हिंदी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल)/दलित विमर्श

विकिपुस्तक से

◾ प्रस्तावना

दलित विमर्श जाति आधारित अस्मिता मूलक विमर्श है। इसके केंद्र में दलित जाति के अंतर्गत शामिल मनुष्यों के अनुभवों, कष्टों और संघर्षों को स्वर देने की संगठित कोशिश की गई है।

यह एक भारतीय विमर्श है क्योंकि जाति भारतीय समाज की बुनियादी संरचनाओं में से एक है। इस विमर्श ने भारत की अधिकांश भाषाओं में दलित साहित्य को जन्म दिया है।

हिंदी में दलित साहित्य के विकास की दृष्टि से बीसवीं सदी के अंतिम दो दशक बहुत महत्वपूर्ण हैं।

◾परिवेश[सम्पादन]

भारतीय समाज आदिकाल से ही वर्ण व्यवस्था द्वारा नियंत्रित रहा है । जो वर्ण व्यवस्था प्रारंभ में कर्म पर आधारित थी कालान्तर में जाति में परिवर्तित हो गई ।

वर्ण व्यवस्था में गुण व कर्म के आधार पर वर्ण परिवर्तन का प्रावधान था किन्तु जाति के बंधन ने उसे एक ही वर्ण या वर्ग में रहने पर मजबूर कर दिया । अब जन्म से ही व्यक्ति जाति से पहचाना जाने लगा । उसके व्यवसाय का भी जाति से जोड़ दिया गया । अब जाति व्यक्ति से हमेशा के लिए चिपक गई और उसी जाति के आधार पर उसे सवर्ण या शूद्र , उच्च या निम्न माना जाने लगा । शूद्रों को अस्पृश्य और अछूत माना जाने लगा और इतना ही नहीं उन्हें वेदों के अध्ययन , पठन - पाठन , यज्ञ आदि करने से वंचित कर दिया गया । 

उच्च वर्ग ने अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए सबसे बड़ी चालाकी यह की , कि ज्ञान व शिक्षा के अधिकार को उनसे छीन लिया और उन्हें अज्ञान के अंधकार में झोंक दिया । जिससे वे आज तक जूझ रहे हैं और उभर नहीं पा रहे हैं ।

भारतीय समाज में दलित वर्ग के लिए अनेक शब्द प्रयोग में लाये जाते रहे है जैसे - शूद्र , अछूत , बहिष्कृत , अंत्यज , पददलित , दास , दस्यु , अस्पृश्य , हरिजन , चांडाल आदि ।

दलित शब्द का शब्दिक अर्थ है - मसला हुआ , रोंदा या कुचला हुआ , नष्ट किया हुआ , दरिद्र और पीडित , दलित वर्ग का व्यक्ति ।

विभिन्न विचारकों ने दलित शब्द को अपने - अपने ढंग से परिभाषित किया है ।

डॉ . एनीबीसेन्ट ने दरिद्र और पीडितों के लिए ' डिप्रैस्ड ' शब्द का प्रयोग किया है । दलित पैंथर्स के घोषणा पत्र में अनुसूचित जाति , बौद्ध , कामगार , भूमिहीन , मजदूर , गरीब - किसान , खानाबदोश जाति , आदिवासी और नारी समाज को दलित कहा गया है ।

मानव समाज में हर वह व्यक्ति या वर्ग दलित है जो कि किसी भी तरह के शोषण व अत्याचार का शिकार है ।

इसके अतिरिक्त माना गया कि- सामाजिक , सांस्कृतिक , राजनैतिक , धार्मिक या आर्थिक या फिर अन्य मानवीय अधिकारो से वंचित, वह वर्ग जिसे न्याय नही मिल सका, दलित है।

◾ दलित साहित्य की अवधारणा[सम्पादन]

वाल्मीकि के अनुसार दलितों द्वारा लिखा जाने वाला साहित्य ही दलित साहित्य है। उनकी मान्यतानुसार दलित ही दलित की पीडा़ को बेहतर ढंग से समझ सकता है और वही उस अनुभव की प्रामाणिक अभिव्यक्ति कर सकता है। इस आशय की पुष्टि के तौर पर रचित अपनी आत्मकथा जूठन में उन्होंने वंचित वर्ग की समस्याओं पर ध्यान आकृष्ट किया है।

◾ दलित शब्द से अभिप्राय[सम्पादन]

दलित विमर्श आज के युग का एक ज्वलंत मुद्दा है । भारतीय साहित्य में इसकी मुखर अभिव्यक्ति हो रही है । दलित साहित्य को लेकर कई लेखक संगठन बन चुके हैं और आज यह एक आंदोलन का रूप लेता जा रहा है । स्वाभाविक रूप से साहित्य , समाज और राजनीति पर इसका व्यापक असर पड़ रहा है

दलित शब्द का अर्थ है , जिसका दलन और दमन हुआ

। है

◾दलित आंदोलन और वैचारिक आधार[सम्पादन]

दलित आन्दोलन दलित साहित्य का वैचारिक आधार है डॉ.अंबेडकर का जीवन-संघर्ष ज्योतिबा फुले तथा महात्मा बुद्ध का दर्शन उसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि हैं । सभी दलित रचनाकार इस बिन्दु पर एकमत हैं कि ज्योतिबा फुले ने स्वयं क्रियाशील रहकर सामंती मूल्यों और सामाजिक गुलामी के विरोध का स्वर तेज किया था । ब्राह्मणवादी सोच और वर्चस्व के विरोध में उन्होंने आदोलन खड़ा किया था । यही कारण है कि जहाँ दलित रचनाकारों ने ज्योतिबा फुले को अपना विशिष्ट विचारक माना वही डॉ . अंबेडकर को अपना शक्तिपुंज स्वीकार किया ।

डॉ . अंबेडकर ने अनेक स्थलों पर जोर देकर कहा है कि दलितों का उत्थान राष्ट्र का उत्थान है । दलित चिंतन में राष्ट्र पूरे भारतीय परिवार या कौम के रूप में है जबकि ब्राह्मणों के चिंतन में राष्ट्र इस रूप में मौजूद नहीं है । उनके यहाँ एक ऐसे राष्ट्र की परिकल्पना है, जिसमें सिर्फ द्विज हैं । यहाँ न दलित हैं, न पिछड़ी जातियां है और न अल्पसंख्यक वर्ग है । इसलिए हिन्दू राष्ट्र और हिंदू राष्ट्रवाद दोनों खंडित चेतना के रूप में हैं ।

दूसरे शब्दों में वर्ण व्यवस्था ही हिंदू राष्ट्र का मूलाधार है । इसीलिए कंवल भारती के शब्दों में दलित मुक्ति का प्रश्न राष्ट्रीय मुक्ति का प्रश्न है । करोड़ों लोगों के लिए अलगाववाद का जो समाजशास्त्र और धर्मशास्त्र ब्राह्मणों ने निर्मित किया , उसने राष्ट्रीयता को खंडित किया था और उसी के कारण भारत अपनी स्वाधीनता खो बैठा था ।

दलित चिंतकों ने इतिहास की पुनर्व्याख्या करने की कोशिश की है । इनके अनुसार गलत इतिहास - बोध के कारण लोगों ने दलितों और स्त्रियों को इतिहास - हीन मान लिया है , जबकि भारत के इतिहास में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है । वे इतिहासवान है । सिर्फ जरूरत दलितों और स्त्रियों द्वारा अपने इतिहास को खोजने की है ।

डॉ . अंबेडकर पहले भारतीय इतिहासकार हैं जिन्होंने इतिहास में दलितों की उपस्थिति को रेखांकित किया है । उन्होंने इतिहास लेखन में दो तथ्यों को स्वीकार किए जाने की बात कही है । पहली बात यह कि एक समान भारतीय संस्कृति जैसी कोई चीज कभी नहीं रही और भारत तीन प्रकार का रहा - ब्राह्मण भारत , बौद्ध भारत और हिन्दु भारत । इनकी अपनी - अपनी संस्कृतियां रही । दूसरी बात यह स्वीकार की जानी चाहिए कि मुसलमानों के आक्रमणों के पहले भारत का इतिहास , ब्राह्मणों और बौद्ध धर्म के अनुयायियों के बीच परस्पर संघर्ष का इतिहास रहा है । जो कोई इन दो तथ्यों को स्वीकार नहीं करता , वह भारत का सच्चा इतिहास जो इस युग के अर्थ और उद्देश्य को स्पष्ट कर सके , कभी नहीं लिख सकता । [१]

◾ दलित आत्मकथाएं[सम्पादन]

दलित विमर्श सबसे प्रखर रूप में दलित आत्मकथाओं के रूप में सामने आया। दलित साहित्यकारों ने अपनी ही कहानी औ्र अपने अनुभव के माध्यम से दलित उत्पीड़न औ्र दलित संघर्ष को रेखांकित किया।

ओमप्रकाश बाल्मिकी की जूठन पहली दलित आत्मकथा है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी दलितों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए जो एक लंबा संघर्ष करना पड़ा, 'जूठन' इसे गंभीरता से उठाती है। इसमें चित्रित दलितों की वेदना और उनका संघर्ष पाठक की संवेदना से जुड़कर मानवीय संवेदना को जगाने की कोशिश करते हैं।

तुलसी राम की आत्मकथा 'मुर्दहिया' एवं मणिकर्णिका पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचल में शिक्षा के लिए जूझते एक दलित की मार्मिक अभिव्यक्ति है.साथ ही हाल ही के वर्षों में डॉ. श्योराज सिंह 'बेचैन' की आत्मकथा 'मेरा बचपन मेरे कंधों पर'प्रकाशित हुई है जिसमें एक दलित बालक के बचपन का गला बहुत ही बेरहमी से घोंटने का प्रयास किया गया, लेकिन लेखक का बाल-मन डरा नहीं जुटा रहा शिक्षा की लड़ाई के लिए।

◾ दलित कहानियाँ[सम्पादन]

दलित कहानियों में सामाजिक परिवेशगत पीड़ाएं, शोषण के विविध आयाम खुल कर और तर्क संगत रूप से अभिव्यक्त हुए हैं.

ग्रामीण जीवन में अशिक्षित दलित का जो शोषण होता रहा है, वह किसी भी देश और समाज के लिए गहरी शर्मिंदगी का सबब होना चाहिए था.

‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’ कहानी में इसी तरह के शोषण को जब पाठक पढ़ता है, तो वह समाज में व्याप्त शोषण की संस्कृति के प्रति गहरी निराशा से भर उठता है.

ब्याज पर दिए जाने वाले हिसाब में किस तरह एक सम्पन्न व्यक्ति, एक गरीब दलित को ठगता है और एक झूठ को महिमा-मण्डित करता है, वह पाठक की संवेदना को झकजोर कर रख देता है.

◾ दलित कविताएं[सम्पादन]

दलित साहित्यकारों में से अनेकों ने दलित पीड़ा को कविता की शैली में प्रस्तुत किया।

कुछ विद्वान 1914 में ’सरस्वती’ पत्रिका में हीराडोम द्वारा लिखित ’अछूत की शिकायत’ को पहली दलित कविता मानते हैं।

कुछ अन्य विद्वान अछूतानन्दहरिहर’ को पहला दलित कवि कहते हैं, उनकी कविताएँ 1910 से 1927 तक लिखी गई। उसी श्रेणी मे 40 के दशक में बिहारी लाल हरित ने दलितों की पीड़ा को कविता-बद्ध ही नहीं किया, अपितु अपनी भजन मंडली के साथ दलितों को जाग्रत भी किया ।[२] दलितों की दुर्दशा पर बिहारी लाल हरित ने लिखा :

तीन रुपये का जमींदार से ले लिया उधार अनाज,
एक आने का दोस्तों ठहरा लिया था ब्याज ।
दादा का कर्जा पोते से नहीं उतरने पाया,
तीन रुपये में जमींदार ने सत्तर साल कमाया

ओमप्रकाश बाल्मिकी की कविता 'ठाकुर का कुआं ' दलितों की अंतःपीड़ा को उजागर करती है-

चूल्हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का...

[३]

◾दलित चिंतक[सम्पादन]

दलित चिंतको के अनुसार वास्तव में जिसे हम नवजागरण कह सकते है उसकी लहर बंगाल में नही अपितु महाराष्ट्र से चली। वह लहर थी

दलित मुक्ति आंदोलन की जिसने न सिर्फ भारत का ही बल्कि पूरे विश्व का ध्यान आकृष्ट किया था । इस लहर को पैदा करने वाले थे महात्मा ज्योतिबा फूले।

(1). महात्मा ज्योतिराव फुले[सम्पादन]

महात्मा ज्योतिराव फुले सामाजिक क्रांति के अग्रदूत महात्मा ज्योतिराव फुले का जन्म सन 1827 में पुणे ( महाराष्ट्र ) में हुआ । उनके पिता का नाम गोविन्दराव और माता का नाम चिमणाबाई था । वे जाति से माली थे व सब्जी बेचकर गुजर - बसर करते थे ज्योति राव जब एक वर्ष के थे तभी उनकी माता का निधन हो गया । तब उनकी मौसेरी बहन श्रीमती सगुणाबाई ने उनका लालन पालन किया । घर की आर्थिक स्तिथि अछि न होने के कारण उन्हें पढ़ाई के लिए भी संघर्ष करना पड़ा। शिक्षा ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। शिक्षा से उन्हें मनुष्य के कर्तव्यो तथा मानव अधिकारो का ज्ञान हुआ।

विद्या विना गई मति ,
मति बन गई नीति।
नीति बन गई गति , गति बिन गया वित्त,
वित्त बिन चरमराये शूद्र, एक अविधा ने किए
इतने अनर्थ।

इन्होंने शिक्षा के महत्व को जन -जन तक पहुचाने के लिए लगभग 18 पाठशालाएं खोली ये पाठशालाएं मुख्य रूप से शुद्रो और महिलाओ के लिए था। [४]

महात्मा फुले ने 1873 में सत्य शोधक समाज की स्थापना की थी और इसी वर्ष उनकी क्रांतिकारी पुस्तक गुलामगिरी प्रकाशित हुई थी। इस समय तक रानाडे का प्राथना समाज अस्तित्व में आ चुका था।

इसके दो साल बाद 1875 में दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की थी । दलित आंदोलन जिन महापुरुषों से शक्ति ग्रहण करता है उनमें ज्योतिबा फुले के अलावा केरल के नारायण गुरु ( 1854 ) , तमिलनाडु के पीरियार रामास्वामी नायकर ( 1879 - 1973 ) , उत्तर भारत के स्वामी अछूतानंद ( 1879 - 1933 ) , बंगाल के चांद गुरु ( 1850 - 1930 ) , मध्य प्रदेश के गुरु घासीदास ( 1756 ) आदि प्रमुख हैं । _

ज्योतिबा फुले के नवजागरण के उपरांत महाराष्ट्र में जो दलित चेतना उभरी उसका राजनैतिक प्रभाव हमें 1923 में देखने को मिलता है जब बंबई की विधान परिषद् ने यह प्रस्ताव पारित किया कि दलित वर्ग के लोगों को भी सभी सार्वजनिक सुविधाओं और संस्थाओं के उपयोग का समान अधिकार होगा । महाड़ में अछूतों का पानी के लिए सत्याग्रह इसी अधिकार को प्राप्त करने के लिए था । इसने तत्कालीन राष्ट्रीय परिदृश्य में राजनीति के तीसरे ध्रुव दलित राजनीति को जन्म दिया और दलितों को सत्ता में भागीदारी दिलाई ।

1927 में ब्रिटिश सरकार ने भारत की संवैधानिक समस्या को सुलझाने के लिए साइमन कमीशन नियुक्त किया । कांग्रेस , मुस्लिम लीग , हिंदु महासभा आदि सबने इस कमीशन का विरोध किया और जहाँ भी कमीशन गया साइमन गो बैक के नारे लगाए गए।

डॉ.अंबेडकर के नेतृत्व में दलितों ने कमीशन का समर्थन किया और मांग की कि हिंदुओं से अलग उन्हें भी एक विशिष्ट अल्पसंख्यक वर्ग माना जाए और उनके लिए मुसलमानों की तरह का प्रतिनिधित्व दिया जाए । इतना ही नहीं , भारत के भावी संविधान की रूपरेखा तय करने के लिए जब लंदन में गोलमेज कांफ्रेंस की घोषणा हुई तो इसमें दलितों के प्रतिनिधि के रूप में डॉ . अंबेडकर और आर.श्रीनिवास को आमंत्रित किया गया था ।

आज दलित विमर्श और लेखन की कई धाराएँ हैं । पहली धारा - गैर दलित लेखकों की हैं । दूसरी धारा दलितों को सर्वहारा मानने वाले मार्क्सवादी लेखकों की है । इन दोनों धाराओं को मुख्य दलित साहित्यधारा नहीं मानने वाले दलित लेखकों की मुख्यधारा है । इन दोनों धाराओं को अपर्याप्त मानने वाले लेखकों ने दलित जीवन की यातना सही है ।

महात्मा फूले की आत्मकथा , काव्य और नाटकों में यह विमर्श पहली बार रचनात्मक अनुभव बना । अंबेडकर युग से पहले हीरा डोम सबसे आदरणीय दलित लेखक माने जाते हैं । अपनी मार्मिक कविता अछूत की शिकायत से उन्होंने पहली बार हिंदी लेखन में दलित सोच को शामिल किया । यह रचना ' सरस्वती ' जैसी पत्रिका के मुख्य पृष्ठ पर छपी थी । हीरो डोम ने भोजपुरी में जो ' अछूत की शिकायत ' लिखी थी , उसमें यह दयनीय सच उजागर किया था कि दलित को 24 घण्टे मेहनत करनी पड़ती है , फिर भी महीने में दो रूपये नहीं मिलते । इसी दौर के दलित लेखकों में हरिहर नाम से रचना करने वाले स्वामी अछूतानंद भी महत्त्वपूर्ण दलित रचनाकार हैं । उन्होंने दलितों को आदि हिंदू माना और अपनी कविता तथा नाटकों के द्वारा यह स्थापित किया कि भारत के मूल या आदि निवासी अछूत हैं , शेष सभी बाहर से आए हैं । कई आलोचकों और साहित्यकारों ने उन्हें पहला लेखक माना है । वैचारिक दृष्टि से वे अधिक सतर्क और सजग लेखक हैं । स्त्री - विमर्श की तरह दलित विमर्श भी रचनात्मक लेखन के माध्यम से आगे बढ़ा है ।

(2) स्वामी अछूतानन्द 'हरिहर'[सम्पादन]

स्वामी अछूतानन्द (6 मई 1869 - 20 जुलाई 1933) ने लोक छंद में रचित ' आदिवंश का डंका ' में गीत , गजल , भजन और रसिया के छन्दों का मिश्रण किया है । इसमें सुप्त दलित समाज को जगाने की बात करते हुए सबसे पहले वे कहते हैं कि दलित प्राचीनतम हिन्दू हैं जो कभी समाज के सरदार थे , उन्हें जबरन शूद्र बनाकर गुलामी की जन्जीरों में जकड़ लिया । वे इन जन्जीरों को तोड़ने की बात करते है । बुद्ध की मुक्त कंठ से प्रशंसा करने वाले इस कवि ने दलितों का आवाहन करते हुए कहा है कि कौम को अज्ञानता की नींद से जगाते चलो तथा सवर्णों को चेतावनी देते हुए वे उनके बाहरी पाखण्ड का पर्दाफाश करते हैं ।

तीसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य उनके यहाँ यह है कि मनुस्मृति दलितों को नीचे गिरा रही है । जिससे समाज में भेदभाव फैल गया है । कवि कहता है , ' हम तो शुद्ध - बुद्ध मानव हैं , पर तुम परख न पाते होघुसे छूत के कीड़े सिर में , जिससे तुम चिल्लाते हो । ' उनकी कविता पीड़ा और गुस्से से मिलकर बनी है , जिसमें परिवर्तन की उम्मीद साफ - साफ देखी जा सकती है ।

हैं सभ्य सबसे हिन्द के, प्राचीन हैं हकदार हम । हां-हां! बनाया शूद्र हमको, थे कभी सरदार हम ॥ [५]

अब तो नहीं है वह जमाना, जुल्म ‘हरिहर' मत सहो । अब तो तोड़ दो जंजीर, जकड़े क्यों गुलामी में रहो ॥

(3) डॉ. भीमराव अम्बेडकर[सम्पादन]

आधुनिक भारत में सामाजिक न्याय की स्थापना व दलित वर्गों के उत्थान के प्रति प्रतिबद्धता के प्रतीक के रूप में डॉ . भीमराव अम्बेडकर का नाम लिया जाता हैं।

अम्बेडकर सामाजिक न्याय के उत्कट सेनानी थे । उन्होंने दलित वर्गों के उत्थान और उनके लिए जीवन की न्याय - सम्मत और सम्मानजनक दशाएँ सुनिश्चित करने के अभियान के प्रति अपना जीवन समर्पित कर दिया । उन्होंने वैचारिक स्तर पर ही सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की आवश्यकता का प्रतिपादन नहीं किया , अपितु भारतीय समाज में विद्यमान अन्याय के निराकरण के लिए संघर्ष में सक्रिय रूप से भाग लिया । स्वयं अस्पृश्य होने के कारण अनेक अवसरों पर हिन्दुओं के हाथों सहने पड़े अपमानों और यातनाओं ने उनके मन में हिन्दू - धर्म और सवर्णों के प्रति कटुता और विद्वेष उत्पन्न कर दिया था । इस कारण उनके विचारों में एक सीमा तक कड़वाहट अवश्य आ गई । यह कड़वाहट हिन्दू धर्मशास्त्रों की उनके द्वारा की गई एकपक्षीय व अतिवादी व्याख्याओं में भी परिलक्षित होती है । किंतु इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि उन्होंने जातिप्रथा , वर्णव्यवस्था तथा हिंदू धर्म की अनेक अन्याय पूर्ण मान्यताओं के प्रति विद्रोह का जो साहस प्रदर्शित किया , वह आधुनिक युग में उनसे पूर्व कोई भारतीय विद्वान नहीं कर सका था । गरिमा , सामाजिक और आर्थिक न्याय तथा समता व्यक्ति कीकी स्थापना प्रति भारत के संविधान में व्यक्त हुआ संकल्प , संविधान के निर्माण की प्रक्रिया में डॉ . अम्बेडकर के निर्णायक प्रभाव का परिणाम है ।

अम्बेडकर समाज में से अन्याय दमन और उत्पीड़न के उन्मूलन को भारत की राजनैतिक स्वतंत्रता की तुलना को अधिक महत्व प्रदान करते थे । इस कारण उनके आलोचक उनके राष्ट्रवाद में संदेह करते हैं । किंतु अम्बेडकर की देश - भक्ति में संदेह करना वस्तुतः उनके प्रति अन्याय है ।

यह सत्य है कि कांग्रेस और गांधी के अनेक कार्यक्रमों के प्रति उनकी सहमति नहीं थी । उन्होंने अपने इस मन्तव्य को कभी छुपाया नहीं कि राजनैतिक स्वतंत्रता भारत के लिए तब तक महत्वहीन है जब तक कि दलित वर्गों को समाज की मुख्य धारा में सम्मिलित कर उन्हें राजनैतिक आर्थिक व सामाजिक शक्ति में समकक्ष भागीदार नहीं बनाया जाता किंतु अंबेडकर ने न तो भारत की राजनैतिक स्वतंत्रता के प्रश्न की उपेक्षा की , न ही उन्होंने ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा का भाव व्यक्त किया ।

दलितों के उत्थान के प्रति ब्रिटिश सरकार की उदासीन नीति का उन्होंने कठोर आलोचना की । अम्बेडकर मानव अधिकरों के महान समर्थक थे । उन्होंने व्यक्ति के अनुल्लंघनीय अधिकारों की सांविधानिक उद्घोषणाओं व अधिकरों के अतिक्रमण के विरूद्ध कानूनी उपचारों को सुनिश्चित करने तथा ऐसी उपयुक्त सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों के निर्माण को महत्वपूर्ण माना जिनमें कि व्यक्ति के अधिकार सुरक्षित रह सकें । वे वास्तविक अर्थ में संविधावादी थे तथा राज्य की शक्ति को मर्यादित करने के पक्ष में थे ।

भारत के संविधान में उदारवादी लोकतंत्र के प्रति आस्था , सामाजिक व आर्थिक न्याय तथा धर्म निरपेक्षता के आदर्शों के प्रति प्रतिबद्धता , संविधान के निर्माण पर अम्बेडकर के उदारवादी व्यक्तित्व के प्रभाव को परिलक्षित करते हैं ।

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◾ प्रमुख हिंदी दलित साहित्यकार[सम्पादन]

बिहारी लाल हरित, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, जयप्रकाश कर्दम, डॉ. कंवल भारती, सूरजपाल चौहान, श्यौराज सिंह 'बेचैन', डॉ. कुसुम वियोगी, रजनी तिलक दलित-चेतना के उल्लेखनीय लेखक हैं । हिंदी दलित-लेखन में महिला रचनाकारों की संख्या नगण्य है ।[७]

(1) बिहारी लाल हरित[सम्पादन]

लेखक परिचय बिहारी लाल हरित (13 दिसम्बर 1913- 26 जून 1999) हिंदी दलित कविता के प्रसिद्ध हस्ताक्षर रहे हैं। हीरा डोम और अछूतानंद जैसे प्रारंभिक दलित रचनाकारों की श्रेणी में हरित का नाम लिया जाता है। सन 1940 से 80 के दशक तक दलित हिंदी कविता धारा के क्षेत्र में हरित एवं उनके शिष्यों का प्रभाव रहा है। दलित समाज के प्रसिद्ध नारे जय भीम की सजना का श्रेय बिहारी लाल हरित को है। उन्होंने ही 1946 में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के जन्म दिवस समारोह के अवसर पर पहली बार दिल्ली में डॉ आंबेडकर की उपस्थिति में एक कविता के माध्यम से जय भीम का उद्घोष किया था । कविता के बोल थे: "नवयुवक कौम के जूट जावै सब मिलकर कौम परस्ती में, जय भीम का नारा लगा करे भारत की बस्ती बस्ती में"।


डॉक्टर अंबेडकर को दलित समाज के घर घर तक पहुंचाने तथा जनमानस को अंबेडकर के प्रति श्रद्धा से भरने के लिए हरित जी ने 1983 में भीमायण महाकाव्य की रचना की। अभिमान की एक विशेषता यह भी है कि इसमें उन्हीं छंदों का प्रयोग किया गया है जिनका प्रयोग तुलसीदास ने रामचरितमानस में किया है। यह साहित्य के उन आचार्य आलोचकों के लिए एक सशक्त जवाब है जो दलित रचनाकारों में कौशल की संभावनाओं को नकारते हैं।

वीरांगना झलकारी बाई हरित जी का दूसरा महत्वपूर्ण काव्य ग्रंथ है जिसमें देश के स्वाधीनता आंदोलन के दौरान झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की जान बचाने के लिए अंग्रेजी सेना से वीरता पूर्वक लड़का अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाली दलित वीरांगना झलकारी बाई के शौर्य और बलिदान की गौरव गाथा का चित्रण कर इतिहास के उन प्रसंगों और घटनाओं की ओर समाज और राष्ट्र क्या ध्यान आकृष्ट करने का सार्थक प्रयास किया गया है जो दलितों के राष्ट्र प्रेम त्याग और शौर्य से परिपूर्ण है। प्रसिद्ध दलित राजनेता और देश के भूतपूर्व उप प्रधान मंत्री बाबू जगजीवन राम के जीवन पर आधारित जग जीवन ज्योति नामक एक चंपू काव्य की रचना भी उन्होंने की।

बिहारीलाल हरित अभिमान के कवि थे। सन 1940 में हापुर उत्तर प्रदेश निवासी चर्चित शायर जिनका उपनाम बूंम था उसने चमारी नामा नामक एक लघु पुस्तिका लिखी जिसमें दलित की स्त्रियों पर आपत्तिजनक टिप्पणी की गई थी। हरित जी का मानस दलितों के प्रति बूम की आपत्तिजनक टिप्पणियों साहब और आंदोलित हुआ और उन्होंने चमार नामा लिखकर बूंम का सटीक जवाब दिया।

इसके अलावा भी बिहारीलाल हरित ने अन्य कई पुस्तकें लिखी जिनमें अछूतों का बेताज बादशाह प्रमुख है। हिंदी दलित साहित्य में कई महाकाव्य रचे गए जिनमें बिहारीलाल हरित कृत्य भीमआयन जग जीवन ज्योति कथा वीरांगना झलकारी बाई प्रसिद्ध है। इस प्रकार सन 40 से लेकर 80 के दशक तक दलित समाज में अंबेडकरी आंदोलन के प्रचार प्रसार में हरित जी की महत्वपूर्ण साहित्यिक सभा गीता रही है इनकी काव्य संवेदना का निर्माण असमानता शोषण और अन्याय के प्रतिकार का उद्वेलन है जिसका संबंध समाज में व्याप्त कुरीतियों को मिटाने से है। हरित जी दलित चेतना के समर्थ रचनाकार हैं जिन की कविताओं में प्रतिरोध की भावना प्रबल दिखती है।


१) भीमायण महाकाव्य

२) वीरांगना झलकारी बाई महाकाव्य

३) जग जीवन ज्योति महाकाव्य

४) चमार नामा

५) अछूतों का बेताज बादशाह इत्यादि

(2) ओमप्रकाश वाल्मीकि[सम्पादन]

ओमप्रकाश वाल्मीकि (30 जून 1950 - 17 नवम्बर 2013) वर्तमान दलित साहित्य के प्रतिनिधि रचनाकारों में से एक हैं। उनकी हिंदी दलित साहित्य के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

ओमप्रकाश वाल्‍मीकि जन्म30 जून 1950 बरला गांव, मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) जिला मृत्यु 17 नवम्बर 2013 (उम्र 63) देहरादून व्यवसाय - रचनाकार राष्ट्रीयता-भारतीय नागरिकता-भारत ●कविता संग्रह:-सदियों का संताप, बस्स! बहुत हो चुका, अब और नहीं, शब्द झूठ नहीं बोलते, चयनित कविताएँ (डॉ॰ रामचंद्र) ●कहानी संग्रह:- सलाम, घुसपैठिए, अम्‍मा एंड अदर स्‍टोरीज, छतरी ●आत्मकथा:- जूठन (अनेक भाषाओँ में अनुवाद) ●आलोचना:- दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र, मुख्यधारा और दलित साहित्य, सफाई देवता आदि।

नाटक:- दो चेहरे, उसे वीर चक्र मिला था अनुवाद:- सायरन का शहर (अरुण काले) कविता-संग्रह का मराठी से हिंदी में अनुवाद, मैं हिन्दू क्यों नहीं (कांचा एलैया) लो अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद, लोकनाथ यशवंत की मराठी कविताओं का हिंदी अनुवाद अन्य:- 60 से अधिक नाटकों में अभिनय, मंचन एवं निर्देशन, अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सेमीनारों में भागीदारी

(3) मोहनदास नैमिशराय[सम्पादन]

मोहनदास नैमिशराय ख्यातनाम दलित साहित्यकार एवं बयान के संपादक हैं। झलकारी बाई के जीवन पर वीरांगना झलकारी बाई नामक एक पुस्तक सहित उनकी ३५ से अधिक कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें उपन्यास, कथा संग्रह, आत्म कथा तथा आलेख इत्यादि शामिल हैं। वे सामाजिक न्यास संदेश के संपादक भी हैं। उनका बचपन गरीबी में बीता। वे मेरठ में रहते थे। मिट्टी का कच्चा घर था। विशेष कपड़े भी उस समय पहनने के लिए नहीं थे। बिना चप्पल या जूते के भी आना-जाना पड़ता था। उनकी शिक्षा मेरठ में कुमार आश्रम में हुई। यह आश्रम लाला लाजपत राय ने दलितों की शिक्षा के लिए बनवाया था।

उनके पिता आरंभ में सामाजिक कार्यकर्ता थे। वे डिप्रेस्ड लीग के चेयरमेन रहे और जब उन्होंने हायस्कूल किया तो वे पूरे जिले में हायस्कूल करने वाले दूसरे व्यक्ति थे। पिताजी नाटकों में भूमिका भी करते था।

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◾असंगघोष[सम्पादन]

खामोश नहीं हूँ मैं,

हम गवाही देंगे

मैं दूँगा माकूल जवाब,

समय को इतिहास लिखने दो

हम ही हटाएंगे कोहरा

ईश्‍वर की मौत

अब मैं सॉंस ले रहा हूँ

बंजर धरती के बीज

तुम देखना काल (कविता संचयन)

पुरस्कार संपादित करें

मध्य प्रदेश दलित साहित्य अकादमी, उज्जैन द्वारा पुरस्कृत (2002)

प्रथम सृजनगाथा सम्मान-2013[2]

गुरू घासीदास सम्‍मान

भगवानदास हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मान 2017

उर्वशी सम्‍मान 2017

स्‍व.केशव पाण्‍डेय स्‍मृति कविता सम्‍मान 2019

प्रथम मंतव्य सम्मान 2019

◾ विवादित मुद्दे[सम्पादन]

दलित विमर्स से संबंधित अनेक विवादास्पद मुद्दे हैं। इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं-

दलित किसे माना जाना चाहिए । उन्हें जो जन्म से अवर्ण हैं , जिन्हें हिन्दू समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था के अनुसार ' शूद्र ' माना जाता है या उन्हें जो ' अछूत ' समझे जाते हैं । ' शूद्र ' और ' अछूत ' ये दोनों श्रेणियाँ जन्म के आधार पर होती हैं अर्थात् इस श्रेणी में आने वाले लोगों के साथ आर्थिक और सामाजिक भेदभाव इसलिए किया जाता है क्योंकि इनका जन्म ऐसे समाजों में हुआ जिन्हें उत्पीड़ित और शोषित करना समाज के दूसरे वर्णों द्वारा अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझा जाता है । यदि किसी कारण से अपवाद रूप में भी अवर्ण जातियों में किसी की आर्थिक स्थिति बेहतर हो जाती है तो भी उनकी सामाजिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आता ।
विवाद का दूसरा मुद्दा दलित साहित्य की अवधारना को लेकर है। दलित पात्रों का चित्रण करने वाला सभी साहित्य दलित विमर्श के अंतर्गत शामिल किया जाएगा या केवल वही साहित्य इसमें गिना जाएगा जो दलितों द्वारा लिखा गया है।
विवाद का तीसरा मुद्दा दलित साहित्य के स्वरूप से संबंधित है। दलित साहित्य दलितों द्वाारा लिखे गए प्रत्एक साहित्य को माना जाएगा या कुछ खास किस्म के संघर्षमूलक साहित्य को ही दलित साहित्य माना जा सकता है?

◾संदर्भ[सम्पादन]

  1. डॉ. सिमा रानी - अस्मितामूलक विमर्श और साहित्य,अक्षर पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स,२०१७,पृ.१३-१४
  2. https://www.hindisahity.com/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4-%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE-dalit-sahitya-hindi-sahitya-ka-itihas/
  3. हिंदी: दलित साहित्य की 10 श्रेष्ठ रचनाएँ - BBC News हिंदी
  4. डॉ. मन्दाकिनी मीना - अस्मितामूलक विमर्श और साहित्य,श्री नटराज प्रकाशन,२०१७,पृ.११
  5. https://hindi.theprint.in/opinion/in-uttar-pradesh-bsp-ideological-foundation-laid-by-swami-achhootananda-harihar/59862/
  6. डॉ. मन्दाकिनी मीना- अस्मितामूलक विमर्श और साहित्य,नटराज प्रकाशन,२०१७,पृ.१४-१६
  7. विश्वनाथ त्रिपाठी-हिंदी साहित्य का सरल इतिहास, ओरियंट बलैकस्वांन,२००७, पृ.१४७
  8. मोहनदास नैमिशराय- भारतीय दलित आंदोलन : एक संक्षिप्त इतिहास, बुक्स फॉर चेन्ज, आई॰एस॰बी॰एन॰ : ८१-८७८३०-५१-१