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चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)/एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्म-कथन

विकिपुस्तक से
चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)
एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्म-कथन


दुख तुम्हें भी है,

दुख मुझे भी।

हम एक ढहे हुए मकान के नीचे

दबे हैं। चीख़ निकालना भी मुश्किल है,

असम्भव......

हिलना भी।

भयानक है बड़े-बड़े ढेरों की

पहाड़ियों-नीचे दबे रहना और

महसूस करते जाना

पसली की टूटी हुई हड्डी।

भयँकर है! छाती पर वज़नी टीलों

को रखे हुए ऊपर के जड़ीभूत दबाव से दबा हुआ

अपना स्पन्द

अनुभूत करते जाना,

दौड़ती रुकती हुई धुकधुकी

महसूस करते जाना भीषण है।

भयँकर है।

वाह क्या तजुर्बा है!!

छाती में गड्ढा है!!


पुराना मकान था, ढहना था, ढह गया,

बुरा क्या हुआ?

बड़े-बड़े दृढ़ाकार दम्भवान

खम्भे वे ढह पड़े!!

जड़ीभूत परतों में, अवश्य, हम दब गए।

हम उनमें हर गए,

बुरा हुआ, बहुत बुरा हुआ!!

पृथ्वी के पेट में घुसकर जब

पृथ्वी के ह्रदय की गरमी के द्वारा सब

मिट्टी के ढेर ये चट्टान बन जाएँगे

तो उन चट्टानों की

आन्तरिक परतों कि सतहों में

चित्र उभर आएँगे

हमारे चहरे के, तन-बदन के, शरीर के,

अन्तर की तसवीरें उभर आएँगी, सम्भवतः,

यही एक आशा है कि

मिट्टी के अंधेरे उन

इतिहास-स्तरों में तब

हमारा भी चिह्न रह जाएगा।

नाम नहीं,

कीर्ति नहीं,

केवल अवशेष, पृथ्वी के खोदे हुए गड्ढों में

रहस्मय पुरुषों के पंजर और

ज़ंग-खाई नोकों के अस्त्र!!

स्वयं कि ज़िन्दगी फॉसिल

कभी नहीं रही,

क्यों हम बाग़ी थे,

उस वक़्त,

जब रास्ता कहाँ था?

दीखता नहीं था कोई पथ।

अब तो रास्ते-ही-रास्ते हैं।

मुक्ति के राजदूत सस्ते हैं।


क्योंकि हम बाग़ी थे,

आख़िर, बुरा क्या हुआ?

पुराना महल था,

ढहना था, ढहना गया।

वह चिड़िया,

उसका वह घोंसला...

जाने कहाँ दब गया।

अंधेरे छेदों में चूहे भी मर गए,

हमने तो भविष्य

पहले कह रखा था कि--

केंचुली उतारता साँप दब जाएगा अकस्मात्,

हमने ते भविष्य पहले कह रखा था!

लेकिन अनसुनी की लोगों ने!!

वैसे, चूँकि

हम दब गए, इसलिए

दुख तुम्हें भी है,

मुझे भी।


नक्षीदार कलात्मक कमरे भी ढह पड़े,

जहाँ एक ज़माने में

चूमे गये होंठ,

छाती जकड़ी गई आवेशालिंगन में।

पुरानी भीतों की बास मिली हुई

इक महक तुम्हारे चुम्बन की

और उस कहानी का अंगारी अंग-स्पर्श

गया, मृत हुआ!

हम एक ढहे हुए

मकान के नीचे दबे पड़े हैं।

हमने पहले कह रखा था महल गिर

जाएगा। ख़ूबसूरत कमरों में कई बार,

हमारी आँखों के सामने,

हमारे विद्रोह के बावजूद,

बलात्कार किए गए

नक्षीदार कक्षों में।

भोले निर्व्याज नयन हिरनी-से

मासूम चेहरे

निर्दोष तन-बदन

दैत्यों की बाँहों के शिकंजों में

इतने अधिक

इतने अधिक जकड़े गए

कि जकड़े ही जाने के

सिकुड़ते हुए घेरे में वे तन-मन

दबलते-पिघलते हुए एक भाफ बन गए।

एक कुहरे की मेह,

एक धूमैला भूत,

एक देह-हीन पुकार,

कमरे के भीतर और इर्द-गिर्द

चक्कर लगाने लगी।

आत्म-चैतन्य के प्रकाश

भूत बन गए।

भूत-बाधा-ग्रस्त

कमरों को अन्ध-श्याम साँय-साँय

हमने बताई तो

दण्ड हमीं को मिला,

बाग़ी करार दिए गए,

चाँटा हमीं को पड़ा,

बन्द तहख़ाने में--कुओं में फेंके गए,

हमीं लोग!!

क्योंकि हमें ज्ञान था,

ज्ञान अपराध बना।

महल के दूसरे

और-और कमरों में कई रहस्य--

तकिए के नीचे पिस्तौल,

गुप्त ड्रॉअर,

गद्दियों के अन्दर छिपाए-सिए गए

ख़ून-रंगे पत्र, महत्त्वपूर्ण!!

अजीब कुछ फोटो!!

रहस्य-पुरुष छायाएँ

लिखती हैं

इतिहास इस महल का।


अजीब संयुक्त परिवार है--

औरतें व नौकर और मेहनेकश

अपने ही वक्ष को

खुरदुरा वृक्ष-धड़

मानकर घिसती हैं, घिसते हैं

अपनी ही छाती पर ज़बर्दस्ती

विष-दन्ती भावों का सर्प-मुख।

विद्रोही भावों का नाग-मुख।

रक्तप्लुत होता है!

नाग जकड़ लेता है बाँहों को,

किन्तु वे रेखाएँ मस्तक पर

स्वयं नाग होती है!

चेहरे के स्वयं भाव सरीसृप होते हैं,

आँखों में ज़हर का नशा रंग लाता है।

बहुएँ मुंडेरों से कूद अरे!

आत्महत्या करती हैं!!

ऐसा मकान यदि ढह पड़ा,

हवेली गिर पड़ी

महल धराशायी, तो

बुरा क्या हुआ?

ठीक है कि हम भी तो दब गए,

हम जो विरोधी थे

कुओं-तहख़ानों में क़ैद-बन्द

लेकिन, हम इसलिए

मरे कि ज़रुरत से

ज़्यादा नहीं, बहुत-बहुत कम

हम बाग़ी थे!!


मेरे साथ

खण्डहर में दबी हुई अन्य धुकधुकियों,

सोचो तो

कि स्पन्द अब...

पीड़ा-भरा उत्तरदायित्व-भार हो चला,

कोशिश करो,

कोशिश करो,

जीने की,

ज़मीन में गड़कर भी।


इतने भीम जड़ीभूत

टीलों के नीचे हम दबे हैं,

फिर भी जी रहे हैं।

सृष्टि का चमत्कार!!

चमत्कार प्रकृति का ज़रा और फैलाए।

सभी कुछ ठोस नहीं खंडेरों में।

हज़ारों छेद, करोड़ों रन्ध्र,

पवन भी आता है।

ऐसा क्यों?

हवा ऐसा क्यों करती है?

ऑक्सीजन

नाक से

पी लें ख़ूब, पी लें!


आवाज़ आती है,

सातवें आसमान में कहीं दूर

इन्द्र के ढह पड़े महल के खण्डहर को

बिजली कि गेतियाँ व फावड़े

खोद-खोद

ढेर दूर कर रहे।

कहीं से फिर एक

आती आवाज़--

'कई ढेर बिलकुल साफ़ हो चुके'

और तभी--

किसी अन्य गम्भीर-उदात्त

आवाज़ ने

चिल्लाकर घोषित किया--

'प्राथमिक शाला के

बच्चों के लिए एक

खुला-खुला, धूप-भरा साफ़-साफ़

खेल कूद-मैदान सपाट अपार--

यों बनाया जाएगा कि

पता भी न चलेगा कि

कभी महल था यहाँ भगवान् इन्द्र का।'


हम यहाँ ज़मीन के नीचे दबे हुए हैं।

गड़ी हुई अन्य धुकधुकियों,

खुश रहो

इसी में कि

वक्षों में तुम्हारे अब

बच्चे ये खेलेंगे।

छाती की मटमैली ज़मीनी सतहों पर

मैदान, धूप व खुली-खुली हवा ख़ूब

हँसेगी व खेलेगी।

किलकारी भरेंगे ये बालगण।


लेकिन, दबी धुकधुकियों,

सोचो तो कि

अपनी ही आँखों के सामने

ख़ूब हम खेत रहे!

ख़ूब काम आए हम!!

आँखों के भीतर की आँखों में डूब-डूब

फैल गए हम लोग!!

आत्म-विस्तार यह

बेकार नहीं जाएगा।

ज़मीन में गड़े हुए देहों की ख़ाक से

शरीर की मिट्टी से, धूल से।

खिलेंगे गुलाबी फूल।

सही है कि हम पहचाने नहीं जाएँगे।

दुनिया में नाम कमाने के लिए

कभी कोई फूल नहीं खिलता है

ह्रदयानुभव-राग अरुण

गुलाबी फूल, प्रकृति के गन्ध-कोष

काश, हम बन सकें!