भारतीय इतिहास का विकृतीकरण/भारत के इतिहास में विकृतियाँ कीं, किसने?

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परतंत्रता की स्थिति चाहे व्यक्ति की हो या परिवार अथवा राष्ट्र की, सभी के लिए दुःखदायी होती है। पराधीन व्यक्ति/परिवार/राष्ट्र अपनी गौरव-गरिमा और महत्ता, सभी कुछ भूल जाता है या भूल जाने को बाध्य कर दिया जाता है। भारत के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। 1000 वर्ष की पराधीनता के काल में वह अपना स्वत्व और स्वाभिमान ही नहीं अपना महत्त्व भी भूल गया था।

परकीय सत्ताओं का इतिहास-लेखन में दखल[सम्पादन]

परतंत्रता के काल में परकीय सत्ताओं द्वारा सदा ही अपने अधीनस्थ देश का चाहे व्यक्ति हो या समाज, धर्म हो या संस्कृति, साहित्य हो या इतिहास,ज्ञान हो या विज्ञान, सभी में तरह-तरह की विकृतियाँ, विसंगतियाँ, विषमताएँ, दुर्बलताएँ और कमियाँ पैदा कर दी जाती हैं या करा दी जाती हैं। भारत में आईं परकीय सत्ताएँ भी इसमें अपवाद नहीं रहीं। मुसलमानों ने अपने शासनकाल में यहाँ ऐसी अनेक नीतियाँ, रीतियाँ और परम्पराएँ चलाईं जिनके कारण देश में उस समय प्रचलित पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं की ही नहीं, यहाँ के साहित्य और इतिहास की भी दिशाएँ बदल गईं। अंग्रेजी सत्ता द्वारा भी अपना वर्चस्व स्थापित हो जाने के बाद मुस्लिम सत्ता की भाँति देश की शिक्षा पद्धति में बदलाव लाया गया। शिक्षा में लाए गए बदलाव के फलस्वरूप संस्कृत भाषा के विकास में रुकावटें आती गईं। फलतः उसमें साहित्य-निर्माण और विविध प्रकार के वैज्ञानिक आदि विषयों में लेखन की अविच्छिन्न धारा अवरुद्ध होती गई। परिणामस्वरूप भारत की शिक्षा, साहित्य, इतिहास, ज्ञान-विज्ञान आदि के लेखन में ह्रास की प्रक्रिया शुरू हो गईं और कालान्तर में इन विषयों के विद्वानों की संख्या भी न्यून से न्यूनतर होती चली गई। ऐसी स्थिति में इतिहास विषय के महत्त्वको समझने और समझाने वालों का लोप हो जाना कोई विशेष आश्चर्य की बात नहीं रही। यही कारण रहा कि उस काल में कल्हण विरचित ‘राजतरंगिणी‘ जैसी उत्कृष्ट ऐतिहासिक रचना भी भारत में वह महत्त्व न पा सकी, जिसकी वह अधिकारिणी थी।

जर्मन और अंग्रेज लेखकों में भारत के संदर्भ में लिखने की होड़[सम्पादन]

अंग्रेजी सत्ता द्वारा पोषित आधुनिक रूप में भारत के प्राचीन साहित्य, समाज और संस्कृति के इतिहास-लेखन की प्रक्रिया में मुख्य रूप से जर्मन और अंग्रेज विद्वानों ने आगे बढ़कर अपने-अपने लक्ष्यों और अपने-अपने दृष्टिकोणों से प्रभावित रहकर इस क्षेत्र में योगदान किया। किसी ने संस्कृत साहित्य का इतिहास लिखा, किसी ने संस्कृत भाषा का इतिहास लिखा, किसी ने भारत का इतिहास लिखा, किसी ने भारतीय संस्कृति का इतिहास लिखा और किसी ने भारतीय रचनाओं का अनुवाद किया। इन आधुनिक पाश्चात्य लेखकों के द्वारा लिखे गए साहित्य के परिमाणको देखने से ऐसा लगता है कि उस समय जर्मनी और इंग्लैण्ड के विद्वानों में भारत के संदर्भ में लिखने की होड़ सी लग गई थी किन्तु उनके ग्रन्थों को देखने से ऐसा लगता है कि उनमें से अधिकांश ने इस क्षेत्र में हल्दी की एक-एक गांठ लेकर पंसारी बनने का ही प्रयास किया है। कारण उनको भारतीय जीवन की विविधता, भारतीय साहित्य की गहनता और भारतीय इतिहास की व्यापकता का पूर्ण तो क्या सामान्य परिचय भी नहीं था। यही कारण रहा कि उस काल में रचित पाश्चात्य विद्वानों की रचनाओं में, चाहेवे संस्कृत भाषा के इतिहास की हों या साहित्य के इतिहास की अथवा भारतीय समाज या सभ्यता के इतिहास की,किसी में भी विषय का सही मूल्यांकन प्रस्तुत नहीं किया जा सका।

संस्कृत साहित्य और भारतीय संस्कृति के प्रचार से ईसाई पादरियों में बौखलाहट[सम्पादन]

यूरोप के विभिन्न विद्वान जैसे-जैसे संस्कृत भाषा और उसके साहित्य के सम्पर्क में आते गए वे न केवल इनके वरन भारतीय संस्कृति के महत्त्व, गरिमा और महत्ता से परिचित होते गए फलतः वे इनकी ओर बड़ी उत्सुकता तथा तेजी से बढ़े। धीरे-धीरे यूरोप में संस्कृत भाषा, संस्कृत साहित्य और भारतीय संस्कृति की ज्ञान गरिमा का प्रकाश फैलने लगा। प्रारम्भ में तो यह बात वहाँ के यहूदी और ईसाई समुदायों ने अच्छे रूप में ली किन्तु जैसे-जैसे इनका प्रचार अधिक मात्रा में होने लगा तो वहाँ के ईसाई पादरियों के कान खड़े होते गए। उन्हें अपने पैरों के नीचे से जमीन खिसकती दिखाई दी क्योंकि ईसाई पादरियों ने सत्ता के बल पर धर्म आदि के संदर्भ में यूरोप में तरह-तरह की झूठी बातों को सत्य का जामा पहना कर बड़े जोर-शोर से प्रचारित किया हुआ था, यथा- ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण 4004 ई. पू. में किया था और इससे पूर्व कहीं भी कुछ भी नहीं था, बाइबिल में व्यक्त विचार ही सर्वश्रेष्ठ हैं, आदि-आदि। यही नहीं, ईसाई धर्म वालों ने यह भी प्रचारित किया हुआ था कि सृष्टि निर्माण के काल की बात को झूठा मानने वालों को सजा दी जाएगी और सजा मौत भी हो सकती थी। जबकि संस्कृत साहित्य सृष्टि के निर्माण को लाखों-लाखों वर्ष पूर्व ले जा रहा था और इससे उनकी बातें झूठी सिद्ध हो रही थीं। इसीलिए संस्कृत साहित्य और भारतीय संस्कृति तथा इतिहास की पुरातनताकी बात उन्हें बहुत खलने लगी।

इतिहास को विकृत करने वाले जर्मनी और इंग्लैण्ड के लेखक[सम्पादन]

यूरोप में संस्कृत भाषा और उसके साहित्य तथा भारतीय संस्कृति का अधिक मात्रा में प्रचार हो जाने से वहाँ के ईसाई धर्म के प्रचारकों में खलबलीमच गई और उन्होंने इसके प्रतिकार के लिए सारे यूरोप में ही, विशेषकर जर्मनी और इंग्लैण्ड में, अनेक लेखक तैयार किए। इनमें से जर्मनी के फ्रैडरिक मैक्समूलर, रुडाल्फ रॉथ, अल्वर्ट वेबर, एम. विंटर्निट्स, फ्लीट, ए स्टेन तथा इंग्लैण्ड के विलियम जोन्स, मैकाले, मिल, मैलकम, विल्फोर्ड, वेंटले, विल्सन, एल्फिन्सटन, कीथ, मैक्डानल अधिक उल्लेखनीय रहे। इन सभी ने अपने-अपने ढंग से भारत के इतिहास, संस्कृति और साहित्य को बिगाड़ने का प्रयास किया और खूब किया। इन लोगों ने भारतीय तर्कों को कुतर्कों में, ज्ञान को अज्ञान में, सत्य को असत्य में, प्रमाणों को कुप्रमाणों में बदल दिया और हर प्रकार से सब के मन में यही बात बैठाने का प्रयास किया कि प्राचीन काल में भारत में कुछ भी नहीं था। यहाँ के निवासी परस्पर लड़ते-झगड़ते रहते थे और वे ज्ञान-विज्ञान विहीन थे।

उक्त लेखकों के अलावा भी प्रिंसेप, जेम्स लीगे, डॉ.यूले, लॉसन, मैकालिफ आदि अन्य अनेक लेखक भी आगे आए, जिन्होंने अपनी-अपनी रचनाओं केमाध्यम से भारत के इतिहास और साहित्य के क्षेत्रों में घुसपैठ करके उसे अधिक से अधिक भ्रष्ट करके अप्रामाणिक, अविश्वसनीय और अतिरंजित की कोटि में डालने का प्रयास किया।

इतिहास के विकृतीकरण में धन-लोलुप संस्कृतज्ञ भी पीछे नहीं रहे[सम्पादन]

अंग्रेजी सत्ता यह भली प्रकार से जान चुकी थी कि जर्मनीअथवा इंग्लैण्ड के लोग चाहे जितनी मात्रा में सत्ता-समर्थक बातें कहते रहें, वे भारतीयोंके गले में तब तक नहीं उतरेंगी, जब तक यहीं के लोग वैसा नहीं कहेंगे। अतः उन्होंने यहीं के अनेक धन-पद लोलुप संस्कृत के विद्वानों को धन, पद और प्रतिष्ठा का लालच दिखाकर पाश्चात्य विद्वानों द्वारा कही गई बातों को ही उनके अपने लेखन में दोहरवाकर अपनी बातों की पुष्टि कराने के लिए तैयार कर लिया और वे प्रसन्नतापूर्वक ऐसा करने लगे। इनमें मिराशी, कपिल देव, सुधाकर द्विवेदी, विश्वबन्धु, शिवशंकर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। डॉ. पाण्डुरंग वामन काणे, डॉ. लक्ष्मण स्वरूप, डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी भी इस दृष्टि से किसी तरह से पीछे नहीं रहे।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि भारत का इतिहास बिगाड़ने में मात्र जर्मनी और इंग्लैण्ड के विदेशी विद्वानों का ही नहीं, भारत के अपने विद्वानों, विशेषकर संस्कृत के, का भी योगदान रहा है। �