चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)/एक स्वप्न-कथा/भाग 7

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चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)/एक स्वप्न-कथा
भाग 7


स्तब्ध हूँ

विचित्र दृश्य

फुसफुसे पहाड़ों-सी पुरुषों की आकृतियाँ

भुसभुसे टीलों-सी नारी प्रकृतियाँ

ऊँचा उठाये सिर गरबीली चाल से

सरकती जाती हैं

चेहरों के चौखटे

अलग-अलग तरह के-- अजीब हैं

मुश्किल है जानना;

पर, कई

निज के स्वयं के ही

पहचानवालों का भान हो आता है।

आसमान असीम, अछोरपन भूल,

तंग गुम्बज, फिर,

क्रमशः संक्षिप्त हो

मात्र एक अँधेरी खोह बन जाता है।

और, मैं मन ही मन, टिप्पणी करता हूँ कि

हो न हो

कई मील मोटी जल-परतों के

नीचे ढँका हुआ शहर जो डूबा है

उसके सौ कमरों में

हलचलें गहरी हैं

कि उनकी कुछ झाइयाँ

ऊपर आ सिहरी हैं

सिहरती उभरी हैं....

साफ़-साफ़ दीखतीं।


अकस्मात् मझे ज्ञान होता है

कि मैं ही नहीं वरन्

अन्य अनेक जन

दुखों के द्रोहपूर्ण

शिखरों पर चढ़ करके

देखते

विराट् उन दृश्यों को

कि ऐसा ही एक देव भयानक आकार का

अनन्त चिन्ता से ग्रस्त हो

विद्रोही समीक्षण-सर्वेक्षण करता है

विराट् उन चित्रों का।


जुलूस में अनेक मुख

(नेता और विक्रेता, अफसर और कलाकार)

अनगिन चरित्र

पर, चरितव्य कहीं नहीं

अनगिनत श्रेष्ठों की रूप-आकृतियाँ

रिक्त प्रकृतियाँ

मात्र महत्ता की निराकार केवलता।

उस कृष्ण सागर की ऊँची तरंगों में,

उठता गिरता हुआ मेरा मन

अपनी दृष्टि-रेखाएँ प्रक्षेपित करता है

इतने में दीखता कि

सागर की थाहों में पैर टिका देता है पर्वत-आकार का

देव भयानक

उठ खड़ा होता है।

सागर का पानी सिर्फ उसके घुटनों तक है,

पर्वत-सा मुख-मण्डल आसमान छूता है

अनगिनत ग्रह-तारे चमक रहे, कन्धों पर।

लटक रहा एक ओर

चाँद

कन्दील-सा।

मद्धिम प्रकाश-रहस्य

जिसमें, दूर, वहाँ, एक फैला-सा

चट्टानी चेहरा स्याह

नाज़ुक और सख़्त (पर, धुँधला वह)

कहता वह-

................

कितनी ही गर्वमयी

सभ्यता-संस्कृतियाँ

डूब गयीं।

काँपा है, थहरा है,

काल-जल गहरा है,

शोषण की अतिमात्रा,

स्वार्थों की सुख-यात्रा,

जब-जब सम्पन्न हुई

आत्मा से अर्थ गया, मर गयी सभ्यता।

भीतर की मोरियाँ अकस्मात् खुल गयीं।

जल की सतह मलिन

ऊँची होती गयी,

अन्दर सूराख़ से

अपने उस पाप से

शहरों के टॉवर सब मीनारें डूब गयीं,

काला समुन्दर ही लहराया, लहराया!


भयानक थर-थर है!! ग्लानिकर सागर में

मुझे ग़श आता है

विलक्षण स्पर्शों की अपरिचित पीड़ा में

परिप्रेक्ष्य गहरा हो,

तिमिर-दृश्य आता है

ठनकती रहती हैं,

आभ्यन्तर ग्रन्थियाँ, बहिर्समस्याएँ।


इतने अकस्मात् मुझे दीख पड़ता है

काले समुन्दर के बीच चट्टानों पर

सूनी हवाओं को सूँघ रहा

फूटा हुआ बुर्ज़ या

रोशनी-मीनार

बुझी हुई-

पुर्तगीज़, ओलन्द्ज़, फिरंगी लुटेरों के

हाथों सधी हुई।

उस पर चढ़ अँधियारा

जाने क्या गाता है,

मुझको डराता है!! ख़याल यह आता है कि

हो न हो

इस काले सागर का

सुदूर-स्थित पश्चिम-किनारे से

ज़रूर कुछ नाता है

इसीलिए, हमारे पास सुख नहीं आता है।


इतने मे अकस्मात् तैरता आता-सा

समुद्री अँधेरे में

जगमगाते अनगिनत तारों का उपनिवेश।

विविध रूप दीपों को अनगिनत पाँतों का

रहस्य-दृश्य!! सागर में प्रकाश-द्वीप तैरता!! जहाज़ हाँ जहाज़ सर्च-लाइट फेंक घनीभूत अँधेरे में दूर-दूर

उछलती लहरों पर जाने क्या ढूँढता।

सागर तरंगों पर भयानक लट्ठे-सा

डूबता उतराता दिखाई देता हूँ कि

चमकती चादर एक तेज़ फैल जाती है

मेरे सब अंगों पर।

एक हाथ आता है मेरे हाथ!!


वह जहाज़

क्षोभ विद्रोह-भरे संगठित विरोध का

साहसी समाज है!! भीतर व बाहर के पूरे दलिद्दर से

मुक्ति की तलाश में

आगामी कल नहीं, आगत वह आज है!!


चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)