हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )/नई कविता, नई कहानी: सामान्य प्रवृतियाँ

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हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )
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नई कविता[सम्पादन]

'नई कविता‌' अनेक अर्थों में प्रयोगवाद का नया विकास मानी जा सकती है। उसने प्रयोगवाद की अनेक उपलब्धियों को आत्मसात किया है। इसी साम्य के कारण अनेक कवि प्रयोगवाद और नई कविता दोनों के क्षेत्र में प्रविष्ट होते हैं और उनके विषय में यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि कहां तक वे प्रयोगवादी है और कहाँ तक नई कविता के कवि। ऐतिहासिक दृष्टि से नई कविता 'दूसरा सप्तक'(1951 ई.) के बाद की कविता को कहा जा सकता है। लक्ष्मीकांत वर्मा के अनुसार नई कविता मूलतः 1953 ई.में 'नये पत्ते' के प्रकाशन के साथ विकसित हुई।


'नई कविता' की मूल स्थापना में चार तत्व प्रमुख है। सर्वप्रथम तो यह कि नई कविता का विकास आधुनिकता में है। दूसरा, नई कविता जिस आधुनिकता को स्वीकार करती है, उसमें वर्जनाओं और कुंठाओं की अपेक्षा मुक्त यथार्थ का समर्थन है। तीसरा, इस मुक्त यथार्थ का साक्षात्कार वह विवेक के आधार पर करना अधिक न्यायोचित मानती है। और चौथा, यह कि इन तीनों के साथ-साथ वह क्षण के दायित्व और नितांत समसामयिकता के दायित्व को स्वीकार करती है। आधुनिकता का अर्थ विकृतियों से ना होकर उस वैज्ञानिक दृष्टिकोण के समर्थन में है,जो विवेचना और विवेक के बल पर हमें प्रत्येक वस्तु के प्रति एक मानवीय दृष्टि, यथार्थ की दृष्टि देती है।


लक्ष्मीकांत वर्मा के अनुसार नई कविता की मुख्य प्रवृत्तियां पाँच प्रकारों में विभाजित की जा सकती हैं। पहली प्रवृत्ति यथार्थवादी अहंवाद की है, जिसमें यथार्थ की स्वीकृति के साथ-साथ कभी अपने अस्तित्व को उस यथार्थ का अंश मानकर उसके प्रति जागरूक अभिव्यक्तियाँ देता है। दूसरी प्रवृत्ति व्यक्ति-अभिव्यक्ति की स्वच्छंद प्रवृत्ति है,जिसमें आत्मानुभूति की समस्त संवेदना को बिना किसी आग्रह के रखने की चेष्टा की जाती है। तीसरी प्रवृत्ति आधुनिक यथार्थ से द्रवित व्यंग्यात्मक दृष्टि की है,जिसमें वर्तमान कटुताओं और विषमताओं के प्रति कवि की व्यंग्यपूर्ण भावनाएँ व्यक्त हुई है। चौथी प्रवृत्ति ऐसे कवियों की है,जिसमें रस और रोमांच के साथ-साथ आधुनिकता और समसामयिकता का प्रतिनिधित्व संपूर्ण रूप में वक्त हुआ है। पाँचवी प्रवृत्ति उस चित्रमयता और अनुशासित शिल्प की भी है, जो आधुनिकता के संदर्भ में होते हुए भी समस्त यथार्थ को केवल बिंबात्मक रूप में ग्रहण करता है। यथार्थवादी अहंवाद‌ के कवियों में 'अज्ञेय', गजानन माधव 'मुक्तिबोध','कुंवर नारायण', 'सर्वेश्वर दयाल सक्सेना' इत्यादि की रचनाएँ आती है। वही चित्रमयता और अनुशासित शिल्प के अंतर्गत 'जगदीश गुप्त', 'केदारनाथ सिंह' और 'शमशेर बहादुर सिंह' की रचनाएँ प्रस्तुत होती है।

नयी कहानी[सम्पादन]

स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ बाद नयी कहानी के रूप में एक ऐसा कहानी आंदोलन चला, जिसने कहानी के पारंपरिक प्रतिमानों को नकार दिया और अपने मूल्यांकन के लिए नयी कसौटियाँ निर्धारित की। जाहिर है कि स्वतंत्रता मिल जाने पर भारतीय मानस में एक नयी चेतना, नये विश्वास और नयी आशा-आकांक्षा का जन्म हुआ। उसे एक बदला हुआ यथार्थ मिला जिसने सामाजिक संबंधों, मूल्यों, मान्यताओं और आदर्शों को नया संदर्भ प्रदान किया। सन् 1954 ई. के आगे की कहानी सन् 1960 ई. तक आते-आते 'नयी कहानी' बन गई।‌ सन् 1960 ई. से 'नयी कहानियाँ' नामक पत्रिका नियमित रूप से राजकमल प्रकाशन (दिल्ली) से प्रकाशित होने लगी। इसका संपादन भैरव प्रसाद गुप्त कर रहे थे।


बहरहाल, सन् 1954 से 1962 के बीच नयी कहानी पूरी तरह प्रतिष्ठित हो गई। नये कहानीकारों ने 'परिवेश की विश्वसनीयता' , 'अनुभूति की प्रमाणिकता' और 'अभिव्यक्ति की ईमानदारी' का प्रश्न उठाया और आग्रह किया कि 'नयी कहानी' अपने युग सत्य से सीधे जुड़ी हुई है। जिसका मूल उद्देश्य है - पाठक को उसके समकालीन यथार्थ से, यथार्थ रूप में परिचित कराना। फणीश्वरनाथ रेणु, धर्मवीर भारती, मार्कण्डेय, अमरकांत, निर्मल वर्मा, मन्नू भंडारी,उषा प्रियंवदा,हरिशंकर परसाई जैसे कहानीकारों ने अपने युगीन यथार्थ का मार्मिक एवं प्रमाणिक अभिव्यक्ति करके 'नयी कहानी' के आंदोलन को तीव्र किया।

राजेंद्र यादव ने 'एक दुनिया:समानांतर' नामक पुस्तक का संपादन करके नयी कहानी का एक प्रामाणिक संग्रह प्रस्तुत किया। इस संग्रह में जो कहानियाँ संकलित की गई हैं उनके नाम हैं 'जिंदगी और जोंक'(अमरकांत), 'मछलियां' (उषा प्रियंवदा), 'बादलों के घेरे' (कृष्णा सोबती), 'खोयी हुई दिशाएं' (कमलेश्वर), 'परिंदे' (निर्मल वर्मा), 'तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम' (फणीश्वरनाथ रेणु‌), 'चीफ की दावत' (भीष्म साहनी), 'यही सच है' (मन्नू भंडारी) , 'दूध और दवा' (मार्कण्डेय), 'एक और जिंदगी' (मोहन राकेश), 'बदबू' (शेखर जोशी), 'भोलाराम का जीव' (हरिशंकर परसाई)।


'नयी कहानी' में स्थूल कथानकों के स्थान पर सूक्ष्म कथा-तंतुओं को प्रधानता मिली सांकेतिकता, प्रतीकात्मकता और बिंबात्मकता का प्राधान्य हुआ। नये कहानीकारों में कहानी का नया आलोचना-शास्त्र तैयार करने की पहल की और नामवर सिंह ने 'कहानी:नयी कहानी' पुस्तक के माध्यम से नयी कहानी के मूल्यांकन की कसौटियों को रेखांकित किया।