आधुनिक कालीन हिंदी कविता (छायावाद तक)/सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

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राजे ने रखवाली की[सम्पादन]

"राजे ने अपनी रखवाली की;
किला बनाकर रहा;
बड़ी-बड़ी फ़ौजें रखीं।
चापलूस कितने सामन्त आए।
मतलब की लकड़ी पकड़े हुए।
कितने ब्राह्मण आए
पोथियों में जनता को बाँधे हुए।
कवियों ने उसकी बहादुरी के गीत गाए,
लेखकों ने लेख लिखे,
ऐतिहासिकों ने इतिहास के पन्ने भरे,
नाट्य-कलाकारों ने कितने नाटक रचे
रंगमंच पर खेले।
जनता पर जादू चला राजे के समाज का।
लोक-नारियों के लिए रानियाँ आदर्श हुईं।
धर्म का बढ़ावा रहा धोखे से भरा हुआ।
लोहा बजा धर्म पर, सभ्यता के नाम पर।
ख़ून की नदी बही।
आँख-कान मूंदकर जनता ने डुबकियाँ लीं।
आँख खुली-- राजे ने अपनी रखवाली की।"

व्याख्या [सम्पादन]

बाँधों न नाव इस ठाँव, बंधु[सम्पादन]

"बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बंधु!"

व्याख्या [सम्पादन]

भिक्षुक[सम्पादन]

"वह आता--
दो टूक कलेजे को करता, पछताता
पथ पर आता।

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को — भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता —
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए,
बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाए।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए !

ठहरो ! अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा
अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम
तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।"

व्याख्या [सम्पादन]

जागो फिर एक बार : १[सम्पादन]

जागो फिर एक बार!

प्यारे जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें
अरुण-पंख तरुण-किरण
खड़ी खोलती है द्वार -
जागो फिर एक बार!

आखें अलियों - सी
किस मधु की गलियों में फँसी,
बन्द कर पाँखें
पी रही हैं मधु मौन
या सोयी कमल-कोरकों में -
बन्द हो रहा गुंजार -
जागो फिर एक बार!

अस्ताचल चले रवि,
शशि-छवि विभावरी में
चित्रित हुई है देख
यामिनीगन्धा जगी,
एकटक चकोर-कोर दर्शन-प्रिय,
आशाओं भरी मौन भाषा बहु भावमयी
घेर रहा चन्द्र को चाव से
शिशिर-भार-व्याकुल कुल
खुले फूल झूके हुए,
आया कलियों में मधुर
मद-उर-यौवन उभार-
जागो फिर एक बार!

पिउ-रव पपीहे प्रिय बोल रहे,
सेज पर विरह-विदग्धा वधू
याद कर बीती बातें, रातें मन-मिलन की
मूँद रही पलकें चारु
नयन जल ढल गये,
लघुतर कर व्यथा-भार
जागो फिर एक बार!

सहृदय समीर जैसे
पोछों प्रिय, नयन-नीर
शयन-शिथिल बाहें
भर स्वप्निल आवेश में,
आतुर उर वसन-मुक्त कर दो,
सब सुप्ति सुखोन्माद हो,
छूट-छूट अलस
फैल जाने दो पीठ पर
कल्पना से कोमल
ऋतु-कुटिल प्रसार-कामी केश-गुच्छ।
तन-मन थक जायें,
मृदु सरभि-सी समीर में
बुद्धि बुद्धि में हो लीन
मन में मन, जी जी में,
एक अनुभव बहता रहे
उभय आत्माओं मे,
कब से मैं रही पुकार
जागो फिर एक बार!

उगे अरुणाचल में रवि
आयी भारती-रति कवि-कण्ठ में,
क्षण-क्षण में परिवर्तित
होते रहे प्रृकति-पट,
गया दिन, आयी रात,
गयी रात, खुला दिन
ऐसे ही संसार के बीते दिन, पक्ष, मास,
वर्ष कितने ही हजार-
जागो फिर एक बार!

व्याख्या [सम्पादन]

खंडहर के प्रति[सम्पादन]

खंडहर! खड़े हो तुम आज भी?
अदभुत अज्ञात उस पुरातन के मलिन साज!
विस्मृति की नींद से जगाते हो क्यों हमें -
करुणाकर, करुणामय गीत सदा गाते हुए?

पवन-संचरण के साथ ही
परिमल-पराग-सम अतीत की विभूति-रज-
आशीर्वाद पुरुष-पुरातन का
भेजते सब देशों में;
क्या है उद्देश तव?
बन्धन-विहीन भव!
ढीले करते हो भव-बन्धन नर-नारियों के?
अथवा,
हो मलते कलेजा पड़े, जरा-जीर्ण,
निर्निमेष नयनों से
बाट जोहते हो तुम मृत्यु की अपनी संतानों से बूंद भर पानी को तरसते
हुए?

किम्बा, हे यशोराशि!
कहते हो आंसू बहाते हुए -
"आर्त भारत! जनक हूं मैं
जैमिनी-पतंजलि-व्यास ऋषियों का;
मेरी ही गोद पर शैशव-विनोद कर
तेरा है बढ़ाया मान
राम-कृष्ण-भीमार्जुन-भीष्म-नरदेवों ने।
तुमने मुख फेर लिया,
सुख की तृष्णा से अपनाया है गरल,
हो बसे नव छाया में,
नव स्वप्न ले जगे,
भूले वे मुक्त प्राण, साम-गान, सुधा-पान।
बरसो आसीस, हे पुरुष-पुराण,
तव चरणों में प्रणाम है।"

('अनामिका' में १९२३ में प्रकाशित)

व्याख्या [सम्पादन]

महंगू महंगा रहा[सम्पादन]

आजकल पण्डितजी देश में विराजते हैं।
माताजी को स्वीज़रलैण्ड के अस्पताल,
तपेदिक के इलाज के लिए छोड़ा है।
बड़े भारी नेता हैं।
कुइरीपुर गाँव में व्याख्यान देने को
आये हैं मोटर पर
लण्डन के ग्रेज्युएट,
एम॰ ए॰ और बैरिस्टर,
बड़े बाप के बेटे,
बीसियों भी पर्तों के अन्दर, खुले हुए।
एक-एक पर्त बड़े-बड़े विलायती लोग।
देश की बड़ी-बड़ी थातियाँ लिए हुए।
राजों के बाजू पकड़, बाप की वकालत से;
कुर्सी रखनेवाले अनुल्लंघ्य विद्या से
देशी जनों के बीच;
लेंड़ी ज़मींदारों को आँखों तले रक्खे हुए;
मिलों के मुनाफ़े खानेवालों के अभिन्न मित्र;
देश के किसानों, मजदूरों के भी अपने सगे
विलायती राष्ट्र से समझौते के लिए।
गले का चढ़ाव बोर्झुआज़ी का नहीं गया।
धाक, रूस के बल से ढीली भी, जमी हुई;
आँख पर वही पानी;
स्वर पर वही सँवार।
गाँव के अधिक जन कुली या किसान है।
कुछ पुराने परजे जैसे धोबी, तेली, बढ़ई,
नाई, लोहार, बारी, तरकिहार, चुड़िहार,
बेहना, कुम्हार, डोम, कुइरी, पासी, चमार,
गंगापुत्र, पुरोहित, महाब्राह्मण, चौकीदार;
कामकाज, दीवाली - जैसे परबों के दिन
मनों ले जाने वाले पिछली परिपाटी से;
हुए, मरे, ब्याह में दीवाला लाते हुए
ज़मींदार के बाहन।
बाक़ी परदेश में कौड़ियों के नौकर हैं
महाजनों के दबैल,
स्वत्व बेचकर विदेशी माल बेचने वाले;
शहरों के सभासद।
ऐसे ही प्रकार के प्राकार से घिरे
लोगों में भाषण है।
जब भी अफ़ीम, भाँग, गाँजा, चरस, चण्डू, चाय,
देशी और विलायती तरह-तरह की शराब
चलती है मुल्क में,
फिर भी आज़ादी की हाँक का नशा बड़ा;
लोगों पर चढ़ता है।
विपत्तियाँ कई हैं घूस और डण्डे की;
उनसे बचने के लिए
रास्ता निकाला है, सभाओं में आते हैं
गाँवों के लोग कुल।
एक-एक आ गये।
पण्डितजी कांग्रेस के चुनाव पर बोले
आजादी लेते हैं, एक साल और है,
आततायियों से देश पिस-पिसकर मिट गया;
हमको बढ़ जाना है;
चैन नहीं लेना है जब तक विजयी न हो।
जनता मन्त्रमुग्ध हुई।
जमींदार भी बोले जेल हो-आनेवाले,
कांग्रेस-उम्मीदवार। सभा विसर्जित हुई।
महंगू सुनता रहा।
कम्पू को लादता है लकड़ी, कोयला, चपड़ा।
लुकुआ ने महंगू से पूछा, 'क्यों हो महंगू, कुछ
अपनी तो राय दो?
आजकल, कहते हैं, ये भी अपने नहीं?'
"महंगू ने कहा, हाँ, कम्पू में किरिया के
गोली जो लगी थी,
उसका कारण पंडित जी का शागिर्द है।
रामदास को कांग्रेसमैन बनानेवाला,
जो मिल का मालिक है।
यहाँ भी वह ज़मींदार, बाजू से लगा ही है।
कहते हैं, इनके रुपये से ये चलते हैं,
कभी-कभी लाखों पर हाथ साफ़ करते हैं।"
लुकुआ घबरा गया। "भला फिर हम कहाँ जाएँ?"
महंगू से प्रश्न किया।
महंगू ने कहा, "एक उड़ी खबर सुनी है,
हमारे अपने हैं यहाँ बहुत छिपे हुए लोग,
मगर चूंकि अभी ढीली-पोली हे देश में,
अखबार व्यापारियों ही की सम्पत्ति हैं।
राजनीति कड़ी से भी कड़ी चल रही है,
वे सब जन मौन हैं इन्हें देखते हुए;
जब ये कुछ उठेंगे,
और बड़े त्याग के निमित्त कमर बाँधेंगे,
आएंगे वे जन भी देश के धरातल पर,
अभी अखबार उनके नाम नहीं छापते।
ऐसा ही पहरा है।"
"तो फिर कैसा होगा?" लुकुआ ने प्रश्न किया।
"जैसा तु लुकुआ है, वैसा ही होना है,
बड़े-बड़े आदमी धन मान छोड़ेंगे,
तभी देश मुक्त हैं,
कवि जी ने पढ़ा था, जब तुम बदले नहीं;
अपने मन में कहा मैंने, मैं महंगू हूँ,
पैरों की धरती आकाश को भी चली जाय,
मैं कभी न बदलूँगा, इतना महँगा हूँगा।"
('नया साहित्य' बंबई, अंक ४, १९४६ ई॰ (पूर्वार्द्ध)। 'नये पत्ते' में संकलित।)

व्याख्या [सम्पादन]

सखि, वसंत आया[सम्पादन]

सखि वसन्त आया ।
भरा हर्ष वन के मन,
   नवोत्कर्ष छाया।
किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका,
   मधुप-वृन्द बन्दी--
  पिक-स्वर नभ सरसाया।

लता-मुकुल-हार-गंध-भार भर,
बही पवन बंद मंद मंदतर,
      जागी नयनों में वन-
         यौवन की माया।
आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे,
केशर के केश कली के छुटे,
         स्वर्ण-शस्य-अंचल
          पृथ्वी का लहराया।

व्याख्या[सम्पादन]

इस कविता में कवि ने प्रकृति में विभिन्न स्वाभाविक रूपो का वर्णन किया है।लता को एक प्रोषितपतिका के हर्ष के रूप में चित्रित करते हुए कविवर निराला कहते हैं- हे सखि! देख चारो ओर वसन्त की स्वाभाविक छटा का आगमन हो गया हैं। वसन्त के आने से क्योंकि चारों ओर एक नया विकास हो गया,अंतः लगता है कि जैसे अपने मन का हर्ष प्रकट करने के लिए सारा वन खिल और मुस्करा उठा है। नये उगे पत्ते रूपी वस्त्रो वाली , नयी आयु अर्थात युवती हो गई लतिका, जो आज तक (पतझड़ के प्रभाव से) प्रोषितपतिका के समान हो गई थी, वह खिलकर आज खिले वृक्ष रूपी पति से मिल रही है। अर्थात वृक्षो के सहारे ऊपर उठकर वन-लताएँ हरी-भरी हो गई हैं।भंवरो की टोलियां उन कलियों का यशोगान बंदौजनो की तरह गया रही हैं।उस पर कोयल ने गूँज-गूँजकर सारे आकाश को सरस् और मुखरित बना दिया है। भाव यह हैं कि वसन्त के आगमन से लताएँ ,वृक्ष,भवरे,कोयल,आदि सभी हर्ष -विभोर होकर खिल उठे हैं।