अलंकार/उपमा
उपमा एक प्रकार का अर्थालंकार है। इसमें एक चीज की तुलना दूसरी चीज से की जाती है और उनमें समानता दिखाई जाती है।
परिचय
[सम्पादन]- परिभाषा
- एक ही वाक्य में दो चीजों के बीच किसी गुणधर्म के आधार पर समानता बताना उपमा है।
- उदाहरण
- चंद्रमा के समान सुंदर मुख।
- विस्तार
- कविता में, जहाँ एक ही वाक्य में किन्हीं दो चीजों के बीच किसी समानता को स्पष्ट रूप से कहकर बताया जाता है वहाँ उपमा अलंकार होता है। इस तरह के वाक्य अथवा कथन में चार चीजें होती हैं। एक, जिसे किसी दूसरे के जैसा बताया जा रहा हो; दूसरा, जिसके जैसा बताया जा रहा हो; तीसरा वह गुण अथवा समानता जिसके कारण एक को दूसरे जैसा बताया जा रहा हो और चौथा वह शब्द अथवा वाक्यांश जिसके द्वारा वाक्य में यह तुलना साफ़-साफ़ दिख रही हो। जैसे ऊपर के उदाहरण में मुख की तुलना चंद्रमा से की जा रही है और उसे चंद्रमा के सामान बताया जा रहा, सुंदरता वह चीज है जो दोनों में समान है जिसके कारण यह तुलना और समानता कही गई है; और "के समान" वह स्पष्ट वाक्यखंड है जो यह समानता प्रकट कर रहा।
- साहित्यिक उदाहरण
...पीपर पात सरिस मन डोला।
यहाँ मन को पीपल के पत्ते के समान बताया जा रहा, दोनों का डोलना यानि चंचल होना वह गुण है जिसके कारण इन्हें एक जैसा बताया जा रहा; और "सरिस" अर्थात 'के जैसा' वह शब्द है जिसके द्वारा समानता को स्पष्ट रूप से कहा गया है।[१]
विश्लेषण
[सम्पादन]अन्य संस्कृत ग्रंथों में परिभाषाएँ:
|
साहित्यदर्पण में उपमा की परिभाषा दी गई है:
साम्यं वाच्यमवैधर्म्यं वाक्यैक्ये उपमाद्वयोः॥
— पं॰ विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०.१४
सुलझा के लिखें तो: वाक्यैक्ये द्वयोः (पदार्थयोः) अवैधर्म्यं वाच्यसाम्यम् उपमा (भवति)। अ-विधर्मता का मतलब विधर्मता का अभाव, अर्थात् कोई धर्म (आसन भाषा में कोई गुण, लक्षण या विशेषता) समान होना, या साधर्म्य।
ऊपर के अनुभाग में बताई गई चार चीजों को क्रमशः उपमेय, उपमान, समानधर्म और वाचक (वाची) शब्द कहा जाता है। उपमेय वह है जिसे समानता में किसी दूसरे जैसा बताया जा रहा। कवि के लिए यही प्राथमिक होता है, अर्थात कवि के वर्णन का मुख्य विषय उपमेय ही होता है। कहे या लिखे गए वाक्य में यह पहले ही आए ये ज़रूरी नहीं। अतः यह पहचानना आवश्यक हो जाता कि किसकी समानता बताई जा रही। उपमान वह है जिससे समानता कही जा रही। समानधर्म अथवा साधारण धर्म वह गुणधर्म है जिसका उपमेय और उपमान दोनों में पाया जाना कहा जा रहा। वाचक शब्द वह वाक्यांश या शब्द है जो सधर्मता को व्यक्त कर रहा; यह केवल एक ही शब्द भी हो सकता और वाक्यांश भी।
उपर्युक्त चारों की वाक्य में उपस्थिति के आधार पर उपमा को दो प्रकारों में बाँटा जाता है: पूर्णोपमा और लुप्तोपमा। अर्थात् जब उपमेय, उपमान, साधारण धर्म और वाचक शब्द सभी वाक्य में उपस्थित हों तब उसे पूर्णोपमा कहते हैं और यदि इनमें से एक भी अनुपस्थित हो तब उसे लुप्तोपमा कहते हैं।
इसके अलावा भी अनेक भेद-प्रभेद गिनाये गये हैं। आचार्य उद्भट ने उपमा के १७ भेद बताये हैं और पं. विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में २७ भेद बताये हैं।
प्रश्नावली
[सम्पादन]पुनरावलोकन
[सम्पादन]- उपमा अलंकार की परिभाषा क्या है?
- उपमा के कितने अंग होते?
- उपमा का उदाहरण दें।
आगे पढ़ने के लिए
[सम्पादन]- उपमा की अन्य किन अलंकारों के साथ समानता है?
- उपमा और रूपक में क्या अंतर है?
- उपमा और उत्प्रेक्षा में क्या अंतर है?
विहंगावलोकन
[सम्पादन]पिछले पाठों में हम शब्दालंकारों को पढ़ चुके हैं। अर्थालंकारों में उपमा को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। कुछ विद्वान उपमा को ही समस्त अलंकारों की जननी मानते हैं। उदाहरण के लिए पंडितराज जगन्नाथ इसे विपुलालंकारान्तर्वर्तिनी कहते हैं और कुवलयानंद की टीका लिखने वाले वैद्यनाथ इसे बहुलालंकारघटकः कहते हैं। एक अन्य विद्वान् का कथन है:
उपमैका शैलूषी सम्प्राप्ता चित्रभूमिकाभेदान्
रंजयति काव्यरंगे नृत्यन्ती तद्विदां चेतः॥ आचार्य अप्पय ॥ चित्रमीमांसा में॥
वहीं राजशेखर का कथन है कि:[२]
अलंकारशिरोरत्नं सर्वस्वं काव्यसम्पदम्
उपमा कविवंशस्य मातैवेति मतिर्मम॥
हम आगे के पाठों में अन्य कई अलंकारों के बारे में पढ़ेंगे जो उपमा से अत्यधिक मिलते-जुलते ही हैं। वहाँ प्रत्येक का उपमा के साथ अंतर सविस्तार बताया जाएगा। अभी हम कुछ प्रमुख अलंकारों के साथ उपमा की तुलना करें तो रूपक, व्यतिरेक, उपमेयोपमा और अनन्वय अलंकारों में भी दो चीजों की तुलना करके उनमें साम्य अथवा साधर्म्य दिखाया जाता है।
रूपक अलंकार में साधर्म्य अथवा साम्य एक व्यंग्य मात्र होता है प्रकट रूप से कहा नहीं गया होता। जैसे "मुख चन्द्रमा के समान" उपमा है, किन्तु सीधे "मुखचन्द्र" कहना रूपक है क्योंकि यहाँ साम्य को अभिधा में कहा नहीं गया (व्यंग्य अथवा इशारा भर है कि आप खुद समझ लें कि साम्य बताया जा रहा)। ऊपर दी गई साहित्यदर्पण की परिभाषा में वाच्यसाम्यम् इसी लिए आया है कि उपमा तभी होगी जब स्पष्ट रूप से साम्य को कहकर व्यक्त किया जा रहा हो। दीपक एवं तुल्ययोगिता जैसे अलंकारों में भी साम्य व्यंग्य के रूप में ही होता है अभिधा में कथित नहीं (इनकी चर्चा हम इनके अध्याय में करेंगे)।
जहाँ साम्य अथवा साधर्म्य का होना न कहा जाय बल्कि उसकी संभावना भर व्यक्त की जाय तो उत्प्रेक्षा अलंकार हो जाता। इसी प्रकार संभावना जैसे ही संशय और भ्रांति भी कुछ अलग चीजें हैं - संशय व्यक्त करने पर संदेह अलंकार हो जाता है और भ्रान्ति व्यक्त करने पर भ्रांतिमान।
उपमेयोपमा में साम्य कहा जाता है लेकिन कहने का तरीका ऐसा होता कि इसमें दो वाक्यों में बात कही जाती है और उपमेय और उपमान में साधर्म्य व्यक्त किया जाता। अतः यहाँ परिभाषा में वाक्यैक्ये कहना पड़ा। अर्थात एक ही वाक्य में बात कही जाय तभी उपमा अलंकार होगा।
व्यतिरेक अलंकार में भी दो चीजों के बीच साम्य कहा जाता है लेकिन वहाँ अंतर यह है कि तुरन्त वैधर्म्य भी बता दिया जाता और उसके आधार पर उपमेय को उपमान से अधिक अथवा न्यून दिखाया जाता। अनन्वय अलंकार में भी साधर्म्य दिखाया जाता किंतु वहाँ दो चीजें नहीं होती हैं उपमेय ही स्वयं उपमान भी होता है (आशय यह कि कवि यह दिखाना चाहता कि अमुक गुण में उपमेय के सामान कोई और है ही नहीं अतः उसी से उसकी साम्यता दिखानी पड़ रही)।
टिप्पणीसूची
[सम्पादन]- ↑ पूरी चौपाई तुलसीदास विरचित रामचरितमानस के अयोध्याकांड से है: "अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मन डोला॥" जहाँ कैकेयी को राम के वन जाने का वर दे चुकने के बाद राजा दशरथ की मनोदशा का वर्णन है।
- ↑ यह उद्धरण अलंकारशेखर ग्रंथ में केशवमिश्र द्वारा उद्धृत है, राजशेखर के ग्रंथों के पाठ में अप्राप्य है।