आदिकालीन एवं मध्यकालीन हिंदी कविता/मंझन

विकिपुस्तक से

4. मंझन

मंझन हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल की प्रेममार्गी शाखा के एक स्थापित स्तम्भ हैं। अन्य सूफी कवियों की भाँति इन्होंने भी प्रेमगाथा को अपने साहित्य का आधार बनाया है। अतः इनके साहित्य में भी प्रेम के उस स्वरूप का वर्णन मिलता है जो अंततः ईश्वर से मिलाता है और इसका आधार भी लौकिक है। इनके जीवन और व्यक्तित्व के बारे में बहुत पता नहीं लगता लेकिन इनके शोधकर्ताओं ने 'मधुमालती' से प्राप्त जानकारी अनुसार यह मत व्यक्त किया है कि वे चुनार के थे और उनके समय सलीम शाह शाहे वक्त थे तथा शेख मुहम्मद गौस इनके गुरु रहे होंगे। मंझन के अनुसार सलीम शाह का व्यक्तित्व इतना विशाल था कि उत्तर के हेमगिरी से लेकर दक्षिण के सेतुबंध और पूर्व के समुद्र तट से लेकर पश्चिम में रुम देश तक उससे प्रभावित था । इसके साथ ही मंझन का कहना है कि वे अत्यन्त पराक्रमी, न्यायप्रिय तथा दयालू थे। लेकिन माताप्रसाद गुप्त ने इसे अतिश्योक्ति माना है तथा इसे तत्कालीन काव्य-रुढ़ि की तरह देखा है

जिन शेख मुहम्मद गौस को मंझन का गुरु माना जाता है, वे शत्तारी सम्प्रदाय के सूफी सन्त थे। गुप्त जी के अनुसार ऐसा ज्ञात होत है कि मुहम्मद गौस सिर्फ सूफी सन्त नहीं थे, बल्कि वे एक प्रभावशाली राजनीतिक व्यक्तित्व के स्वामी थी। उनकी आज्ञा से ही बाबर द्वारा हुमायूँ को छत्र प्रदान किया गया था। रामपूजन तिवारी ने मुहम्मद गौस को हुमायूँ का आध्यात्मिक गुरु बताया है। वे ग्वालियर में रहते थे और शत्तारी सम्प्रदाय के प्रमुख सन्तों में इनका नाम लिया जाता है। इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक फारस के अब्दुल्ला शत्तारी को माना जाता है। वे सुप्रसिद्ध सन्त शहाबुद्दीन सुहरावर्दी के वंशज थे। इनके पीर शेख मुहम्मद आरिफ थे। शेख मुहम्मद आरिफ से अत्यन्त शीघ्रता से आध्यात्मिक रहस्य का ज्ञान सीखने के कारण ही इनका नाम अब्दुल्ला शत्तारी हुआ । 'शत्तार' शब्द का अर्थ गति होता है। अतः शत्तारी सम्प्रदाय में गति और ज्ञान की केन्द्रीयता होती है । इस सम्प्रदाय की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें भ्रमण कर ज्ञान के आदान-प्रदान को महत्व दिया जाता है। सशक्त धारणा है कि स्वयं अब्दुल्ला शत्तारी भी भारत में तभी आए, जब उनके पीर के द्वारा उन्हें यहाँ आने का आदेश मिला। माना जाता है कि शत्तारी सम्प्रदाय के उपासक कादिरी सम्प्रदाय की तरह ही वेशभूषा धारण करते थे। कादिरी सम्प्रदाय की तरह ही यहाँ भी गुलाब के फूल की बहुत मान्यता है और इसे पैगम्बर का प्रतीक माना जाता है। गुलाब का फूल टोपी में लगाया जाता है तथा हरे रंग की पगड़ी पहनी जाती है। इसके साथ ही गेरुएँ रंग के एक कपड़े की भी अनिवार्यता है। लेकिन कादिरी सम्प्रदाय में संगीत का महत्व नहीं होता। शत्तारी सम्प्रदाय के उपासक चिश्ती और कादरियों की तरह ही 'बेनवा' नाम से सम्बोधित किये जाते हैं जिसका अर्थ रामपूजन तिवारी के अनुसार दीन या अपाहिज होता है। इस सम्प्रदाय में जो अपने बाल कटवा देते हैं उन्हें 'मुहिहदनुमा' कहा जाता है और नियमों का पाबन्द न होने के कारण उन्हें अधार्मिक माना जाता है। लेकिन 'रसूलनुमा' उन्हें रहा जाता है जो इस सम्प्रदाय में दीक्षित होने के समय दाहिने ओर की कनपटी के बालों को कटवाते हैं। अतः शत्तारी सम्प्रदाय का यह वर्णन मंझन की जीवन-शैली और उनकी आध्यात्मिक उपासना की ओर संकेत करता है। 'मधुमालती' की भूमिका के आधार पर माताप्रसाद गुप्त ने मंझन को चुनार का रहने वाला बताया है।

साहित्य के क्षेत्र में मधुमालती की भूमिका केवल राजकुमार और राजकुमारी के इश्क-मिज़ाजी से इश्क हकीकी तक के यात्रा का प्रेमाख्यान ही नहीं है बल्कि यह आगे के सूफी रचनाकारों के लिए रचनाकर्म का एक आदर्श भी है । इसका अर्थ यह होता है कि मधुमालती का होना उसके आध्यात्मिक लक्ष्य के साथ ही साथ प्रेमगाथा की साहित्यिक परम्परा को पुष्ट और स्थापित करने वाली रचना का होना है। मधुमालती के इस महत्त्व को साहित्य के इतिहासकारों के साथ स्वयं प्रेमाख्यान के सिरमौर मलिक मुहम्मद जायसी ने भी मान्यता दी है। उन्होंने तो लिखा ही है कि-

"विक्रम धँसा प्रेम के बारा। सपनावति कहँ गएउ पतारा॥ मधूपाछ मुगुधावति लागी। गगनपूर होइगा बैरागी॥ राजकुँवर कंचनपुर गयऊ। मिरगावति कहँ जोगी भयउ॥ राजकुँवर खंडावत जोगू। मधुमालति कर कीन्ह वियोगू॥ प्रेमावती कहँ सुरसरि साधा। ऊषा लगि अनिरुध बर बाधा॥'

मलिक मुहम्मद जायसी के इस कथन को पढ़कर मंझन की मधुमालती निश्चित रूप से विधात्मक स्तर पर अग्रणी भूमिका निभाने वाला प्रबंध लगने लगता है क्योंकि आलोचकों ने आगे चलकर प्रेमाख्यान की परम्परा का जो विवेचन किया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सूफियों का हिन्दी साहित्य वास्तव में इतिहास की धारा को परिपुष्ट करते हुए चलता है जिसकी मिसाल बहुत कम ही देखने को मिलती है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि सूफियों की रचनात्मकता केवल कला या चमत्कार के लिए नहीं थी बल्कि वह तो भान प्रक्रिया और भक्ति के अनुभव का युगीन विस्तार थी। यह भारतीय समाज को एक नए तरह के धर्मनिरपेक्ष सम्बन्ध में बाँधने का भावनात्मक प्रयास थी और कितने आश्चर्य की बात है कि वह भी धर्म पद्धति के सन्दर्भ के साथ! इसलिए वास्तव में 'मधुमालती' को पढ़ना या उसका आस्वादन करना स्वतंत्र पाठन नहीं हो सकता। वह तो जब भी पाठक के हृदय में उतरेगी तो एक नई सामाजिक धारणा और कविता के अद्भुत गठबंधन के साथ ही प्रकट होगी। संभवतः यही कारण है कि जब भी हिन्दी प्रेमाख्यानकों की आलोचना लिखी जाती है वह एक समूचे साहित्यिक आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में ही हो सकती है न कि किसी स्वतंत्र ग्रन्थ या प्रबंध के रूप में। हिन्दी साहित्य के वैष्णव धारा की आलोचना में भी हम लोकमंगल और लोकरंजन की दृष्टियों में बँट जाते हैं लेकन जब भी हम प्रेमाख्यानों की आलोचना पढ़ते हैं हम सभी में ‘प्रेम की पीर' ही पढ़ रहे होते हैं। इसलिए प्रेमगाथा की समस्त विशेषताएँ 'पद्मावत', 'मधुवती', 'चित्रावली', 'इन्द्रावत' या फिर 'मृगावती' की ही विशेषताएँ होती है।

प्रेमाख्यान के रूप में मधुमालती में जो विशेषता पाई जाती है कि इसकी रचना फारसी की मसनवी शैली के ढब पर हुई है। रामपूजन तिवारी के अनुसार मसनवी शब्द बड़े या प्रबंध के आकार के काव्य के लिए उपयोग में लाया जाता है। इसके छंद के पद अपने में स्वतंत्र और तुकांत होते हैं। मूलत: प्रेमाख्यान, धार्मिक तथा उपदेशात्मक काव्य के लिए मसनवी का चयन किया जाता है। इनका एक खास नाम दिया जाता है जो उनके विषय पर केन्द्रितहोता है, जैसे कि 'साकीनामा'। लेकिन प्रेमाख्यानों में यह नाम नायक नायिका के नाम पर रखे जाने की परम्परा लक्षित होती है जैसे कि 'युसूफ जुलेखा' या 'खुसरो-सीरी'। मसनवी सर्गबद्ध होते हैं और उनकी एक निश्चित संरचना होती है। सामान्य रूप से पहले सर्ग में परमात्मा के गुणों का उल्लेख होता है तो दूसरे में पैगम्बर को याद किया जाता है। तीसरा सर्ग पैगम्बर के मीराज के लिए होता है तथा अगले में शाहे वक्त या उस व्यक्ति विशेष की प्रशंसा होती है जिसे उक्त ग्रन्थ समर्पित किया जाता है। अगला सर्ग उस उद्देश्य को केन्द्रित कर रचा जाता है जिसके लिए उक्त काव्य की रचना की जा रही हो। तत्पश्चात मूल काव्य की वस्तु आरम्भ होती है और वह कथा की आवश्यकता के अनुसार सर्गबद्ध किया जाता है। अंतिम सर्ग उपसंहार का होता है जिसमें कवि उक्त काव्य के पूरे होने की तारीख का जिक्र करता है। मसनवी ढब की ये समस्त विशेषताएँ अन्य प्रेमाख्यानों के साथ 'मधुमालती' में भी पाई जाती है।

हिन्दी सूफी प्रेमाख्यानों की एक अन्य विशेषता यह बताई जाती है कि पूर्वी हिन्दी या अवधी में दोहा, चौपाई के छन्दों के क्रम में लिखी गई हैं। 'मधुमालती' के चौपाइयों की भाषा तत्कालीन बोलचाल की अवधी है और दोहों की भाषा साहित्यिक अवधी है।

प्रेमाख्यानों के सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने एक विशेषता यह रेखांकित की है कि ये समस्त प्रेम कहानियाँ मुसलमान रचनाकारों द्वारा रची गई हैं। इसका एक विशेष सन्दर्भ यह बनता है कि सूफी मत अपनी प्रकृति में अत्यन्त उदार मत है और एक पद्धति को मानते हुए भी उसमें किसी भी तरह से कट्टरता की भावना नहीं पनप सकती बल्कि वह तो इतनी अद्भुत क्षमता रखता है कि समाज को धर्म के नाम पर विद्रूपता का शिकार नहीं होने दे सकता। इन प्रेमाख्यानों से गुजरते हुए धर्म का कोई बोध नहीं रह जाता बस समस्त संसार के एक ही तत्त्व से बनने की भावना पाठक के मन में उत्पन्न होती है। इसलिए प्रेमाख्यान धर्म और कविता का बेजोड़ मिलन है जिसमें मनुष्य की मनुष्यता अपने समय से आगे की रचना करने में सक्षम है। ऐसा करने में कविता की यह परम्परा लोक-संस्कृति की रक्षा भी बहुत ही सहजता के साथ करती है ।

'मधुमालती' ने जैसे हिन्दू-तुरक का भेद मिटा कर उन्हें लोक में रूपांतरित कर दिया है। बाँटने वालों के लिए यहाँ बहुत बड़ी समस्या खड़ी कर दी है कि इस कथा का कोई हिन्दू या मुसलमान स्रोत नहीं खोज सकते। यह तो उस लोक का उत्पादन है जिसका कोई धर्म नहीं। यह प्रेमाख्यानों के विशेषता नहीं बल्कि सही मायने में उनकी उपलब्धि मानी जानी चाहिए।

प्रेमाख्यान में प्रेम स्वरूप पर ध्यान जाना स्वाभाविक है क्योंकि वह इन काव्यों की मूल शक्ति है। इस संदर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जायसी ग्रन्थावली की भूमिका में चार प्रकार के प्रेम का वर्णन किया है। इसमें वे 'पद्मावत' के सन्दर्भ में चार प्रकार के प्रेम की चर्चा करते हैं। प्रेम का पहला 7 प्रकार विवाह सम्बन्ध के पश्चात का है, दूसरा विवाह पूर्व है जिसकी अनिवार्य परिणति विवाह में होती है, तीसरा भोगविलास या राजाओं के अन्तःपुर का 1 प्रेम होता है और चौथा जो किन्हीं प्रकार के गुण-श्रवण-दर्शन-चित्रण पर आधारित होता है। 'पद्मावत' की तरह 'मधुमालती' का प्रेम भी चौथी परम्परा में आता है। यदि 'पद्मावत' के रत्नसेन से तुलना करें तो यह भी प्रकट होता है। कि वहाँ परिचय का आधार हीरामन के माध्यम से था लेकिन 'मधुमालती' में यह स्वप्न के माध्यम से किया गया है। लेकिन इन प्रेमाख्यानों में प्रेम के प्रति एक गूढ़ लगाव तो अवश्य है और वे भी जैसे उसके शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक संतुलन को समझने निरखने का महत्त्वपूर्ण प्रयास करते हैं। इस प्रसंग में 'मधुमालती' में मंझन लिखते हैं-

इहै रूप परगट बहु रूपा। इहै रूप बहु भाउ अनूपा। इहै रूप सभ नैनन्ह जोती। इहै रूप सभ सायर मोती। इहै रूप सभ फूलन्ह बासा। इहै रूप रस भंवर बेरासा। इहै रूप ससिहर और सूरा। इहै रूप जग पूरि अपूरा। इहै रूप अंत आदि निदाना। इहै रूप धरि धर सो धियानां। इहै रूप जल थर और महिअर भाउ अनेग देखाउ। आप गंवाई जो रे कोइ देखै सो किछु देखै पाउ।।

सूफी साधना वास्तव में लौकिकता को या शारीरिक प्रेम को अलौकिक प्रेम के लिए एक अनिवार्य साधन मानती है। यह एक ऐसी दृष्टि है जो उसे कोरा अध्यात्मवादी नहीं रहने देती बल्कि उसे इहलौकिक संसार की व्यावहारिकता से जोड़ती हैं। इसलिए शारीरिक प्रेम का होना उसके लिए आवश्यक है लेकिन यह उसकी हकीकत नहीं। हकीकत तो रूप के विलीन हो जाने में हैं लेकिन उसके लिए कम से कम रूप का होना तो जरूरी है।

प्रेम की कसौटी विरह को माना गया है। जब प्रेमी विरह में जलता है तब उसकी स्थिति तपस्वी की बनती है। लेकिन प्रेमाख्यानों का विरह भी प्रबंधित विरह है जिसका आशय यह है कि वह समूची साधना का संरचनात्मक हिस्सा है। आचार्य शुक्ल के मत में तो विरह की विशद व्यंजना ही जायसी को अप्रतिम बना गई और कहने की आवश्यकता नहीं है कि नागमती का वियोग हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि माना जाता है।

विरह के इसी दर्शन का जीवन्त निर्वाह मंझन ने मधुमालती में भी किया है । यहाँ स्पष्ट रूप से यह व्यक्त किया गया है कि बिना विरह के मनुष्य का जीवन अकारथ है, उसका कोई अस्तित्व नहीं है। मंझन के शब्दों में-

दुख मानुस कर आदि गरासा। ब्रह्म कंवल महं दुख कर बासा। जेहि दिन तेहि दुख सिस्टि समानां। तेहि दिन तें जिउ कै जिउ जानां। मोहि न आजु उपजेउ दुख तोरा। तोर दुख आदि संघाती मोरा। अब लै बहौं दुक्ख कै कांवरि। दुइ जग देउं सुक्ख नेउछावरि। अपान दै तोर दुख लिया। मरि कै अब सो अमूत पिया। तोर दुक्ख मधुमालति सुखदाएक संसार। जेहि जिय माहिं तोर दुख उपजा धनि सो जग औतार।।

मंझन की 'मधुमालती' हिन्दी प्रेमगाथाओं की परम्परा में अपना विशिष्ट स्थान रखती है क्योंकि वह इस धारा की संरचनात्मकता को सशक्त करने में प्राथमिक भूमिका का निर्वाह करती है। यह मध्यकाल के लोक मानस से हमारा परिचय भी कराती है और बार-बार अपने वितान से आकृष्ट करती है कि प्रेम की साधना व्यक्ति और समाज की मुक्ति का आधार है।

          मंझन

केश-वर्णन

तेहि पर कच बिखधर बिख-सारे। लोटहिं सेज सहज लुहकारे। सगबगाहिं परतिख मानिया। गरल भरे बिखधर हतियारे। निसि अँजोर जैसे-बदन दिख ये। तस अँध्यार दिन कच मोंकराएँ। कच न होहिं बिरही दुख सारा। भएउ जाइ मधु सीस सिंगारा। भूलि दसौ दसा निजु ताही। चिहुर चिन्हारि भई जग जाही। छिटके चिहुर सोहागिनी, जगत् भएउ अन्धकाल। जनु बिरहीजन जिय वध कारन, सनथ रोपा जाल।।

नासिका वर्णन

नांक सरूप न बरनै पारौं। तीनिउं भुवन हेरि कै हारौं। कीर ठोर औ खरग कै धारा। तिकल फूल मैं बरनि न पारा।। उदयागिरि जौ कहौं तौ नाहीं। ससि सूरुज दुइ बाद कराहीं। निकट न कोउअ संचरै पारा। निसि दिन जियै सो बास अधारा।। केहि दै जोर पटतरौं नासा। ससि सूरज जेहि करहिं बतासा। नांक, सरूप सोहागिनी केहि लै लावौं भाउ जहा कहं ससि सूरुज निसि बासर ओसारीं सारहिं बाउ।।

अधर-वर्णन

अधर अमिअ-रस भरे सोहाए। पेम बरें हुत रगत तिनाए। अति सुरंग कोंवल रस भरे। जानहु बिम्ब मयंकम धरे। पटतर लाइ न जाहिं बखाने। जनु ससि-अमी गारि बिधि साने। अधर अमीरस भरे अपीऊ। कुंवर जान मोर डोलहिं जीऊ। 'वह सो धरी बिधि कब दरसाइहि। जब यह जिउ मोरे घट आइहि। अनल बरन दुइ अधर सोहागिनि जगत सुधानिधि जान। अचिजु जो अंब्रित अमिनि सेउं देखत जरहिं परान।।

दसन वर्णन

दसन जोति बरनी नहिं जाई। चौंधै दिस्टि देखि चमकाई। नेक बिगसाई ( ? ) नींद महं हंसी। जानहुँ सरग सेउं दामिनी खसी। बिहरत अधर दसन चमकाने। त्रिभुवन मुनि गन चौंधि भुलाने। मंगर सूक गुरु सन्हि चारी। चौक दसन भय राजकुमारी। नहिं जानौं दहुं कहं दुरि जाई। रहे जाइ ससि माहिं लुकाई। जौ कोइ कहै कि बिधि पसारा तेहि कर सुनहु सुभाउं। बिधि गुपुत जग माहीं काहुं न देखा काउ।

त्रिबाली वर्णन

करि माहँ त्रिबली कसि अही। बिधनै गढ़त मूंठि जनु गही। गुरजन लाज मनहिं मन मानेउं। तौ नहिं मदन भंडार बखानेउं। देखि नितंब चिहुंटि चित लागा। परत दिस्टि मनमथ तन जागा। जुगुल जंघ देखि मन थहराई। भरमेड जीउ किछु कहा न जाई। राते कोंवल सेत सोहाए। तरुवन्ह कंवल पटतर जिमि लाए। विपरित कनक केदली और गज सुंड सुभाउ। उपमां देत लेजानेउं सुनहुं कहौं सति भाउ।।

              शब्दार्थ

बिखधर = सर्प, सगबगाहि = चौकन्ने होना, गरल = विष, अंजोर = उजाला, तीनिठं भुवन = आकाश, पाताल और मर्त्यलोक, बास = वासना, बतासा = हवा, अमिअ = अमृत, बरें = वरण करना, तिसाए = तृषित, गारि = निचोड़कर, अपीऊ = अनपिया, घट = शरीर, अचिजु = आश्चर्य, परान = प्राण, निरमए = निर्मित, सिरीफल = श्रीफल, तरुनापैं = तारुण्य, विधनै = विधाता, मदन = कामदेव, भरमेउ = भ्रमित ।