हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )/स्त्री लेखन का विकास और स्त्री साहित्य

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हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )
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स्त्री लेखन का विकास और स्त्री साहित्य[सम्पादन]

स्त्री और पुरुष दोनों ही समाज के नियामक है अर्थात् दोनों ही जीवन रूपी रथ के दो पहिये हैं लेकिन समाज में एक का दर्जा दूसरे से ऊपर आँका जाता है। नारी को सर्वदा से हीन मानकर एक पक्ष उस पर हावी रहा। उसकी भावनाओें-जिज्ञासाओं को एक मनुष्य के रूप में नहीं देखा गया। औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् न केवल जीवन शैली व सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन उभर कर प्रस्तुत हुए हैं। समानता व स्वतंत्रता की अवधारणाओं ने समूहों के परस्पर विभेदों को हटाकर समान अधिकारों के उपयोग की व्यवस्था को प्रस्तुत किया। इसी परिप्रेक्ष्य में नर व नारी के सम्बन्धों और परिस्थितियों की असमानता, एक महत्वपूर्ण प्रश्न के रूप में उभरा। स्वयं को स्त्री के रूप में देखने, जताने, और अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को स्थापित करते हुए 'स्त्रीवाद' की आवश्यकता पड़ी। इस विचारधारा की उत्पत्ति मूलतः पितृसत्तात्मक सत्ता की प्रतिक्रियास्वरूप हुई है। जिसका प्रयास स्त्री के अस्तित्व को स्वीकार करकें उसे 'मनुष्य' रूप में प्रतिष्ठित करने का है। समाज में उसे या तो देवी का रूप मानकर उसे ऊँचे सिंहासन पर बिठा दिया गया या फिर कुलटा कहकर समाज से बहिष्कृत कर दिया गया। संक्षेप में, स्त्री साहित्य, स्त्री को 'मनुष्यत्व' के रूप में स्थापित करने का प्रयास है तथा हाशिये पर ढकेल दी गई स्त्री अस्मिता को पुनः केन्द्र में लाने का प्रयास किया गया है।


हिन्दी में स्त्री चिन्तन का परम्परागत दृष्टि से स्त्री मुक्तिवाद, विवाद और संवाद का शुरुआत श्रृंखला की कड़ियाँ से मानी जाती है। किन्तु महादेवी वर्मा के समकालीन निराला के स्त्री-केन्द्रित आलेखों पर विचार किया जाना भी जरुरी है। निराला जी 'स्वकीया', 'कला और देवियाँ', 'समाज और स्त्रियाँ', 'हिन्दू-अबला', 'राष्ट्र और नारी', 'रुप और नारी', 'वर्तमान में महिला आन्दोलन' जैसे आलेखों के माध्यम से उस वक्त न केवल स्त्री से जुड़े विविध आयामों पर चर्चा कर रहे थे वरन् वे अपने समय से बहुत आगे आकर भी बातें कर रहे थे।

महादेवी वर्मा ने अपने रचना द्वारा स्त्रियों को कभी न हार मानने की प्रेरणा दी है। गद्य की विभिन्न रचनाओं में स्त्रीत्व के सभी पक्षों पर दृष्टि डाली है। ‘श्रृंखला की कडियाँ’ नें स्त्री के अस्तित्व की रक्षा और न्याय के लिए नारी बंधनों की श्रृंखला को तोड़ने का अथक प्रयास किया और स्त्री की गरिमा रखी है। महादेवी वर्मा ने स्त्री के सामाजिक, राजनीतिक,सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टिकोणों से देखकर ही अपने विचार व्यक्त किये है। बाल विवाह, कन्याभ्रूण हत्या, दहेज प्रथा, परिवार तथा विवाह संस्था, का विरोध भी किया है।महादेवी वर्मा ने स्त्रियों के सशक्त होने, अपने अधिकारों के प्रति जागरुक होने का गायन किया है और बड़े शालीन ढंग से पुरूष वर्चस्ववादी समाज व्यवस्था पर अनेक सवाल भी खड़े किये है।

सिलसिलेवार स्त्री पर चिन्तन का अबाध रस्म अस्सी के आस-पास देखने को मिलता है। इन पुस्तकों में विश्व साहित्य से हिन्दी में अनूदित होकर आयी कुछ सहत्वपूर्ण पुस्तकें शामिल है।‘स्त्री उपेक्षिता’(अनु.- प्रभा खेतान), ‘सिमोन-द-बोउवार’ की विश्वचर्चित कृति ‘द सेकेण्ड सेक्स’ का हिन्दी रूपान्तर स्त्री प्रश्नों पर विश्वस्तरीय महत्वपूर्ण पुस्तक है। सिमोन सामान्य स्त्री को केन्द्र में रखकर उनसें संवाद करती है।स्त्री पैदी नहीं होती, बनाई जाती है। - कहने वाली सिमोन स्त्री के समाजीकरण के प्रत्येक पहलू पर अपनी गहरी नज़र रखती है।

आठवें दशक के महिला लेखिकाओं की रचनाएँ जो उल्लेखनीय है- कृष्णा सोबती की ‘मित्रो मरजानी’, उषा प्रियंवदा की ‘रुकोगी नहीं राधिका’, ‘शेष यात्रा’, मन्नू भण्डारी का उपन्यास ‘आपका बंटी’, मृदुला गर्ग का ‘कठगुलाब’, प्रभा खेतान की ‘पीली आँधी’, ‘छिन्नमस्ता’, मैत्रीय पुष्पा के उपन्यास ‘चाक’, ‘इदन्नमम’ क्षमा शर्मा की ‘स्त्री समय’ तथा अरविंद जैन का ‘औरत होने की सजा’ में परम्परा और रूढियों में फंसी एक आधुनिक स्त्री की अपनी अस्मिता को ढूँढने की तलाश है।