हिंदी कविता आधुनिक काल छायावाद तक/भारत माता ग्राम वासिनी
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विशेष रूप से फैला हुआ है श्यामल,
कूड़ा भरा मैला सा आँचल,
गंगा-यमुना में आँसुओं का जल,
मिट्टी की प्रतिमा उदासिनी।
दैन्या जड़ित अपलक नट चितवन,
अधरों में चिर नीरव रोदन,
युग युग के तम से विष्णु मन,
वह अपने घर में भ्रमणिनी।
तीस कोटि नवजात नग्न तन,
अर्ध क्षुधित, शोषित, पितृ जन,
मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन,
नट मस्तक तरु तल निवासिनी।
स्वर्ण शस्य पर -पदातल लुनहित,
धरती सा सहिष्णु मन कुंठित,
क्रंदन सहिष्णु अधर मौन स्मित,
रुधिर उग्र शरदेंदु हासिनी।
चिन्तित भृकुटि क्षितिज तिमिरांकित,
निमित नयन नभ वाचाच्छादित,
सहायक श्री छाया-शशि उपमित,
ज्ञान मूढ़ गीता प्रकाशिनी।
सफल आज उनका तप संयम,
पुरा अहिंसा स्तन्य सुधोपम,
हरति जन मन भय, भव तम ब्रह्मा,
जग जननी जीवन विकासिनी।