आदिकालीन एवं मध्यकालीन हिंदी कविता/विद्यापति

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2. विद्यापति

हिन्दी साहित्य के आदिकाल में देश भाषा काव्य के अन्तर्गत विद्यापति का महत्व फुटकल रचनाओं के साहित्यकार के रूप में किया जाता है। देश भाषा का अर्थ सामान्य जनता की बोलचाल की भाषा से है। अतः यह धारणा बनती है कि विद्यापति साधारण जनता की भाषा के कवि हैं और उनके काव्य और भाषा का महत्व इसमें पता चलता है कि उन्हें 'मैथिल कोकिल' की उपाधि दी जाती है। आदिकालीन साहित्य में सामान्यतः जिन प्रवृत्तियों की चर्चा होती है उनमें नाथ, जैन तथा सिद्ध सम्प्रदाय के साहित्य को धार्मिक तथा चारण कवियों के साहित्य को वीरगाथा से जोड़कर देखा जाता है। लेकिन, इनके अतिरिक्त लौकिक साहित्य की धारा को भी स्वीकार किया गया है। जिसमें जन-मनोरंजन के लिए अमीर खुसरो को मान्यता दी गयी है, तो शृंगार और भक्ति के लिए विद्यापति को विद्यापति का जन्म 1368 ई. का माना गया है और इनके स्थान के रूप में बिहार के दरभंगा जिले का विसपी गाँव स्थापित तथ्य है। सर्वमान्य है कि इनके दो आश्रयदाता थे। पहले आश्रयदाता के रूप में राजा कीर्ति सिंह का नाम लिया जाता है तो दूसरे आश्रयदाता के रूप में मिथिला के महाराजा शिव सिंह प्रसिद्ध हैं। इसके अतिरिक्त यह भी माना जाता है कि रानी लखिमा देवी की इनमें अपार श्रद्धा थी। विद्यापति का जीवनकाल पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य तक माना जाता है।

विद्यापति के अधिकतर ग्रंथ संस्कृत में है। ऐसा माना जाता है कि इनके संस्कृत ग्रंथों की संख्या ग्यारह है। इन्हें शैव सर्वस्वार, शेष सर्वस्वार प्रमाणभूत पुराण संग्रह, भूपरिक्रमा, पुरुष परीक्षा, लिखनावली, गंगा वाक्यावली, दान वाक्यावली, विभाग सार, गया पत्रलक, वर्ण कृत्य तथा दुर्ग भक्ति तरंगिणी के नामों से जाना जाता है। विद्यापति के हिन्दी साहित्य में तीन ग्रंथों को सम्मिलितकिया जाता है। ये कीर्तिलता, कीर्तिपताका और पदावली के रूप में हिन्दी जगत में सुप्रसिद्ध हैं। इनमें कीर्तिलता और कीर्तिपताका चरितकाव्य के रूप में प्रतिष्ठित हैं तो पदावली उनकी शृंगार और भक्तिपरक रचनाओं का संचयन हैं। कीर्तिलता राजा कीर्ति सिंह पर आधारित एक चरितकाव्य है जो विद्यापति द्वारा बीस वर्ष की वय में लिखी गयी थी। उनकी प्रारम्भिक रचना होने के कारण, पदावली से तुलना करने पर यह भाव और शिल्प की दृष्टि से बहुत परिपक्व नहीं मानी जाती। स्वयं विद्यापति ने इसे 'कहणी' की संज्ञा दी है, अर्थात् ऐसी कहानी जिसे सुनने से पुण्य की प्राप्ति होती है। इसकी भाषा को भी स्वयं विद्यापति ने 'अवहट्ठ' कहा है जो मैथिल से प्रभावित है। इसमें कई स्थानों पर विद्यापति ने गद्य का प्रयोग भी किया है जहाँ मैथिल, संस्कृत से प्रभावित हुई है। लेकिन पदों में अपभ्रंश की बाहुलता स्पष्ट झलकती है। अपने हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार कीर्तिलता के काव्य-रूप में पृथ्वी राज रासो की शैली से मिलता-जुलता है क्योंकि उसमें कथा भृंग-भृंगी संवाद से विकसित होती है तथा इसमें संस्कृत और प्राकृत के छन्दों का उपयोग है। द्विवेदी जी के ही अनुसार कीर्तिपताका में विद्यापति ने प्रेम कथा का वर्णन किया है तथा भाषा की दृष्टि में वह कीर्तिलता जैसी है।

विद्यापति ने जो पद समय-समय पर रचे वे पदावली-साहित्य के रूप में जॉर्ज ग्रियर्सन, नगेन्द्रनाथ गुप्ता, खगेन्द्रनाथ मित्र, विमान बिहारी मजूमदार तथा रामवृक्ष बेनपुरी जैसे विद्वानों द्वारा संकलित किए गए हैं। जॉर्ज ग्रियर्सन ने सन् 1881-82 में 'मैथिली क्रिस्टोमैथी' नामक ग्रंथ में विद्यापति के 82 पद अंग्रेजी अनुवाद के साथ प्रकाशित किए थे। इनके पश्चात नगेन्द्रनाथ गुप्त का संकलन इस विषय में मील का पत्थर माना जाता है। इनके ग्रंथ का नाम 'विद्यापति ठाकुरेर ग्रंथावली' है, जिसमें 945 पद संग्रहित किए गए हैं। श्री खगेन्द्रनाथ मिश्र एवं श्री विमान बिहारी मजूमदार के संग्रह 'विद्यापति' में 933 पद संकलित हैं तथा डॉ. उमापति राम चन्देल के अनुसार उनमें से केवल 81 पद ही शुद्ध रूप से भक्ति से संबंधित हैं। ये समस्त पद शिव, पार्वती, दुर्गा, गंगा, कृष्ण आदि के प्रति शुद्ध भक्ति की भावना को व्यक्त करते हैं। इनमें 'महेशबानी' और 'नचारी' गीतों का समावेशन किया गया है। महेशबानी में शिव-पार्वती के विवाह संबंधी गीत हैं तो 'नचारी' में देवी और महादेव कएप्रति भक्ति भावना के पद हैं। ऐसी धारणा है कि हिन्दी में रामवृक्ष बेनीपुरी जी ने विद्यापति के पदों का जो संकलन 'विद्यापति की पदावली' के नाम से किया है, उसका मुख्य आधार नगेन्द्रनाथ गुप्त जी वाला संकलन है।

श्री रामवृक्ष बेनीपुरी जी द्वारा संकलित 'विद्यापति पदावली' में समस्त पद

निम्नलिखित विषयों-उपविषयों के अन्तर्गत विभाजित किए गए हैं 1. वंदना (राधा की वंदना, देवी-वंदना), 2. वयः सन्धि, 3. नखशिख, 4. सद्यः स्नाता, 5. प्रेम-प्रसंग (श्रीकृष्ण का प्रेम, राधा का प्रेम), 6. दूती (कृष्ण की दूती, राधा की दूती), 7. नोंक-झोंक, 8. सखी शिक्षा (राधा की शिक्षा, श्रीकृष्ण को शिक्षा), 9. मिलन, 10. सखी संभाषण, 11. कौतुक, 12. अभिसार, 13. छलना, 14 मान (श्रीकृष्ण का मान), 15. मान भंग, 16. विदग्ध विलास, 17. वसंत, 18. विरह, 19. भावोल्लास, 20. प्रार्थना और नचारी (जानकी वंदना, गंगा-स्तुति, श्रीकृष्ण कीर्तन), 21. विविध (व्यथा, प्रेम, शिवसिंह का युद्ध, दृष्टकूट, बाल-विवाह, परकीया, विद्यापति की मृत्यु)

विद्यापति के पदों में अधिकांश शृंगार का आस्वादन कराते हैं क्योंकि उनमें मूलत: प्रेम की अभिव्यक्ति पर्याप्त रूप से हुई है। कहना चाहिए कि शृंगार का विषद निरूपण उनके काव्य की प्रमुख अन्तर्वस्तु है क्योंकि कवि का मन वहाँ ठहर कर रमा है। उनका यह साहित्यिक प्रयास मूलतः पाठक के हृदय को भी आस्वादन से भर देता है क्योंकि वहाँ शृंगार के दोनों पक्ष, लोक जीवन या साधारण जनता के जीवन से उभरते दिखते हैं। लेकिन अध्ययन की सुविधा के लिए उनके साहित्य की समस्त वस्तु को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- एक तो शृंगार संबंधी पद तथा दूसरे भक्ति संबंधी पद। विद्यापति के पदों में शृंगार जीवन और परम्परा दोनों का संवाहक है। इनमें नायिका और नायक की समस्त दशाओं के साथ शृंगार के संभोग और वियोग, दोनों ही पक्षों का मार्मिक वर्णन हुआ है। नायिका के स्वरूप पर केन्द्रित होते हुए विद्यापति ने नख शिख, वयः सन्धि और सद्यः स्नाता के पदों की रचना की है। नख-शिख वर्णन में पैर के नाखून से लेकर सिर की शिखा तक के सौंदर्य का चित्रण होता है और परम्परा के अनुसार यह कठिन अभ्यास होता था। विद्यापति ने इसमें पर्याप्त समय लिया है और अपने काव्य को सार्थक बनाया है। एक पद के अन्तर्गत वे नायिका के मुख को शक्करयुक्त और अमृतरूपी दूध के समिश्रण का सार बताते हुए कहते हैं "साकर सूधे दुधे परिपूरल सानल अमियक सारे सेहे वदन तोर अइसन"

यहाँ विद्यापति प्रत्यक्षतः यही कहना चाह रहे हैं कि नायिका का मुख देखने के बाद मन ऐसा मीठा हो जाता है जैसे उसने शक्कर युक्त अमृतरूपी दूध का पान किया हो। इसी प्रकार नायक के रूप का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है-

ए सखि ! पेखलि एक अपरूप। सुनइत मानवि सपन सरूप ।। कमल जुगल पर चाँद क माला। तापर अपल तरूण तमाला ।।

नख-शिख वर्णन के साथ ही विद्यापति के पदों में वयःसंधि का वर्णन भी प्रचुर मात्रा में मिलता है। उनके पदों में वयःसंधि जीवन के उत्साह और उल्लास के प्रतीक के रूप में पाठक के हृदय में अपना स्थान बनाती है। जैसे किशोरावस्था आदि का आगमन एक प्राकृतिक उत्सव हो! इसलिए यहाँ यौवन का विकास शारीरिक बदलाव मात्र नहीं है बल्कि जीवन में आशा और विश्वास के संबंध की द्योतक हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि विद्यापति इस अंतरण में चंचलता की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि वह न दिखती हुई भी एक मादक संभ्रमता में डाल देती है। एक पद में वे लिखते हैं-

बाला सैसव तारून भेंट। लखए न पारिअ जेठ कनेठ ।।

विद्यापति को हिन्दी में सद्यः स्नाता की परम्परा का सूत्रधार माना जा सकता है क्योंकि इससे पहले यह संस्कृत में विकसित हो चुकी थी। स्नान की बेला में नायिका यहाँ स्वयं एक कलाकृति में परिवर्तित होती चली जाती है और कल्पना अपनी भूमि का विस्तार करने लगती है। ऐसे में उपमाओं का अंबार लग जाता है और कवि स्वयं को रोक नहीं पाता। एक पद में विद्यापति नायिका के लिए लिखते हैं-

आजु मझु सुभ दिन भेला, कामिनी पेखल सिनानक बेला । चिकुर गरए जलधारा, मेह बरिस जनु मोतिम हारा।।

यहाँ कवि ने सद्यः स्नाता पर उत्प्रेक्षा रची है और इसका कारण नायिका का अपना सौन्दर्य है। स्नान करते समय नायिका के केशों से जलधारा बहतीहै और कवि इस आधार पर सौन्दर्य की यह कल्पना कर लेते हैं कि नायिका के केश से जलधारा नहीं गिर रही, मानो काले बादलों से मोतियों की माला गिर रही हो। स्पष्ट हो जाता है कि विद्यापति का मन कितना रमा है और ऐसे अनेक स्थल उनके पदों में आते हैं।

विद्यापति के पदों में शृंगार की पूरी प्रक्रिया विद्यमान है। वह अपनी समकालीनता को प्रस्तावित करती है क्योंकि वह शृंगार नहीं बल्कि उसकी समूची संस्कृति ही रच देती है। संयोग शृंगार में तो विद्यापति आस्वादन-यात्रा ही निर्मित कर देते हैं क्योंकि वहाँ पर साज-सज्जा, प्रथम समागम, अभिसार, रति गोपन, मान इत्यादि जैसी चेष्टाओं को समाहित करते हैं। संयोगावस्था में नायक-नायिका के सजने-सँवरने की अवस्था बड़ी स्वाभाविक है, क्योंकि वह अपने प्रेमी को आकर्षित करने में सहयोगी होता है। एक जगह पति नायिका को उसकी सखि द्वारा रूप को सजाने लेकर सावधान कराते हुए। कहते हैं-

प्रथमहि अलक विलम लेव साजि । चंचल लोचन काजर आंजि।।

अर्थात् कृष्ण के पास जाने से पहले अपने बाल सँवार ले और बिन्दी ठीक कर ले तथा अपने चंचल नयनों में काजल लगा ले। यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि प्रेम के मनोविज्ञान को लेकर कवि अत्याधिक सजग है इसके साथ ही वे प्रथम समागम या मिलन पर भी केन्द्रित होते दिखते हैं। एक पद में प्रथम मिलन पर नायिका, नायक द्वारा हाथों से पकड़ने पर शर्मसार हो जाती है, और वह भी ऐसे कि जैसे कोई कमलिनि चन्द्रमा के किरणों द्वारा स्पर्शित होने पर कुम्हला जाए। यथा

छुबइत बालि मलिन भइ गेल। विधु-कर मलिन कमलिनि भेल।।

इसी प्रकार विद्यापति ने अभिसार का भी अत्यन्त सजीव चित्रण किया है। अंधेरे में अभिसार (प्रेमी मिलन की यात्रा) करने वाली नायिका को कृष्णाभिसारिका कहते हैं तथा चाँदनी में प्रिय से मिलने के लिए जा रही नायिका को शुक्लाभिसारिका कहते हैं। अभिसार के चित्रण में मार्ग में आने वाली बाधाओं और सुविधाओं का महत्त्व होता है। अपने पदों में विद्यापति ने इसका निर्वाह भी बहुत कुशलता के साथ किया है। एक पद में कृष्णाभिसारिकाकी समस्या तब पैदा हो जाती है जब अचानक बादलों के घिर आने से बिजली चमकने लगती है और रह-रहकर प्रकाश उत्पन्न होने लगता है। इसके साथ ही हवा भी बहुत तेज गति से बहने लगती है और अभिसार में व्यवधान उत्पन्न होने लगता है। वे लिखते हैं

गगन अब घन मेह दारून सघन दामिनि झलकई।

कुलिस पातन सबद झनझन पवन खरतर बल गई। संयोग की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विशेषता है रति-गोपन। इसका अर्थ होता है अपने प्रेम को छिपाना। इसके लिए बहुतेरे व्यापार किए जाते हैं और तब नायिका का स्वरूप और चेष्टाएँ देखते ही बनते हैं। विद्यापति ने रति गोपन में भी अपनी सिद्धी का परिचय दिया है। एक पद में प्रणय-क्रिया करने के कारण नायिका का समस्त स्वरूप अस्त व्यस्त हो गया है। इस बारे में जब उससे पूछा जाता है तो वह रति -गोपन की स्वाभाविक मनोस्थिति में आकर यही बताती है कि उसके होठों पर जो घाव हुआ है वह इस कारण है कि वह अपने सिर पर सजाने के लिए जब फूल तोड़ रही थी, तब जैसे ही उसने वह तोड़ा, वैसे ही एक क्रोधित भ्रमर ने उसके होठ पर काट लिया। परन्तु सत्य यह है कि वह चोट प्रणय क्रिया के कारण लगी थी और नायिका उसे छिपाने के लिए भ्रमर का बहाना बना रही है। विद्यापति के शब्दों में

कौतुल कमल नाल सयँ तोरल करए चाहल अबतंसे। शेष कोष सयॅ मधुकर अओल तेहि अधर करू दंसे।।

संयोग शृंगार में एक अन्य प्रवृत्ति मान की मानी गयी है। इसमें नायिका नायक से रुष्ट हो जाती है ओर इस हठ में होती है कि वह उसे क्षमा नहीं करेगी। सामान्यतः क्षमा न करने का कारण यह होता है कि नायक किसी अन्य स्त्री के साथ रहा है और नायिका को उसकी भनक लग जाती है। इस कारण वह नाराज है और उसने बहुत देर तक नायक की प्रतीक्षा की है। ऐसी स्थिति में नायक उसे मनाने का प्रयास करता है और विभिन्न प्रकार के उपाय करता है। सार यह है कि उसे नायिका कगो मनाना पड़ता है। इस समूची घटना को मान और तत्पश्चात मान भंग रहा जाता है। विद्यापति ने इस प्रकृति का भी अपनी कविता में उपयोग किया है। एक पद में नायक नायिका को देर से आनेका झूठा कारण देते हुए उसे मनाते हुए कहता है कि बिना कारण मुझसे रुष्ट न हो क्योंकि देर रात शिव की पूजा करते हुए जागा हूँ, इस कारण मुझे आने में देरी हुई है और मैं अस्त-व्यस्त हो गया हूँ। विद्यापति के शब्दों में-

सुन सुन सुन्दरि करि अवधान । विनु अपराध कहसि कहे आन। पुज लौ पसुपति जामिनि जागि। गगन बिलम्ब भेल तेहि लागि।

विप्रलम्भ अथवा वियोग शृंगार का दूसरा पक्ष माना जाता है। विरह को प्रेम की कसौटी माना गया है क्योंकि प्रेम की वास्तविक परीक्षा वियोग में होती है। सामान्यतः विरह के चार भेद माने जाते हैं जिन्हें पूर्वराग, मान, प्रवास और करूण के नाम जाना जाता है। विद्यापति के सन्दर्भ में प्रवास और मान के उपयोग को माना जाता है। प्रवास सम्बन्धी विरह में नायक के परदेस जाने का प्रसंग आता है जिसके कारण संयोग-बेला विखण्डित हो जाती है। विरह का यह भेद अत्यन्त पीड़ादायक माना जाता है क्योंकि इसमें संयोग पर दोहरा वार होता है। एक तो यह दुःख होता है कि प्रेमी से बिछोह हो गया, इस पर य व्यथा भी सताती है कि प्रेमी का हृदय भी वियोग की पीड़ा झेल रहा होगा। विद्यापति की कविता में अच्छे-खासे संयोगावस्था के समय ही यह स्थिति अचानक उत्पन्न होती दिखती है। ऐसे में नायिका हतप्रभ होकर प्रवास रोकने या फिर प्रियतम के साथ जाने के उपाय सोचती है। एक पद में प्रेमिका कहती है जिस क्षण वे जाने की सोचेंगे मैं आग में कूदकर मर जाऊँगी। यथा-

जेहि खन हन मन जाएब चितब हमहु करब धमि आगि।

इसके साथ ही विद्यापति की कविता में विरह की अन्य दशाओं का मार्मिक चित्रण मिलता है। इनमें अभिलाषा (मन कहे तहाँ उड़ जाइअ जहाँ हरि पाइअ के) चिन्ता (ई नव यौबन विरह गमाओब कि करब से पिया गेहे) स्मरण (पहले पिय मोर सुख मुख हेरि हेरि), व्याधि (सून सेन हिअ सालए रे पिया बिनु घर मोयॅ आजि), मूर्च्छा (मुरुछि खसल महि न रहिलि धीर), उद्वेग (आएब साओन बरखि माओन घन सोहाओन, बारि पंचसर सर छूटत रे कइसे जीअए बिरहन नारि), प्रलाप (कह तू कह सखि तू बोल सखि रे हमर पिया कौन देस रे), जड़ता (सखि सब आए खेलाओल रंग करि तसु मन किचुओं न बोधे), उन्माद (अनुखन माधव माधव सुमरइत सुन्दरि भेलेमधाई) तथा मरण (हा हरि हा हरि कहतहि बेरि अब जिउ करब समाधा) हैं प्रमुख हैं।

विद्यापति के पदों में व्यक्त विरह की एक भव्य विशेषता यह है कि इनमें प्रत्येक ऋतु का समावेश एक चरित्र की तरह होता है। एक पद में विरहिणी वर्षा ऋतु के काल में द्रवित हो चीत्कार करती है कि- “के पतिआ लए जाएत के मोरा प्रियतम पास सिंह नहि सहए असह दुख रे भेल साओन मास।" यहाँ उसे वर्षा ने विवश कर दिया है और सावन उसकी उद्विग्नता को और पुष्ट ही कर रहा है। अपने विरह में विद्यापति ने 'बारहमासा' का चित्रण किया है जिसमें असाढ़ से लेकर जेठ तक समाहित हैं। उदाहरण के लिए माघ में पड़ने वाली ठण्ड से विरहिणी का मन बुरी तरह प्रभावित होता है तथा वह कहती है-

पुनमति सूतल पियतम कोर। विधि बस दैव बाम भेल मोर।

यहाँ वह उन सौभाग्यवती स्त्रियों से तुलना कर रही है जो ठण्ड के मौसम में अपने प्रिय की गोद में सो रही हैं तथा अपने भाग्य को कोस रही है जो कि विधाता की कुदृष्टि के कारण फूट गया है। इसी तरह विद्यापति ने विरहणी की मनोदशा का चित्रण वर्षा, शरद, शिशिर, हेमंत, वसंत, ग्रीष्म आदि ऋतुओं में किया है।

इसके अतिरिक्त यह भी उल्लेखनीय है कि विद्यापति ने विरह-वेदना के वर्णन में संस्कृत की परम्परा का अनुपालन करने का प्रयास किया है। इसके अन्तर्गत उनकी नायिका विरह-वेदना को विकसित करने वाले प्रत्येक तथ्य का विरोध धार्मिक आधार पर करती हैं। उदाहरणार्थ चन्द्रमा का विरोध करने के लिए वह काजल से राहु का चित्र बनाती है, मलय पवन को दूर करने के लिए सूर्य का चित्र बनाती है तथा कामदेव का उपचार करने के लिए शिव के नाम का उच्चारण करती है। इस अर्थ में देखा जाए तो विद्यापति काव्य रूढ़ियों का पालन विरह-वेदना को व्यक्त करने के लिए करते हैं।

विद्यापति के भक्ति के पदों को लेकर एक विवाद हमेशा यह रहा है कि वे भक्ति के कवि है या शृंगार के। उन्हें भक्त-कवि की कोटि में रखने के निम्नलिखित कारण यह बताए जाते हैं कि -वे जयदेव की गीत-गोविन्द की परम्परा में आते हैं और उसी की भाँति विद्यापति के काव्य में राधा और कृष्ण के संयोग-वियोग का चित्रण मिलता है। -उनके गीतों के आधार पर बंगाल के वैष्णव कवि चंडीदास ने अपनी रचनाएँ कीं। -चैतन्य महाप्रभु विद्यापति के गीतों को गाते हुए भक्ति भाव में तल्लीन हो जाते थे। -शिव, गंगा, देवी आदि की स्तुतियों का आधार

लेकिन यदि इनके पदों का अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट पता लगता है। कि उनकी अन्तर्गत शृंगार ही है। इसके अतिरिक्त यह धारणा भी है कि वे शैव थे। परन्तु यहाँ कुछ हिन्दी विद्वानों के मत दिए जा रहे हैं जिनसे विद्यापति के शृंगारी कवि होने की धारणा बलवती होती है। विद्यापति के काव्य पर कुछ आलोचकों के मत इस प्रकार हैं-

पं. रामचन्द्र शुक्ल:- "विद्यापति के पद अधिकतर शृंगार के ही है। जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण हैं।... उन्होंने इन पदों की रचना शृंगार काव्य की दृष्टि से की है, भक्त के रूप में नहीं। विद्यापति को कृष्ण भक्तों की परम्परा में न समझना चाहिए।"

"आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने 'गीत-गोविन्द' के पदों की आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी।" पं.विश्वनाथ प्रसाद मिश्र:- "विद्यापति ने हिन्दी में जन-भाषा में,शृंगारिक-रस के क्षेत्र के लिए मर्यादा बांधकर चाहे कृष्ण भक्त कवियों का उतना उपकार न किया हो, पर शृंगार-काल के कवियों के लिए वे बहुत बड़ा उपकार कर गए। विद्यापति का काव्य-भक्ति काव्य है या नहीं, इस पर बहुत वाद-विवाद हुआ है। इस सम्बन्ध में इतना ही कहना है कि विद्यापति का कृष्ण काव्य सूरदास का या अन्य कृष्ण-भक्त कवियों का-सा कृष्ण-काव्य नहीं है। यह यदि भक्तिकाव्य माना भी जा सकता है तो वैसा ही, जैसा बिहारी का था, पदमाकर का था।"

डॉ.रामकुमार वर्मा:- "विद्यापति ने राधा-कृष्ण का जो चित्र खींचा है, उसमें वासना का रंग बहुत ही प्रखर है। आराध्य देव के प्रति भक्त का जोपवित्र विचार होना चाहिए, वह उसमें लेशमात्र भी नहीं है।" " उन्होंने (विद्यापति) शृंगार पर ऐसी लेखनी उठाई है जिससे राधा और कृष्ण के जीवन का तत्व प्रेम के सिवाय कुछ नहीं रह गया है।"

समग्रतः हिन्दी साहित्य के इतिहास में विद्यापति का स्थान अनन्य है। जहाँ 'कीर्तिलता' और 'कीर्तिपताका' रच कर अपने युग की उस प्रवृत्ति को सशक्त किया जिसमें आश्रयदाता के चरित्र का वर्णन किया जा रहा था, वहीं कुछ अलग होकर उन्होंने शृंगार को स्थापित करने में बड़ी मार्के की भूमिका निभायी। राधा और कृष्ण को नायक-नायिका के रूप में उन्होंने जिस प्रकार अंकित किया उसमें निश्चित रूप से कृष्ण-काव्य परम्परा को आधार देने और सशक्त करने का मार्ग आगे के कवियों को मिला। हिन्दी में नख-शिख की परम्परा का आधार भी उन्होंने निर्मित किया जिसका सम्बन्ध आगे चलकर रीतिकालीन कवियों की रचनाओं से बनता है। इसके साथ ही उनका महत्त्व इसमें भी है कि उनकी पदावली मुक्तक काव्य परम्परा का भी उद्गम स्थल है। अतः हिन्दी साहित्य में उनकी उपस्थिति सदैव सम्मान के साथ बनी रहेगी।


            विद्यापति

वंदना

राधा की वंदना

नंदक नंदन कदंबक तरु-तर, धिरे धिरे मुरलि बजाव।। समय संकेत-निकेतन बइसल, बेरि बेरि बोलि पठाव।। सामरि, तोहरा लागि अनुखन विकल मुरारि।। जमुनाक तिर उपवन उदवेगल, फिर-फिर ततहि निहारि।। गोरस बेचए अबइत जाइत जनि जनि पुछ बनमारि।। तोहें मतिमान, सुमति, मधुसूदन, बचन सुनह किछु मोरा।। भनई विद्यापति, सुन बरजौवति, बंदह नंद-किसोरा।।

श्रीकृष्ण का प्रेम

प्रेम प्रसंग

जहाँ-जहाँ पद-जुग धरई। तहि-तहि सरोरुह झरई।। जहाँ-जहाँ झलकए अंग। तहि तहिं बिजुरि-तरंग।। कि हेरलि अपरुब गोरि। पइठलि हिअ-मधि मोरि।। जहाँ-जहाँ नयन-बिकास। ततहिं कमल-प्रकास।। जहाँ लहु हास संचार। तहि-तहिं अमिअ-बिधार।। जहाँ-जहाँ कुटिल कटाख ततहिं मदन सर लाख।। हेरइत से धनि थोर। अब तिन भुवन अगोर।। पुनु किए दरसन पाब। अब मोर ई दुख जाब। विद्यापति कह जानि। तुअ गुन देहब आनि।।

राधा का प्रेम

ए सखि पेखलि एक अपरूप। सुनइत मानबि सपन- सरूप।।

कमल जुगल पर चाँदक माला। तापर उपजत तरुन तमाला।।

तापर बेढलि बीजुरी-लता। कालिंदी तट धीरे चलि जाता।।

साखा सिखर सुधाकर पाँति। ताहिँ नब पल्लव अरुनक भाँति।।

बिमल बिंबफल जुगल विकास। तापर कीर थीर करु बास।।

तापर चंचल खंजन-जोर। तापर साँपिनि झाँपल मोर।।

ए सखि रंगिनि कहल निसान। हेरइत पुनि मोर हरल गेआन।।

कवि विद्यापति एह रस भान। सुपुरुख मरम तोहें भल जान।।

शब्दार्थ

राधा की वंदना:- अपुरुष = अपूर्व, मेराओल = मिलाना, खिति = पृथ्वी, लावनि = सुन्दरता, अनंग = कामदेव,अधीर = अस्थिर/अंचल, मनमथ = कामदेव, हेरि = देखकर, रंगिनि = सुन्दरी, अगोर = पहरा देना। श्रीकृष्ण का प्रेम:- हेरलि = देखा, कटाख = कटाक्ष, से = वह, धनि = बाला / सुन्दरी, अगोर = प्रतीक्षा करना, तुअ = तुम्हारे, देहब आनि = ला दूँगा। राधा का प्रेम:- चाँदक माला = नखों की पंक्ति, तरुन तमाला = काला शरीर, बेढ़लि = लिपटी हुई, बीजुरी-लता = पीताम्बर। सुधाकर पाँति = नखों की पंक्ति, अरुनिम कांति = लाल, कीर = नाक, खंजन-जोर = आँखों का जोड़ा