कृष्ण काव्य में माधुर्य भक्ति के कवि/कुम्भनदास का जीवन परिचय

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कुम्भनदास की आचार्य वल्लभ के प्रमुख शिष्यों में गणना की जाती है। वार्ताओं के अनुसार कुम्भनदास श्रीनाथ के प्राकट्य के समय १० वर्ष के थे। श्री नाथ जी का प्राकट्य वि० सं० १५३५ है इस आधार पर इनका जन्म संवत १५२५ विक्रमी ठहरता है। डा० दीनदयाल गुप्त ने इनकी मृत्यु १६३९ विक्रमी स्वीकार की है। (अष्टछाप और वल्लभ सम्प्रदाय :पृष्ठ २४८ )

कुम्भनदास का जन्म ब्रज में ही रहने वाले गोरवा क्षत्रिय घराने में हुआ। आर्थिक दृष्टि से आप सम्पन्न न थे। थोड़ी सी जमीन जीविका निर्वाह के लिए थी। किन्तु इतने पर भी किसी का दान लेने में संकोच होता था। इसीलिये महाराजा मान सिंह के स्वयं देने पर भी इन्होने कुछ भी स्वीकार नहीं किया।
कुम्भनदास स्वभाव से सरल पर स्पष्टवादी थे। धन अथवा मान-मर्यादा की इच्छा इन्हें छू तक न गई थी। अकबर ने फतहपुर सीकरी बुलाकर इनका अत्यधिक सम्मान किया। पर श्रीनाथ जी के दर्शनों के अभाव में वहाँ इन्हें अत्यधिक दुख हुआ। इस बात की अभिव्यक्ति कुंभनदास ने अपने निम्न पद में की है :
संतन को कहा सीकरी सों काम।
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम।।
जिनको मुख देखे दुख उपजत,तिनको करनी पड़ी सलाम।
कुंभनदास लाल गिरधर बिनु और सबै बेकाम।।

गोकुलनाथ रचित वार्ताओं से स्पष्ट है कि कुम्भनदास,श्रीनाथ जी के एकांत सखा थे। अतः उनकी सभी लीलाओं में ये साधिकार भाग लेते थे। पर इनकी विशेष आसक्ति कृष्ण की किशोर-लीलाओं के प्रति थी।