' का उल्लेख मिलता है। कुछ लोग कठपुतली के जन्म को लेकर पौराणिक आख्यान का ज़िक्र करते हैं कि शिवजी ने काठ की मूर्ति में प्रवेश कर पार्वती का मन बहलाकर इस कला की शुरुआत की थी। कहानी ‘सिंहासन बत्तीसी’ में भी विक्रमादित्य के सिंहासन की 'बत्तीस पुतलियों' का उल्लेख है। सतवर्धन काल में भारत से पूर्वी एशिया के देशों इंडोनेशिया, थाईलैंड, म्यांमार, जावा, श्रीलंका आदि में इसका विस्तार हुआ। आज यह कला चीन, रूस, रूमानिया, इंग्लैंड, चेकोस्लोवाकिया, अमेरिका व जापान आदि अनेक देशों में पहुँच चुकी है। इन देशों में इस विधा का सम-सामयिक प्रयोग कर इसे बहुआयामी रूप प्रदान किया गया है। वहाँ कठपुतली मनोरंजन के अलावा शिक्षा, विज्ञापन आदि अनेक क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जा रहा है।

जैसलमेर के बाज़ार में कठपुतलियाँ

भारत में पारंपरिक पुतली नाटकों की कथावस्तु में पौराणिक साहित्य, लोककथाएँ और किवदंतियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज, हीर-रांझा, लैला-मजनूं और शीरीं-फ़रहाद की कथाएँ ही कठपुतली खेल में दिखाई जाती थीं, लेकिन अब साम-सामयिक विषयों, महिला शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, परिवार नियोजन के साथ-साथ हास्य-व्यंग्य, ज्ञानवर्धक व अन्य मनोरंजक कार्यक्रम दिखाए जाने लगे हैं।

कठपुतलियों का इस्तेमाल सम्प्रेषण के लिये काफ़ी पहले से हो रहा है। हमारे देश में तो यह कला लगभग दो हज़ार वर्ष पुरानी है। पहले नाटकों को प्रस्तुत करने का एक मात्र माध्यम कठपुतलियाँ ही थीं। आज तो हमारे पास आधुनिक तकनीक वाले कई माध्यम रेडियो, टी.वी, आधुनिक तकनीकी सुविधाओं वाली रंगशालायें, मंच सभी कुछ है। लेकिन पहले या तो लोक परंपराओं की नाट्य शैलियाँ थीं या फिर कठपुतलियाँ।

भारत की पुतली कला शैलियाँ-

(1) धागा पुतली इसमें अनेक जोड़युक्त अंगों का धागों द्वारा संचालन किया जाता है, जिस कारण ये पुतलियाँ काफी लचीली होती हैं। राजस्थान, ओडिशा, कर्नाटक और तमिलनाडु में धागा पुतली कला पल्लवित हुई। राजस्थान की कठपुतली, ओडिशा की कुनदेई, कर्नाटक की गोम्बयेट्टा तथा तमिलनाडु की बोम्मालट्टा धागा पुतली कला के प्रमुख उदाहरण हैं।

(2) छाया पुतली छाया पुतलियाँ चपटी होती हैं और चमड़े से बनाई जाती हैं। इसमें पर्दे को पीछे से प्रदीप्त किया जाता है और पुतली का संचालन प्रकाश स्रोत तथा पर्दे के बीच से किया जाता है। ये छायाकृतियाँ रंगीन भी हो सकती हैं। छाया पुतली की यह परंपरा ओडिशा, केरल, आंध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में प्रचलित है। तोगलु गोम्बयेट्टा (कर्नाटक), तोलु बोम्मालट्टा (आंध्र प्रदेश), रावण छाया (ओडिशा) आदि छाया पुतलियों के प्रसिद्ध उदाहरण हैं।

(3) छड़ पुतली छड़ पुतली वैसे तो दस्ताना पुतली का ही अगला चरण है, लेकिन यह उससे काफी बड़ी होती है तथा नीचे स्थित छड़ों (डंडे) पर आधारित रहती है और उन्हीं से संचालित होती है। पुतली कला का यह रूप वर्तमान समय में पश्चिम बंगाल तथा ओडिशा में पाया जाता है। बंगाल का पुत्तल नाच, बिहार का यमपुरी आदि छड़ पुतली के उदाहरण हैं। ओडिशा की छड़ पुतलियाँ बहुत छोटी होती हैं। जापान की ‘बनराकू’ की तरह पश्चिम बंगाल के नदिया ज़िले में आदमकद पुतलियाँ होती थीं, किंतु यह रूप अब विलुप्त हो गया है।

(4) दस्ताना पुतली इसे भुजा, कर या हथेली पुतली भी कहा जाता है। इसके संचालन हेतु पहली उँगली मस्तक पर रखी जाती है तथा मध्यमा और अंगूठा पुतली की दोनों भुजाओं में; इस प्रकार अंगूठे और दो उँगलियों की सहायता से दस्ताना पुतली सजीव हो उठती है। भारत में दस्ताना पुतली की परंपरा उत्तर प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और केरल में लोकप्रिय है। पावाकूथू (केरल) केरल में पारंपरिक पुतली नाटकों को पावाकूथू कहा जाता है। इसका उद्भव 18वीं शताब्दी में वहाँ के प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य नाटक कत्थकली के पुतली-नाटकों पर पड़ने वाले प्रभाव के कारण हुआ। केरल के ये पुतली-नाटक रामायण तथा महाभारत की कथाओं पर आधारित हैं।

भारतीय राज्यों के प्रमुख कठपुतली परंपराओं की सूची-

भारतीय संस्कृति का प्रतिबिंब लोककलाओं में झलकता है। इन्हीं लोककलाओं में कठपुतली कला भी शामिल है। यह देश की सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ-साथ प्रचार-प्रसार का सशक्त माध्यम भी हैं। कठपुतली कला इंसानों की सबसे उल्लेखनीय और सरल आविष्कारों में से एक है। इस कला का इतिहास बहुत पुराना है। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में पाणिनी की अष्टाध्यायी में 'नटसूत्र' में ' कठपुतली नाटक' का उल्लेख मिलता है। कहानी ‘सिंहासन बत्तीसी’ में भी विक्रमादित्य के सिंहासन की 'बत्तीस पुतलियों' का उल्लेख है।

आज यह कला चीन, रूस, रूमानिया, इंग्लैंड, चेकोस्लोवाकिया, अमेरिका व जापान आदि अनेक देशों में पहुँच चुकी है। इन देशों में इस विधा का सम-सामयिक प्रयोग कर इसे बहुआयामी रूप प्रदान किया गया है। वहाँ कठपुतली मनोरंजन के अलावा शिक्षा, विज्ञापन आदि अनेक क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जा रहा है। 1. आंध्र प्रदेश

थोलु बोम्मालता (छाया कठपुतली) और कोय्या बोम्मालता (धागा कठपुतली)

2. असम

पुतल नाच (यह धागा और छड़ कठपुतली का संयोजन है)

4. बिहार

यमपुरी (छड़ कठपुतली)

5. कर्नाटक

गोम्बा अट्टा (धागा कठपुतली) और तोगालु (छाया कठपुतली)

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6. केरल

ओअवा ज्यत्गेर (दस्‍ताना कठपुतली) और तोल पब्वाकुथू (छाया कठपुतली)

7. महाराष्ट्र

कलासुत्री बहुल्य (धागा कठपुतली) और चम्माद्याचे बहुल्य (छाया कठपुतली)

8. ओडिशा

कंडी नाच (दस्‍ताना कठपुतली), रबाना छाया (छाया कठपुतली), काठी कुण्डी (छड़ कठपुतली), और गोपलीला कमधेरी (धागा कठपुतली)

9. राजस्थान

कठपुतली (धागा कठपुतली)

10. तमिलनाडु

बोम्मालात्तम (धागा कठपुतली) और बोम्मालात्तम (छाया कठपुतली)

11. पश्चिम बंगाल

पुतल नाच (छड़), तरेर या सुतोर पुतुल (धागा) और बनेर पुतुल (दस्‍ताना)

कठपुतली कला विश्व के प्राचीनतम कलाओं में से एक है जिसे रंगमंच प्रदर्शित किया जाता है। इस कला में विभिन्न प्रकार की गुड्डे गुड़ियों, जोकर आदि पात्रों के रूप में बनाया जाता है। कठपुतली नाटकों की कथावस्‍तु पौराणिक साहित्‍य, दंत कथाओं और किंवदंतियों से प्रेरित होते हैं। आज के आधुनिक समय में सारे विश्‍व के शिक्षाविदों ने संचार माध्‍यम के रूप में कठपुतली कला की उपयोगिता के महत्‍व को अनुभव किया है।