हिंदी कविता (छायावाद के बाद)/कलगी बाजरे की

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हिंदी कविता (छायावाद के बाद)
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कलगी बाजरे की
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय

हरी बिछली घास।
दोलती कलगी छरहरी बाजरे की।
अगर मैं तुमको ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार-न्याही कुंई,
टटकी कली चम्पे की बगैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।

बल्कि केवल यही: ये उपमान मैले हो गए हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच।
कभी वासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।
मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी:
तुम्हारे रूप के-तुम हो, निकट हो,इसी जादू के -
निजी किस सहज, गहरे बोध से,किस प्यार से मैं कह रहा हूं-
 अगर मैं यह कहूं-
बिछली घास हो तुम
लहलहाती हवा में कलगी छरहरी बाजरे की?

आज हम शहरातियों को
पालतू मालंच पर संवरी जुही के फूल से
सृष्टि के विस्तार का - ऐश्वर्य कि - औदार्य का -
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक
बिछली घास है,
या शरद की सांझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती कलगी
अकेली
बाजरे की।

और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूं
यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट आता है।
और मैं एकान्त होता हूं समर्पित
शब्द जादू हैं-
मगर क्या यह समर्पण कुछ नहीं हैं?