आधुनिक चिंतन और साहित्य/उत्तर-आधुनिकतावाद
फ्रेडरिक जेम्सन के अनुसार उत्तर-आधुनिकता 'परवर्ती पूंजीवाद' की उपज है। अतः उसका प्रसार ज्ञान के सभी क्षेत्रों में होने का दावा किया गया। उत्तर-आधुनिकता के संदर्भ में जेम्स फोर्ट का 'विशाल पैमाने पर विशाल उत्पादन' वाला फॉर्मूला तथा किंस का मॉडल अत्यधिक प्रसिद्ध हुआ। किंस से ही लोककल्याणकारी गणराज्य की धारणा विकसित हुई। वे मानते थे कि- गरीब तबके की बेहतरी का ध्यान रखा जाना चाहिए। इससे आर्थिक प्रसार होगा।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् किंस तथा जेम्स फोर्ट के विचारों ने पूंजीवादी व्यवस्था में स्थायित्व कायम किया। इससे आर्थिक प्रसार भी बढ़ा। सूचकांक के स्तर पर सोवियत संघ में ठहराव देखा गया तथा १९७९ में उसका पतन हो गया। इंग्लैंड में उदार पूंजीवाद आया। यूरोप में इसका प्रतिनिधित्त्व मार्टिन थेचर ने किया। मजदूर कानून सुधार के तहत स्थायी पेंशन को छीना जाने लगा। अटल बिहारी वाजपेयी के समय में यह न्यू पेंशन स्कीम नाम से आई। वित्तीय पूंजी से नई अर्थव्यवस्था आई। उसने राष्ट्र-राज्य के खतरों को बढ़ा दिया। इससे श्रम का समय भी बढ़ाया गया। उत्तर-आधुनिक युग ने इस राष्ट्र-राज्य की अवधारणा को कम किया।
परिचय
[सम्पादन]उत्तर-आधुनिकतावाद अनेक सिद्धांतों का मिलाजुला रूप माना जाता है। इसकी कोई निश्चित परिभाषा नहीं मिलती है। इसका परिचय देते हुए गोपीचंद नारंग 'संरचनावाद उत्तर-संरचनावाद एवं प्राच्य काव्यशास्त्र' पुस्तक के 'उत्तर-आधुनिकता: भारतीय परिप्रेक्ष्य में' नामक अध्याय में लिखते हैं कि- "उत्तर-आधुनिकता एक खुली-डली बौद्धिक अभिवृत्ति है-सर्जनात्मक आजादी की, अपनी सांस्कृतिक अस्मिता पर आग्रह करने की, अर्थ को रूढ़िगत परिभाषाओं से स्वतन्त्र करने की, सर्वस्वीकृत मान्यताओं के बारे में नए सिरे से विचार करने और प्रश्न उठाने की, प्रदत्त साहित्यिक लीक की निरंकुशता को तोड़ने की, संव्यूहन चाहे वह राजनैतिक हो या साहित्यिक उसको निरस्त करने की तथा अर्थ के रूढ़ पहलू के साथ उसके दमित या उपेक्षित पक्ष के देखने-दिखाने की।"[१] उत्तर-आधुनिकतावाद ने समाज में पीड़ित वर्ग का साथ दिया, जिसके फलस्वरूप साहित्य के क्षेत्र में विभिन्न विमर्शों का सूत्रपात हुआ।
उत्तर-आधुनिकतावादी विचारक
[सम्पादन]- प्रभाव की दृष्टि से फुको के अतिरिक्त देरिदा, लकां, रोलां बार्थ इत्यादि को उत्तर-आधुनिकता से जुड़े चिंतकों में शामिल किया जाता है।
- इस युग के विचारक मिशेल फुको ने माना कि- सत्ता और ज्ञान के बीच अनिवार्य संबंध होता है। अतः माना गया कि जिसका सूचना पर अधिकार होगा, वही ताकतवर भी होगा। क्योंकि वही तय करेगा कि कौन-सी सूचना दी जाए तथा कौन-सी नहीं। इसका ब्राजील में विरोध भी हुआ। सत्ता तथा जनता के मध्य उत्तर-आधुनिकता की भूमिका को लक्षित करते हुए गोपीचंद नारंग लिखते हैं कि- "कतिपय लोगों ने यह आशंका व्यक्त की है कि उत्तर-आधुनिकता से पुनरुत्थानवाद एवं क्षेत्रवाद को मदद मिल सकती है। वे यह भूलते हैं कि उत्तर-आधुनिकता बहरहाल पीड़ित वर्ग के साथ है। इसलिए अगर मज़लूम सत्ता लब्ध करने के बाद अत्यातारी की भूमिका निभाने लगे तो उत्तर-आधुनिकता चूँकि केन्द्रापसारी है, वह परिवर्तित स्थिति में भी पहले तत्त्व की नहीं, वरंच् दूसरे तत्त्व यानी उत्पीड़ित का पक्ष लेगी।"[२]
इतिहास-लेखन
[सम्पादन]- प्रभाव की दृष्टि से- मिशेल फुको ने इतिहास-लेखन को असंभव बताया। क्योंकि वह वास्तविक तथ्याधारित है, अतीत का विश्लेषण और विवेचन विज्ञान है, सत्य है। उत्तर-आधुनिक आख्यान के अनुसार-सत्य की संभावना, सत्य को निरूपित करने का प्रयास मात्र है। उत्तर-आधुनिकतावादी इतिहास को पाठ मानता है। वह मानता है कि 'बाबरनामा' सरीखे ग्रंथ वैयक्तिक दृष्टि से लिखे गए हैं तथा इतिहास इन्हीं के आधार पर लिखा गया है। अतः वह भी वैयक्तिक है। चौरी चौरा पर आधारित उनकी पुस्तक तथा उनका एक लेख 'सबाल्टर्न स्टडीज़' प्रसिद्ध है।
- वर्णन के आधार पर इतिहास द्वारा तैयार वर्णन- देरिदा के अनुसार घटी हुई घटना का वर्णन जिन्होंने देखा या जो उसके साक्षी रहे हैं, उसके आधार पर यह लेखा-जोखा तैयार किया गया।