कृष्ण काव्य में माधुर्य भक्ति के कवि/हरिराम व्यास की माधुर्य भक्ति

विकिपुस्तक से
  • [कृष्ण काव्य में माधुर्य भक्ति के कवि ]---पृष्ठ-४४

श्री हरिराम जी व्यास के सेव्य ठाकुर श्री जुगल किशोर जी की नित्य सखी श्री विशाखा सखी के अवतार , श्री हरिराम जी को 'व्यास' जी के नाम से जाना जाता है , आपकी वाणी में 768 पद है ,


व्यास जी के उपास्य श्री जुगल किशोर , गुण तथा स्वाभाव सभी दृष्टियों से उत्तम हैं। ये वृन्दावन में विविध प्रकार से रास आदि की लीलाएं करते हैं। इन्हीं लीलाओं का दर्शन करके रसिक भक्त आत्म-विस्मृति की आनन्दपूर्ण दशा को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। यद्यपि व्यास जी माध्व सम्प्रदाय के थे लेकिन राधाबल्लभ में भी आपकी अतिशय प्रीति थी , राधा और कृष्ण को परस्पर किसी प्रकार के स्वकीया या परकीया भाव के बन्धन में नहीं बाँधा गया, किन्तु लीलाओं का वर्णन करते समय कवि ने सूरदास की भाँति यमुना-पुलिन पर अपने उपास्य-श्री युगल किशोर का विवाह करवा दिया है।

मोहन मोहिनी को दूलहु।
मोहन की दुलहिनी मोहनी सखी निरखि निरखि किन फूलहु।
सहज ब्याह उछाह ,सहज मण्डप ,सहज यमुना के कूलहू।
सहज खवासिनि गावति नाचति सहज सगे समतूलहु।।

यही कृष्ण और राधा 'व्यास' जी के सर्वस्व हैं। इनके आश्रय में ही जीव को सुख की प्राप्ति हो सकती है,अन्यत्र तो केवल दुख ही दुख है। इसीकारण अपने उपास्य के चरणों में दृढ़ विश्वास रखकर सुख से जीवन व्यतीत करते हैं:

"काहू के बल भजन कौ , काहू के आचार। व्यास भरोसे कुँवरि के , सोवत पाँव पसार।।

राधा के रूप सौन्दर्य का वर्णन दृष्टव्य है :

नैन खग उड़िबे को अकुलात।
उरजन डर बिछुरे दुख मानत ,पल पिंजरा न समात।।
घूंघट विपट छाँह बिनु विहरत ,रविकर कुलहिं ड़रात।
रूप अनूप चुनौ चुनि निकट अधर सर देखि सिरात।।
धीर न धरत ,पीर कहि सकत न ,काम बधिक की घात।
व्यास स्वामिनी सुनि करुना हँसि ,पिय के उर लपटात।।

साधना की दृष्टि व्यास जी भक्ति का विशेष महत्व स्वीकार किया है है। उनके विचार से व्यक्ति का जीवन केवल भक्ति से सफल हो सकता है : जो त्रिय होइ न हरि की दासी।

कीजै कहा रूप गुण सुन्दर,नाहिंन श्याम उपासी।।
तौ दासी गणिका सम जानो दुष्ट राँड़ मसवासी।
निसिदिन अपनों अंजन मंजन करत विषय की रासी।।
परमारथ स्वप्ने नहिं जानत अन्ध बंधी जम फाँसी।।

व्यास जी का प्रेम सदैव अपनी सखी सहेली श्री हरिदास और श्री हरिवंश के प्रति अतिशय उदार रहा .