कला और संस्कृति

विकिपुस्तक से

संस्कृति मंत्रालय कला और संस्कृति के संरक्षण तथा विकास में अहम भूमिका निभाता है। इस विभाग का उद्देश्य ऐसी पद्धति विकसित करना है जिससे कला और संस्कृति से जुडेΠ बुनियादी, सांस्कृतिक और सौंदर्यपरक मूल्यों तथा अवधारणाअों को जनमानस में जीवंत रखा जा सके। यह समकालीन सृजनात्मक कार्यकलापों की विभिन्न विधाओं को प्रोत्साहित करने से जुड़े कार्यक्रम भी चलाता है। यह विभाग ऐतिहासिक घटनाओं की जयंती और महान कलाकारों की शताब्दियां मनाने वाली प्रमुख एजेंसी भी है।

दृश्य कलाएं[सम्पादन]

ललित कला अकादमी[सम्पादन]

भारतीय कला के प्रति देश-विदेश में समझ बढ़ाने और प्रचार-प्रसार के लिए सरकार ने नई दिल्ली में 1954 में ललित कला अकादमी (नेशनल अकादमी ऑफ आर्ट्स) की स्थापना की थी। अकादमी के लखनऊ, कोलकाता, चेन्नई, नई दिल्ली और भुवनेश्वर में क्षेत्रीय केंद्र हैं जिन्हें राष्ट्रीय कला केंद्र के नाम से जाना जाता है। इन केंद्रों पर पेंटिंग, मूर्तिकला, प्रिंट-निर्माण और चीनी मिट्टी की कलाओं के विकास के लिए कार्यशाला-सुविधाएं उपलब्ध हैं।

अकादमी अपनी स्थापना से ही हर वर्ष समसामयिक भारतीय कलाओं की प्रदर्शनियां आयोजित करती रही है। 50-50 हजार रूपये के 15 राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्रदान किए जाते हैं। प्रत्येक तीन वर्ष पर अकादमी समकालीन कला पर नई दिल्ली में त्रैवार्षिक अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी (त्रिनाले इंडिया) आयोजित करती है।

अकादमी हर वर्ष जाने-माने कलाकारों और कलाक्षेत्र के इतिहासकारों को अपना फेलो चुनकर सम्मानित करती है। विदेशों में भारतीय कला के प्रचार-प्रसार के लिए अकादमी अंतर्राष्ट्रीय द्विवार्षिकियों और त्रिवार्षिकियों में नियमित रूप से भाग लेती है और अन्य देशों की कलाकृतियों की प्रदर्शनियां भी आयोजित करती है। देश के कलाकारों का अन्य देशों के कलाकारों के साथ मेलमिलाप और तालमेल बढ़ाने के उद्देश्य से अकादमी भारत सरकार के सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रमों और समझौतों के अंतर्गत कलाकारों को एक-दूसरे के यहां भेजने की व्यवस्था करती है।

ललित कला अकादमी कला संस्थाओं/संगठनों को मान्यता प्रदान करती है और इन संस्थाओं के साथ-साथ राज्यों की अकादमियों को आर्थिक सहायता देती है। यह क्षेत्रीय केंद्रों के प्रतिभावान युवा कलाकारों को छात्रवृत्ति भी प्रदान करती है। अपने प्रकाशन कार्यक्रम के तहत अकादमी समकालीन भारतीय कलाकारों की रचनाओं पर हिंदी और अंग्रेजी में मोनोग्राफ और समकालीन पारंपरिक तथा जनजातीय और लोक कलाओं पर जानेमाने लेखकों और कला आलोचकों द्वारा लिखित पुस्तकें प्रकाशित करती है। अकादमी अंग्रेजी में “ललित कला कंटेंपरेरि”, “ललित कला एंशिएंट” तथा हिंदी में “समकालीन कला” नामक अर्द्धवार्षिक कला पत्रिकाएं भी प्रकाशित करती है। इसके अलावा अकादमी समय-समय पर समकालीन पेंटिंग्स और ग्राफिक्स के बहुरंगी विशाल आकार के प्रतिफलक भी निकालती है। अकादमी ने अनुसंधान और अभिलेखन का नियमित कार्यक्रम भी शुरू किया है। भारतीय समाज और संस्कृति के विभिन्न पहलुओं से संबद्ध समसामयिक लोककला संबंधी परियोजना पर काम करने के लिए अकादमी विद्वानों को आर्थिक सहायता देती है।

मंचन कलाएं[सम्पादन]

संगीत[सम्पादन]

भारत में शास्त्रीय संगीत की दो प्रमुख विधाएं-हिंदुस्तानी और कर्नाटक-गुरू-शिष्य परंपरा का निर्वाह करती चली आ रही हैं। इसी परंपरा ने घरानों और संप्रदायों की स्थापना की प्रेरणा दी जो बराबर आगे बढ़ रही है।

नृत्य[सम्पादन]

भारत में नृत्य परंपरा 2000 वर्षों से भी यादा वर्षों से निरंतर चली आ रही है। नृत्य की विषयवस्तु धर्मग्रंथों, लोककथाओं और प्राचीन साहित्य पर आधारित रहती है। इसकी दो प्रमुख शैलियां हैं- शास्त्रीय नृत्य और लोकनृत्य। शास्त्रीय नृत्य वास्तव में प्राचीन नृत्य परंपराओं पर आधारित है और इनकी प्रस्तुति के नियम कठोर हैं। इनमें प्रमुख हैं-“भरतनाट्यम”, “कथकलि”, “कत्थक”, “मणिपुरी”, “कुचिपुड़ी” और “ओडिसी”। “भरतनाट्यम” मुख्यत— तमिलनाडु का नृत्य है और अब यह अखिल भारतीय स्वरूप ले चुका है। “कथकलि” केरल की नृत्यशैली है। “कत्थक” भारतीय संस्कृति पर मुगल प्रभाव से विकसित नृत्य का एक अहम शास्त्रीय रूप है। “मणिपुरी” नृत्य शैली में कोमलता और गीतात्मकता है जबकि “कुचिपुडि़” की जड़ें आंध्र प्रदेश में हैं। उड़ीसा का “ओडिसी” प्राचीनकाल में मंदिरों में नृत्य रूप में प्रचलित था जो अब समूचे भारत में प्रचलित है। लोकनृत्य और आदिवासी नृत्य की भी विभिन्न शैलियां प्रचलित हैं।

शास्त्रीय और लोकनृत्य दोनों को लोकप्रिय बनाने का श्रेय संगीत नाटक अकादमी, तथा अन्य प्रशिक्षण संस्थानों और सांस्कृतिक संगठनों को जाता है। अकादमी सांस्कृतिक संस्थानों को आर्थिक सहायता देती है और नृत्य तथा संगीत की विभिन्न शैलियों में विशेषतः जो दुर्लभ हैं, को बढ़ावा देने तथा उच्चशिक्षा और प्रशिक्षण के लिए अध्ययेताओं, कलाकारों और अध्यापकों को फेलोशिप प्रदान करती है।

रंगमंच[सम्पादन]

भारत में रंगमंच उतना ही पुराना है जितना संगीत और नृत्य। शास्त्रीय रंगमंच तो अब कहीं-कहीं जीवित है। लोक रंगमंच को अनेक क्षेत्रीय रूपों में विभिन्न स्थानों पर देखा जा सकता है। इनके अलावा शहरों में पेशेवर रंगमंच भी हैं। भारत में कठपुतली रंगमंच की समृद्ध परंपरा रही है जिनमें सजीव कठपुतलियां, छडि़यों पर चलने वाली कठपुतलियां, दस्ताने वाली कठपुतलियां और चमड़े वाली कठपुतलियां (समानांतर रंगमंच) प्रचलित हैं। अनेक अर्द्ध-व्यावसायिक और शौकिया रंगमंच समूह भी हैं जो भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में नाटकों का मंचन करते हैं।

संगीत नाटक अकादमी[सम्पादन]

संगीत नाटक अकादमी संगीत, नृत्य और नाटक की राष्ट्रीय अकादमी है जिसे आधुनिक भारत को निर्माण प्रक्रिया में प्रमुख योगदानकर्ता के रूप में याद किया जा सकता है, जिससे भारत को 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी। कलाओं के क्षणिक गुण-स्वभाव तथा उनके संरक्षण की आवश्यकता को देखते हुए इन्हें लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस प्रकार समाहित हो जाना चाहिए कि सामान्य व्यक्ति को इन्हें सीखने, अभ्यास करने और आगे बढ़ाने का अवसर प्राप्त हो सके। बीसवीं सदी के शुरू के कुछ दशकों में ही कलाओं के संरक्षण और विकास का दायित्व सरकार का समझा जाने लगा था। इस आशय की पहली व्यापक सार्वजनिक अपील 1945 में सरकार से की गई जब बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी ने प्रस्ताव प्रस्तुत किया कि एक राष्ट्रीय संस्कृति न्यास (नेशनल कल्चरल ट्रस्ट) बनाया जाए जिसमें तीन अकादमियां-नृत्य, नाटक एवं संगीत अकादमी, साहित्य अकादमी और कला एवं वास्तुकला अकादमी सम्मिलित हों।

इस समूचे मुद्दे पर स्वतंत्रता के पश्चात कोलकाता में 1949 में आयोजित कला सम्मेलन में तथा नई दिल्ली में 1951 में आयोजित साहित्य सम्मेलन तथा नृत्य, नाटक व संगीत सम्मेलन में फिर से विचार किया गया। भारत सरकार द्वारा आयोजित इन सम्मेलनों में अंततः तीन राष्ट्रीय अकादमियां स्थापित करने की सिफारिश की गई। इनमें से एक अकादमी नृत्य, नाटक और संगीत के लिए, एक साहित्य के लिए और एक कला के लिए स्थापित किए जाने का प्रस्ताव किया गया। 31 मई, 1952 को तत्कालीन शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के हस्ताक्षर से पारित प्रस्ताव द्वारा सबसे पहले नृत्य, नाटक और संगीत के लिए राष्ट्रीय अकादमी के रूप में संगीत नाटक अकादमी की स्थापना हुई। 28 जनवरी, 1953 को भारत के राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने संगीत नाटक अकादमी का विधिवत उद्घाटन किया।

1952 के प्रस्ताव में शामिल अकादमी के कार्यक्षेत्र और गतिविधियों में 1961 में मूलभावना के अंतर्गत ही विस्तार किया गया और तदनुसार सरकार ने संगीत नाटक अकादमी का समिति के रूप में पुनर्गठन किया और समिति पंजीकरण अधिनियम, 1860 (1957 में संशोधित) के अंतर्गत इसे पंजीकृत किया गया। समिति के कार्यक्षेत्र और गतिविधियां उस नियमावली में निर्धारित किए गए हैं जो 11 सितंबर, 1961 को इसके समिति के रूप में पंजीकरण के समय पारित की गई थी। अकादमी अपनी स्थापना के बाद से ही भारत में संगीत, नृत्य और नाटक के उन्नयन में सहायता के लिए एकीकृत ढांचा कायम करने में जुटी है। यह सहायता परंपरागत और आधुनिक शैलियों तथा शहरी और ग्रामीण परिवेशों के लिए समान रूप से दिया जाता है। अकादमी द्वारा प्रस्तुत अथवा प्रायोजित संगीत, नृत्य एवं नाटक समारोह समूचे देश में आयोजित किए जाते हैं। विभिन्न कला-विधाओं के महान कलाकारों को अकादमी का फेलो चुनकर सम्मानित किया गया है। प्रतिवर्ष जानेमाने कलाकारों और विद्वानों को दिए जाने वाले संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मंचन कलाओं के क्षेत्र में सर्वाधिक प्रतिष्ठित सम्मान माने जाते हैं। दूर-दराज क्षेत्रों सहित देश के विभिन्न भागों में संगीत, नृत्य और रंगमंच के प्रशिक्षण और प्रोत्साहन में लगे हजारों संस्थानों को अकादमी की ओर से आर्थिक सहायता प्राप्त हुई है और विभिन्न संबद्ध विषयों के शोधकर्ताओं, लेखकों तथा प्रकाशकों को भी आर्थिक सहायता दी जाती है।

अकादमी द्वारा अपनी स्थापना के बाद की गई मंचन कलाओं की व्यापक रिकार्डिंग और फिल्मिंग के आधार पर ऑडियो-वीडियो टेपों, 16 मि.मी. फिल्मों, चित्रों और ट्रांसपेरेंसियों का एक बड़ा अभिलेखागार बन गया है जो मंचन कलाओं के बारे में शोधकर्ताओं के लिए देश का अकेला सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है।

अकादमी की संगीत वाद्ययंत्रों की वीथि में 600 से अधिक वाद्ययंत्र रखे हैं और इन वर्षों में बड़ी मात्रा में प्रकाशित सामग्री का भी यह स्रोत रही है। संगीत नाटक अकादमी का पुस्तकालय भी इन विषयों के लेखकों, विद्यार्थियों और शोधकर्ताओं के आकर्षण का केंद्र रहा है। अकादमी 1965 से एक पत्रिका “संगीत नाटक” नाम से निकाल रही है जो अपने क्षेत्र और विषय की सबसे ज्यादा अवधि से निकलने वाली पत्रिका कही जा सकती है और इसमें जानेमाने लेखकों के साथ-साथ उभरते नए लेखकों की रचनाएं भी प्रकाशित की जाती हैं।

अकादमी मंचन कलाओं के क्षेत्र में राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों और परियोजनाओं की स्थापना एवं देखरेख भी करती है। इनमें सबसे पहला संस्थान है इंफाल की जवाहरलाल नेहरू मणिपुरी नृत्य अकादमी जिसकी स्थापना 1954 में की गई थी। यह मणिपुरी नृत्य का अग्रणी संस्थान है। 1959 में अकादमी ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना की और 1964 में कत्थक केंद्र स्थापित किया। ये दोनों संस्थान दिल्ली में हैं। अकादमी द्वारा चलाई जा रही राष्ट्रीय महत्व की परियोजनाओं में केरल का कुटियट्टम थिएटर है जो 1991 में शुरू हुआ था और 2001 में इसे यूनेस्को की ओर से मानवता की उल्लेखनीय धरोहर के रूप में मान्यता प्रदान की गई। 1994 में उड़ीसा, झारखंड और पश्चिम बंगाल में छाऊ नृत्य परियोजना आरंभ की गई। 2002 में असम के सत्रिय संगीत, नृत्य, नाटक और संबद्ध कलाओं के लिए परियोजना समर्थन शुरू किया गया।

मंचन कलाओं की शीर्षस्थ संस्था होने के कारण अकादमी भारत सरकार को इन क्षेत्रों में नीतियां तैयार करने और उन्हें क्रियान्वित करने में परामर्श और सहायता उपलब्ध कराती है। इसके अतिरिक्त अकादमी भारत के विभिन्न क्षेत्रों के बीच तथा अन्य देशों के बीच सांस्कृतिक संपर्कों के विकास और विस्तार के लिए राज्य की जिम्मेदारियों को भी एक हद तक पूरा करती है। अकादमी ने अनेक देशों में प्रदर्शनियों और बड़े समारोहों-उत्सवों का आयोजन किया है। अकादमी ने हांगकांग, रोम, मॉस्को, एथेंस, वल्लाडोलिड, काहिरा और ताशकंद तथा स्पेन में प्रदर्शनियां तथा गोष्ठियां आयोजित की हैं। अकादमी ने जापान, जर्मनी और रूस जैसे देशों के प्रमुख उत्सवों को प्रस्तुत किया है। वर्तमान में संगीत नाटक अकादमी भारत सरकार के पर्यटन एवं संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्था है और इसकी योजनाओं तथा कार्यक्रमों को लागू करने के लिए पूरी तरह से मंत्रालय द्वारा वित्तपोषित है।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय[सम्पादन]

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दुनिया में रंगमंच का प्रशिक्षण देने वाले श्रेष्ठतम संस्थानों में से एक है तथा भारत में यह अपनी तरह का एकमात्र संस्थान है जिसकी स्थापना संगीत नाटक अकादमी ने 1959 में की थी। इसे 1975 में स्वायत्त संगठन का दर्जा दिया गया जिसका पूरा खर्च संस्कृति विभाग वहन करता है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का उद्देश्य रंगमंच के इतिहास, प्रस्तुतिकरण, दृश्य डिजाइन, वस्त्र डिजाइन, प्रकाश व्यवस्था और रूप-सज्जा सहित रंगमंच के सभी पहलुओं का प्रशिक्षण देना है। इस विद्यालय में प्रशिक्षण पाठ्यक्रम की अवधि तीन वर्ष है और हर वर्ष पाठ्यक्रम में 20 विद्यार्थी लिए जाते हैं। प्रवेश पाने के इच्छुक विद्यार्थियों को दो चरणों में से गुजरना पड़ता है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के डिप्लोमा को भारतीय विद्यालय संघ की ओर से एम.ए. की डिग्री के बराबर मान्यता प्राप्त है और इसके आधार पर वे कॉलेजों/विश्वविद्यालयों में शिक्षक के रूप में नियुक्त किए जा सकते हैं अथवा पीएच.-डी. (डाक्टरेट) उपाधि के लिए पंजीकरण करा सकते हैं।

इस विद्यालय के मंचन विभाग “रेपर्टरि” की स्थापना दोहरे उद्देश्य से 1964 में की गई थी। एक उद्देश्य था व्यावसायिक रंगमंच की स्थापना करना और दूसरा, लगातार नए प्रयोग जारी रखना। बाल रंगमंच को बढ़ावा देने की दिशा में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का महत्वपूर्ण योगदान है। 1989 में “थिएटर इन एजूकेशन” की स्थापना की गई। बाद में इसका नाम बदल कर “संस्कार रंग टोली” कर दिया गया। यह बच्चों के लिए नाटक तैयार करने, दिल्ली के स्कूलों में गर्मी की छुट्टियों में कार्यशालाएं आयोजित करने और सैटरडे क्लब के जरिए बाल रंगमंच को प्रोत्साहित करने का काम कर रहा है। 1998 से ही यह विद्यालय बच्चों के लिए राष्ट्रीय रंगमंच महोत्सव का आयोजन कर रहा है। यह महोत्सव हर वर्ष नवंबर में “जश्ने बचपन” के नाम से आयोजित किया जाता है। भारत की आजादी की 50वीं वर्षगांठ के अवसर पर 18 मार्च से 14 अप्रैल, 1999 तक पहले राष्ट्रीय रंगमंच महोत्सव “भारत रंग महोत्सव” का आयोजन किया गया था। इस प्रथम “भारत रंग महोत्सव” की सफलता को देखते हुए इसे हर वर्ष मनाने का निर्णय लिया गया है।

विभिन्न राज्यों में अनेक भाषाएं बोलने वाले और विविध सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले हज़ारों रंगमंच कलाकार इस विद्यालय के नियमित प्रशिक्षण पाठ्यक्रम तक नहीं पहुंच सकते। ऐसे में इन कलाकारों तक पहुंचने के लिए 1978 में “विस्तार कार्यक्रम” नामक एक अल्पावधि शिक्षण एवं प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किया गया था। इस कार्यक्रम के तहत विद्यालय स्थानीय थिएटर ग्रुपों/कलाकारों के सहयोग से कार्यशालाएं चलाता है जिनमें सभी कार्यक्रम स्थानीय भाषाओं में होते हैं। इन कार्यशालाओं को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है-प्रस्तुतिकरणोन्मुख कार्यशालाएं, बच्चों के लिए प्रस्तुतिकरणोन्मुख कार्यशालाएं और रंगमंच संबंधी शिक्षण तथा प्रशिक्षण। चार दक्षिणी राज्यों और पांडिचेरी की रंगमंच संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से विद्यालय ने बंगलुरू में अपना क्षेत्रीय अनुसंधान केंद्र भी स्थापित किया है।

विद्यालय की एक अन्य महत्वपूर्ण गतिविधि है रंगमंच के बारे में पाठ्यपुस्तकों का प्रकाशन करना तथा रंगमंच से जुड़े विषयों पर महत्वपूर्ण अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद कराना।

साहित्य अकादमी[सम्पादन]

साहित्य अकादमी विभिन्न भाषाओं की कृतियों की राष्ट्रीय अकादमी है। इसका उद्देश्य प्रकाशन, अनुवाद, गोष्ठियां, कार्यशालाएं आयोजित करके भारतीय साहित्य के विकास को बढ़ावा देना है। इसके तहत देशभर में सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम और साहित्य सम्मेलन भी आयोजित किए जाते हैं। अकादमी की स्थापना 1954 में स्वायत्त संस्था के रूप में की गई थी और इसके लिए धन की व्यवस्था भारत सरकार का संस्कृति विभाग करता है। अकादमी का समिति के रूप में पंजीकरण 1956 में हुआ था। अकादमी ने 24 भाषाओं को मान्यता दे रखी है। प्रत्येक भाषा के लिए एक सलाहकार बोर्ड है जो संबद्ध भाषा के कामकाज और प्रकाशन के बारे में सलाह देता है। अकादमी के चार क्षेत्रीय बोर्ड हैं जो उत्तर, पश्चिम, पूर्व और दक्षिण की भाषाओं के बीच तालमेल और परस्पर आदान-प्रदान को प्रोत्साहन देते हैं। अकादमी का मुख्यालय नई दिल्ली में है तथा कोलकाता, मुंबई, बंगलुरू और चेन्नई में भी इसके कार्यालय हैं। अकादमी के बंगलुरू और कोलकाता में दो अनुवाद केंद्र भी हैं। मौखिक और जनजातीय साहित्य को बढ़ावा देने के उद्देश्य से शिलांग में अकादमी का परियोजना कार्यालय स्थित है तथा दिल्ली में भारतीय साहित्य का अभिलेखागार है। नई दिल्ली में ही अकादमी का अनूठा बहुभाषीय पुस्तकालय भी है जिसके क्षेत्रीय कार्यालय बंगलुरू और कोलकाता में हैं। इनमें 25 से ज्यादा भाषाओं की करीब डेढ़ लाख पुस्तकों का संग्रह है।

साहित्य अकादमी लेखकों को सर्वोच्च सम्मान अपना “फेलो” चुनकर देती है। यह सम्मान अमर साहित्यकारों के लिए सुरक्षित है तथा एक बार में 21 लोगों को दिया जाता है। अब तक यह सम्मान 66 लेखकों को दिया जा चुका है। अकादमी 850 लेखकों और 283 अनुवादकों को साहित्य तथा अनुवाद के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए सम्मानित कर चुकी है और 31 भाषा सम्मान दिए जा चुके हैं जिनका उद्देश्य क्षेत्रीय भाषाओं को प्रोत्साहन देना है। साथ ही भारतीय साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले विदेशी विद्वानों को मानद फेलोशिप प्रदान की गई है। अकादमी 24 भाषाओं में पुस्तकें प्रकाशित करती है जिनमें पुरस्कृत कृतियों का अनुवाद, भारतीय साहित्य के महान लेखकों के मोनोग्राफ, साहित्य का इतिहास, अनुवाद में महान भारतीय और विदेशी रचनाएं, उपन्यास, कविता और गद्य, आत्मकथाएं, अनुवादकों का रजिस्टर, भारतीय लेखकों के बारे में जानकारी (कौन, कौन है), भारतीय साहित्य की राष्ट्रीय संदर्भ सूची और भारतीय साहित्य का विश्वकोश शामिल हैं। अभी तक अकादमी इन विभिन्न श्रेणियों में कुल 4000 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित कर चुकी है। अकादमी की तीन पत्रिकाएं हैं-अंग्रेजी में द्विमासिक “इंडियन लिटरेचर”, हिंदी द्विमासिक “समकालीन भारतीय साहित्य” और संस्कृत छमाही पत्रिका “संस्कृत प्रतिभा”। अकादमी हर वर्ष औसतन 250 से 300 पुस्तकें प्रकाशित करती है। इसकी कई विशेष परियोजनाएं भी हैं, जैसे-प्राचीन भारतीय साहित्य, मध्यकालीन भारतीय साहित्य और आधुनिक भारतीय साहित्य और पांच सहस्राब्दियों के दस सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ। अकादमी ने “भारतीय काव्यशास्त्र का विश्वकोश” तैयार करने की नई परियोजना भी शुरू की है।

साहित्य अकादमी साहित्य के इतिहास एवं सौंदर्यशास्त्र जैसे विभिन्न विषयों पर हर वर्ष अनेक क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों का आयोजन करती है। साथ ही, नियमित रूप से अनुवाद कार्यशालाएं भी लगाई जाती हैं।

अकादमी हर वर्ष, आमतौर पर फरवरी के महीने में, सप्ताहभर का साहित्योत्सव आयोजित करती है जिसमें पुरस्कार वितरण समारोह, संवत्सर भाषणमाला और राष्ट्रीय संगोष्ठी शामिल रहती हैं। अकादमी ने स्वर्ण जयंती समारोहों के अंतर्गत 2004-05 में “सूर साहित्य” विषय से कार्यक्रमों की नई शृंखला भी आरंभ की।

छात्रवृत्ति और फेलोशिप डिवीजन[सम्पादन]

छात्रवृत्ति और फेलोशिप डिवीजन देश में सांस्कृतिक गतिविधियों के प्रचार-प्रसार में लगे व्यक्तियों को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने के उद्देश्य से चार योजनाएं चला रहा है।

विभिन्न सांस्कृतिक क्षेत्रों में युवा कलाकारों को छात्रवृत्तियां[सम्पादन]

युवा कलाकारों को भारतीय शास्त्रीय नृत्य, भारतीय शास्त्रीय संगीत, रंगमंच, दृश्यकला तथा लोक एवं पारंपरिक शैली की कलाओं के क्षेत्र में छात्रवृत्तियां प्रदान की जाती हैं। इस योजना के अंतर्गत प्रतिवर्ष कुल 400 छात्रवृत्तियां दो वर्षों की अवधि के लिए दी जाती हैं। छात्रवृत्ति में प्रतिमाह 2000 रूपये प्रदान किए जाते हैं। इस छात्रवृत्ति के लिए 18 से 25 वर्ष के आयुवर्ग के कलाकार आवेदन के पात्र होते हैं। छात्रवृत्ति उच्च प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए दी जाती है।

मंचन, साहित्य तथा दृश्य कलाओं के क्षेत्र में चुने हुए श्रेष्ठ कलाकारों के लिए फेलोशिप[सम्पादन]

भारतीय शास्त्रीय नृत्य, भारतीय शास्त्रीय संगीत, रंगमंच, दृश्यकला, लोककला और पारंपरिक कला तथा साहित्य के क्षेत्रों में उत्कृष्ट कलाकारों को फेलोशिप प्रदान की जाती है। दो वर्ष की अवधि के लिए

कुल 170 फेलोशिप दी जाती हैं। इनमें से 85 सीनियर फेलोशिप होती हैं जिनमें प्रतिमाह 12,000 रूपये दिए जाते हैं और 85 जूनियर फेलोशिप होती हैं जिनमें प्रतिमाह 6,000 रूपये दिए जाते हैं। सीनियर फेलोशिप के लिए 41 वर्ष या इससे ऊपर के कलाकार तथा जूनियर फेलोशिप के लिए 25 से 40 वर्ष की आयु वाले कलाकार आवेदन कर सकते हैं। केंद्र सरकार/सरकारी उपक्रमों/सरकारी संगठनों/यूजीसी से सहायता प्राप्त कॉलेजों में कार्य करने वाले आवेदकों को चुने जाने पर दो वर्ष की अवधि के लिए अध्ययन अवकाश अथवा अन्य किसी प्रकार का अवकाश लेना होगा।

ये छात्रवृत्तियां भारतीय परियोजनाओं पर शोधकार्य करने के लिए दी जाती हैं। इस योजना के तहत शैक्षिक अनुसंधान तथा निष्पादन आधारित अनुसंधान दोनों को बढ़ावा दिया जाता है और आवेदक को इस प्रकार की परियोजना पर काम करने की अपनी क्षमता का सबूत देना होता है। ये फेलोशिप प्रशिक्षण देने, कार्यशाला चलाने, संगोष्ठियां कराने या आत्मकथा/उपन्यास आदि लिखने के लिए नहीं दी जाती हैं।

संस्कृति से जुड़े नए क्षेत्रों में सीनियर/जूनियर फेलोशिप[सम्पादन]

भारत विद्या, पुरालेख शास्त्र, सांस्कृतिक समाजशास्त्र, सांस्कृतिक अर्थशास्त्र, स्मारकों की संरचना और अभियांत्रिकी से जुड़े पहलुओं, मुद्राशास्त्र, संरक्षण के वैज्ञानिक और तकनीकी पहलुओं, कला और सांस्कृतिक धरोहर के प्रबंधन पहलुओं तथा संस्कृति और सृजनशीलता से संबद्ध विज्ञान प्रौद्योगिकी के प्रयोगों के अध्ययन जैसे क्षेत्रों में फेलोशिप प्रदान की जाती हैं। हर वर्ष कुल 19 फेलोशिप दी जाती हैं जिनमें से 11 सीनियर और 8 जूनियर होती हैं। संबद्ध विषय में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त 41 वर्ष या इससे अधिक आयु के लोग सीनियर फेलोशिप के लिए आवेदन कर सकते हैं जबकि जूनियर फेलोशिप के लिए आयुसीमा 25 से 40 वर्ष है। सीनियर फेलोशिप में प्रतिमाह 12,000 रूपये और जूनियर फेलोशिप में प्रतिमाह 6,000 रूपये दिए जाते हैं।

सीनियर और जूनियर फेलोशिप आधुनिक विचारों, सिद्धांतों, पद्धतियों और प्रौद्योगिकी को कला और संस्कृति से संबद्ध मुद्दों में प्रयोग करने के उद्देश्य से नए क्षेत्रों में परियोजनाएं चलाने के लिए दी जाती हैं। इसका उद्देश्य कला और संस्कृति से जुड़े क्षेत्रों के समसामयिक मुद्दों और समस्याओं के समाधान में नई अनुसंधान तकनीकों, प्रौद्योगिकियों और आधुनिक प्रबंधन सिद्धांतों के विश्लेषणात्मक प्रयोग को बढ़ावा देना है।

===सांस्कृतिक गतिविधियों में लगे स्वैच्छिक संगठनों को अनुसंधान सहयोग के लिए आर्थिक सहायता देने की योजना=== इस योजना के अंतर्गत ऐसे स्वैच्छिक संगठन लाभान्वित होते हैं जो सांस्कृतिक गतिविधियों में लगे हैं और भारतीय संस्कृति की परंपरा और दर्शन से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर शोधकार्य कर रहे हैं। ये संगठन कम से कम तीन वर्षों से इन क्षेत्रों में कार्य कर रहे हों और सोसाइटी पंजीकरण अधिनियम (1860 का XXI) के अंतर्गत पंजीकृत हों। आर्थिक सहायता निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए दी जाती है —

(क) महत्वपूर्ण सांस्कृतिक मुद्दों पर सम्मेलन, विचार गोष्ठियां और परिसंवाद/परिचर्चाएं आयोजित कराने के लिए;

(ख) सर्वेक्षण कार्य करने तथा प्रायोगिक परियोजना चलाने आदि जैसी विकास गतिविधियों का खर्च वहन करने के लिए।

विशेष परियोजनाओं के लिए सहायता राशि कुल व्यय के 75 प्रतिशत तक ही दी जाएगी जो अधिकतम एक लाख रूपये हो सकती है जैसा कि विशेषज्ञ समिति ने सिफारिश की है। वर्ष 2004-05 में विशेषज्ञ समिति ने स्वैच्छिक संगठनों को अनुसंधान समर्थन के लिए आर्थिक सहायता देने के 176 प्रस्तावों का चयन किया था।

रामकृष्ण मिशन संस्कृति संस्थान, कोलकाता[सम्पादन]

इस संस्थान की स्थापना का विचार श्री रामकृष्ण (1836-1886) की पहली जन्मशती के अवसर पर उनका स्थाई स्मारक बनाने के रूप में 1936 में व्यक्त किया गया था। श्री रामकृष्ण द्वारा प्रतिपादित वेदांत के संदेश के प्रसार के लिए स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन के शाखा केंद्र के रूप में 29 जनवरी, 1938 को इसकी विधिवत स्थापना की गई। श्री रामकृष्ण के मूल उपदेशों में (i) सभी धर्मों को समान आदर देना; (ii) मनुष्य की दैवीय क्षमताओं को प्रतिपादित करना और उभारना; तथा (iii) मानव सेवा को ईश्वर की पूजा मानना अर्थात् मानवता को नया धर्म मानना शामिल हैं।

मानव मात्र की एकता के आदर्श के प्रति समर्पित इस संस्थान ने लोगों को विश्व की संस्कृतियों के समृद्ध मूल्यों से अवगत कराने तथा उन्हें यह समझाने के लिए सालोंसाल अथक प्रयास किए हैं कि परस्पर एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझना, मानना और स्वीकार करना अत्यंत आवश्यक है-यही वह दृष्टिकोण है जो वैश्विक स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय समझ एवं सहमति विकसित करने और देश में राष्ट्रीय एकता की भावना को बल प्रदान करने में सर्वथा अनुकूल है। इस प्रकार, कुल मिलाकर, संस्थान का मुख्य संदेश है आपस में एक-दूसरे के दृष्टिकोण तथा विचारों का सम्मान करना तथा स्वयं की समृद्धि के लिए उन्हें एकजुट करना।

भारतीय मानवविज्ञान सर्वेक्षण[सम्पादन]

भारतीय मानवविज्ञान सर्वेक्षण संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत कार्य करने वाला एक अग्रणी अनुसंधान संगठन है। यह अपनी स्थापना के 59 वर्ष पूरे कर चुका है और अपने गौरवपूर्ण कार्यकाल में सामान्य तौर पर जनता के और विशेषकर “अत्यधिक कमज़ोर” कहे जाने वाले वर्गों के जैव-सांस्कृतिक पहलुओं के क्षेत्रों में मानव विज्ञान संबंधी अनुसंधान में प्रयासरत रहा है। इनके अलावा सर्वेक्षण कई अन्य समयसंगत गतिविधियों में लगा है जिनमें नृवंश सामग्री और प्राचीन मानव कंकाल अवशेषों को एकत्र करना, उनका संरक्षण करना, उनकी देखरेख करना, उनके बारे में आंकड़े तथा दस्तावेज तैयार करना और उनका अध्ययन करना शामिल हैं। इन वर्षों में सर्वेक्षण ने कोलकाता स्थित अपने मुख्यालय और सात क्षेत्रीय केंद्रों, एक उपक्षेत्रीय केंद्र, तथा आठ अन्य क्षेत्रीय स्टेशनों और नई दिल्ली के अपने कैंप कार्यालय की मदद से निरंतर अनुसंधान करते हुए गांव स्तर से जानकारियां एकत्र की हैं। दसवीं योजना के दौरान राष्ट्रीय परियोजनाओं-जीवमंडल रिज़र्व में पर्यटन के सांस्कृतिक आयाम और पर्यटकों की रूचि के स्थलों-के बारे में शोधकार्य किया जा रहा है।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण[सम्पादन]

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की स्थापना सन् 1861 में हुई थी और यह पर्यटन एवं संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत संस्कृति विभाग के संलग्न कार्यालय के रूप में कार्य करता है। इस विभाग के प्रमुख महानिदेशक होते हैं।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की प्रमुख गतिविधियां निम्नलिखित हैं —

  1. पुरातात्विक अवशेषों तथा उत्खनन कार्यों का सर्वेक्षण;
  2. केंद्र सरकार की सुरक्षा वाले स्मारकों, स्थलों और अवशेषों का रखरखाव और परिरक्षण;
  3. स्मारकों और भग्नावशेषों का रासायनिक बचाव;
  4. स्मारकों का पुरातात्विक सर्वेक्षण;
  5. शिलालेख संबंधी अनुसंधान का विकास और मुद्राशास्त्र का अध्ययन;
  6. स्थल संग्रहालयों की स्थापना और पुनर्गठन;
  7. विदेशों में अभियान;
  8. पुरातत्व विज्ञान में प्रशिक्षण; और
  9. तकनीकी रिपोर्ट और अनुसंधान कार्यों का प्रकाशन।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण अपने 21 मंडलों और 3 मिनी मंडलों के जरिए अपने संरक्षण वाले स्मारकों का बचाव और संरक्षण करता है।

प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल व अवशेष अधिनियम, 1958 के अंतर्गत भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने देश में 3656 स्मारकों/स्थलों को राष्ट्रीय महत्व का घोषित किया है जिनमें 21 संपत्तियां यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल हैं। एक सौ चवालीस (144) वर्ष पहले हुई अपनी स्थापना के बाद से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण बहुत विशाल संगठन का आकार ले चुका है और समूचे देश में इसके कार्यालयों, शाखाओं और मंडलों का जाल फैला है।

गुजरात का पावगढ़ पार्क, मुंबई का छत्रपति शिवाजी टर्मिनल (जो पहले विक्टोरिया टर्मिनल था) रेलवे स्टेशन और गंगाकोंडाचोलापुरम का बृहदेश्वर तथा दारासुरम का ऐरावतेश्वरैया मंदिर (जो तंजावूर के बृहदेश्वर मंदिर परिसर का विस्तार है और महान चोला मंदिरों के नाम से विख्यात हैं) यूनेस्को द्वारा 2004 में विश्व सांस्कृतिक धरोहर सूची में शामिल किए गए हैं। यूनेस्को की इस सूची में सम्मिलित कराने के उद्देश्य से विश्व धरोहर केंद्र के पास निम्नलिखित स्थलों के विवरण भेजे गए हैं —

(i) पंजाब में अमृतसर का हरमिंदर साहब (स्वर्ण मंदिर);

(ii) असम में ब्रह्मपुत्र नदी की मध्यधारा में स्थित माजुली द्वीपसमूह;

(iii) उत्तराखंड में नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान का विस्तार “फूलों की घाटी”;

(iv) दिल्ली का लाल किला; और

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण कुल पांच हजार से यादा स्मारकों और ढांचों की देखरेख कर रहा है।

जलगत पुरातत्व शाखा[सम्पादन]

देश के भीतर या सीमावर्ती सागर क्षेत्र में पानी के नीचे मौजूद सांस्कृतिक धरोहर की खोज, अध्ययन और संरक्षण जलगत पुरातत्व शाखा के मुख्य कार्य हैं। यह शाखा अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में खोज तथा खुदाई करती है।

विज्ञान शाखा[सम्पादन]

सर्वेक्षण की विज्ञान शाखा का मुख्यालय देहरादून में है और इसकी क्षेत्रीय प्रयोगशालाएं देशभर में हैं। यह शाखा स्मारकों, प्राचीन सामग्रियों, पांडुलिपियों, पेंटिंग्स, आदि के रासायनिक संरक्षण का दायित्व संभालती है।

देहरादून स्थित विज्ञान शाखा की प्रयोगशालाओं ने निम्नलिखित वैज्ञानिक परियोजनाएं हाथ में ली हैं— (i) पत्थर, टेराकोटा, और ईंट से बने ढांचों पर संरक्षणात्मक कोटिंग करने और उन्हें मजबूत बनान के लिए नई सामग्री की खोज; (ii) प्राचीन चूना पलस्तर के संरक्षण के बारे में वैज्ञानिक अध्ययन, और (iii) त्वरित सख्त होने वाले पलस्तर सीमेंट के विभिन्न अनुपातों में उसकी भौतिक विशेषताओं का आकलन।

बागवानी शाखा[सम्पादन]

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की बागवानी शाखा देश के विभिन्न भागों में स्थित केंद्र सरकार के संरक्षण वाले करीब 287 स्मारकों/स्थलों में बगीचों और उद्यानों की देखभाल करती है। यह शाखा दिल्ली, आगरा, श्रीरंगपट्टन और भुवनेश्वर में आधार-नर्सरियां विकसित करके इन बगीचों, उद्यानों के लिए मौसमानुसार पौधे उपलब्ध कराती है।

पुरालेख शास्त्र शाखा[सम्पादन]

मैसूर स्थित पुरालेख शास्त्र शाखा संस्कृत और द्रविड़ भाषाओं में शोधकार्य करती है जबकि नागपुर स्थित शाखा अरबी और फारसी में शोधकार्य करती है।

विदेशों में अभियान[सम्पादन]

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने विदेश मंत्रालय के अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन आदान-प्रदान कार्यक्रम (आईटीईसी) के अंतर्गत कंबोडिया में “ता प्रोह्म” के संरक्षण की परियोजना शुरू की है जिसके लिए 19 करोड़ 51 लाख रूपये का प्रावधान किया गया है। यह संरक्षण परियोजना भारत के प्रधानमंत्री द्वारा अप्रैल और नवंबर, 2002 में अपनी कंबोडिया यात्रा के दौरान “प्रसात ता प्रोह्म” के संरक्षण और बहाली के बारे में वहां की सरकार के अनुरोध पर दिए आश्वासन को पूरा करने के लिए शुरू की गई है। यह संरक्षण परियोजना दस वर्ष की है और इसे पांच चरणों में पूरा किया जाएगा।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने यह संरक्षण परियोजना जनवरी, 2004 में शुरू कर दी थी परंतु इसे कंबोडिया में फरवरी, 2004 में विधिवत् आरंभ किया गया।

भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार[सम्पादन]

भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार स्वतंत्रता से पहले इंपीरियल रिकार्ड विभाग के तौर पर 11 मार्च, 1891 को कोलकाता में स्थापित किया गया था परंतु अब यह अभिलेखागार के रूप में नई दिल्ली में काम कर रहा है। यह भारत सरकार और उसकी पूर्ववर्ती हुकूमतों के स्थायी महत्व वाले सभी अभिलेखों का सरकारी संरक्षक है। इसका क्षेत्रीय कार्यालय भोपाल में है और भुवनेश्वर, पांडिचेरी तथा जयपुर में इसके रिकार्ड केंद्र हैं।

अभिलेखागार की मुख्य गतिविधियां हैं-

(1) विभिन्न सरकारी एजेंसियों और शोधकर्ताओं को रिकार्ड उपलब्ध कराना,

(2) संदर्भ मीडिया तैयार करना,

(3) उक्त उद्देश्य के लिए वैज्ञानिक जांच-पड़ताल का संचालन और अभिलेखों की सार-संभाल करना,

(4) अभिलेख प्रबंधन कार्यक्रम का विकास करना,

(5) अभिलेखों के संरक्षण में लगे व्यक्तियों और संस्थानों को तकनीकी सहायता उपलब्ध कराना,

(6) पेशेवर और उप-पेशेवर स्तर पर पांडुलिपियों, पुस्तकों और अभिलेखों के संरक्षण, प्रबंधन और प्रकाशन के क्षेत्र में प्रशिक्षण देना, और

(7) देश में विभिन्न विषयों पर प्रदर्शनियां आयोजित करके अभिलेखों के प्रति जागरूकता बढ़ाना।

राष्ट्रीय अभिलेखागार राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों, स्वैच्छिक संगठनों और अन्य संस्थानों को आर्थिक सहायता देता है ताकि अभिलेख संबंधी विरासत की हिफाजत की जा सके और अभिलेख विज्ञान का विकास हो।

राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन[सम्पादन]

हमारी सांस्कृतिक विरासत में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं पांडुलिपियां। इनके संरक्षण के उद्देश्य से ही सांस्कृतिक मंत्रालय ने 2 फरवरी, 2003 में राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन का शुभारंभ किया। यह मिशन पांच वर्ष की महत्वाकांक्षी योजना है और इसके अंतर्गत सिर्प पुस्तक सूचियों को खोजकर भारत की पांडुलिपियों का संरक्षण ही नहीं किया जाता बल्कि शैक्षिक उद्देश्यों के लिए उन तक आसानी से पहुंच उपलब्ध कराने, जागरूकता बढ़ाने और बढ़ावा देने पर भी जोर दिया जाता है। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन की वेबसाइट www.namami.nic.in है।

राष्ट्रीय संग्रहालय[सम्पादन]

राष्ट्रीय संग्रहालय की स्थापना 1949 में की गई थी और 1960 के बाद से यह संस्कृति मंत्रालय के अधीनस्थ कार्यालय के रूप में काम कर रहा है। इसमें प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक की दो लाख साठ हजार से ज्यादा वस्तुएं संग्रहीत हैं। वर्ष 2004-05 के दौरान कुल 1,95,083 लोग इस संग्रहालय को देखने पहुंचे थे। इसकी मुख्य गतिविधियां हैं —

प्रदर्शनियां लगाना, वीथियों का पुनर्गठन/आधुनिकीकरण, शैक्षिक गतिविधियां व आउटरीच कार्यक्रम, जनसंपर्क, प्रकाशन, फोटो प्रलेखन, ग्रीष्मावकाश कार्यक्रम, स्मारक भाषणमालाएं, संग्रहालय कॉर्नर, फोटो यूनिट, मॉडलिंग यूनिट, पुस्तकालय, संरक्षण प्रयोगशाला और अध्यापन कार्यशाला चलाना।

कला, संरक्षण व संग्रहालय विज्ञान के इतिहास का राष्ट्रीय संग्रहालय संस्थान[सम्पादन]

कला, संरक्षण व संग्रहालय विज्ञान के इतिहास का राष्ट्रीय संग्रहालय संस्थान नई दिल्ली में है। यह स्वायत्त संगठन है और इसके लिए धन का पूरा प्रबंध संस्कृति मंत्रालय करता है। 1989 में उसे समकक्ष विश्वविद्यालय घोषित किया गया था। यह भारत का एकमात्र संग्रहालय/विश्वविद्यालय है और इस समय इसका कार्यालय नई दिल्ली में राष्ट्रीय संग्रहालय के प्रथम तल पर है। इसकी नियमावली (मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन) के अनुसार राष्ट्रीय संग्रहालय के महानिदेशक इस विश्वविद्यालय के पदेन कुलपति हैं।

मुख्य उद्देश्य-

(क) कला इतिहास, संरक्षण और संग्रहालय विज्ञान के क्षेत्रों में एम.ए. और पीएच.-डी. की उपाधियों के लिए विशेषज्ञ शिक्षण व प्रशिक्षण उपलब्ध कराना।

(ख) भारतीय संस्कृति को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से यह संस्थान कुछ अल्पावधि पाठ्यक्रम चलाता है-भारत कला व साहित्य, कला मूल्यांकन और भारतीय कलानिधि (हिंदी माध्यम)।

(ग) इन क्षेत्रों में नई संभावनाओं के विकास के लिए उपयुक्त ढंग से संगोष्ठियां/कार्यशालाएं, सम्मेलन और विशेष व्याख्यान आयोजित करना।

राष्ट्रीय पुस्तकालय[सम्पादन]

राष्ट्रीय पुस्तकालय, कोलकाता की स्थापना 1948 में इंपीरियल लाइब्रेरी (नाम परिवर्तन) अधिनियम, 1948 पारित करके की गई थी। इस पुस्तकालय को राष्ट्रीय महत्व के संस्थान का दर्जा प्राप्त है। इसकी मुख्य गतिविधियाँ हैं —

(i) राष्ट्रीय महत्व की प्रत्येक मुद्रित सामग्री (एकदिवसीय प्रकाशनों को छोड़कर) तथा सभी पांडुलिपियां प्राप्त करके उनका संरक्षण करना;

(ii) देश से संबंधित मुद्रित सामग्री एकत्र करना चाहे वह कहीं भी प्रकाशित की गई हो;

(iii) सामान्य एवं विशिष्ट दोनों प्रकार की सामयिक व पुरानी सामग्री के संदर्भ में गं्रथ सूची और प्रलेखन सेवाएं उपलब्ध कराना (इसमें देश से संबद्ध विभिन्न पहलुओं पर चालू राष्ट्रीय ग्रंथसूचियां तथा पूर्वसमय की ग्रंथसूचियां तैयार करने की जिम्मेदारी भी शामिल है।);

(iv) ग्रंथ सूची जानकारी के सभी सूत्रों के पूरी और सही जानकारी देने वाले संदर्भ केंद्र की भूमिका निभाना और अंतर्राष्ट्रीय ग्रंथसूची निर्माण गतिविधियों में हिस्सा लेना;

(v) पुस्तकों के अंतर्राष्ट्रीय आदान-प्रदान तथा देश के भीतर पुस्तकें देने वाले केंद्र की भूमिका निभाना।

केंद्रीय सचिवालय पुस्तकालय[सम्पादन]

केंद्रीय सचिवालय पुस्तकालय की स्थापना वर्ष 1891 में कोलकाता में इंपीरियल सेक्रेटेरिएट लाइब्रेरी के नाम से की गई थी और 1969 से यह नई दिल्ली के शास्त्री भवन में काम कर रहा है। इसमें सात लाख से अधिक दस्तावेज़ों का संग्रह है जो मुख्य रूप से समाजशास्त्र और मानवशास्त्र के विषयों पर हैं। यहां भारत के सरकारी दस्तावेज तथा केंद्र सरकार के दस्तावेज़ संग्रहीत किए जाते हैं और राज्य सरकारों के दस्तावेज़ों का भी विशाल संग्रह इसमें है।

इसके क्षेत्र अध्ययन डिवीज़न में अनूठा संग्रह है, वहां भौगोलिक क्षेत्र के अनुसार पुस्तकें रखी गई हैं। साथ ही, इसका ग्रंथ सूची संग्रह भी बहुत विशाल है और इसमें अत्यधिक दुर्लभ पुस्तकों का खासा संग्रह है।

केंद्रीय सचिवालय पुस्तकालय का माइक्रोफिल्म संग्रह भी है जो माइक्रोफिल्मिंग ऑफ इंडियन पब्लिकेशन प्रोजेक्ट के अंतर्गत काम करता है और इसमें बहुत बड़ी संख्या में माइक्रो-फिल्में संग्रहीत हैं। केंद्रीय सचिवालय पुस्तकालय की मुख्य जिम्मेदारी है नीति निर्णय लेने की प्रक्रिया के लिए उपयोगी सभी विषयों के सकल संग्रह एकत्र करना और उन्हें विकसित करना तथा विकासपरक साहित्य का संग्रह एकत्र करना भी इसका दायित्व है। यह पुस्तकालय केंद्र सरकार के अधिकारियों और कर्मचारियों तथा देशभर से आने वाले शोधार्थियों को वाचन संबंधी सभी सेवा-सुविधाएं उपलब्ध कराता है। हाल में ही पुस्तकालय ने भारत के राजपत्र तथा समितियों और आयोगों की रिपोर्टों का डिजिटलीकरण करके सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) आधारित उत्पादों का विकास शुरू किया है और अपने संग्रह-कार्य के लिए ओपाक (ओपीएसी) प्रणाली भी विकसित की है।

पुस्तकालय की दो शाखाएं हैं। पहली है नई दिल्ली के बहावलपुर हाउस में स्थित क्षेत्रीय भाषाओं की शाखा जो तुलसी सदन लाइब्रेरी के नाम से मशहूर है। इसमें हिंदी तथा संविधान में स्वीकृत 13 अन्य भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं की पुस्तकें हैं। दूसरी शाखा पाठ्यपुस्तकों की है और नई दिल्ली के रामकृष्णपुरम में स्थित है। यह केंद्र सरकार के कर्मचारियों के स्नातक-स्तर तक के बच्चों की जरूरतों को पूरा करती है।

पुस्तकालय ने हाल ही में “इंडिया इन्फार्मेशन गेटवे” पोर्टल शुरू किया है। 21 मार्च, 2005 को सचिव, संस्कृति मंत्रालय ने पुस्तकालय की वेबसाइट http://www.csl.nic.in का उद्घाटन किया।

सांस्कृतिक संसाधन व प्रशिक्षण केंद्र[सम्पादन]

सांस्कृतिक संसाधन व प्रशिक्षण केंद्र संस्कृति से शिक्षा को जोड़ने के क्षेत्र में कार्यरत अग्रणी संस्थानों में से है। इस केंद्र की स्थापना मई, 1979 में भारत सरकार द्वारा एक स्वायत्त संस्था के रूप में की गई थी और अब यह भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण में काम कर रहा है। इसका मुख्यालय नई दिल्ली में है तथा उदयपुर और हैदराबाद में इसके दो क्षेत्रीय केंद्र हैं।

इस केंद्र का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों में भारत की क्षेत्रीय संस्कृतियों की विविधता के प्रति समझ और जागरूकता पैदा करके शिक्षा प्रणाली को सशक्त बनाना और इस जानकारी का शिक्षा के साथ समन्वय स्थापित करना है। खासज़ोर शिक्षा और संस्कृति के बीच तालमेल कायम करने और विद्यार्थियों को सभी विकास कार्यक्रमों में संस्कृति के महत्व से अवगत कराने पर है। केंद्र के प्रमुख कार्यों में देश के विभिन्न भागों से चुने गए अध्यापकों के लिए कई प्रकार के इन सर्विस प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाना भी शामिल है। इस प्रकार दिए जाने वाले प्रशिक्षण का लाभ यह होता है कि पाठ्यक्रम पढ़ाने वालों में भारतीय कला और साहित्य के दर्शन, सौंदर्य तथा बारीकियों की बेहतर समझ विकसित होती है और वे इनका अधिक सार्थक आकलन कर पाते हैं। प्रशिक्षण कार्यक्रमों में संस्कृति के पहलू पर यादाज़ोर दिया जाता है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी, आवास, कृषि, खेल, आदि के क्षेत्रों में संस्कृति की भूमिका पर भीज़ोर दिया जाता है। प्रशिक्षण एक अहम अंग है विद्यार्थियों और शिक्षकों में पर्यावरण प्रदूषण की समस्याओं के समाधान तथा प्राकृतिक व सांस्कृतिक संपदा के संरक्षण में उन्हें उनकी भूमिका से अवगत कराना। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए केंद्र देशभर में अध्यापकों, शिक्षाविदों, प्रशासकों और विद्यार्थियों के लिए विविध प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन करता है।

सांस्कृतिक संसाधन व प्रशिक्षण केंद्र विशेष अनुरोध पर विदेशी शिक्षकों तथा विद्यार्थियों के लिए भारतीय कला और संस्कृति के बारे में शिक्षण कार्यक्रम भी चलाता है। नाटक, संगीत और अभिव्यक्ति- प्रधान कला विधाओं से जुड़ी विभिन्न गतिविधियों पर कार्यशालाएं आयोजित की जाती हैं ताकि कलाओं और हस्तकलाओं का व्यावहारिक ज्ञान और प्रशिक्षण उपलब्ध कराया जा सके। इन कार्यशालाओं में शिक्षकों को ऐसे कार्यक्रम स्वयं विकसित करने की प्रेरणा दी जाती है जिनमें कला की विधाओं का शिक्षण पाठ्यक्रमों के लिए लाभकारी ढंग से प्रयोग किया जा सके।

सांस्कृतिक संसाधन व प्रशिक्षण केंद्र अपने विस्तार तथा सामुदायिक फीडबैक कार्यक्रमों के तहत स्कूली छात्रों, अध्यापकों और सरकारी तथा स्वैच्छिक संगठनों के बच्चों के लिए विभिन्न शैक्षिक गतिविधियां आयोजित करता है जिनमें ऐतिहासिक स्मारकों, संग्रहालयों, कलावीथियों, हस्तकला केंद्रों, चिडि़याघरों और उद्यानों में शिक्षा टूर; प्राकृतिक और सांस्कृतिक संपदाओं के संरक्षण के बारे में शिविर; स्थानीय तौर पर उपलब्ध कम लागत वाली सामग्री की मदद से हस्तकलाएं सिखाने के लिए शिविर; कला की विभिन्न विधाओं पर जानेमाने कलाकारों व विशेषज्ञों के भाषण और प्रदर्शन तथा स्कूलों में कलाकारों और हस्तशिल्पियों के प्रदर्शन शामिल हैं। इन शैक्षिक गतिविधियों में विद्यार्थियों के बौद्धिक विकास और उनके सौंदर्य बोध को विकसित करने पर जोर दिया जाता है।

इन वर्षों में यह केंद्र आलेख, रंगीन स्लाइड्स, चित्र, ऑडियो और वीडियो रिकार्डिंग और फिल्मों के रूप में संसाधन एकत्र करता रहा है। ग्रामीण भारत की कलाओं और हस्तशिल्पों को पुनर्जीवित करने और उन्हें प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से केंद्र की डॉक्यूमेंटेशन टीम हर वर्ष देश के विभिन्न भागों में कार्यक्रम आयोजित करती है। यह केंद्र भारतीय कला एवं संस्कृति की समझ विकसित करने के उद्देश्य से प्रकाशन भी उपलब्ध कराता है। सांस्कृतिक संसाधन व प्रशिक्षण केंद्र के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्यों में से एक है सांस्कृतिक प्रतिभा खोज छात्रवृत्ति योजना को क्रियान्वित करना केंद्र का एक महत्वपूर्ण कार्य है, जिसे संस्कृति विभाग ने 1982 में शुरू किया था। इस योजना के तहत 10 से 14 वर्ष की आयु के उन होनहार बच्चों को छात्रवृत्तियां दी जाती हैं जो या तो मान्यताप्राप्त स्कूलों में पढ़ते हैं या पारंपरिक कलाओं में लगे परिवारों से हैं जिससे उनकी प्रतिभा को कलाक्षेत्र में और विशेषकर दुर्लभ कलाविधाओं के क्षेत्र में विकसित किया जा सके। ये छात्रवृत्तियां 20 वर्ष की आयु तक अथवा विश्वविद्यालय की डिग्री लेने तक चलती हैं। हर वर्ष करीब 350 छात्रवृत्तियां दी जाती हैं।

सांस्कृतिक संसाधन व प्रशिक्षण केंद्र ने सीसीआरटी शिक्षक पुरस्कार आरंभ किया है जो हर वर्ष शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य करने वाले शिक्षकों को प्रदान किया जाता है। इस पुरस्कार में प्रशस्तिपत्र, स्मृति पट्टिका, अंगवस्त्रम और 10,000 रूपये दिए जाते हैं।

क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र[सम्पादन]

क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रों की स्थापना के पीछे प्रादेशिक और क्षेत्रीय सीमाओं के आरपार सांस्कृतिक भ्रातृत्व की भावना को उभारने का उद्देश्य था। असल उद्देश्य तो स्थानीय संस्कृतियों के प्रति गहन जागरूकता पैदा करना और यह दिखाना है कि ये संस्कृतियां किस प्रकार क्षेत्रीय पहचान से घुलमिल जाती हैं तथा अंतत— भारत की समृद्ध विविधतापूर्ण संस्कृति में समाहित हो जाती हैं। ये केंद्र समूचे देश में संस्कृति को बढ़ावा देने, उसका संरक्षण करने और उसका विस्तार करने वाली अग्रणी संस्था का दर्जा अर्जित कर चुके हैं। ये मंचन कलाओं को प्रोत्साहन देने के साथ-साथ साहित्य तथा दृश्य कलाओं के संबद्ध क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान कर रहे हैं। इस योजना के अंतर्गत 1985-86 में पटियाला, कोलकाता, तंजावुर, उदयपुर, इलाहाबाद, दीमापुर और नागपुर में सात क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र स्थापित किए गए थे। इन क्षेत्रीय केंद्रों की संरचना की खास विशेषता यह है कि राज्य अपने सांस्कृतिक संपर्कों के अनुसार एक से यादा केंद्रों में शामिल हो सकते हैं। मंत्रिमंडल की स्वीकृति से प्रत्येक क्षेत्रीय संस्कृति केंद्र के लिए अलग-अलग सहायता (कॉर्पस) कोष स्थापित किया गया था जिसमें केंद्र सरकार और संबद्ध राज्य सरकारें अंशदान करती हैं और इस कोष में जमा राशि पर मिलने वाले ब्याज से इन केंद्रों की गतिविधियों का खर्च वहन किया जाता है। भारत सरकार ने प्रत्येक केंद्र को पांच करोड़ रूपये का अनुदान दिया और संबद्ध राज्य सरकार ने एक करोड़ रूपये दिए। यदि कोई राज्य एक से ज्यादा केंद्रों का सदस्य होगा तो उसका कुल अंशदान एक करोड़ रूपये से ज्यादा नहीं होगा। ये क्षेत्रीय संस्कृति केंद्र 1993 से हर वर्ष गणतंत्र दिवस पर होने वाले लोकनृत्य समारोह में भाग लेने के लिए अपने लोककलाकारों को भेजते हैं। भारत के राष्ट्रपति 24/25 जनवरी को तालकटोरा इनडोर स्टेडियम में इस समारोह का उद्घाटन करते हैं। इस समारोह के माध्यम से लोक कलाकारों को राष्ट्रीय मंच पर अपनी कला प्रदर्शित करने का दुर्लभ अवसर प्राप्त होता है। गणतंत्र दिवस लोकनृत्य समारोह के साथ ही विभिन्न क्षेत्रों में हस्तशिल्प मेला भी लगाया जाता है। इस हस्तशिल्प मेले में विभिन्न क्षेत्रीय संस्कृति केंद्रों के जानेमाने कुशल हस्तशिल्प और कारीगर भाग लेते हैं। हस्तशिल्प मेले के माध्यम से देश के विभिन्न भागों के हस्तशिल्पियों और कारीगरों को अपने उत्पाद ग्राहकों के समक्ष प्रदर्शित करने और उनके सामने ही इन उत्पादों की निर्माण प्रक्रिया दिखाने का अनोखा अवसर प्राप्त होता है। ये क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र विभिन्न लोक व जनजातीय कलाओं तथा खासतौर पर दुर्लभ एवं लुप्त होती कलाविधाओं के प्रलेख तैयार करने पर विशेष ध्यान देते हैं। राष्ट्रीय सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम के अंतर्गत देश के विभिन्न क्षेत्रों के कलाकारों, संगीतकारों और विद्वानों का आदान-प्रदान किया जाता है। इससे देश के विभिन्न भागों में जनजातीय/लोक कला-विधाओं के प्रति जागरूकता बढ़ाने में बहुत ज्यादा मदद मिली है और इस प्रकार विविधता में एकता की हमारी भावना और मजबूत हुई है। रंगमंच के कलाकारों, विद्यार्थियों, कलाकारों, निर्देशकों और लेखकों को साझे मंच पर काम करने और परस्पर एक-दूसरे को देखने-समझने का अवसर जुटाने के उद्देश्य से भी एक योजना चलाई जा रही है। संगीत और नृत्य के क्षेत्र में नई प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने के लिए “गुरू-शिष्य परंपरा” योजना है जिसके अंतर्गत हर क्षेत्र में गुरूओं की पहचान करके शिष्य उनके सुपुर्द कर दिए जाएंगे। इस उद्देश्य के लिए उन्हें छात्रवृत्ति भी दी जाती है। अपने शिल्पग्रामों के माध्यम से ये केंद्र हस्तशिल्पियों को बढ़ावा देकर उन्हें हाट-सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं। क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रों ने युवा प्रतिभाओं की पहचान करके इन्हें प्रोत्साहन देने की एक नई योजना भी शुरू की है जिसके तहत ये केंद्र अपने-अपने क्षेत्र में मंचन/लोक कलाकारों का पता लगाएंगे और हर क्षेत्र में एक या प्रतिभाशाली कलाकारों का चुनाव करेंगे।

राष्ट्रीय आधुनिक कला वीथि[सम्पादन]

राष्ट्रीय आधुनिक कला वीथि नई दिल्ली में स्थित है और इसकी स्थापना 1954 में की गई थी। इसका मुख्य उद्देश्य समसामयिक भारतीय कला को प्रोत्साहन देना और उसका विकास करना है। इस कलावीथि में करीब 1748 समकालीन भारतीय कलाकारों की विभिन्न विषयों पर 17858 कृतियों का संग्रह है। इस संग्रह के लिए मुख्य रूप से कलाकृतियां खरीदी गई हैं और उपहार में प्राप्त हुई कृतियां भी शामिल हैं। यहां के महत्वपूर्ण संग्रहों में पेंटिंग्स, मूर्तियां, लिपिविज्ञान की कृतियां, रेखाचित्र तथा चित्र शामिल हैं। राष्ट्रीय आधुनिक कला वीथि सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम के तहत समय-समय पर अपने संग्रह की प्रदर्शनियां भी आयोजित करता है। अनेक रंगीन प्रतिकृतियां भी प्रकाशित की गई हैं। इस कला वीथि का असल उद्देश्य लोगों में आधुनिक कला के कार्यों के प्रति बेहतर समझ और अनुभूति विकसित करना है। इसे ध्यान में रखते हुए 1996 में मुंबई की राष्ट्रीय आधुनिक कला वीथि का उद्घाटन किया गया था और एक नई कला वीथि बंगलुरू में बनाई जा रही है।

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र[सम्पादन]

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र देश में कला और संस्कृति से जुड़ी जानकारी एकत्र करने और इनके साथ ज्ञान और जीवन के अन्य विभिन्न विषयों का संबंध जानने की दिशा में प्रयासशील प्रमुख राष्ट्रीय संस्थान है। इसकी स्थापना दिवंगत प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की स्मृति में 1985 में की गई थी। इसकी बहुआयामी गतिविधियों में अनुसंधान, प्रकाशन, प्रशिक्षण, प्रलेखन, वितरण और नेटवर्किंग शामिल हैं। यह भारत में कलाओं से संबद्ध जानकारी का विशाल भंडार बनने वाला है। यह विभिन्न कलाओं के बीच, कलाओं और विज्ञानों के बीच, कलाओं और पारंपरिक तथा वर्तमान प्रणालियों के बीच रचनात्मक और विश्लेषणात्मक आदान-प्रदान का मंच उपलब्ध करा कर प्राकृतिक व मानवीय परिवेश के भीतर ही कलाओं को समाहित करना चाहता है। यह केंद्र विविध समुदायों, क्षेत्रों, सामाजिक वर्गों तथा भारत और विश्व के अन्य भागों में परस्पर आदान-प्रदान तथा आपसी सूझबूझ बढ़ाता है।

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र को कला, मानव-विज्ञान और सांस्कृतिक धरोहर का राष्ट्रीय डाटा बैंक स्थापित करने वाली केंद्रीय मूल एजेंसी का दर्जा दिया गया। इसकी एक बड़ी पहल है सांस्कृतिक आसूचना प्रयोगशाला की स्थापना जो मल्टीमीडिया और डिजिटल टेक्नोलॉजी के माध्यम से कला से संबद्ध सभी क्षेत्रों के बारे में विविध माध्यमों तक पहुंचने के तरीके निकालने के लिए समन्वित पद्धति अपना रही है। मोटे तौर पर इस प्रयोगशाला की प्रमुख गतिविधियों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है-डिजिटलीकरण, वेब-आधारित डिजिटल पुस्तकालय और सीड्रॉम/डीवीड्रॉम परियोजना।

सांस्कृतिक संपदा के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला[सम्पादन]

1976 में स्थापित सांस्कृतिक संपदा के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला संस्कृति विभाग का अधीनस्थ कार्यालय है और विज्ञान व प्रौद्योगिक विभाग द्वारा इसे भारत सरकार के वैज्ञानिक संस्थान के रूप में मान्यता प्राप्त है। इस प्रयोगशाला का उद्देश्य और लक्ष्य है देश में सांस्कृतिक संपदा का संरक्षण करना। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए यह प्रयोगशाला संग्रहालयों, अभिलेखागारों, पुरातत्व विभागों और इसी प्रकार के अन्य संस्थानों को संरक्षण सेवाएं तथा तकनीकी परामर्श उपलब्ध कराती है; संरक्षण के विभिन्न पहलुओं पर प्रशिक्षण देती है; संरक्षण के तरीकों और सामग्री के बारे में अनुसंधान करती है; संरक्षण संबंधी जानकारी का प्रचार-प्रसार करती है और देश में संरक्षण से जुड़े विषयों पर पुस्तकालय सेवाएं मुहैया कराती है। इस राष्ट्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला का मुख्यालय लखनऊ में है तथा दक्षिण राज्यों में भी संरक्षण के बारे में जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से मैसूर में राष्ट्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला के क्षेत्रीय केंद्र के रूप में क्षेत्रीय संरक्षण प्रयोगशाला काम कर रही है। अधिक जानकारी के लिए राष्ट्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला की वेबसाइट http://www/nrlccp.org देखें।