आदिकालीन एवं मध्यकालीन हिंदी कविता/कबीरदास

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कबीरदास

कबीर मध्यकालीन काव्य की निर्गुण धारा की ज्ञानाश्रयी शाखा के शिखर कवि हैं। आचार्य शुक्ल के अनुसार उनका जन्म काल जेठ सुदी पूर्णीमा, सोमवार, विक्रम संवत् 1436 माना जाता है। काशी में जन्में और मगहर में संवत् 1575 को देह त्यागने वाले कबीर की वाणी का संग्रह 'बीजक' नाम से प्रसिद्ध है। जिसके तीन भाग किए गए हैं- रमैनी, सबद और साखी। इसमें वेदांततत्त्व, हिंदु-मुसलमानों को फटकार, संसार की अनित्यता, हृदय की शुद्धि, प्रेमसाधना की कठिनता, माया की प्रबलता, मूर्ति पूजा, तीर्थाटन आदि की असारता, हज नमाज, व्रत, आराधना की गौणता इत्यादि अनेक प्रसंग है। सांप्रदायिक शिक्षा और सिद्धांत के उपदेश मुख्यतः साखी के भीतर हैं जो दोहों में हैं। इसकी भाषा सधुक्कड़ी अर्थात् राजस्थानी, पंजाबी मिली खड़ी बोली है, पर रमैनी और सबद में गाने के पद हैं। जिनमें काव्य की ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूरबी बोली का भी व्यवहार है। आचार्य शुक्ल की यह पंक्तियाँ कबीर की काव्य कला को स्पष्ट कर देती है।

संत कवि कबीर सामान्य जन समाज के भीतर से परम्परा से प्राप्त विचार और अपनी सूक्ष्म अंतर्दृष्टि के आधार पर मनुष्य के मन में मनुष्य मात्र के अस्तित्व बोध की भावना जागृत करने में सक्षम हैं। कबीर अपने साधारण से जीवन में भी असाधरण संकल्प शक्ति के कारण युग प्रतिनिधित्व कर सके हैं। कबीर अपने युग की परिस्थितियों और समस्याओं से भली-भाँति परिचित थे। स्वयं आर्थिक विपन्नताओं और सामाजिक दबावों में कार्यशील रहते हुए उन्होंने सक्रिय एवं जीवन्त दृष्टिकोण का परिचय दिया। कबीर-काव्य शास्त्रानुमोदित नहीं होकर 'आँखन देखी' और प्राथमिक प्रामाणिक अनुभवों पर आधारित है। कबीर उपेक्षित, तिरस्कृत जन-समाज के बीच से उठ खड़े हुए साधारण आदमी थे। इसलिए अपने आसपास के सामाजिक परिवेश के प्रति वह अधिक जागरूक थे।

कबीर का काव्य आम आदमी का काव्य है। उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों के परस्पर संबंधों, सामाजिक विसंगति-विरोध के बीच सूत्रबद्धता व्यक्ति और समाज के बीच सामंजस्य की भावना, आर्थिक विषमताओं को सहते हुएभी नैतिकता बनाए रखना, अभावजन्य परिस्थितियों में संतुलन, सामाजिक एवं मानसिक विवशताओं को सहते हुए भी हीनता का अनुभव न करना आदि बातों का संजीव आंकलन अपनी वाणी द्वारा किया है। समाज का यथार्थ वर्णन कबीर ने अपने साहसी और निर्भयतापूर्ण दृष्टिकोण द्वारा किया है। समाज में व्याप्त क्रूर और विषम वातावरण में भी कबीर अपना विरोध प्रकट करने का चारित्रिक साहस बनाए रहे :

तू ब्राह्मन मैं कासी का जुलाहा, कहु मेरो मनुवा कैसे इक होई रे। मैं कहता हौं आँखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी। मैं कहता सुरझाबनहारी, तू राख्यौं अरुझाई रे।

मनुष्य समाज का अविभाज्य अंग है। कबीर का लक्ष्य वैयक्तिकता की भावना को सामाजिकता की भावना में विलय करना था ताकि मानव जाति के अंदर बहुजन हिताय को भावना पनप सके। कबीर युगीन समाज उनके 'बहुजन हिताय' के लक्ष्य में एक बड़ी रुकावट थी। कबीर ने समाज के अंदर निजी स्वार्थों को तिरोभाव करने की भावना पैदा की। कबीर ने जन-समुदाय में आत्मपरक चेतना जागृत करके, जनमानस में लोकमंगलकारी बोध की भावना पैदा करने का सराहनीय प्रयास किया :

अपना-सा दुख सबका जानै, ताहि मिले अविनासी। आदि मंधि अऊ अंत लौ, अबिहड सदा अभंग|

कबीर मानव समाज के अंदर आस्था का बीजरोपण करके एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसमें परिवेशजन्य कोई भय न हो, सह-अस्तित्व की भावना हो, परिश्रम और कर्त्तव्य के प्रति निष्ठा की भावना हो; अपने इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए कबीर ने अपनी वाणी द्वारा समाज में व्याप्त विषमता को दूर करने का प्रयास किया। 'साहित्य जीवन की समीक्षा हैं' - सन्त साहित्य पर यह बात पूर्णत: लागू होती है। संत काव्य लोक-करुणा, लोक-संवेदना और लोकमंगल की भूमिका में प्रतिष्ठित है।

कबीर ने तत्कालीन जन-जीवन में व्याप्त संघर्ष, शोषण, सामंती प्रवृत्ति और रूढ़िवादिता का सशक्त विरोध अपनी वाणी द्वारा अभिव्यक्त किया है। कबीर का विचार है कि सब मनुष्य एक ही मानव-समाज के अंग है। एक ही विशाल वृक्ष को विभिन्न शाखाओं के समान हैं, सबके मूल की ओर दृष्टि डालने पर उनमें कोई अंतर नहीं दीखता, न इसी कारण उसमें एक-दूसरे को पृथक और‌ ऊँच-नीच समझने का कोई आधार ही लक्षित होता है : काहै कौं कीजें पांडे छाति बिचारा छोतिहीं तैं उपना सब संसारा। हमारे कैसे लोहू तुम्हारैं कैसें दूध। तुम्ह कैसें लहू तुम्हारे कैसें दूध। तुम कैसे ब्राह्ण पांडे हम कैसें सूद। छोति-छोति कहता तुम्हारी जए। तौं ग्रभवास काहे कौं आए। जनमत छोत मरत की छोति। कबीर ने सामाजिक श्रृंखला के मूल व्यक्ति के सम्मुख उच्चादर्श उपस्थित किया। उनका विचार था कि जब मनुष्य सर्वगुणसम्पन्न, साहसी, परोपकारी होगा तो समाज का पथ अपने आप जी आलोकित होता जाएगा।

अस्तुति निंदा आसा छाडैं, तजे मान अभिमाना। लोहा कंचन समि करि देखें, ते सुरति भगवाना।

वर्ण-भेद, ऊँच-नीच की भावना तथा जातिगत भेद के कारण मनुष्य ईर्ष्या-द्वेष, घृणा वैमनस्य के दलदल में फँस गया था। इस समस्या के निवारण हेतु कबीर ने परंपरागत पॉवर स्ट्रक्चरों से सीधी टक्कर ली-

मुलां कहाँ पुकारें दूरि। राम रहीम रह्या भर पूर्ति।

यहु तो अलह गूँगा नाँहीं, देखै खलक दुनी दिल माँही । कबीर युगीन समाज को सांप्रदायिक वैमनस्य ने क्षत-विक्षत कर दिया। हिंदू-मुस्लिम संप्रदायों के लोग अपने आपको दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने में लगे रहते थे, जिससे सदैव सांप्रदायिक तनाव बना रहता था। कबीर ने सांप्रदायिक एकता स्थापित करने का अथक परिश्रम किया :

जौर न खुदाया मसीति बसत है, और मुलिक किस केरा। तीरथ मूरति राम निवास, दुहु में किनहूँ न हेरा।

कबीर की दृष्टि में संपूर्ण सृष्टि, प्राकृतिक उपादान आदि सभी तत्त्व एकत्वपूर्ण हैं। हिन्दु-मुसलमान एक ही ईश्वर की संतान हैं। इस आध्यात्मिक एकता को भूलना नहीं चाहिए तथा सभी संप्रदायों को मिलजुल कर रहना चाहिए। एकै पवन एकही पानी, एक ज्योति संसारा।

एकहि खाक गढ़ सब भांड़े, एकहि सिरजनहारा।

स्पष्ट हैं कि अपने समय के सामाजिक परिवेश में कबीर ने एक ओर रुढ़ि-आडम्बरों से मुक्ति दिलाने का प्रयत्न किया तो दूसरी ओर भय आतंक के उस वातावरण में आस्था, विश्वास का संचार करते हुए, निडर, निर्भय होने की प्रेरणा दी। कबीर ने सैकड़ों वर्षों से अंधविश्वासों, रूढ़ियों में जकड़ी मानवजाति की सुप्त चेतना को जगाने का प्रयास किया।

कबीर की भाषा-शक्ति सतह पर सरल और अर्थ के धरातल पर सघन हैं। तत्त्वदर्शी सुकवि और परिश्रमी जुलाहा, कबीर का व्यक्तित्व इन विरोधी लगते तत्त्वों से मिलकर निर्मित हुआ है। उसके कृतित्व पर भी इसकी स्पष्ट छाप है। 'कबीर की भाषा इससे अछूती कैसे रह सकती थी ? मनुष्य-जीवन की महता नष्टकर देनेवाले काल का भय जैसी जटिल मानवीय संवेदनाओं, चिंताओं को भाषा का अनुभव बनानेवाले कबीर सरीखें समर्थ बहुत कम हैं।

कबीर की भाषा की शक्ति और क्षमता का परिचय उनके शब्द भंडार से मिलता है। उनका शब्द भंडार असीम था। तत्कालीन प्रचलित ब्रज, अवधी, खड़ी बोली, बुंदेली, राजस्थानी भोजपुरी आदि बोलियों के अतिरिक्त पंजाबी, गुजराती इत्यादि भारतीय भाषाओं तथा अरबी-फारसी आदि विदेशी भाषाओं के लोक-प्रचलित शब्द उनके काव्य में अनायास और स्वाभाविक रूप से प्रयुक्त दिखाई पड़ते हैं। उन्होंने शब्दों का चयन जीवन के विस्तृत क्षेत्र से किया था। कबीर ने विभिन्न पेशों, वर्गों एवं वर्णों से शब्द चयन किया है। उन्होंने कृत्रिम और जीवन रस से रहित शब्दावली की बजाय सक्रिय और जीवंत रस सम्पन्न शब्दों के द्वारा कविता संभव की है। कबीर के शब्द मौलिक, सार्थक और अचूक हैं कि उनके पर्याय निर्धारित करना असंभव है।

कबीर का शब्द ज्ञान गहन है। अरबी-फारसी का कबीर के समकालीन सांस्कृतिक राजनीतिक परिदृश्य पर गहरा हस्तक्षेप था। अरबी-फारसी क्रमश: तत्कालीन धर्म एवं राजभाषा के रूप में प्रचलित थीं। कबीर ने इन भाषाओं से परहेज नहीं किया क्योंकि कबीर शब्द चयन की दृष्टि से सांप्रदायिक नहीं हैं। वह भाषा की इस संकीर्ण राजनीति से ऊपर थे। कबीर की कविता भाषा और समाज की उदात्त राजनीतिक का प्रामाणिक दस्तावेज हैं। इसलिए कबीर ने धर्म-सम्प्रदाय, क्षेत्रवाद या भाषाशास्त्रीय दृष्टि से शब्दों का चयन नहीं किया। बल्कि जनजीवन में रचे-बसे शब्दों से अपनी भाषा को अपूर्व रचनाशीलता प्रदान की है।

कबीर ने तत्सम, तद्भव, देशज शब्दों के अतिरिक्त, राजस्थानी, पंजाबी तथा अरबी-फारसी इत्यादि भाषाओं से उन शब्दों को भारतीय को सुना जो सरल है और भारतीय मानस में रच-बस गए हैं :

तत्सम शब्द: नीर, जल, गंभीर, कष्ट, क्रोध, उदार, पुन, गगन, काम,

मुनि, पावक, मद, लोभ, सज्जन, कुंडलिनी ।

देशज: घूँट, जंजाल, बाँगर, पेड़ थोथा। पंजाबी: लोड़ (जरूरत), बाझ (छोड़कर भागना), नाल ( साथ में), लूण (नमक) । राजस्थानी: डागल, अपूग तद्भव: साहस, कसनी, हजारी, अहरासी, अनियाले मुसि, नेवली, कस। अरबी: असरार, मुदकम, मीरां, सदके, जिबहे, हलाल, खालिक, साबित, विलायत।


             कबीरदास

साँच कौ अंग

कबीर लेखा देणाँ सोहरा, जे दिल साँचा होइ। उस चंगे दीवाँन मैं, पला न पकड़े कोइ।।


कबीर जिनि जिनि जाँणियाँ करत केवल सार। सो प्राणी काहै चलै, झूठे जग की लार।।

भ्रम विधौंसण कौ अंग

कबीर पान्हण केरा पूतला, करि पूजै करतार। इसी भरोसै जे रहे, ते बूड़े काली धार।।

कबीर मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि। दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछाँणि।।

भेष कौ अंग

कबीर कर पकरै, अँगुरी गिनै, मन थावै चहुँ वीर। जाहि फिराँयाँ हरि मिलै, सो भया काठ की ठौर।।

कबीर केसौं कहा बिगाड़िया, जे मूड़े सो बार। मन कौं न काहे मूडिए, जामै विषै विकार।।

साध साषीभूत कौ अंग

कबीर हरि का भाँवता, दूरैं थैं दीसंत। तन षीणा मन उनमनाँ, जग रूठड़ा फिरंत।।

कबीर हरि का भावता, झीणाँ पंजर तास। रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मास।।

सारग्राही कौ अंग

कबीर औगुण ना गहैं, गुण ही कौ ले बीनि। घट घट महु के माधुप ज्यूँ, पर आत्म ले चीन्हि।।

बसुधा बन बहु भाँति है, फल्यो फल्यौ अगाध। मिष्ट सुबास कबीर गहि, विषम कहै किहि साथ॥

सम्रथाई कौ अंग

कबीर वार्या नांव परि, कीया राई लूँण। जिसहिं चलावै पंथ तँ, तिसहिं भुलावै कौंण।।


             पद

काहे री नलिनी तँ कुम्हिलानीं, तेरे ही नालि सरोवर पाँनीं।। टेक।। जल मैं उतपति जल में बास, जल में नलनी तोर निवास॥ ना तलि तपति न ऊपरी आगि, तोर हेतु कहु कासनि लागि।। कहैं कबीर जे उदिक समान, ते नहीं मूए हँमरे जान।।

अब का डरौं डर डरहि समाँनाँ, जब थैं मोर तोर पहिचाँनाँ।। टेक।। जब लग मोर तोर करि लीन्हा, भै भै जनमि जनमि दुख दीन्हा।। अगम निगम एक करि जाँनाँ, ते मनवाँ मन माँहिं समाँनाँ।। जब लग ऊँच नीच करि जाँनाँ, ते पसुवा भूले ग्रॅम नाँनाँ। कहि कबीर मैं मेरी खोई, तबहि राँम अवर नहीं कोई।

साखियाँ:- लेखा = कर्मों का लिखा, सोरहा = सुरक्ष्य, पला पल्ला, वस्त्र, करता = = करतार/कर्ता, पाहन = पत्थर, दशवां द्वार = ब्रह्म का मार्ग, कर हाथ, केसौं - केश, भांवता = प्रिय जन, दीसंत = दिखाई पड़ना, जगि संसार, पंजर = शरीर, गहै = ग्रहण करना, बीनि = चुनना, लूंण = लवण/ = नमक, भुलावै = भ्रमित करना ।

पद:- तपति = ताप, नाना = विविध प्रकार ।