आधुनिक चिंतन और साहित्य/मार्क्सवाद
आधार और अधिरचना
[सम्पादन]मार्क्सवादी चिंतन में उत्पादन के साधन तथा उसके औजारों को 'आधार' कहा जाता है। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक संस्थाओं के ढाँचे को मार्क्स 'अधिरचना' मानते हैं। उनके अनुसार अधिरचना का कार्य वर्ग-संघर्ष को नियंत्रित करना है। 'साहित्य और कला' में अधिरचना पर विचार करते हुए कहा गया है कि- "साहित्य और कला समेत सारी विचारधाराऐं सिर्फ़ अधिरचना होती हैं और इस तरह विकास की प्रक्रिया में गौण तत्त्व होती हैं।"[१]
साहित्य का वर्ग आधार
[सम्पादन]मार्क्सवाद साहित्य चिंतन के अनुसार साहित्य का वर्ग आधार उत्पादन संबंधों पर आधारित है।
उत्पादन
[सम्पादन]उत्पादन मनुष्य की सबसे मूलभूत तथा लाक्षणिक क्रिया है। यह एक सामाजिक प्रक्रिया है। उदाहरणस्वरूप- शिकार करके भोजन इकट्ठा करने की प्रक्रिया से उत्पादन के उपकरणों का निर्माण किया जाता है। उत्पादन मनुष्य को सामाजिक प्राणी बनाता है। यही मनुष्य की प्रगति का द्योतक भी है। मार्क्सवाद के अनुसार-मनुष्य का इतिहास उत्पादन का इतिहास है। उत्पादन की प्रणाली चलाने के लिए ही मनुष्य सामाजिक, राजनैतिक व्यवस्था का निर्माण करता है। यही व्यवस्था विचारधारा को जन्म देती है।
उत्पादन-संबंध
[सम्पादन]उत्पादन की क्रिया से जुड़े संबंधों को 'उत्पादन-संबंध' कहते हैं। वर्ग इन्हीं उत्पादन-संबंधों से बनते हैं।
वर्ग निर्माण
[सम्पादन]चूँकि मनुष्य का इतिहास उत्पादन का इतिहास है अतः इसी प्रक्रिया में वर्ग का निर्माण होता है। वर्ग-निर्माण तब होते हैं-
- जब मनुष्य इतना उत्पादन करे कि जिससे कुछ बच सके।
- ऐसे में वे वर्ग भी उभरते हैं जो सीधे-सीधे उत्पादन में अपना योगदान देते हैं।
- दूसरों के श्रम के उपयोग के साथ ही शोषण की शुरुआत होती है।
- स्वामी वर्ग अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व कायम कर लेता है।
- स्वामी वर्ग साधनों का प्रयोग निजी संपत्ति के रूप में करने लगता है।
वर्ग-निर्माण की इस प्रक्रिया से दो वर्गों का निर्माण होता है-
- प्रभु वर्ग- उत्पादन के साधन का स्वामी होने के कारण समाज पर अपने बनाए नियमों को थोपने वाला वर्ग।
- शोषित वर्ग- उत्पादन के लिए श्रम करने वाला वर्ग।
संघर्ष
[सम्पादन]मार्क्सवादी विचारधारा के अनुसार प्रभु वर्ग तथा शोषित वर्ग में हमेशा संघर्ष होता है। जैसे-मजदूर तथा मालिक के मध्य का संघर्ष है। यह वर्ग-संघर्ष तब होता है जब किसी विशेष प्रणाली के अंतर्गत संघर्ष को हल नहीं किया जा सकता, अतः वह व्यवस्था टूट जाती है। ऐसे में वर्ग-संघर्ष के कारण समाज में क्रांति होती है। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक संस्थाएँ इस टकराव का सामंजस्य करने के लिए बनाई जाती हैं। ग्राम्शी के अनुसार- वैचारिक संघर्ष, वर्ग-संघर्ष में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।
साहित्य की सापेक्ष स्वायत्तता
[सम्पादन]मार्क्स और एंगेल्स ने साहित्य तथा कला संबंधी कोई स्वतंत्र पुस्तक नहीं लिखी। 'साहित्य और कला' पुस्तक में उनके साहित्य की स्वायत्तता संबंधी विचारों का उल्लेख करते हुए लिखा गया है कि- "मार्क्स और एंगेल्स ने कभी भी मानवीय गतिविधि के विशिष्ट क्षेत्रों (विधि, विज्ञान, कला आदि) के विकास में मौजूद सापेक्ष स्वायत्तता का निषेध या ग़लत निरूपण नहीं किया।"[२] "मनुष्य की बौद्धिक क्रिया हर क्षेत्र में, और खासकर कला और साहित्य के क्षेत्र में, एक विशिष्ट सापेक्ष स्वायत्तता लिये होती है। बौद्धिक क्रिया का इनमें से कोई भी क्षेत्र अपने आधार पर विशिष्ट रचनात्मक व्यक्तित्व के जरिये पिछली उपलब्धियों से होकर विकसित होता है और इन्हें विकास के ऊँचे सोपान पर ले जाता है, चाहे वह ऐसा आलोचनात्मक और खण्डनात्मक तरीके से ही क्यों न करे।"[३] "यह स्वायत्तता सापेक्ष होती है और इसका मतलब आर्थिक आधार की प्राथमिकता का निषेध नहीं होता।"[४] सापेक्ष स्वायत्तता के संबंध में एंगेल्स का कथन उल्लेखनीय है कि- जो लोग इस काम में (विचारधारात्मक विकास में-जा लु.) लगे हैं, वे श्रमविभाजन के विशिष्ट क्षेत्रों से सम्बन्धित हैं। इस तरह वे सोचते हैं कि जिस हद तक वे श्रम के सामाजिक विभाजन के दायरे में एक स्वाधीन समूह का निर्माण करते हैं, कम से कम उस हद तक एक स्वायत्त क्षेत्र का निर्माण और विकास कर रहे हैं। (उनकी ग़लतियों सहित) उनके उत्पाद (विचार आदि) समूचे सामाजिक विकास पर, यहां तक कि आर्थिक विकास पर भी प्रभाव डालते हैं । लेकिन अन्तिम विश्लेषण में वे आर्थिक विकास के निर्णायक प्रभाव के मातहत बने रहते हैं।[५] इसपर विस्तार से विचार करते हुए एंगेल्स लिखते हैं कि-" इन क्षेत्रों के ऊपर आर्थिक विकास की चरम प्रमुखता भी मेरे लिए एक असन्दिग्ध सत्य है लेकिन यह हर विशिष्ट क्षेत्र की खास परिस्थितियों में ही सक्रिय होती है । उदाहरण के लिए, दर्शन में यह आर्थिक तत्व पहले के दार्शनिकों द्वारा तैयार और वर्तमान में मौजूद दार्शनिक वस्तु पर मुख्यत: राजनीतिक लिबास में सक्रिय होता है । अर्थव्यवस्था कोई चीज़ एकदम नयी नहीं पैदा करती बल्कि यह तय करती है कि पहले से मौजूद चिन्तन की अन्तर्वस्तु किस तरह बदली और विकसित की जायेगी । यह भी वह अधिकांशत: अप्रत्यक्ष रूप से करती है क्योंकि दर्शन पर सीधा प्रभाव सबसे ज्यादा राजनीतिक, वैधानिक और नैतिक विचार ही डालते हैं। एंगेल्स ने यही जो कुछ दर्शन के बारे में कहा है, वह साहित्य के विकास के बुनियादी सिद्धान्तों पर भी पूरी तरह लागू होता है।"[६]
अंतर्वस्तु और रूप का संबंध
[सम्पादन]मार्क्सवादी विचारधारा में किसी रचना को समझने के लिए वस्तु तथा रूप के संबंध को समझना आवश्यक माना जाता है। इसके अंतर्गत लेखक क्या कहता है तथा कैसे कहता है-पर जोर दिया जाता है। लेखक क्या कहता है अर्थात् उसकी रचना ही 'अंतर्वस्तु' कहलाती है। वह कैसे कहता है-यही उसका 'रूप' कहलाता है। 'रूप' के संदर्भ में 'रूपवाद' का मानना है कि- रचना का प्रभाव उसके कहने के तरीके में होता है, किंतु मार्क्सवाद यह नहीं मानता है। मार्क्सवाद वस्तु तथा रूप के बीच के द्वंद्व पर आधारित है क्योंकि यथार्थ ही द्वंद्वात्मक होता है।
साहित्य और यथार्थ
[सम्पादन]साहित्य और कला में मार्क्स और एंगेल्स के साहित्य तथा यथार्थ संबंधी विचारों का संग्रह किया गया है- "सारे महान लेखकों का प्रमुख उद्देश्य यथार्थ का कलात्मक पुनरुत्पादन रहा है । यथार्थ से गहरा और विश्वसनीय लगाव, यथार्थ को व्यापक और वास्तविक ढंग से प्रस्तुत करने का सतत प्रयत्न, सारे महान लेखकों (शेक्सपियर, गोएठे, बाल्लाक, ताल्लाय) के लिए साहित्यिक महानता का मानदण्ड रहा है।"[७] मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र यथार्थ को अपने कला सिद्धान्त का शिखर मानता है। इस यथार्थ के स्वरूप पर विचार करते हुए 'साहित्य और कला' में लिखा गया है कि- "यह यथार्थ न तो महज बाह्य जगत के सीधे इन्द्रिगम्य रूपों से बना है और न ही आकस्मिक और क्षणिक तथ्यों से।"[८] "यह किसी भी किस्म के प्रकृतिवाद का या बाह्य जगत के सीधे, इन्द्रियगम्य तथ्यों की फोटोग्राफिक पुनर्रचना से सन्तुष्ट होने वाले किसी सिद्धान्त का पूरे जोर से विरोध करता है।"[९] "यथार्थ और आभास का वास्तविक द्वन्द्व उनके वस्तुगत यथार्थ के समान पहलू होने, चेतना के नहीं, बल्कि केवल यथार्थ के उत्पाद होने पर आधारित है। फिर भी, और द्वन्द्वात्मक बोध का यह एक महत्त्वपूर्ण स्वयंसिद्ध तथ्य है यथार्थ के अनेक स्तर होते हैं। एक सतह का क्षणभंगुर यथार्थ है, इसकी आवृत्ति नहीं होती, क्षणिक होता है। फिर, यथार्थ के और भी समृद्ध तत्व और प्रवृत्तियाँ हैं जो निश्चित नियमों के अनुसार कायम रहती हैं (अपने को दोहराती हैं) और बदलती परिस्थितियों के अनुसार बदल जाती हैं । समूचे यथार्थ में द्वन्द्व इस तरह व्याप्त है कि इस सन्दर्भ में आभास और यथार्थ लगातार नये सम्बन्धों में जुड़ते रहते हैं, जो यथार्थ के रूप में प्रतीति का विरोध कर रहा था, प्रत्यक्ष अनुभव की सतह के नीचे देखने पर और फिर परीक्षण करने पर वही प्रतीति के रूप में दिखाई पड़ता है जिसके पीछे एक नया यथार्थ उभर रहा होता है। और यह प्रक्रिया अनन्त होती है।"[१०] "सच्ची कला आभास के पीछे जाकर जितनी गहराई से सम्भव होता है, उतनी गहराई से यथार्थ का अध्ययन करती है और इसे अमूर्त ढंग से, तथ्यों और घटनाओं से अलगाकर या उनके विरोध में खड़ा कर नहीं प्रस्तुत करती, बल्कि उस गतिशील द्वन्द्वात्मक र्प्राक्रेया को पकड़ती है जिसमें यथार्थ आभास में बदल जाता है और तथ्य के रूप में प्रकट होता है । इस प्रक्रिया के दूसरे पहलू को भी यह उद्घाटित करती है जिसमें गतिशील तथ्य या घटना, अपना विशिष्ट यथार्थ लिए होती है । इसके अलावा ये विशिष्ट पहलू सिर्फ़ द्वन्द्वात्मक गति में, एक के दूसरे में रूपान्तरण में ही नहीं व्यक्त होते हैं बल्कि एक दूसरे के साथ सतत प्रतिक्रिया करने वाली अनवरत प्रक्रिया के तत्व के रूप में भी प्रकट होते हैं।"[११] यथार्थवाद के संबंध में एंगेल्स का मत है कि- "मेरी राय में, यथार्थवाद का मतलब है, विशिष्ट स्थितियों में प्रतिनिधि चरित्रों का विश्वसनीय प्रस्तुतीकरण।"[१२] मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र में यह माना जाता है कि- "लेखक को अपना अनुभूत यथार्थ अमूर्त ढंग से नहीं, बल्कि तथ्यों और घटनाओं के उस धड़कते जीवन के यथार्थ के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए । जिनका वह यथार्थ एक जैविक अंग होता है और जिसके विशिष्ट अनुभवों से यह निर्मित होता है।"[१३]
मार्क्सवाद और हिंदी साहित्य
[सम्पादन]हिंदी साहित्य पर मार्क्सवाद का प्रभाव प्रगतिवाद के अंतर्गत देखने को मिलता है। इस विचारधारा का प्रभाव हिंदी आलोचना पर भी पड़ा है।
संदर्भ
[सम्पादन]- ↑ मार्क्स-एंगेल्स-साहित्य और कला, राहुल फाउण्डेशन, लखनऊ:२००६, पृ.४४५
- ↑ मार्क्स-एंगेल्स-साहित्य और कला, राहुल फाउण्डेशन, लखनऊ:२००६, पृ.४४४
- ↑ मार्क्स-एंगेल्स-साहित्य और कला, राहुल फाउण्डेशन, लखनऊ:२००६, पृ.४४७
- ↑ मार्क्स-एंगेल्स-साहित्य और कला, राहुल फाउण्डेशन, लखनऊ:२००६, पृ.४४७
- ↑ मार्क्स-एंगेल्स-साहित्य और कला, राहुल फाउण्डेशन, लखनऊ:२००६, पृ.४४७-४८
- ↑ मार्क्स-एंगेल्स-साहित्य और कला, राहुल फाउण्डेशन, लखनऊ:२००६, पृ.४४८
- ↑ मार्क्स-एंगेल्स-साहित्य और कला, राहुल फाउण्डेशन, लखनऊ:२००६, पृ.४५६
- ↑ मार्क्स-एंगेल्स-साहित्य और कला, राहुल फाउण्डेशन, लखनऊ:२००६, पृ.४५७
- ↑ मार्क्स-एंगेल्स-साहित्य और कला, राहुल फाउण्डेशन, लखनऊ:२००६, पृ.४५७
- ↑ मार्क्स-एंगेल्स-साहित्य और कला, राहुल फाउण्डेशन, लखनऊ:२००६, पृ.४५८
- ↑ मार्क्स-एंगेल्स-साहित्य और कला, राहुल फाउण्डेशन, लखनऊ:२००६, पृ.४५८-५९
- ↑ मार्क्स-एंगेल्स-साहित्य और कला, राहुल फाउण्डेशन, लखनऊ:२००६, पृ.४५९
- ↑ मार्क्स-एंगेल्स-साहित्य और कला, राहुल फाउण्डेशन, लखनऊ:२००६, पृ.४६०