हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )/प्रगतिवादी साहित्य आंदोलन और प्रगतिशील साहित्य का विकास

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हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )
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प्रगतिवादी साहित्य आंदोलन[सम्पादन]

रोमांटिक साहित्य की शुरुआत जिस तरह जैसे फ्रांसीसी क्रांति से हुई, उसी तरह रूसी क्रांति की सफलता के गर्भ से प्रगतिशील साहित्य का जन्म हुआ। हालंकि कविता में प्रगतिशीलता तो आरंभ से ही रही है, लेकिन जिस रूढ़ अर्थ में प्रगतिशील शब्द का प्रयोग होता है, उसका जन्म सन् 1917 की रूसी क्रांति के सफलता से ही माना जाता है। रूसी क्रांति की सफलता के बाद समाज और साहित्य दोनों में सर्वहारा वर्ग की मुक्ति की उम्मीद की किरण दिखाई देने लगी। भारत में भी बुद्धिजीवियों का मानना था कि लाल‌ रूस है ढाल साथियों सब मजदूर किसानों की।


हिन्दी में प्रगतिशील साहित्य का आविर्भाव सन् 1935-36 के आसपास हुआ। यह वह समय है जब भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में गरम दल प्रभावित हो रहा था। साथ ही विश्व मंच पर भी अनेक परिवर्तन आ रहे थे। सन् 1935 में फ्रांस में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। इसी वर्ष लंदन में मुल्कराज आनंद और सज्जाद ज़हीर के प्रयास से भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। इसका पहला अधिवेशन सन् 1936 में प्रेमचंद की अध्यक्षता में लखनऊ में हुआ। अपने अध्यक्षीय भाषण में प्रेमचंद ने कहा कि हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो स्वाधीनता का अभाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो.......जो हमें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करें, सुलाए नहीं क्योंकि अब ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है। यही नहीं, प्रेमचंद को पूर्व में ही आभास हो गया था कि आने वाला जमाना किसान और मजदूरों का है। (जमाना, फरवरी, 1919) शिवदान सिंह चौहान ने मार्च सन् 1937 में विशाल भारत में एक लेख लिखकर प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता पर बल दिया। भारतीय राजनीति के बदलते करवट के अनुरूप प्रगतिशील साहित्य का आना स्वाभाविक ही था।


प्रगतिशील साहित्य का विकास[सम्पादन]

कुछ विद्वान मानते हैं कि प्रगतिवादी साहित्य और प्रगतिशील साहित्य में भेद है।उनके अनुसार प्रगतिवाद का साहित्य पूर्णता मार्क्स के सिद्धांत 'द्वंद्वात्मक भौतिकवाद' को आधार बनाकर रचना करता है। कवि संघ या कम्युनिस्ट पार्टी से सीधे जुड़ा हुआ होता है या उस के निर्देशन में रचना कर रहा होता है। जबकि प्रगतिशील साहित्य मार्क्सवादी विचारधारा, गांधीवाद, अरविंद का दर्शन आदि को साहित्य के दार्शनिक आधार के रूप में ग्रहण करती है। प्रगतिवाद और प्रगतिशील का यह कृत्रिम भेद प्रगतिवाद को संकीर्ण और संकुचित रूप में देखता है जबकि प्रगतिशील साहित्य को व्यापक और उदार रूप में।

नागरिक जीवन के दुख-दुविधा सुख-सुविधा की समझ, जमाखोरी का विरोध, स्थापित समाज व्यवस्था की रूढ़ियों और जड़ मनोस्थितियों का खंडन, राष्ट्र एवं विश्व के प्रति सजग दृष्टि,जीवन की सहजता बाधित करने वाली जर्जर मान्यताओं, पद्धतियों का तिरस्कार, प्रगति और परिवर्तन के प्रति चेतना, समाज को मानवीय और नैतिक बने रहने, अधिकार-रक्षण हेतु संघर्षोन्मुख रहने की प्रेरणा, स्पष्ट संप्रेषण के प्रति सावधानी......... उस दौर की सारी रचनाओं में आसानी से दिखते हैं।


अपनी कविता प्रेत का बयान मेंं नागार्जुन अपने परिवेश के आर्थिक राजनीतिक ढांचे का जर्रा-जर्रा उधेड़ देते हैं। एक प्रेत अपनी मृत्यु का कारण बताता है-

"भूख या क्षुधा नाम हो जिसका
ऐसी किसी व्याधि का पता नहीं हमको
सावधान महाराज,
नाम नहीं लीजिएगा

हमारे समक्ष फिर किसी भूख का।"


उधर केदारनाथ अग्रवाल की युग की गंगा में श्रमजीवियों के खून पसीने से तैयार महल, अटारी, हाट, बाजार की चकाचौंध में यह बात अलक्षित रह जाती है कि इसकी नींव श्रमजीवियों के पसीने से भींगी हुई है-

"घाट, धर्मशाले, अदालतें
विद्यालय, वेश्यालय ‌ सारे
होटल, ‌ दफ्तर, बूचड़खाने
मंदिर, मस्जिद, हाट, सिनेमा

श्रमजीवी की हड्डी पर टिके हुए हैं।"


सन् 1930-35 से लेकर सन् 1947-48 और उसके आगे सन् 1962 तक देश के विभिन्न भू-खंडों और जनवृत्तों में तरह-तरह की घटनाएँ घटी - बंगाल में अकाल पड़ा, द्वितीय महायुद्ध से उत्पन्न प्रभाव जन-जन के सिर नाचने लगा, नौसेना विद्रोह हुआ, सन् 1942 की शहादत हुई, देश आजाद हुआ, विभाजन हुआ, दंगों में खून की होली खेली गई, अंग्रेजी शासन से देश मुक्त हुआ, जनता चैन की सांस लेने की सोच रही थी कि पंडित जवाहर लाल नेहरू का राजनीतिक मोहभंग हुआ....... निरंतर घटनाएँ घटती रही। स्वदेशी शासन व्यवस्था में जिस तरह की व्यवस्था की कामना को लेकर प्रगतिशील लेखक आगे बढ़े थे, उन कामनाओं और सपनों पर तुषारापात हो गया। मगर प्रतिबद्ध रचनाकार विचलित नहीं हुए, डटे रहे। मैत्री का समझौता कर लेने के बावजूद सन् 1962 में चीन ने भारत पर हमला किया, तो शमशेर बहादुर सिंह ने अपनी कविता सत्यमेव जयते में लिखा -

"इस धोखे का नाम दोस्ती है और इस दोस्ती को हम
चीन कहते हैं.....
माओ ने सब कुछ सीखा, एक बात नहीं सीखी
कि झूठ के पाँव नहीं होते !

सत्य की ज़बान बंद हो, फिर भी वह गरजता है।"


राष्ट्रीय संकट की घड़ी में ओछी लिप्सा त्यागकर प्रगतिशील रचनाकारों ने अपना दायित्व जिस निष्ठा और समझ-बूझ के साथ निभाया, वह हिन्दी साहित्य, भारतीय साहित्य और भारत की राष्ट्रीय अस्मिता के लिए अप्रतिम उदाहरण है। शायद यही कारण है कि आज के समकालीन साहित्य में भी उनकी चेतना और समझ-बूझ पद्धति जीवित है।