हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/राधा का प्रेम

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राधा का प्रेम
विद्यापति/


सन्दर्भ[सम्पादन]

प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि विद्यापति द्वारा रचित हैं। यह उनकी 'पदावली' से अवतरित हैं।

प्रसंग[सम्पादन]

स पद में वे श्रीकृष्ण और राधा के प्रेम का वर्णन कर रहे हैं। राधा ने श्रीकृष्ण को यमुना के तट पर देख लिया था। वह उनके अपार सौंदर्य पर मोहित हो गई। अपनी मुग्धावस्था का और श्रीकृष्ण के अपार सौंदर्य का वर्णन सांकेतिक शैली में वह अपनी सखी से कह रही है। राधा अपनी सहेली से श्रीकृष्ण के रूप-सौंदर्य, हाव-भाव तथा उपमान के रूप में वर्णन करती हुई कहती है कि-

व्याख्या[सम्पादन]

ए सखि पेखलि एक अपरूप।.......सपुरुख मरम तोहे भल जान।।

हे सखि! मैंने एक अपूर्व सौंदर्य देखा। उसे सुनकर तुम उसे स्वप्न में देखा हुआ सौंदर्य मानोगी। दो कमलों पर (कमल के समान सुंदर चरणों पर) चन्द्रमाओं की माला (चन्द्रमाओं के समान सुन्दर नखों की पंक्तियाँ) सुशोभित थीं, उसके ऊपर तरुण तमाल (तरुण तमाल के समान युवा श्याम शरीर) उपजा हुआ (सुशोभित) था उसको बिजली की बेल ( बिजली के समान दिव्य पीताम्बर) लपेटे हुए थी। वह तमाल वृक्ष (श्याम शरीर) धीरे-धीरे यमुना के किनारे जा रहा था। शाखा-सिखर (हाथ की उँगलियाँ) चन्द्रमाओं की पंक्ति (चन्द्रमा के समान सुंदर नख-पंक्ति) से सुशोभित थी। उस पर नवीन पत्तों की (नवीन पत्तों के समान सुंदर हाथों की) लाल-लाल ज्योति (रक्त की लाली) दिखाई दे रही थी। दोनों निर्मल बिंब-फल (दोनों अछूते ओष्ठ) विकसित हो रहे थे। उनपर स्थिर होकर तोता (तोते की चोंच के समान सुंदर नासिका) निवास कर रहा था। उस पर चंचल खंजनों का जोड़ा (खंजन के नेत्रों के समान दो सुंदर नेत्र) था उस पर मयूर-मच्छ (मोर मुकुट) सर्पिणी को (सर्पिणी के समान श्याम और चिकनी केश-राशि को) ढंके हुए था। हे रंगिणी सखि! मैंने तुमसे अपना संकेत कह दिया है। फिर उसे देखते ही उसने मेरे ज्ञान का हरण कर लिया, अर्थात् में अपनी सुध-बुध खो बैठी। कवि विद्यापति कहते हैं कि यह सरस-अनुमान है कि तुम सत्पुरुष (श्रीकृष्ण) के रहस्य को भली प्रकार जानती हो।

विशेष[सम्पादन]

1. नायिका द्वारा अपने प्रेम के रहस्य को कभी-कभी गूढ़ रीति से कहने की भी परम्परा रही है। बिहारी की नायिका भी अपने प्रेम को गूढ रीति से व्यक्त करती हुई अपनी सखी से कहती है

कारे बरन डरावने, कत आयत इहि धेह। 
 कै वा लखी सखी सखी, स्वर्ग लरहरा देह।

2. अभीष्टार्थ के गूढ़ रीति से व्यक्त होने से व्यूरेक्ति अलंकार है।

3. 'कलम जुगल पर चाँदक माल' और 'तापर साँपिनि झाँपल मोर' में कथन में विरोध का आभास होने से विरोधाभास अलंकार है।

4. 'हेरइत पुनि मोर हल गिआन' में कारण की सम्भावना से ही कार्योत्पत्ति का वर्णन होने से चपलातिशयोक्ति अलंकार।

5. मैथिली भाषा है।

6. बिंबात्मक है।

7. लयात्मकता है।

8. भाषा में प्रवाह है।

9. गेयात्मकता है।

शब्दार्थ[सम्पादन]

पेखलि एक। अपरूप = एक अपूर्व सौंदर्य देखा। मानबि - मानोगी। सपन-सरूप - स्वप्न में देखा हुआ सौंदर्य। कमल-जुगल = दो कमल दो चरण। चाँद के माल - चन्द्रमा की माला, नख-पंक्ति। तरुन-तमाल - श्याम वर्ण शरीर। बीजुरि-लता - पीताम्बर। कालिन्दी = यमुना। साखा-सिखर = हाथ की उँगलियाँ । सुधाकर पाति - नाखूनों की पंक्ति। पल्लब - कर। अरुनक कॉति - लाल-ज्योति। बिम्ब-फल = अधरोष्ठ। कीर - नासिका। थीर = स्थिर। खंजन-जोर - दो नेत्र। साँपिनि - केश-राशि। मोर = मयूर-पुच्छ। निसान - संकेत। हेरइत = देखते ही। हरले गिआन = ज्ञान का हरण कर लिया। एह रस भान = यह सरस अनुमान है। सुपुरुख - तत्पुरुष (श्रीकृष्ण)। भल जान = भली प्रकार जानती हो।