कृष्ण काव्य में माधुर्य भक्ति के कवि/बिहारिन देव का जीवन परिचय

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बिहारिनदेव हरिदासी सम्प्रदाय के श्रेष्ठ आचार्य एवं कवि हैं। ये विट्ठलविपुलदेव के शिष्य थे। विहारिनदेव अपने गुरु विट्ठलविपुलदेव की मृत्यु के पश्चात् टट्टी संस्थान की आचार्यगद्दी पर बैठे। विट्ठलविपुलदेव की मृत्यु वि ० सं ० १६३२ है अतः विहारिनदेव का जन्म संवत इस संवत के आसपास माना जा सकता है।

  • विहारिनदेव दिल्ली-निवासी थे। इनका जन्म शूरध्वज ब्राह्मण कुल में हुआ था। इनके पिता मित्रसेन अकबर के राज्य-सम्बन्धी कार्यकर्ताओं में एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। अपने शील-स्वभाव के कारण मृत्यु के उपरान्त विहारिनदेव को भी अपने पिता का सम्मानित पद प्राप्त हो गया किन्तु ये स्वभाव से विरक्त थे ,अतः युवावस्था में ही घर छोड़ कर वृन्दावन आ गये और वहीं भजन भाव में लीन होकर रहने लगे। इनकी रस-नीति, विरक्ति और शील-स्वभाव का वर्णन केवल हरिदासी सम्प्रदाय के भक्त कवियों ने नहीं,अपितु अन्य सम्प्रदाय के भक्तों ने भी क्या है।
  • विहारिनदेव का महत्व अपने सम्प्रदाय में अत्यधिक है। हरिदासी सम्प्रदाय के यही प्रथम आचार्य हैं जिन्होंने संप्रदाय के उपासना सम्बन्धी सिद्धांतों को विशद रूप से प्रस्तुत किया। रस-रीति की तीव्र अनुभूति के कारण इनके प्रतिपादित सिद्धान्त बहुत स्पष्ट हैं ,और इसीलिए ाहज-गम्य हैं। इनके प्रतिपादित सिद्धान्तों की नींव पर आज हरिदासी सम्प्रदाय का विशाल भवन स्थिर है।