हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/पद/(२)अब का डरौं डर डरहि समाना,

विकिपुस्तक से

सन्दर्भ[सम्पादन]

प्रस्तुत छंद भक्तिकालीन निर्गुण काव्यधारा की संतमार्गी शाखा के प्रवर्तक कबीरदास द्वारा प्रस्तुत अनुभवों एवं विचारों का संकलित 'ग्रंथावली' से अवतरित है।

प्रसंग[सम्पादन]

इस रहस्यवादी पद में कबीर ने आत्मा-परमात्मा के संबंध को बताया है कि जब मैं की भावना निकल जाती है, तब मैं-तू की भावना समाप्त हो जाती है। वह एकाकार हो जाता है।

व्याख्या[सम्पादन]

अब का डरौं डर डरहि समाना......बहि राँम अवर नहीं कोई।

कबीरदास कहते हैं अब मुझे इस संसार में डर नहीं लगता है। अब तो डर ही ड में समा गया है। जबसे मुझे मेरे तेरे की सही पहचान हो गई है अर्थात् जब से मुझे अपने आप (जीवात्मा) की तथा परमात्मा की पहचान हो गई है, उस दिन से मुझे डर नहीं लगता है। जब तक मुझे यह पहचान नहीं थी तब तक मैं जन्म-जन्म से दुख भोग रहा था शास्त्रों और वेदों का जो एक ज्ञान था अर्थात् दोनों का जो निचोड़ था उसे मन में समा लिया है अर्थात् वेद ज्ञान को आत्मसात् कर लिया है। जब तक ऊंच-नीच का भेद-भाव करता था, तब तक मैं पशु समान अज्ञानी बन भ्रम में पड़ा हुआ था. भूला हुआ था। कबीरदास कहते हैं मैने जब मैं, मेरी की भावना अर्थात् अहंकार की भावना छोड़ी तभी मुझे राम की प्राप्ति हुई। तभी राम के अलावा कोई और दूसरा नह दिखता है।

विशेष[सम्पादन]

1. सधुक्कड़ी भाषा है

2. प्रसाद गुण है।

3. पद में लाक्षणिकता हैं

4. पद में बिंबात्मकता है।

पदों में गेयता है।

6. पद में रहस्यात्मकता है।

7. कबीर ने ईश्वर-प्राप्ति के लिए 'अह' विसर्जन की बात प बल दिया है।

8. कबीर ने उक्त पद के भाव को एक साखी में भी समेटा है


    जब मैं था तब हरि नहीं, 
    अब हरि हैं तो मैं नहीं

9. कबीर 'माया के अंग' में भी अहं-विसर्जन की बात कहते है -

   माया तजी तौ का भया मानि तजी नहीं जाइ। 
   मनि बड़े मुनियर मिले मानि सबनि कौ खाइ।।

10. कबीर का मानना है कि ईश्वर-प्रेम से ही अहंकार भी विसर्शित हो जाता है।

       तू तू करता तू भया। 
       मुझ में रही न हूँ।

११. पुररुक्तिप्रकाश-'जनमि जनमि'।

१२. यमक अलंकार-भै भै

१३.अद्वैतवाद का प्रभाव स्पष्ट है।

शब्दार्थ[सम्पादन]

1.आगम-निगम = संसार में आना जाना (जीवन-मृत्यु) 2.नांनां = विविध प्रकार 3.अवर = दूसरा