भाषा शिक्षण/मातृभाषा, द्वितीय भाषा और विदेशी भाषा के शिक्षण मे अंतर/

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‘भाषा शिक्षण’ के तीन आयाम हैं:–

1. मातृभाषा के रूप में शिक्षण

2. द्वितीय अथवा अन्य भाषा के रूप में शिक्षण

3. विदेशी भाषा के रूप में शिक्षण

जन्म लेने के बाद मानव जो प्रथम भाषा सीखता है उसे उसकी मातृभाषा कहते हैं। मातृभाषा, किसी भी व्यक्ति की सामाजिक एवं भाषाई पहचान होती है। मातृभाषा यानी जिस भाषा मे माँ सपने देखती है या विचार करती है वही भाषा उस बच्चे की मातृभाषा होगी। इसलिए इसे मातृभाषा कहते है, पितृभाषा नहीं।मातृ भाषाशिक्षण के समय शिक्षार्थी अपनी भाषा का आधारभूत ज्ञान प्राप्त कर चुका होता है जबकि द्वितीय एवं विदेशी भाषाशिक्षण के अधिगम में शिक्षार्थी की मातृभाषा की ध्वनि एवं व्याकरणिक व्यवस्थाओं की सीखी हुई आदतें व्याघात पैदा करती हैं। मातृभाषा की अर्जित भाषिक आदतें भाषा-अधिगम में बाधा पहुँचाती हैं। अन्य भाषाशिक्षण के दो भेद माने जा सकते हैं - 1. द्वितीय भाषा 2. विदेशी भाषा। इसे अन्य भाषाशिक्षण के रूप में जब हिन्दी शिक्षण पर विचार करते हैं तो द्वितीय भाषा तथा विदेशी भाषाशिक्षण का मुख्य अन्तर यह है कि भारत के हिन्दीतर भाषियों तथा हिन्दी भाषियों के बीच सामाजिक सम्पर्क होते रहने के कारण उनमें परस्पर सांस्कृतिक एवं भाषिक एकता के सूत्र विद्यमान हैं जबकि विदेशी भाषियों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि अलग होने के कारण उनको हिन्दी भाषा के सामाजिक एवं सांस्कृतिक संदर्भों को भी सिखाने की जरूरत होती है। शिक्षार्थी की मातृभाषा की अपेक्षा से द्वितीय भाषाशिक्षण और विदेशी भाषाशिक्षण दोनों ही इतर अथवा अन्य हैं। यह भी कहा जा सकता है कि द्वितीय एवं विदेशी भाषा दोनों ही मातृभाषा की तुलना में अन्यभाषा हैं।

1.मातृभाषा के रूप में शिक्षण

एक बच्चे का लालन-पोषण जिस परिवार में होता है, वह उस परिवार के सदस्यों की भाषा को सहज रूप में सीख लेता है। सामान्य रूप से पाँच वर्ष की आयु का बालक अपनी माँ, परिवार के सदस्यों, मित्रों तथा मिलन-जुलने वालों के बीच रहकर अनौपचारिक रूप से मातृभाषा को बोलना सीख लेता है। जब वह किसी विद्यालय में पढ़ने के लिए प्रवेश लेता है तो वहाँ उसको उसकी मातृभाषा के भाषा-क्षेत्र की मानक भाषा का उच्चारण, पढ़ना और लिखना सिखाया जाता है।यह सर्वमान्य है कि प्रत्येक व्यक्ति की भाषिक दक्षता विदेशी भाषा की अपेक्षा मातृभाषा में अधिक होती है। इसी कारण मातृभाषा के द्वारा किसी विषय को अधिक आसानी से समझा जा सकता है और उसके द्वारा विचार की अभिव्यक्ति अधिक प्रभावपूर्ण ढंग से की जा सकती है। सम्प्रति, मैं हिन्दी माध्यम से ज्ञान विज्ञान के विभिन्न विषयों का विश्वविद्यालयीन स्तर पर शिक्षा प्राप्त करने वाले शिक्षार्थियों की भाषिक दक्षताओं की अभिवृद्धि की समस्याओं और उनके समाधान के सम्बंध में निवेदित करना चाहता हूँ। इस तथ्य पर आम सहमति है कि विश्वविद्यालयीन स्तर पर ज्ञानविज्ञान की अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा का विशिष्ट रूप होता है।इसी कारण शिक्षा नीति इस प्रकार की होनी चाहिए जिससे छात्र अपनी मातृभाषा के विशिष्ट रूप को सीख सकें तथा उसमें अपेक्षित सक्षम हो सकें|[१]

2.द्वितीय और विदेशी भाषा के रूप शिक्षण

भाषा सम्प्रेषण का प्रभावशाली माध्यम है। इसी माध्यम से मानव समाज में अपने विचारों और भावों को सम्प्रेषित करता है। भाषा समस्त मानसिक व्यापारों, मनोभावों की अभिव्यक्ति का साधन है। भाषा सामाजिक संगठन, सामाजिक मान्यताओं और सामाजिक व्यवहार के विकास का एकमात्र साधन है। अत: भाषा-शिक्षण राष्ट्र की अभिवृद्धि के लिए अत्यावश्यक है। राष्ट्र के विकास में भाषा-शिक्षण महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।भाषा-शिक्षण के अंतर्गत भाषा के नियमीकरण, परिमार्जन, परिष्करण व मानकीकरण की दृष्टि से व्याकरण का महत्व है। अतः व्याकरण की शिक्षा भाषा-शिक्षण की एक महत्वपूर्ण कड़ी मानी जाती है। प्रत्येक भाषा की अपनी व्यवस्थाएं होती है जो अपनी विशिष्टताओं के कारण दूसरी भाषा से पृथक अस्तित्व प्रदान करती हैं। समाज में अभिव्यक्त विचार शब्दों के माध्यम से प्रकट किए जाते हैं तथा शब्द में ही मूल वस्तु की संकल्पना निहित रहती है। भाषा के अंतर्गत ध्वनि, पद, वाक्य, प्रोक्ति आदि द्वारा विविध भावों एवं संकल्पनाओं की अभिव्यक्ति मिलती है। वाक्य में प्रयुक्त शब्द कभी ध्वनि के संयोग से बनते हैं तो कभी संधि, समास आदि की प्रक्रियाओं से गुजरते हुए अन्य शब्दों के योग से बनते हैं। ऐसे में शब्दों में प्रयोग के अनुरूप विविध अर्थ समाहित होते रहते हैं। इसी प्रकार वाक्य भी संदर्भानुकूल अपने क्रम में परिवर्तन लाकर विविध अर्थों को व्यक्त करते हैं। ऐसे में भाषा-अर्जन करने वालों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वे भाषा में इस अस्थिरता एवं असमानता के कारण गलत प्रयोग की ओर अग्रसर होते हैं। भाषा-शिक्षण एवं अध्ययन के इसी संदर्भ में व्याकरण की अवधारणा को प्रमुख माना गया है। और जो अध्ययन या विश्लेषण दो भिन्न भाषाओं का शिक्षण की दृष्टि से विश्लेषण कर अध्ययन को सुगम बनाता है वह व्यतिरेकी विश्लेषण कहलाता है। प्रस्तुत आलेख में इसी दृष्टि से हिंदी तथा ओडि़या की नामिक व्याकरणिक कोटियों के अंतर्गत वचन व्यवस्था का व्यतिरेकी दृष्टि से विवेचन किया जा रहा है ताकि दोनों भाषा भाषियों में से कोई भी किसी भी भाषा को सीखना चाहे तो उसे वचन संबंधी प्रयोग में सहायता प्राप्त हो सके और वह प्रयोगत त्रुटियों से बच सके। इक्कीसवीं सदी की तीव्र परिवर्तनगामी दुनिया के साथ चलने के लिए भाषा-शिक्षण का पाठ्यक्रम समय की अनिवार्य माँग है। वर्तमान समय में भाषा-शिक्षण की भूमिका कल्पना व भावना के सहारे किये जाने वाला कोरा वाग्-विलास की नहीं है। उसे जीवन और समाज से जुड़ना होगा। समकालीन चुनौतियों, परिवर्तनों व विमर्श के साथ अपनी गति मिलाकर ही वह समय के साथ चलता है। भाषा-शिक्षण में हिन्दी का मुद्दा विशेष विमर्श की माँग करता है। इसलिए कि हिन्दी अपने नाम ही नहीं, स्वरूप में भी राष्ट्रव्यापी है। राष्ट्रभाषा होने के नाते इसके दायित्व बहुमुखी हैं। राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय और वैश्विक परिद्रश्य में यह एक राष्ट्र की पहचान का प्रतिनिधित्व करता है। सरकारी-गैर सरकारी गतिविधियों, व्यापार-वाणिज्य, ज्ञान-विज्ञान-प्रौद्योगिकी, शिक्षा-संस्कृति-कला-शिल्प-बाजार-सिनेमा-खेल-मीडिया आदि राष्ट्रीय सन्दर्भों के साथ तथा राजनीति, अर्थनीति, युद्ध और शान्ति, धर्म, पर्यावरण आदि वैश्विक व्यवहारों-संस्कारों की भी भाषा बन सके। अत: हिन्दी भाषा-शिक्षण विशेष सावधानी की अपेक्षा रखता है।[२]

मातृभाषा, द्वितीय भाषा और विदेशी भाषा के शिक्षण मे अंतर

शिक्षण एक क्रमिक एवम व्यवस्थित प्रक्रिया है, जिसमे मुख्य अवयव शिक्षक , शिक्षार्थी,पाठ्यक्रम,अध्ययन कक्ष, सहायक सामग्री आदि है। यह समस्त अवयव किसी ना किसी रूप में शिक्षण प्रक्रिया को अवश्य प्रभावित करते हैं। विद्वानों ने शिक्षण की अनेक परिभाषाएं दी हैं जो हमें शिक्षण के विषय हैं समझने में सहायता प्रदान करती हैं । विभिन्न विद्वानों के अनुसार-

"शिक्षण एक साधन है जिसके द्वारा समाज युवकों को निश्चित पर्यावरण में प्रशिक्षण प्रदान करता है ताकि वे समाज में शीघ्रता से अपना समायोजन उपलब्ध कर सकें। परंपरागत जातियों में इस समायोजन से अभिप्राय निश्चित परिस्थितियों के अनुरूप बनाना था।अधिक उचित सभ्यताओं,जैसे कि हमारी है, में केवल निश्चित परिस्थितियों के साथ समायोजन उपलब्ध कराने हेतु केवल प्रयत्न ही नहीं किए जाता,बल्कि जीवन की परिस्थितियों को बच्चों के विचारों के संदर्भ में प्रशिक्षित कर और और उनका क्रियान्वयन कर उनके जीवनयापन की परिस्थितियों में,जो कि उनके चारों ओर है,मैं सुधार करने में सहायक होगी।"-योकम तथा सिमसन

"शिक्षण वह प्रक्रिया है,जिसमें अधिक विकसित व्यक्तित्व कम विकसित व्यक्तित्व के संपर्क में आता है कम विकसित व्यक्तित्व की अग्रिम शिक्षा हेतु विकसित व्यक्तित्व व्यवस्था करता है।"- मॉरीसन एच.सी.

" शिक्षण को अंत: प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो शिक्षक तथा छात्र के मध्य प्रचलित होता है कक्षा कथन का संबंध अपेक्षित क्रियाओं से होता है।"- एडमंड एमिडन

" शिक्षण प्रक्रिया में पारंपरिक प्रभाव को सम्मिलित किया जाता है,जिसमें दूसरों की व्यवहारिक क्षमताओं के विकास का लक्ष्य होता है।"- गेज एन.एल.

उपरोक्त सभी परिभाषा ओं के आधार पर कहा जा सकता है शिक्षण उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है जो सीखने को प्रभावित करती है। इस प्रक्रिया के माध्यम से विद्यार्थी के व्यवहार तथा भाषा कौशल में परिवर्तन लाया जा सकता है।

शिक्षण के प्रकार

शिक्षण की प्रक्रिया एक गहन प्रक्रिया है। हमें इस व्यक्ति को कब शिक्षा देनी चाहिए,शिक्षा प्रदान करते समय बालक का मानसिक स्तर क्या हुआ, इस विषय में ली दी जाए ,किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए शिक्षा दी जा रही है आदि सभी बातों को ध्यान में रखते हुए शिक्षा की जानी चाहिए। इसके लिए शिक्षण के प्रकारों को जानना अत्यंत आवश्यक है।गणपतराय शर्मा के अनुसार शिक्षण के प्रकार इस प्रकार हैं-

1. शिक्षण के उद्देश्यों के आधार पर-

क. ज्ञानात्मक शिक्षण:-

इस प्रकार के शिक्षण का उद्देश्य ज्ञानात्मक पक्ष अथवा व्यवहार(ज्ञान,समझ,प्रयोग, विश्लेषण, संश्लेषण और मूल्यांकन) आदि को विकसित और पुष्ट करना होता है।

ख. भावात्मक शिक्षण:-

इस प्रकार के शिक्षण में भावात्मक पक्ष को विकसित करने की प्रमुखता प्रदान की जाती है।

ग. क्रियात्मक शिक्षण:-

इस प्रकार के शिक्षण के अंतर्गत व्यवहार परिवर्तन की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है। इस प्रकार के शिक्षण में कौशल आदि या किसी कार्य को करने की विशिष्ट विधि को समझने की और बल दिया जाता है।

2. शिक्षण की क्रिया दृष्टि से:-

क. बतलाना:- इसके अंतर्गत किसी सिद्धांत,अथवा वस्तु आदि के बारे में बताना आता है|

ख. दिखाना अथवा प्रदर्शन करना:-

इसी कार्य,प्रक्रिया या कौशल को करके दिखाना,प्रदर्शनात्मक शिक्षण के अंतर्गत आता है ।

ग. कार्य करना:-
इसके अंतर्गत कोनो एवं क्रियात्मक पक्ष के विकास को प्रमुखता प्रदान की जाती है।

3. शिक्षण के स्तरों की दृष्टि से:-

क. स्मृति-स्तर पर शिक्षण:-

इस प्रकार के शिक्षण में के केवल इस बात की कोशिश की जाती है कि दी गई सूचनाओं को अच्छी तरह याद रखा जा सके।

ख. बोध-स्तर का शिक्षण:-

इस प्रकार के शिक्षण के अंतर्गत या ध्यान रखा जाता है कि केवल किसी बात को याद न रखा जाए,बल्कि उसे समझ भी लिया जाए अर्थात संप्रत्यय का अर्थ,उनमें अंतर्निहित विचार, उनकी प्रकृति आदि को अच्छी तरह ग्रहण किया जाए।

ग. चिंतन-स्तर का शिक्षण:-

इस प्रकार के शिक्षण के अंतर्गत रटने या समझने तक इसे सीमित नहीं रखा जाता,बल्कि इस बात का प्रयास किया जाता है कि जिज्ञासा,रुचि,अनुसंधान,धैर्य आदि का भी विकास हो, ताकि किसी समस्या को वैज्ञानिक दृष्टि से समझा जा सके और तर्कपूर्ण ढंग से सुलझाया जा सके|

4. शासन और प्रशासन में सुधार:-

क.एकतांत्रिक शिक्षण:-
इस प्रकार के शिक्षण के अंतर्गत प्रधानता शिक्षक की होती है और छात्रों का स्थान कम होता है ।

ख. प्रजातंत्र शिक्षण:-
इस प्रकार के शिक्षण मानवीय संबंधों,व्यवस्था,सिद्धांतों आदि पर आधारित होता है । इसमें छात्रों को अपनी रुचि,योग्यता आदि के अनुसार ही सीखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है । शिक्षक एक मित्र,निर्देशक अथवा पथ प्रदर्शक के रूप में कार्य करता है ।

ग. हस्तक्षेप रहित शिक्षण:-

इस प्रकार के शिक्षण में शिक्षक की अपेक्षा छात्र अधिक सक्रिय रहते हैं । इस शिक्षण में छात्र को क्या करना है,क्या सीखना है,कैसे रहना है,यह सब छात्र पर ही छोड़ दिया जाता है अर्थात प्रत्येक छात्र को अपने ढंग से सोचने,समझने और सीखने की पूर्ण स्वतंत्रता रहती है ।

5. शिक्षण की व्यवस्था की दृष्टि से:-

क. औपचारिक शिक्षा:-

इस प्रकार का शिक्षण उद्देश्य पूर्ण होता है। शिक्षण आयु, समय एवं स्थान के अनुसार सुनिश्चित पाठ्यक्रम के आधार पर चलता है।

ख. अनुनौपचारिक शिक्षण:-

इस प्रकार का शिक्षण पाठ्यक्रम,समय, स्थान एवं आयु से बंधा हुआ नहीं होता है। शिक्षण पीछे कोई अभिप्राय अथवा योजना भी नहीं होती|इस प्रकार के शिक्षण केअंतर्गत छात्र भी अपने आप अनुचित रीति से ज्ञान,विचार या कोई विश्वास प्राप्त कर लेता है।

ग. अनौपचारिक शिक्षण:-

इस प्रकार के शिक्षण निश्चित उद्देश्यों के आधार पर संगठित किए जाते हैं,किंतु इसके अंतर्गत किसी प्रकार के पाठ्यक्रम,समय,स्थान एवं आयु का बंधन नहीं होता।

मातृभाषा और अन्य भाषा अधिगम की प्रक्रिया में अंतर:-

मातृभाषा सभी बालक लगभग एक ही प्रक्रिया द्वारा सीखते हैं क्योंकि मातृभाषा कहीं ना कहीं बालक के जीवन से जुड़ी रहने वाली भाषा है। किंतु द्वितीय भाषा या विदेशी भाषा सीखते समय ऐसा नहीं होता क्योंकि द्वितीय भाषा या विदेशी भाषा का बालक कोई साथ संपर्क इतना नहीं हो पाता जितना मातृभाषा के साथ हो पाता है। द्वितीय भाषा तो फिर भी कहीं ना कहीं सुनाई दी जाती है लेकिन विदेशी भाषा को सीखने की संकल्पना बालक तभी करता है जब उसका विदेशी भाषा को सीखने का उद्देश्य निश्चित हो। यही कारण है कि मातृभाषा और अन्य भाषा को सीखने के दौरान बालक दोनों भाषाओं के शिक्षण में एक बड़े अंतर का अनुभव करता है। बालक के भाषा शिक्षण के दौरान ऐसा कुछ प्रभावशाली तत्व भी होते हैं जो भाषा शिक्षण के दौरान बालक के शिक्षण को प्रभावित करते हैं यह तत्व इस प्रकार हैं-

1. भाषाई तत्व

2. सामाजिक तत्व (प्रभाव)

3. मनोवैज्ञानिक तत्व

4. आर्थिक तत्व (प्रभाव)

5. सांस्कृतिक संदर्भ

मातृभाषा और अन्य भाषा के शिक्षण में अंतर के कुछ अन्य महत्वपूर्ण पक्ष:-

मातृभाषा के अलावा द्वितीय भाषा का अध्योता से फिर भी संबंध है परंतु विदेशी भाषा तो अध्योता के लिए बिल्कुल ही अलग होती है। विदेशी भाषा का उच्चारण,व्यवहारिक नियम और अर्थ को समझ पाना अध्योता के लिए एक जटिल कार्य हो जाता है क्योंकि विदेशी भाषा न तो अध्योता के समाज का अंग होती है और ना ही किसी संस्कृत का। मातृभाषा और विदेशी भाषा के शिक्षण में पाए जाने वाले अंतर को निम्नलिखित बिंदुओं से समझा जा सकता है-

1.अभिवृत्ति:-

किसी भी भाषा को सीखने के लिए अध्यापक को पहले बालक की अभिवृत्ति को जाना अत्यंत आवश्यक है। यदि बालक की इच्छा के विरुद्ध जाकर उसे पढ़ाया जाएगा तब वह ना तो उसे सीखने में रुचि ही लेगा और ना ही शीघ्रता से सीख पाएगा। मातृभाषा से बालक पहले ही परिचित होने के कारण वह उसे शीघ्रता से सीख लेता है परंतु विदेशी भाषा सीखने के लिए बालक को मन और मस्तिष्क को मात्र भाषा सीखने की अपेक्षा अधिक सचेत रखना पड़ता है।

2.स्मृति:-

स्मृति न केवल भाषा शिक्षण के संदर्भ में ही एक महत्वपूर्ण तत्व है बल्कि जीवनयापन के लिए भी स्मृति अत्यधिक महत्त्व रखती है। किसी कार्य को लेकर जब हम कोई कारण या तर्क जानना चाहते हैं तब स्मृति उसे ही पलकों में दबा कर रखती है और समय आने पर हमारी आंखें खोल देती है। मातृ भाषा सीखने के दौरान हमारे पास कोई ऐसी स्मृतियां होती हैं इसके लिए हम जल्दी ही अपनी मात्र भाषा सीख लेते हैं। अन्य भाषा शिक्षण से जुड़ी हमारी कोई भी स्मृति ऐसी नहीं होती जो हमें भाषा के साथ जोड़कर रख सके इसलिए अन्य भाषा शिक्षण के दौरान पालक को भाषा सीखने में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है क्योंकि अन्य भाषा उसके लिए एकदम नहीं होती है।

मातृभाषा सीखते समय बालक के अनुभव का संसार बहुत विस्तृत होता है|लगभग प्रत्येक वस्तु के लिए बालक के पास अनुभव पहले से ही तैयार रहते हैं लेकिन अन्य भाषा शिक्षण के दौरान पालक के पास यह अनुभव नहीं होती हैं। इसलिए अन्य भाषा की ध्वनि,व्याकरण,अर्थ आदि की संरचना को समझना बालक के लिए मातृभाषा शिक्षण से जटिल हो जाता है।

3. योग्यता:-

प्रत्येक बालक की योग्यता भिन्न-भिन्न होती है। यह आवश्यक नहीं है कि यदि एक बालक एक पाठ को दो या तीन दिन में याद की सके उतनी ही योगिता के साथ दूसरा बालक भी उस पाठ को दो या तीन दिन में ही याद कर ले । इस योग्यता के अनुसार ही बालक का भाषा शिक्षण तीव्र गति से या धीमी गति से आगे बढ़ता है। अपनी योग्यता के कारण ही वह लिपि,ध्वनि आदि के संबंध को समझता है प्रत्येक ध्वनि बिंब को स्मरण रखता है।

4. उद्देश्य:-

मातृभाषा बालक बिना किसी उद्देश्य के सीखता है क्योंकि वह उसी भाषा में पला-बढ़ा होता है मातृ भाषा सीखने के लिए बालक को किसी उद्देश्य की आवश्यकता नहीं होती बल्कि वह संप्रेषण के लिए मातृभाषा का प्रयोग करता है। अन्य भाषा शिक्षण के संदर्भ में ऐसा नहीं है अन्य भाषा सीखने के लिए बालक के पास एक उद्देश्य होता है जिसे पूरा करने के लिए अन्य भाषा लिखता है। एक उद्देश्य होने पर ही बालक को अन्य भाषा सीखने में रुचि होगी।

5. जिज्ञासा:-

अन्य भाषा शिक्षण के लिए बालक के मन में जिज्ञासा का होना अत्यंत आवश्यक है । जब तक बालक के मन में अन्य भाषा के प्रति जिज्ञासा नहीं होगी तब तक उसे वह भाषा सीखना बोझिल प्रतीत होगा वहीं दूसरी ओर अन्य भाषा के प्रति जिज्ञासा होने पर वह भाषा के अलग-अलग पहलुओं,संदर्भ को जानने की कोशिश करेगा। वह भाषा को उसकी संरचना से लेकर समाज में भाषा के महत्व के सभी पहलुओं पर चर्चा करेगा।[३]

  1. https://www.rachanakar.org/2015/08/blog-post_706.html
  2. https://www.researchgate.net/publication/311397225_dvitiya_aura_videsi_bhasa_ke_rupa_mem_hindi_siksana_do_rama_lakhana_mina
  3. भाषा-शिक्षण (डॉ.प्रतिमा)[पृष्ठ:83-104]