कृष्ण काव्य में माधुर्य भक्ति के कवि/परमानन्ददास की माधुर्य भक्ति

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परमानन्ददास के उपास्य रसिक नन्दनन्दन हैं। रसिक शिरोमणि तथा रस-रूप होने के साथ-साथ श्रीकृष्ण की रूप माधुरी भी अपूर्व है। इस रूप-माधुरी का एक बार पान करके ह्रदय सदा उसी के लिए लालायित रहता है। इसी कारण कवि ने कहा है कि श्रीकृष्ण को पाकर सुन्दरता की शोभा बढ़ी है क्योंकि सौन्दर्य के वास्तविक आश्रय श्रीकृष्ण ही हैं।

सुन्दरता गोपालहिं सोहै।
कहत न बने नैन मन आनन्द जा देखत रति नायक मोहै।।
सुन्दर चरण कमल गति सुन्दर गुंजाफल अवतंस।
सुन्दर बनमाला उर मंडित सुन्दर गिरा मनों कल हंस।।
सुन्दर बेनु मुकुट मनि सुन्दर सब अंग स्याम सरीर।
सुन्दर बदन अवलोकनि सुन्दर सुन्दर ते बलवीर।।
वेद पुरान निरूपित बहु विधि ब्रह्म नराकृति रूप निवास।
बलि बलि जाऊँ मनोहर मूरति ह्रदय बसों परमानन्ददास।।
(परमानन्द सागर :डा० गोवर्द्धननाथ शुक्ल :पृष्ठ ४४९ )

परमानन्ददास ने राधा और कृष्ण के प्रेम की चर्चा कई पदों में की है। दोनों का प्रेम ही सच्चा प्रेम है। .इस कारण दोनों की जोड़ी अपूर्व है। केवल प्रेम की दृष्टि से ही नहीं वल्कि रूप और गुण दोनों में समान हैं। इसीलिए भक्त राधा-कृष्ण और उनकी लीलाओं का सतत गान तथा ध्यान करके आनन्द-लाभ करता है।

आजु बनि दम्पति वर जोरी।
सांवल गौर बरन रूप निधि नन्द किसोर ब्रजभान किसोरी।।
एक सीस पचरंग चूनरी एक सीस अद्भुत पर जोरी।
मृगमद तिलक एक के माथे एक माथे सोहै मृदु रोरी।।
नख सिख उभय भाँति भूषन छवि रितु बसंत खेलत मिलि होरी।
अति सै रंग बढ्यो 'परमानन्द ' प्रीति परस्पर नाहिन थोरी।।
(परमानन्द सागर :पृष्ठ ७७ )

राधा के प्रेम के अतिरिक्त परमानन्ददास ने गोपियों के प्रेम का भी वर्णन अनेक पदों में किया है। कृष्ण की रूप माधुरी से मुग्ध गोपियाँ उनके चरणों में अपना तन,मन समर्पित कर देती हैं। कृष्ण की प्राप्ति के लिए वे कठोर से कठोर व्रत तथा उपवास आदि का पालन करती हैं। और उनके लिए वे कुल के बन्धन ,समाज के बन्धन इहलोक तथा परलोक सभी कुछ छोड़ने को प्रस्तुत हैं इसी में आत्मसमर्पण का सर्वोत्कर्ष है :

अरी गुपाल सों मेरो मन मान्यों,कहा करैगो कोउ री।
हौं तो चरन कमल लपटानी जो भावै सो होउ री।।
माइ रिसाई, बाप घर मारै,हंसे बटाऊ लोय री ।
अब तो जिय ऐसी बनि आई विधना रच्यो संजोग री।।
बरु ये लोक जाइ किन मेरो अरु परलोक नसाइ री।
नंद नंदन हौं तऊ न छाँड़ों मिलोंगी निसान बजाई री।।
बहुरयो यह तन धरि कहाँ पैहौं वल्लभ भेष मुरारि री।
परमानन्द स्वाभी' के ऊपर सरबसु देहौं वारि री।।
(परमानन्द सागर :पृष्ठ १५० )

गोपियों की इस प्रेम-तीव्रता को देखकर ही कृष्ण नाना प्रकार से उनकी मनोकामना पूर्ण करते हैं ~

नैक लाल टेको मेरी बहियाँ।
औघट घाट चढ्यो नहिँ जाई रपटत हौं कालिन्दी महियाँ।।
सुन्दर स्याम कमल दल लोचन देखि स्वरुप ग़ुबाल अरुझानी।
उपजी प्रीति काम उर अन्तर तब नागर नागरी पहचानी।।
हंसि ब्रजनाथ गह्यो कर पल्लव जाते गगरी गिरन न पावै।
'परमानन्द 'ग्वालिन सयानी कमल नयन कर परस्योहि भावै।।
(परमानन्द सागर :पृष्ठ २५३ )

परमानन्ददास ने गोपियों और कृष्ण की प्रेम-लीलाओं का वर्णन संयोग और वियोग दोनों पक्षों में किया है। संयोग पक्ष की प्रेम-लीलाओं का आरम्भ बाल्य कालीन लीलाओं में होता है। बचपन का यह स्नेह नाना प्रकार के हास-परिहास के बीच प्रणय में परिवर्तित हो जाता है। इसी हास-परिहास एवं छेड़-छाड़ का रूप हमें दानलीला के पदों में लक्षित होता है। ऐसे ही कुछ पदों से रति-लीला की व्यंजना होती है। पर यह केवल विनोद है। इस पद की अन्तिम पंक्ति से यह बात पूर्ण रूपेण स्पष्ट हो जाती है।

काहे को सिथिल किए मेरे पट।
नंद गोप सुत छांड़ि अटपटी बार बार वन में कत रोकत बट।।
कर लंपट परसो न कठिन कुच अधिक बिधा रहे निधरक घट।
ऐसो बिरुध है खेल तुम्हारो पीर न जानत गहत पराई लट।।
कहूँ न सुनी कबहूँ नहिँ देखी बाट परत कालिन्दी के तट।
'परमानन्द 'प्रीति अन्दर की सुन्दर स्याम विनोद सुरत नट।।
(परमानन्द सागर :पृष्ठ ५८ )

परमानन्ददास ने अपने पदों में राधा-कृष्ण अथवा गोपी-कृष्ण के विलास का स्पष्ट रूप से कहीं भी वर्णन नहीं किया है। उन्होंने विलास का केवल संकेत मात्र अपने पदों में किया है। यद्यपि गोपियों में भी श्रीकृष्ण को पति रूप में प्राप्त इच्छा लक्षित होती है,किन्तु उसकी स्थिति राधा से भिन्न है। सिद्ध और साधक में जो अन्तर है वही अन्तर हमें राधा और गोपियों में लक्षित होता है। यही कारण है कि कृष्ण राधा के चरण-चाँपते हुए भी हमारे सम्मुख आते हैं,किन्तु गोपियाँ सर्वत्र कृष्ण की पद-वन्दना करते हुए दृष्टिगत होती हैं ,गोपियाँ रति की अभिलाषा करती हैं ,किन्तु रति-सुख केवल राधा को ही प्राप्त होता है :

मदन गोपाल बलैये लैहौं।
बृंदा बिपिन तरनि तनया तट चलि ब्रजनाथ आलिंगन दैहौं।।
सघन निकुंज सुखद रति आलय नव कुसुमनि की सेज बिछैहौं।
त्रिगुन समीर पंथ पग बिहरत मिलि तुम संग सुरति सुख पैहौं।।
अपनी चोंप ते जब बोलहुगे तब गृह छाँड़ि अकेली ऐहौं।
'परमानन्द 'प्रभु चारु बदन कौ उचित उगार मुदित ह्वै खैहौं।।
(परमानन्द सागर :पृष्ठ १२३ )