हिंदी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल)/नई कविता

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परिभाषा और स्वरुप[सम्पादन]

नयी कविता 'भारतीय स्वतंत्रता' के बाद लिखी गयी उन कविताओं को कहा गया, जिनमें परंपरागत कविता से आगे नये भावबोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों और नये शिल्प-विधानों का अन्वेषण किया गया| यह अन्वेषण साहित्य में कोई नयी वस्तु नहीं है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो प्राय: सभी नये वाद या नयी-नयी धाराएं अपने पूर्ववर्ती वादों या धाराओं की तुलना में कुछ नवीन अन्वेषण की प्यास लिये दिखायी पड़ती है। साहित्य की यह नवीनता सदैव श्लाध्य है, यदि वह अपना संबंध बदलते हुए सामाजिक जीवन के मूल सत्यों से बनाये रखे।

इस प्रकार नित नवता की एक परंपरा गतिमान रही है। फिर भी 'नयी कविता' नाम स्वतंत्रता के बाद लिखी गयी उन कविताओं के लिए रूढ़ हो गया, जो अपनी वस्तु-छवि और रूप-छवि दोनों में पूर्ववर्ती प्रगतिवाद और प्रयोगवाद का विकास हो कर भी विशिष्ट हैं। नयी कविता की प्रवृत्तियों की परीक्षा करने पर उसकी सबसे पहली विशिष्टता जीवन के प्रति उसकी आस्था में दिखायी पड़ती है।आज की क्षणवादी और लघु मानववादी दृष्टि जीवनमूल्यों के प्रति नकारात्मक नहीं, स्वीकारात्मक दृष्टि है।

नयी कविता ने जीवन को उपर्युक्त धाराओं की कविताओं की तरह न तो एकांगी रूप में देखा,न केवल महत्व रूप में,बल्कि उसके जीवन को (वह चाहे किसी वर्ग का हो, चाहे व्यक्ति का हो,चाहे समाज का हो) जीवन के रूप में देखा) इसमें कोई सीमा नहीं निर्धारित की, मनुष्य किसी वर्गीय चेतना, सिद्धांत अथवा आदर्श की बैसाखी पर चलता हुआ लइसके पास नहीं आया,वह अपने संपूर्ण दु:ख-सुख, राग-विराग के परिवेश से संयुक्त राम मनुष्य के रूप में आया। [१]


परिवेश[सम्पादन]

आजादी के बाद लिखी गई उन कविताओं को नयी कविता कहा गया। जिनमें परंपरागत कविता से आगे नये जीवन- भावबोधों और नये शिल्प-विधान का अन्वेषण किया गया। यह नयापन आजादी के बाद बदले हए नए पर्यावरण की देन था। हालांकि साठ के बाद साठोत्तरी पीढ़ी के समकालीन कवियों ने जिस मोहभंग का महसूस किया। उसके त्रासद और कड़वे अनुभव भी इस कविता में मिलने लगते हैं।

जगदीश गुप्त ने नई कविता के विषय में लिखा, 'नई कविता उन प्रबुद्ध आस्वादकों को लक्षित करके लिखी जा रही है, जिनकी मानसिक अवस्था और बौद्धिक चेतना नये कवि के समान है अर्थात् जो उसके समानधर्मी है।' कई अर्थों में सन् 1947 के बाद की हिंदी कविता में अचरज में डालने वाले नए प्रयोगों के नाम पर असामाजिक, स्वार्थ-प्रेरित,अहम्निष्ठ,घोर रुग्ण व्यक्तित्व, दमित वासनाओं और कुंठाओं, चूड़ी. चोटी और चप्पल जैसे विषयों को बिना किसी बड़े रचनात्मक उद्देश्य के कविता का रूप दिया जाने लगा। ये सभी विशेषताएँ नयी कविता के कवियों ने प्रयोगवादी कविता से ग्रहण की थी। इस युग की कविता में यह प्रवृत्तियाँ थोड़ी बदली हुई रूप में मिलती है।

दिलचस्प तथ्य यह है कि ऐसा करने वाले कई कवि पहले प्रगतिवादी थे, बाद में प्रयोगवादी हो गये वे अपने-आप को वामपंथी कहते थे, किंतु असलियत में यह बने हुए या दिखावटी वाममार्गी थे। इन कवियों ने प्रयोगवाद के विरोध को देखते हुए नयी कविता में शरण ली। जल्दी ही इनकी वास्तविकता उजागर हो गई। लोगों ने नयी कविता के मुखौटे के पीछे दिखावटी प्रयोगवाद के इस चेहरे को पहचान लिया।

वास्तविक प्रयोगवादी कवियों ने दो बड़े काम किए- एक तो व्यक्ति के मन की उलझी हुई संवेदनाओं और अचेतन मन के सत्यों को आज के युग सत्य मानकर उन्हें उद्घाटित करने की कोशिश की। दूसरी: उन्होंने उन मानसिक सच्चाईयों को प्रकाशित कर सकने लायक नये शिल्प का अन्वेषण किया। प्रयोगवादी कविता जीवन के जुड़ाव से कटकर रह गयी क्योंकि इसका को जीवन के प्रति बेहद निराश था।[२]

नयी कविता का सफर सन् 1943 में अज्ञेय द्वारा संपादित और प्रकाशित 'तारसप्तक' से शुरू होती है। इसे तीन चरणों में बांटकर देख सकते हैं।

>(1) पहले दौर की नयी कविता में लगभग वही कवि हैं, जिन की रचनाएँ 'तारसप्तक' में प्रकाशित हुईं। 'तारसप्तक' के इन कवियों में केवल डॉ. रामविलास शर्मा ही ऐसे कवि थे, जो अंत तक प्रगतिवादी ही रहे। वे क्लासिक और अनिवार्य वामपंथ छोड़कर उदारवादी वाममार्ग पर चले। सप्तक-परंपरा से अलग कवियों में नरेश मेहता सरीखे कवियों की रचनात्मक प्रगतिशीलता विकसित हुई। इस चरण के अन्य कवियों में नागार्जुन ने तीखे राजनीतिक व्यंग्य लिखे। वे कविता को आगे ले गए। बालकृष्ण राव की कविता में आस्था, आशा और आत्मविश्वास देखने को मिलता है। जगदीश गुप्त के भीतर सौंदर्य और प्रेम का रचनाकार एवं सजग चित्रकार विकसित हुआ है। दुष्यंत कुमार की कविता गजल के शिल्प में व्यक्त हुई है। ठाकुर प्रसाद सिंह ने लोकगीतों की भाव संपदा को नवगीतों में उतारने की सफल कोशिश की है। कीर्ति चौधरी नयी कविता के प्रथम चरण की भाव चेतना की रचनाकार हैं। इस चरण की समाप्ति अज्ञेय के कविता संग्रह 'आंगन के द्वार पर (सन् 1961) के प्रकाशित होने पर होती है।

>(2) दूसरे चरण के नई कविता के कवियों में मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, केदारनाथ सिंह तथा विजयदेव नारायण साही प्रमुख हैं। यह सब अलग-अलग जमीनों और विचारधाराओं के कवि हैं। इनकी कविताओं में द्वंद्व, संघर्ष-विद्रोह, विसंगति, आक्रोश, बेचैनी की अभिव्यक्ति है। आधुनिकता का संपूर्ण युगबोध इन कविताओं का केंद्रीय स्वर है। इस दौर की कविता में मानवीय स्वतंत्रता, लघु मानव की स्थापना और आत्म चेतना के प्रखर स्वर है।

>(3) तीसरे दौर में पहुंचकर नयी कविता अलग-अलग दिशाओं में मुड़ती है। यह नयी कविता की विघटन की स्थिति न होकर उसके विकास की स्थिति थी। इस युग के लघु मानव के अस्तित्व के असमर्थता बोध से नयी कविता का कवि प्रभावित हुआ। तत्कालीन मनुष्य का सौंदर्यबोध नष्ट हो गया। इसका नए कवि पर असर हुआ। परिणाम यह हुआ कि विवशता, भय, ऊब, आतंक और अकेलेपन का बोध नयी कविता पर छाने लगा। नयी कविता की एक और काव्यधारा मनुष्य की स्थितिहीनता को स्वीकार कर रही थी। लेकिन वह मूल्यहीनता को लक्ष्य नहीं मानती थी। इस धारा के कवि मानव-मुक्ति और सत्य की उपलब्धि में विश्वास करते हैं। उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक है। इन कवियों में केदारनाथ सिंह, विपिन कुमार अग्रवाल, अशोक वाजपेयी, मणि मधुकर, अजित कुमार आदि के नाम उल्लेखनीय है। यह नई कविता के अंतिम दौर में उभरने वाले कवि हैं। इनमें से मणि मधुकर, केदारनाथ सिंह और अशोक वाजपेयी परवर्ती पीढ़ी के महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में प्रतिष्ठित हए।

साहित्यिक वातावरण[सम्पादन]

छायावादी व्यक्तिगतता से निकलकर प्रगतिवादी सामाजिकता में तो हम पहुंचे थे परंतू उसका प्रभाव समाप्त हो गया। नये 'प्रयोग' के स्वर भी मंद हो चुके थे। 'वाद' की प्रवृत्ति से कविता को बाहर कर जनता के बीच, जनता के दरबार में लाना कवियों को अभिप्रेत था नयी कविता में प्रगतिवाद का सामाजिक भावबोध है तो प्रयोगवाद की शिल्पगत विशिष्टता है। प्रयोगवादियों की आत्मकेंद्रितता, निराशा को उन्होने सामाजिक व्यापार का आधार दिया। नयी कविता की भिन्नता यही है। लक्ष्मीकांत वर्मा ने 'दूसरा सप्तक' के बाद के कवियों ने सारी कविता को दूसरा सप्तक के निकटवर्ती पाते हुए किन्हीं अर्थों में कुछ भिन्नता का अनुभव किया। ये वही सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक भिन्नता है जो नयी कविता प्रवृत्तियों में विकसित हुई। साथ ही विदेशी वादों का प्रभाव भी उस पर रहा है। खासकर वाद विषय में मनोविश्लेषण का तो अभिव्यक्ति क्षेत्र में बिंब प्रतिक का निराला द्वारा 'खून सींचा खाद का तूने अशिष्ट, डाल पर मंडरा रहा है कैपिटलिस्ट' की घोषणा ने परिस्थिति की वास्तविकता को पहचाना था। जिसमे यथार्थ का दामन पकड़कर प्रगतिवाद उभर कर आया। वही प्रयोगवाद में सामाजिक अतियथार्थवाद में अपनी कुंठा की व्यंजना साहित्य में करता रहा।

नयी कविता मात्र सभी प्रकार के दूषणों से मुक्त प्रांगण में आयी। प्रयोगवाद को नई कविता की भूमिका कहा जा सकता है। देवराज ने सही कहा है की, "इन कविताओं को नयी कविता की पूर्ववर्ती कहा जा सकता है, इन कविताओं की प्रकृति का अध्ययन करने से इसमें और 'नयी कविता' आंदोलन की काव्य-चेतना में अंतर स्पष्ट परिलक्षित हो जाता है, किन्तु यह अन्तर विरोधी नहीं है, यह विकास प्रक्रिया का अन्तर है।" इसलिए देवराज इसे नयी कविता भी नहीं कहते उन्हें 'संक्रमणकालीन कविताएँ' कहते है, किन्तु 'नयी कविता' नाम अब उसके लिए एक बार चल पड़ा सो वही रहा हैं।

नई कविता की काव्यगत प्रवृत्तियाँ[सम्पादन]

(1)जीवन-जगत के प्रति अगाध प्रेम एवं आस्था-[सम्पादन]

नयी कविता के कवियों ने जीवन को उत्सव के रूप में देखा है। उन्होंने समाज के प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति के जीवन में इन संदर्भों को रेखांकित करने की कोशिश की है। नयी कविता में जीवन के प्रति प्रेम, आशा, विश्वास और आस्था की आवाजें सुनायी पड़ती है। नई कविता के प्रगतिशील रूझान के कवि केदारनाथ अग्रवाल 'युग की गंगा' की भूमिका में लिखते हैं कि- 'इन कविताओं में पलायनवादिता नहीं है, देश की जागृति, शक्ति का उबाल है।' केदार की 'कोहरा' शीर्षक कविता की निम्न पंक्तियाँ इस का प्रमाण है-

"पर निश्चय है, दृढ़ निश्चय है इतना, दिनकर जाएगा लपटों से लिपटा। भस्मीभूत करेगा कोहरा क्षण में, प्यारी धरती को स्वाधीन करेगा।"

'फूल नहीं रंग बोलते हैं कविता की निम्न पंक्तियों में भी केदार जीवन के प्रति आस्था प्रकट व्यक्त हैं-

"पेड़ नहीं पृथ्वी के वंशज हैं फूल लिए फल लिए मानव के अग्रज हैं।"

दुष्यंत कुमार की कविता की निम्न पंक्तियों में भी हम इंसानी जीवन के साथ लगाव की भावना दिखाई देती है-

"चेतना ये, होकर सफल आए न आए, पर मैं जिऊंगा नयी फसल के लिए, कभी ये नयी फसल आए न आए।"

नई उम्र की नई फसल का प्रयोगवादी अनदेखा कर रहे थे नई कविता ने उसमें निहित आस्था-विश्वास को प्रेरणा के रूप में ग्रहण किया है।

(2)आस्था और विश्वास-[सम्पादन]

नई कविता में निराशा, अनास्था और अविश्वास के साथ-साथ आशा, आस्था और विश्वास के स्वर भी सुखद प्रतिपक्ष के रूप में सुनाई पड़ते हैं। आरंभ में इन कवियों में घोर निराशा दिखाई देती है, लेकिन बाद में यही कवि आशा और विश्वास से भरी कविताएँ लिखने लगे। यही आशावादी दृष्टिकोण आगे चलकर समकालीन प्रश्नों और समस्याओं से जूझता हुआ दिखाई देता है। आशा का बिंब आगे चलकर स्वास्थ्य का प्रतीक बन गया है।

(3)मानवतावादी यथार्थ दृष्टिकोण-[सम्पादन]

नयी कविता के कवियों का मानवतावाद किताबी आदर्श की हवाई कल्पनाओं पर नहीं टिका है। यथार्थ की प्रखर चेतना मनुष्य को उसके समूचे पर्यावरण सहित समझने का बौद्धिक उपक्रम तथा जटिल मानवीय संवेदना के अनेकायामी स्तरों तक अनुभूतिपरक और विश्लेषात्मक स्तरों तक पहुंचने की कोशिश करती है। इस युग में मानव की भौतिक प्रगति के अनेक रास्ते खुले हैं किंतु साथ ही उसके अपने अस्तित्व के लिए विषम-विसंगत परिस्थितियाँ भी पैदा हुई हैं। यह युग-सत्य है। मनुष्य को इन उलझी हुई और संकट में डालने वाली परिस्थितियों पर काबू पाना है। निराशा, पीड़ा और दुख को झेलकर सुखों को बांटना है। दुष्यंत कुमार के काव्य संग्रह'सूर्य का स्वागत' में संकलित एक कविता की निम्न पंक्तियाँ इस अनुभूति को अभिव्यक्त करती हैं-

"छोटी-सी एक खुशी अधरों में आई मैंने उसको जला दिया मुझ को संतोष हुआ और लगा

हर छोटे को बड़ा करना धर्म है।"

केदारनाथ सिंह के कविता संग्रह'अभी बिल्कुल अभी' की कविताएँ भी कवि के यथार्थपरक मानवतावादी विचारों को उजागर करती हैं।

(4)महानगरीय और ग्रामीण मानवीय सभ्यता का यथार्थ चित्रण-[सम्पादन]

नयी कविता में महानगरीय शहरी तथा ग्रामीण जीवन संस्कारों के नवीन और यथार्थवादी चित्रण मिलते हैं। इस दौर में कविता के केंद्र गाँव और छोटे शहरों से शिफ्ट होकर महानगर बन रहे थे कई सभ्यताओं और संस्कारों के आपसी टकराव नई कविता में दर्ज़ हुए हैं।

अज्ञेय ने शहरी जीवन की यथार्थ शक्ल अपनी 'साँप' शीर्षक में उभारते हुए लिखा है-

"साँप! तुम सभ्य तो हुए नहीं, नगर में वसना भी तुम्हें नहीं आया। एक बात पूछा-(उत्तर दोगे?) तब कैसे सीखा डसना- विष कहाँ से पाया?"

यहाँ तीखा व्यंग्य भाव है जबकि धूमिल अपने गांव खेवली का मार्मिक चित्र प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं-

"वहाँ कोई सपना नहीं है। न भेड़िये का डर। बच्चों को सुलाकर औरतें खेत पर चली गई हैं। खाये जाने लायक कुछ भी शेष नहीं है। वहाँ सब कुछ सदाचार की तरह स्पाट और ईमानदारी की तरह असफल है।"

नई कविता में परिवेश, मनुष्य-जीवन और उसकी सभ्यता में आते बदलावों का यथार्थ अंकन हुआ है।

(5) घोर वैयक्तिकता-[सम्पादन]

नई कविता का केंद्रीय विषय निजी मान्यताओं,विचारधाराओं एवं अनुभूतियों को उजागर करना है। नई कविता अहम के भाव से ग्रस्त और त्रस्त है। कई जगह वह आत्म विज्ञापन का घोर समर्थक नजर आती हैं।

"साधारण नगर के एक साधारण घर में मेरा जन्म हुआ --*--*--* जुट गया ग्रंथों में मुझे परीक्षाओं में विलक्षण श्रेय मिला।"

यह नए कवि भारत भूषण अग्रवाल के जीवन का निजी सत्य है।

(6)निराशा-[सम्पादन]

नई कविता में मनुष्य की सहायता, विवशता, अकेलापन,मानवीय-मूल्यों का विघटन, सामाजिक विषमताओं तथा युद्ध के विकराल परिणामों का चित्रण किया गया है जिससे कवि के हताश मन का उद्घाटन होता है-

"प्रश्न तो बिखरे यहाँ हर ओर है, किंतु मेरे पास कुछ उत्तर नहीं।"

कवि अपने चारों ओर सवाल-दर-सवाल महसूस करता है, किंतु उनका उत्तर उसके पास नहीं है।

"आस्था न काँपे, मानव फिर मिट्टी का भी देवता हो जाता है।" अज्ञेय इन पंक्तियों में मानव पर विश्वास व्यक्त करते हैं।

(7)नास्तिकता-[सम्पादन]

बौद्धिक एवं वैज्ञानिक युग से संबंधित होने के कारण नई कविता मे भावात्मक दृष्टिकोण से विरोध दिखाई पड़ता है। नए कवि का ईश्वर, नियति भाग्य, मंदिर और अन्य देवी-देवताओं में भरोसा नहीं है। वह स्वर्ग-नरक का अस्तित्व नहीं मानता-

"उर्वशी ने डांस स्कूल खोल दिया है। गणेश जी टॉफी खा रहे हैं।" भारतभूषण अग्रवाल इन पंक्तियों में देवी-देवताओं का उपहास उडाते हैं।

(8)क्षणवाद का महत्त्व-[सम्पादन]

नयी कविता क्षणों की अनुभूतियों को महत्व देती है। वह क्षणों में बंटे जीवन की पूर्णता क्षणों में जीना चाहती है। नयी कविता के कवियों के यहाँ एक-एक क्षण का बोध जीवन की चरम अनुभूति और संदर्भगर्भित जीवन सत्य है। अपने दर्शन के अनुसार वे जीवन का संपूर्ण उपभोग करना चाहते हैं। नयी कविता अनुभूति पूर्ण गहरे क्षण-प्रसंग, कार्य-व्यापार या सत्य को उसकी आंतरिक मार्मिकता के साथ पकड़ लेना चाहती है। इस प्रकार जीवन के सामान्य दीखने वाले व्यापार या प्रसंग नयी कविता में नया अर्थ-संदर्भ पा जाते हैं-

"आओ इस झील को अमर कर दें। छूकर नहीं किनारे बैठ कर भी नहीं एक संग झांक इस दर्पण में अपने को दे दें हम इस जल को जो समय है।"

इन रचनाकारों के लिए 'जो भी है. बस यही एक पल है' का क्षणवादी अनुभव समूचा जीवन सत्य बन जाता है। नई कविता का कवि क्षण-विशेष की अनुभूति को विशेष महत्व देता है। उसके लिए सुख का एक क्षण संपूर्ण जीवन से अधिक महत्वपूर्ण है-

" एक क्षण : क्षण में प्रवहमान व्याप्त संपूर्णता।" नया कवि क्षण में ही जीवन की पूर्णता के दर्शन करता है।

(9)भोगवाद और वासना-[सम्पादन]

नई कविता में क्षणवादी विचारधारा ने भोगवाद को जन्म दिया है। नई कविता में भोग और वासना का स्वर मुख्य है। नया कवि आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अभाव के कारण उधार की उत्सवधर्मिता का पक्षपाती बन गया है। इसके बहाव में उसने सामाजिक मूल्यों का उल्लंघन भी किया है । वह आत्मिक सौंदर्य की उपेक्षा कर दैहिक सौंदर्य को सर्वोपरि मानता है। इस प्रकार नई कविता कहीं-कहीं समाज में अश्लीलता, अनैतिकता और अराजकता का वातावरण उत्पन्न करती हुई दिखाई पड़ती है-

"प्यार है अभिशप्त तुम कहाँ हो नारी?" अज्ञेय की यह पंक्तियाँ इस संदर्भ में देखने योग्य है।

(10)नए जीवन मूल्यों की प्रस्तावना-[सम्पादन]

नयी कविता नए जीवन मूल्यों को प्रस्तावित करती है। इस सिलसिले में यह कवि पुराने मूल्यों की परीक्षा करते । है। ये मूल्य नए युग की आवश्यकताओं के परिवेश में कितने खरे उतरते हैं और अपने परंपरित रूप में कितने असंगत हो गये हैं? इनका कितना स्वरूप आज के लिए प्रासंगिक है? इत्यादि प्रश्न नयी कविता का कवि करता है। उसकी सवालिया निगाह इन मूल्यों के नए मनुष्य के संदर्भ में परखती है। इस पड़ताल में मूल्यगत असंगतियाँ नए कवि के व्यंग्य का निशाना बनती हैं। नये संदों में सिद्ध होने वाले मानवीय मूल्यों के प्रति कवि अपनी आस्था व्यक्त करते हैं। नई कविता बदलते मापदंड और मूल्यों या मूल्यहीनता पर प्रकाश डालती है।

(11)व्यंग्य का तीखा स्वर-[सम्पादन]

नयी कविता में व्यंग्य का स्वर बेहद तीखा और निर्मम है। नयी कविता का कवि जीवन की व्यावहारिकता और तार्किकता पर भरोसा करता है। वह देखता है जीवन की असलियत और सोच में काफी अंतर है। ऐसे में विरूपित यथार्थ के प्रति उसका व्यंग्यात्मक तेवर जाग जाता है। उसका दृष्टि यथार्थ को अनदेखा नहीं कर पाती-

"झाड़ने फूंकने वालों को बुलाओ या किसी डॉक्टर को दिखाओ ठीक हो जाएगा सर्प का काटा है न मैंने समझा किसी मनुष्य ने काट खाया है।"

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना व्यवस्था और तंत्र द्वारा पोषित चटकार संस्कृति ।

"क्योंकि कुत्ता आदत से टुकड़खोर है तुम्हें टुक्कड़ खोरी के रास्ते बंद करने होंगे।"

अपनी कविता 'गरीबी हटाओ' में उनका व्यंग्य और भी तीखा और मार्मिक हो जाता है-

" गरीबी हटाओ सुनते ही सब के सब फटे जूते सिलवा और चप्पलों में कील जड़वा चल दिये. काफी चल लेने के बाद जब वे सोचने बैठे किधर जायें। तब तक उनके जूते फिर टूट चुके थे और वे नंगे पैर थे मोची की तलाश में।"

व्यंग्य अभावों से उपजता है और सवाल में बदलकर करुणा जगाता है। रचनाकार को अपने समय और समाज को विसंगतियों बर्दाश्त नहीं होती तो उसकी प्रश्नाकुलता व्यंग्य भाव में बदल जाती है। इसे नयी कविता में भी देखा जा सकता है।

नई कविता में कवियों ने अपने समय और समाज में व्याप्त विषमता का व्यंग्यात्मक चित्रण किया है। व्यंग्यात्मक शैली में जीवन और सभ्यता के चित्रण में काव को आशातीत सफलता भी मिली है। श्रीकांत वर्मा ने 'नगरहोन मन" शीर्षक कविता में आज के नागरिक जीवन की स्वार्थपरता, छल-छद्म-कपट से भी जदगी को स्वर दिया है। अज्ञेय की कविता 'साँप' में भी नागरिक सभ्यता पर तीखा कटाक्ष है।

(12)अति बौद्धिकता-[सम्पादन]

नई कविता के कवियों में महसूस करने की क्षमता कम है। कवियों ने बुद्धि के द्वारा दिमागी कवायद की है। नया कवि हृदय को प्रकट न करके युद्ध का ही अधिक आश्रय लेता है। उन्होंने अपनी बुद्धि से अपन समय और समाज की समस्या पर मजी की समस्या पर गर्भ चितता ददकत की है और ये कवि अपनी समस्याओं का समाधान भी बौद्धिकता के धरातल पर खोजते हैं।

(13) नए शिल्प की प्रतीक योजना और बिंब विधान-[सम्पादन]

नयी कविता के कवियों ने नएपन के अतिआग्रह की वजह से विलक्षण और अपूर्व प्रतीक प्रयोग किया है। अज्ञेय लिखते हैं-

"अगर मैं यह कहूं बिछली घास हो तुम लहलहाती हवा में कलगी छरहरी बाजरे की?"

मुक्तिबोध के नए उपमान विचित्र हैं-

"अहं भाव उत्तुंग हुआ है तेरे मन में जैसे धूरे पर उठा है धृष्ट कुकुरमुत्ता उन्मुक्त"

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता का प्रतीकार्थ निराला है। एक उदाहरण देखिए-

" लोकतंत्र को जूते की तरह लाठी में लटका भागे जा रहे हैं सभी सीना फुलाए।"

नयी कविता में ऐसी अनूठी बिंब-योजना मिलती है जितनी इस से पूर्ववर्ती हिंदी कविता में नहीं थी। नयी कविता के बिंब अधिकतर प्रतीकात्मक और सांकेतिक होते हैं। कई जगह उसमें जटिलता और दुरुहता भी मिलती है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की 'यह खिड़की' शीर्षक कविता का कथ्य अपना शिल्प निर्धारित करता हुआ कई अमिट बिंबों की रचना करता है-

"जिंदगी मरा हुआ चूहा नहीं है जिसे मुख में दबाए बिल्ली की तरह हर शाम गुजर जाए और मुंडेर पर कुछ खून के दाग छोड़ जाए।"

विचारों के कवि श्रीकांत वर्मा भी कई जगह प्रतीकात्मक बिंबों में अपनी बात रखते हैं-

"एक अदृश्य टाइपराइटर पर साफ-सुथरे कागज-सा चढ़ता हुआ दिन तेजी से छपते मकान, घर, मनुष्य..." घास का घराना' के सृजक मणि मधुकर लिखते हैं-

" मेरी असलियत में एक छेद है, चुगलखोर है और सचमुच मुझे उस का खेद है।"

बेहद प्रतिभाशाली लेकिन उतने ही अल्पचर्चित अजित कुमार की निम्न पंक्तियाँ नई कविता की सार्थक और कतई नई बिंब-योजना के उदाहरण-रूप में अक्सर प्रस्तुत की जाती हैं-

"चंदनी चंदन सदृश हम क्यों लिखें? मुख हमें कमलों सरीखे क्यों दिखें? हम लिखेंगे चाँदनी उस रुपए सी है जिसमें चमक है पर खनक गायब है हम कहेंगे जोर से मुंह पर अजायब है जहाँ पर बेतुके, अनमोल, जिंदा और मुर्दा भाव रहते हैं।"

नए कवियों ने आधुनिक खड़ी बोली के अनेक रूपों को प्रयुक्त किया है तथा अनेक नए विशेषणों एवं क्रियापदों का भी निर्माण किया है। इन्होंने भाषा के सौंदर्य में वृद्धि के लिए नवीन प्रतीक-योजना, बिंब-विधान एवं उपमान योजना को भी अपनाया है। प्राकृतिक बिंब का एक नवीन उदाहरण दर्शनीय है-

"बूंद टपकी एक नभ से किसी ने झुक कर झरोखे से कि जैसे हँस दिया हो!"

नए कवियों ने छंद के बंधन को स्वीकार न करके मुक्त परंपरा में ही विश्वास रखा है। कहीं लोकगीतों के आधार पर रचना की है, कहीं अपने क्षेत्र में नए प्रयोग भी किए हैं। कुछ ऐसी भी कविताएँ लिखी हैं जिनमें न लय है, न गति है, बल्कि पद्य जैसी शुष्क और नीरस है। कुछ नए कवियों ने रुबाइयों, गज़लों और सॉनेट पद्धति का भी इस्तेमाल किया है। नई कविता के कवियों ने बिल्कुल उपमानों, प्रतीकों और बिंबों का प्रयोग किया है। अज्ञेय पुराने उपमानों से उकताकर नवीन उपमानों के प्रयोग पर बल देते हैं। नया कवि वैज्ञानिक उपमानों का प्रयोग भी करता है। इन कवियों ने कलात्मक, प्राकृतिक, वैज्ञानिक, पौराणिक तथा यौन प्रतीकों का खुलकर प्रयोग किया है। कलात्मक प्रतीक का उदाहरण देखिए-

"ऊनी रोएंदार लाल-पीले फूलों से

*--*--*--*--*--*

छोटा-सा एक गुलदस्ता है।"

नई कविता के बिंब का धरातल भी व्यापक है। इन कवियों ने जीवन। समाज और उनसे संबंधित समस्याओं के लिए सार्थक एवं सजीव बिंबों की योजना की है। ये बिंब मानव-जीवन और प्रकृति से लिए गए हैं-

'मरहरे वाले शौचालय के जंगल में झुकी पीपल डाल आचमन करती नदी का।"

नई कविता आज भी नए कथ्यरूप में मौजूद है। साठोत्तरी समकालीन कविता, कविता, विद्रोही कविता, संघर्षशील कविता, आज की कविता आदि अनेक काव्य धाराएँ नयी कविता आंदोलन के बाद अस्तित्व में आई लेकिन सब में दृश्य-अदृश्य रूप में एक अमिट अंतर्धारा बनकर नयी कविता की उपस्थिति महसूस होती रही है। आज की कविता में भी नई कविता खुद को विकसित कर रही है।

शिल्पगत विशेषता[सम्पादन]

प्रयोगवादी यों की शिल्प प्रवृत्ति का प्रभाव नयी कविता में दिखाई देता है। बिम्ब,प्रतीक, नवीन अप्रस्तुत विधान आदि का प्रयोग पूर्ववर्ती कविता के साथ नयी परिवर्तन दृष्टि से किया गया है। नयी कविता के भीतर अभिव्यक्ति की सम्प्रेषणीयता का प्रश्न महत्वपूर्ण हो चुका है। भाषा सरंचना, भाषा प्रयोग, अनुभावित संवेद्य-तत्व, गतिशीलता की दृष्टि से नयी कविता की भाषा विशिष्ट है।

भाषा[सम्पादन]

नये कवियों में यह विचार पनपा की परंपरागत भाषा से युग-जीवन के सही चित्रण की आशा नहीं की जा सकती थी। मूल रूप में यही कारण था जिससे नये कवि को भाषा संस्कार की आवश्यकता पड़ी।" नयी कविता भाषा की विशेषता यह है की वह किसी एक पध्दति में बंधकर नहीं चलती किन्तु प्रभावि एवं सशक्त अभिव्यक्ति के लिए उत्कृष्ट कवि बोलचाल की भाषा-प्रयोग को प्राधान्य देता है। नयी कविता भी उसी का स्वीकार करती है। भवानी प्रसाद की'सतपुड़ा के जंगल' कविता जंगल प्रकृति और प्रवृत्ति दोनों को सामने लाती है आशोक वाजपेयी की कविता शहर अब भी संभावना है, का उदाहरण देवराज ने दिया है, "माँ/लौटकर जब आऊँगा/क्या लाऊँगा/यात्रा के बाद की थकान/सूटकेस में धर भर के लिए कपड़े/मिठाइयां, खिलौने/बड़ी होती बहनों के लिए/अंदाज से नयी फैशन की चप्पलें/ संस्कृत, अंग्रेजी उर्दू, जनपदीय बोली-शब्द का प्रयोग नयी कविता में हुआ है। त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, धूमिल, सर्वेश्वर आदि में यह देखे जाते है। 'लोक भाषा, लोक धून' और 'लोक संस्कृति' का प्रयोग 'गीति साहित्य' में हुआ है। अज्ञेय की कलगी बाजरे की कविता उत्कृष्ट उदा है।

नयी कविता के नये मुहावरे भाषा को 'सार्वजनीक' बनाते है। भाषा का साधारणीकरण नयी कविता की विशेषता है। कहीं कही सपाटबयानी या वक्तव्य नुभा'भाषा का प्रयोग भी प्रचुर हुआ है। धूमिल आदि की भाषा इसी प्रकार की है। सामान्य आदमी, सामान्य भाषा उनकी खासियत है

"रांपी से उठी हुई आँखों ने मुझे क्षणभर टटोला और फिर जैसे पतियाते हुए स्वर में वह हँसते हुए बोला बाबूजी! सच कहूँ-मेरी निगाह में न कोई छोटा है न कोई बड़ा है मेरे लिए, हर आदमी एक जोड़ी जुता है जो मेरे सामने मरम्मत के लिए खड़ा है।"

नयी कविता में गद्य भाषा का प्रयोग भी सर्व स्विकृत हो गया है। अधिकार लम्बे चौड़े वाक्य, वक्तव्य देते, बात समझाते, वर्णन करने इसी प्रकार की भाषा प्रयुक्त हुई है।

अज्ञेय की कविता का एक उदाहरण-

"और एक चौथा मोटर मैं बैठता हुआ चपरासी से फाइलें उठाएगा एक कोई बीमार बच्चे को सहलाता हुआ आश्वासन देगा-देखो, हो सका तो जरुर ले आऊँगा"

और एक कोई आश्वासन की असारता जाते हुआ भी मुस्काराकर कहेगा- "हाँ, जरुर, भूलना मत। इससे क्या कि एक की कमर झुकी होगी और एक उमंग से गा रहा होगा- 'मोसे गंगा के पार..." और एक के चश्मे का काँच टूटा होगा और एक के बस्ते में स्कूल की किताबें अधिक से अधिक फटी हई होगी? एक के कुरते की कुहनियाँ छिदी होंगी,

एक के निकर मे बटनों का स्थान एक आलपीन ने लिया होगा। नयी कवियों के रचनाओं में चिन्ह संकेतों से भी कविता पंक्तियाँ लिखी जा चुकी है। एक शब्द एक पंक्ति बना है। तो दुसरी ओर विराम, अर्धविराम, पूर्णविराम के चिन्हों को तिलांजलि दी गयी है। जैसे- "भाषण में जोश है पानी ही पानी है पर की च ड खामोश है"

मुक्तछंद का, मुक्तक शैली का स्वीकार नयी कविता के धारा में हुआ है। जटिल एवं उलझी हुई अनुभूतियों को व्यक्त करते समय जैसा चाहा वैसा प्रयोग हुआ है। इसकों देवराज भाषा क्षेत्र में 'विद्रोह' कहते है और इसके पीछे 'चमत्कार की अपेक्षा विवशता' की अधिकता मानते है। 'बदले हुए परिवश को चित्रित करने के लिए उन्होंने 'एक ऐसा मुहावरा स्वीकार कर लिया था, जिसके अनुसार आपाद-मस्तक कीचड़ से भरे मानव को भी मानव तुम सबसे सुंदरतम कहना जरुरी था।" इसलिए उन्होंने ने भाषा को ही नये संस्कार दिये। प्रगति-प्रयोग काल की अपेक्षा नयी कविता की भाषा-शैली नयी ही रही है।

प्रतिक[सम्पादन]

नयी कविता में परंपरागत तथा नये प्रतीकों का प्रयोग हुआ है। कुछ कवियों के कविता शीर्षक ही प्रतीकात्मक है अज्ञेय की 'नदी के द्वीप', सागर तट की सीपियाँ, मुक्तिबोध की 'ब्रह्मराक्षस', 'भूल-गलती' 'लकड़ी का रावण' अंधेरे में 'अंधेरा, काला पहाड, तिलक की मुर्ती, गांधी, आकाश में तालस्ताय आदी प्रतीक ही है।'ब्रह्मराक्षस' वर्तमान में बाँह यांत्रिक संघर्षों के बीच पीड़ित मानव का प्रतीक है, तो 'लकड़ी का रावण' शोषक सत्ता का और 'वानर जनवादी क्रांतिकारियों के प्रतीक है। "बढ़न न जाय। छिन जाए। मेरी इस अद्वितीय/सत्ता के शिखरों पर स्वर्णाभ/हमला न कर बैठे खतरनाक/ कुहरे के जनतंत्री। वानर से नर ये।"

नयी कविता में तीन प्रतीक रुपों का प्रयोग हुआ है। एक जिनका संबंध भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा से है। इनमें प्राकृतिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, अन्योक्ति मूलक, रुपक मूलक और बिम्ब मूलक आदि आते है। दुसरे वे प्रतीक है जिन्हें नये कवियों ने गढ़ा है। और तीसरे वे प्रतीक है जो भारतीय साहित्य में किसी एक भाव-बोध के प्रतिनिधि है तथा दूसरे देशों के साहित्य में किसी दूसरे भाव-बोध के किन्तु नये कवियों ने दूसरे देश की मान्यता के आधार पर ही उन्हें अपने काव्य में प्रयुक्त किया है-

"लो क्षितिज के पास वह उठा तारा, अरे! वह लाल तारा नयन का तारा हमारा सर्वहारा का सहारा"

में भारत भूषण अग्रवाल ने 'लाल तारा' रूसी क्रांति के रुप में प्रयुक्त किया है जबकी भारत में वह अपशकुन का प्रतीक माना जाता है। अज्ञेय की 'साँप' 'बावरा आहेरी' इसी प्रकार की कविता है। खंडकाव्यों में पौराणिक प्रतीकों का प्रचूर प्रयोग हुआ है। कर्ण, द्रोण, अभिमन्यू, एकलव्य, अश्वत्थामा, सीता, द्रोपदी, आदि।

बिम्ब[सम्पादन]

बिम्ब को मुर्त शब्द-चित्र कहते है। कविता के लिए वह महत्वपूर्ण साधन है जो कवि अनुभूति को प्रभावक्षमता के साथ पाठकों तक पहुंचाता है। स्वंयनिर्मित मौलिक बिम्ब का प्रचूर प्रयोग नयी कविता में हुआ है। बिम्ब कई प्रकार के होते है। मुक्तिबोध ने बिम्बों का समर्थ प्रयोग कविता में किया है। उन्होंने मानव-हृदय की जटिलता को एक प्राकृत गुहा के समान बिंब माना है- "भूमि की सतहों के बहुत नीचे/अंधियारी एकान्त/प्राकृत गुहा एक।"

कई वैज्ञानिक बिंबों का प्रयोग आधुनिक जीवन को व्यक्त करने के लिए मुक्तिबोध ने किया है- सितारे आसमानी छोर/पर फैले हुए/अनगिनत दशमलव से/दशमलव-बिंदूओं के सर्वतः/पसरे हुए उलझे गणित मैदान में। अथवा एक एक वस्तु या एक-एक प्राणाग्नि-बम है/ये परमास्त्र है, प्रक्षेपास्त्र है, यम है/शून्याकाश में से होते हुए वे/अरे, अरि पर ही टूट पड़े अनिवार। प्रक्षेपास्त्र, शेवलेट-डाज, रेडियो एक्टिव रत्न, कैमरा, रेफ्रिजरेटर जैसे बिंब मिलते है जो पूरी तरह आधुनिक जीवन संवेदों को व्यक्त करते है। प्रतीकात्मक बिंबों का तो खज़ाना ही नयी कविता में है। मुक्तिबोध में ब्रह्मराक्षस, अंधी गुफा, भूत आदी। के साथ ही संशय की एक रात, कनुप्रिया, असाध्य वीणा, मोचिराभ, आदि में कई बिंबों को प्रस्तुत किया गया है। मनोवैज्ञानिक तथा यौन बिंबों को भी प्रयुक्त किया गया है परंतू उत्तरोत्तर नयी कविता ने बिंबों की जगह सपाटबयानी वक्तव्य दिये है। बाद के कवियों ने संभवतः बिंबों को काव्य का साधक मानने के बजाय बाधक ही माना है। केदारनाथ सिंह जैसे कवि जिन्हे बिंबों का कवि कहा जाता है वे भी कह रहे है-

"तुमने जहाँ लिखा है 'प्यार' वहाँ लिख दो 'सड़क' फर्क नहीं पड़ता। मेरे युग का मुहावरा है फर्क नहीं पड़ता और भाषा जो मैं बोलना चाहता हूँ मेरी जिहवा पर नहीं बल्कि दाँतों के बीच की जगहों में सटी हुई है।"

डॉ. नामवर सिंह ने ठीक कहा है- 'वस्तु: इस बिंब-मोह के टूट ने का कारण सामाजिक और ऐतिहासिक है। छठे दशक के अंत और सप्तवें दशक के आरंभ में सामाजिक स्थिति इतनी विषम हो उठी कि उसकी चुनौति के सामने बिंब-विधान कविता के लिए अनावश्यक भार प्रतीत होने लगा।

लय,तुक और छंद[सम्पादन]

लय, तुक और छंद की अवधारणा छायावाद से हटने लगी है। निराला ने मुक्त छंद की घोषणा की पंत ने भी नयी काव्य भाषा को अपनाया नयी कविता ने तो छंद को अस्वीकृत ही किया परंतू उसके नये प्रयोग भी हुए है। देवराज ने ठीक कहा है- नयी कविता में छन्द को केवल घोर अस्वीकृति ही मिली हो- यह बात नहीं है, बल्कि वहाँ इस क्षेत्र में विविध प्रयोग भी किए गए है। इस संबंध में पहला प्रयोग हिन्दी के पुराने छंदों को तोड़कर नया मुक्त छंद बनाया गया, जैसे गिरिजाकुमार ने कवित्त व सवैया में तोड़-फोड़ की रामविलास शर्मा ने छनाक्षरी से रुबाई का निर्माण किया दूसरे प्रयोग में विविध देशी-विदेशी भाषाऔ के छंदों को नयी कविता में लाया गया। देशी भाषा में, बंगला, मराठी, संस्कृत और विविध लोक-भाषाओं के छंद समय समय पर प्रयोग किए गए। विदेशी भाषाओं में अंग्रेजी के 'सॉनेट', 'बैलेड', जपानी का 'हायकू'और चीनी फ्रेंच और अमरीकी कविता के चित्रों को नयी कविता में प्रयोग किया गया।" छंद का संबंध संगीत से रहा है और संगीत तुक, लय से जुड़ा है। नयी मुक्त छंद कविता 'गीत कविता के रुप में विकसित हुई है परंतू इन गीतों में केवल भावानकलता नहीं जीवन की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व मनोवैज्ञानिक स्थितियों का अंकन है। 'गीत' नयी कविता की महत्वपूर्ण विशेषता मानी जाती है। जो लोकगीत 'लोक धुनों लोक परंपराओं, लोक संस्कृति'से जुड़ा है।

उपसंहार[सम्पादन]

नई कविता जनता की और जनता के साथ की कविता है। वह परंपरा से विच्छेद होने के बावजूद परंपरा से मुक्त नहीं है। इस कविता आंदोलन से हिन्दी साहित्य में मुक्तिबोध,भवानी प्रसाद मिश्र, शमशेर बहादुर सिंह, कीर्ति चौधरी, भारतभूषण अग्रवाल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, केदारनाथ अग्रवाल, लक्ष्मीकांत वर्मा, जगदीश गुप्त, मुद्रा राक्षस, नेमिचंद्र जैन,प्रभाकर माचवे, राजकमल चौधरी, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, दुष्यन्त कुमार, धूमिल, कुंवर नारायण, कैलाश वाजपेयी, श्रीराम वर्मा, दुधनाथ सिंह जैसे सशक्त महत्वपूर्ण कवि उभरकर आये। देवराज ने कहा है की 'इस कविता ने ही पहली बार व्यक्ति को व्यक्ति की परंपरा में रखकर देखने का प्रयास किया। भक्तिकाल से लेकर प्रगतिवाद तक व्यक्ति को मंदिर, महल, स्वर्ग, आकाश, और मार्क्स की तथाकथित मार्क्स वादियों द्वारा स्वयं की गई अस्वाभाविक व्याख्याओं के रंगीन फोटो में लपेटा जा रहा है। नयी कविता ने ही उसे आम जिन्दगी की अच्छाइयों और बुराइयों के बीच मनोवैज्ञानिक रुप में चित्रित किया है। अतः नयी कविता ने व्यक्ति को परंपरा से काटा नहीं, बल्कि जोड़ा है। "यह मत सही भी प्रतित होता हो परंतू कबीर जैसे कवियों ने जनता की बात जनता की भाषा में कही है, वह हिन्दी साहित्य में पहला कवि और उसकी कविता है जिसने जनाभिव्यक्ति को पूर्ण रुपेन स्विकार किया था। नयी कविता में यह परंपरा फिर विकसित होती है। यह उसकी कटी परंपरा से जडी भावनाएँ है ऐसा कहा जायेगा।'भक्ति काल' शब्द प्रयोग जब देवराज करते है तो कबीर उसी काल में आते है। और उन्हें यों खारिज करना, योग्य होगा, क्योकि शुक्लजी के अनुसार 'ऊँच-नीच और जाति-पॉती के भाव का त्याग और भक्ति के लिए मनुष्य मात्र के समानाधिकार का स्वीकार था। "कबीर में मनुष्य मात्र के लिए समानाधिकार की भावना ने उन्हें सामाजिक, जनताभिमुख बनाया और उन्हीं के दुःख, पीड़ा, विषमता को कविता में लाया मनुष्य पर ईश्वर, धर्म, परंपरा, रुढ़ियों की गुलामी के वर्चस्व को उठाया। वर्ण-विषय के साथ भाषा भी उसी प्रकार की रही है। 'खिचड़ी' अथार्त साधारण जन की भाषा है। नयी कविता में भी 'भीड़', 'समुह' अभिव्यक्त हुआ है। उस की स्वतंत्रता की रक्षा का प्रश्न खड़ा किया गया है। उसके अन्त्तबाहय व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति ने उसे कबीर की परंपरा से जोड़ा ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।

  1. {1} डॉ. नागेन्द्र, डॉ.हरदयाल-हिंदी साहित्य का इतिहास-मयूर पेपरबैक्स- प्रष्ठ स. 612-613
  2. {2}(डॉ. हेमंत कुकरेती- हिंदी साहित्य का इतिहास-सतीश बुक डिपो, प्रष्ठ स.110)