हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )/दलित लेखन का विकास और दलित साहित्य

विकिपुस्तक से
हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )
 ← स्त्री लेखन का विकास और स्त्री साहित्य दलित लेखन का विकास और दलित साहित्य उत्तर-आधुनिक परिदृश्य और वर्तमान साहित्यिक रूझान → 

दलित साहित्य[सम्पादन]

दलित शब्द उत्पीडित, शोषित, उपेक्षित, घृणित, वंचित आदि अर्थो में प्रयुक्त होता है। भारतीय समाज में जिसे अस्पृश्य माना जाता रहा है, वह वर्ग दलित है। साहित्य के साथ जुड़कर दलित शब्द एक ऐसी साहित्यिक विधा की ओर संकेत करता है जो मानवीय सरोकारों तथा संवेदना की यथार्थवादी अभिव्यक्ति है। दलित साहित्य में स्वयं दलितों ने अपनी पीड़ा को रूपायित किया है। दलित साहित्य कला का कला के लिए ना होकर जीवन का और जीजिविषा का साहित्य है। वास्तव में दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य की श्रेणी में आता है। यह साहित्य मानवीय मूल्यों की पृष्ठभूमि में सामंती मानसिकता के विरुद्ध आक्रोशजनित स्वर में व्यक्त हुआ है।


दलित साहित्य वैचारिक आधार डॉक्टर अम्बेडकर का जीवन संघर्ष है।इस विषय में ज्योतिबा फुले और बुद्ध का दर्शन उसके दार्शनिकता का आधार है। ब्राह्मणवादी सोच तथा वर्चस्व के प्रति ज्योतिबा फुले ने ही सशक्त आंदोलन खड़ा किया था। दलित साहित्यकारों के माध्यम से अम्बेडकर के विचार गाँव-गाँव तक प्रचारित एवं प्रसारित हुए। प्रतिबद्धता ही दलित साहित्य का सौंदर्य विधान है। अम्बेडकर ने सिर्फ उस जातिवाद से घृणा करते थे,जो समाज के एक बड़े वर्ग के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार के लिए जिम्मेदार था बल्कि साम्राज्यवादी इतिहास द्वारा 'बाँटो और राज करो' की नीति पर आधारित सिध्दांतों के प्रति भी सजग रहते थे।

"जाति आदिम सभ्यता का

नुकीला औज़ार है
जो सड़क चलते आदमी को
कर देता है छलनी
न जाने किसने
तुम्हारे गले में
डाल दिया है जाति का फंदा
जो न तुम्हें जीने देता है

न हमें!"

दलित साहित्य का विकास[सम्पादन]

भारत में 19वीं शताब्दी के दौरान पुनर्जागरण की लहर चली। 19 वीं सदी के सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, पुनर्जागरण के साथ ही आधुनिक युग की दस्तक मानी जाती है इस पुनर्जागरण आंदोलन ने दलितों में चेतना जाग्रत करने का कार्य किया।'ज्योतिबा फुले' ने ब्राह्मणों की चालाकी 'गुलामगिरी तथा कई पॅवारा' लिखकर ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा दलितों पर किए जा रहे अत्याचारों का खुलासा किया।हिन्दी के कुछ आलोचक भोजपुरी में लिखित 'हीरा डोम' की कविता 'अछूत की शिकायत' को हिन्दी की पहली कविता मानते हैं जो दलितों पर लिखा गया है। जिसका प्रकाशन 1914 ई॰ में सरस्वती के अंक में हुआ था। दलितों के संदर्भ में हीरा डोम की कविता की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार है-

"हमनी के रात दिन दुखवा भोगत बानी।

हमनी के दुख भगवानों ना देखता जे,

हमनी के कबले कलेसवा उठाइवि ।।"

आज का दलित साहित्य दलितों के भोगे हुए यथार्थ को सामने लाने का प्रयास कर रहा है "समता, न्याय और स्वतंत्रता दलित साहित्य चिंतन का आधार है। दलित साहित्य वस्तुतः जाति व वर्ण व्यवस्था के अभिशाप से उपजा है। इसलिए दलित साहित्यकार इस व्यवस्था का पुरजोरविरोध करते हैं।दलित साहित्य का स्वरूप "कविता, कहानी, आत्मकथा, उपन्यास" आदि कई विधाओं के माध्यम से प्रकट हुआ है।

कविता[सम्पादन]

दलित कविता पर विस्तार से चिंतन करने से दलित साहित्य स्पष्ट हो सकता है।दलित साहित्य का तेवर बहुत ही आक्रामक है इसलिए वह हिंदू संस्कृति को सिरे से खारिज करता है। कवि सुखबीर का तेवर इस पंक्ति में झलकती है-

"यहाँ सांस लेती है वह कुत्ता संस्कृति
जो आदमी को आदमी से काटती–बांटती है ।।"

दलितों के लिए आर्थिक प्रतिष्ठा से अधिक महत्वपूर्ण सामाजिक प्रतिष्ठा है जो दलित साहित्य का मूल दर्शन और लक्ष्य है 'कंवल भारती' ने चिड़िया के प्रतीक के माध्यम से इस बात को इस तरह स्पष्ट किया है-

"वह चिड़िया भूख से नहीं,

चिड़िया होने से पीड़ित थी ।
वह कैसे जानता गरीबी नहीं,

सामाजिक बेज्जती अखड़ती है ।।"

आत्मकथा[सम्पादन]

दलित साहित्य कविताओं के साथ-साथ आत्मकथाओं के माध्यम से भी खूब उमड़ा है। दलित आत्मकथाओं में– मोहनदास नैमिशराय की 'अपने अपने पिंजरे', ओमप्रकाश बाल्मीकि की 'जूठन', कौशल्या वैशन्त्रि कि 'दोहरा अभिशाप', माता प्रसाद की 'झोपड़ी से राजभवन तक' सुशीला टाकभौरे की 'शिकंजे का दर्द' आदि प्रमुख है। दलित आत्मकथाएँ पाठक को झकझोड़ती है। जिसमें दलितों के दुख दर्द को बयां करते हुए समाज के उन लोगों से प्रश्न किया है जिन्होंने उनकी पशुओं से बत्तर जिंदगी की है।

उपन्यास[सम्पादन]

अपनी अस्मिता को सिद्ध करने के लिए दलित उपन्यासकारों ने भी जोरदार पहल की है। इन दलित उपन्यासों में प्रेम कपाडिया का 'मिट्टी का सौगंध', जयप्रकाश कर्दम का 'छप्पर', धर्मवीर का 'पहला खत', डी॰पी॰ वरुण का 'अमर ज्योति' रामजीलाल सहायक का 'बंधन मुक्त', गुरुचरण सिंह का 'डूब जाती है नदी', रूपनारायण सोनकर का 'सूअर दान' आदि प्रमुख है।

कहानियाँ[सम्पादन]

दलित साहित्य को स्पष्ट करने के लिए दलित कहानीकारों की भी अहम भूमिका है। दलित कहानीकारों में मोहनदास नैमिशराय, ओमप्रकाश बाल्मीकि, सत्यप्रकाश, सूरजपाल चौहान, कुसुम मेघवाल आदि का नाम लिया जाता है दलित अस्मिता को प्रतिष्ठित करने में ओमप्रकाश बाल्मीकि की 'ग्रहण', 'सलाम', 'पच्चीस चौका डेढ़ सौट', सूरजपाल चौहान की 'साजिश' मोहन दास नैमिशराय कि 'अपना गाँव' आदि कहानियाँ प्रमुख है।

निष्कर्ष[सम्पादन]

बुद्ध, कबीर, ज्योतिबा फुले, अम्बेडकर की मानवतावादी विचारधारा से प्रभावित दलित साहित्य स्वर्ण और ब्राह्मणवादी मानसिकता के विरुद्ध प्रतिरोध का साहित्य है। जिसमें दलित अस्मिता को प्रतिष्ठित करने के लिए दलन, उत्पीड़न, अन्याय अत्याचार व संन्त्रास से मुक्ति की कामना की गई है। इस साहित्य के मूल में डॉ. अम्बेडकर का विचार दर्शन प्रमुख है। इसमें दलित पीड़ित मानवता की स्वतंत्रता, मनुष्य की समता व भातृत्व की बात की गई है। इसलिए यह साहित्य रूढ़ीवादी परंपराओं को नकारते हुए शुद्ध सामाजिकता की स्थापना पर जोर देता है ।