चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)/जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे

विकिपुस्तक से
चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)
जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे

जीवन के प्रखर समर्थक-से जब प्रश्न चिन्ह

बौखला उठे थे दुर्निवार,

तब एक समंदर के भीतर

रवि की उद्भासित छवियों का

गहरा निखार

स्वर्णिम लहरों सा झल्लाता

झलमला उठा;

मानो भीतर के सौ-सौ अंगारी उत्तर

सब एक साथ

बौखला उठे

तमतमा उठे !!

संघर्ष विचारों का लोहू

पीड़ित विवेक की शिरा-शिरा

में उठा गिरा,

मस्तिष्क तंतुओं में प्रदीप्त

वेदना यथार्थों की जागी !!

मेरे सुख-दुख ने अकस्मात् भावुकतावश

सुख-दुख के चरणों की

मन ही मन

यों की 'पालागी' —

कण्ठ में ज्ञान संवेदन के,

आंसू का कांटा फंसा और

मन में यह आसमान छाया,

जिस में जन-जन के घर-आंगन

का सूरज भासमान छाया

झुरमुर-झुरमुर वह नीम हँसा,

चिड़िया डोली,

फर-फर आंचल तुमको निहार

मानो कि मातृ-भाषा बोली —

जिनसे गूंजा घर-आंगन

खनके मानों बहुओं की चूड़ी के कंगन ।

मैं जिस दुनिया में आज बसा,

जन-संघर्षों की राहों पर

ज्वालाओं से

माँओं का बहनों का सुहाग सिन्दूर हँसा बरसा-बरसा ।

इन भारतीय गृहिणी-निर्झरिणी-नदियों के

घर-घर के भूखे प्राण हँसे ।

दिल के आंसू के फव्वारे

लेकिन यह मेरे छन्द

बावरे बुरी तरह यों अकुलाकर,

बूढ़े पितृश्री के चरणों में लोट-पोटकर,

ऐसी पावन धूल हुए —

बहना के हिय की तुलसी पर

घन छाया कर

मंजरी हुए,

भाई के दिल में फूल हुए ।