चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)/नक्षत्र - खण्ड
दूर वह भूरी पहाड़ी खोदने पर
बहुत भीतर से -
जगमगाते हुए निकले रत्न-
मंगल शुक्र के कण,
अंशुमाली सूर्य के द्युति-खण्ड तेजस्वी ।
बुद्धि- आलस त्याग
भर ली यत्न की हमने चमकती धूल
जिसमें जगमगाते रत्न के शतखण्ड ।
मैदानी हवाओं में
चमकती चिलमिलाती दूर
वह भूरी पहाड़ी, या उपेक्षित तथ्य का टीला
कि सतही जानकारी में अजाना
ज़िन्दगी का स्तर तुम्हारी दृष्टि में
भूरी पहाड़ी - सा खड़ा वीरान-
तुम मेरे लिए वैसे कठिन बंजर
खड़े भूरे शिखर।
गहन परिचित अपरिचय की
काट पीली घास,
सतही जानकारी का भयानक
काट बंजरपन,
लगे हम खोदने दो ओर से
वह टेकड़ी भूरी,
बनाये गहन अन्तःपथ
अन्तस्थल-गुहा में तब
मिले ये दीप्त
सौ-सौ रत्न जीवन के
गहन-गम्भीर सुविचारित
सरल थे सत्य ये मन के ।
शिलाओं के पहाड़ी कवच पहने थे
कि रस्ता खोजते अन्वेषकों की जोहते थे बाट...
किन्तु, इसकी पूर्वगाथा और ही कुछ थी,
कि उसकी भूमिका, आकाशिका औ' पवनिका सच थी।
ज़िन्दगी के चिलमिलाते इन पठारों पर
हमेशा तिलमिलाते कष्ट में हमने
अनेकों रास्तों पर घोर श्रम करके
कुएँ खोदे
हृदय के स्वच्छ पानी के,
कि चटियल भूमि तोड़ी और भीतर से
निकाला शुद्ध ताज़ा जल।
वृथा की भद्रता औ' शिष्टता के नियम सारे तोड़
अनुभव ने
स्वयं के श्याम काँधे पर
रखी थीं काँवड़े जल की,
विवेकी हृदय के तल की।
हृदय-जल-पूर्ण पीपे छलछलाते थे
व श्यामल भारवाही झुके काँधे पर भरी काँवड़,
लचकती जा रही थी दूर ।
बने थे बेल-बूटे
दूरगामी आर्द्र रेखा के|
चमकते चिलमिलाते उन पठारों पर
पिलाया प्राण- जल मीठा
कि कष्टों के
कठिन मानव-प्रसंगों में
हृदय-सम्बन्ध
कैसा जगमगाता था ।
पिलाया स्वयं का रस-मग्न अन्तस्थल
अरे, हमने पठारों पर सतत
जी-तोड़ मेहनत से
हृदय जोड़े,
कि इस पथ को
स्वयं की भव्य अन्तःशक्ति से अभ्यस्त कर डाला
कि फिर भी वह अधूरा था
अधूरा...
क्योंकि केवल भावना से
काम-चलना ख़ूब था मुश्किल ।
हमें था चाहिए कुछ और
जिससे ख़ून में किरणें बहें रवि की,
कि जिससे दिल
अनूठा भव्य अपराजेय टीला हो
कि जिससे वक्ष
हो सिद्वान्त-सा मज़बूत
भीतर भाव गीला हो।
हमें चाहिए था कुछ और...
हमें था चाहिए कुछ वह
कि जो ब्रह्माण्ड समझे त्रस्त जीवन को
व उसमें देख पाये
जगमगाती स्नेह - आश्लेषा,
व निर्मल झलमलाती बुद्धि-ज्योतित
मुग्ध चित्रा वह,
चमकती गौर करुणा-भाव की
शुभ्र - स्मिता आर्द्रा,
अनवरत मुक्तिकामी विश्व व्याख्या - रत
धवल सप्तर्षि
जिनके आखिरी दो तारकों की सीध में
गम्भीर ध्रुवतारा ।
हमें था चाहिए कुछ वह
कि जो गम्भीर ज्योतिःशास्त्र रच डाले।
नया दिक्काल थियोरम बन,
प्रकट हो भव्य सामान्यीकरण
मन का
कि जो गहरी व्याख्या
अनाख्या वास्तविकताओं,
जगत् की प्रक्रियाओं की ।
हमें था चाहिए दिन-रात
अनुभव - दीप्त मानव-ब्रह्म की संवेदना का
भव्य अनुशासन,
कि उससे एक गहरा फ़ल्सफ़ा
तैयार हो जाए,
कि पूरा सत्य
जीवन के विविध उलझे प्रसंगों में सहज ही दौड़ता आए-
स्मरण में आए
मार्मिक चोट के गम्भीर दोहे - सा।
कि भीतर से सहारा दे
बना दे प्राण लोहे सा ।
व व्याख्याएँ
बनें सोपान
झिलमिल सत्य-बिम्बित रत्न-प्रसार की
व ऐसी संगठित सीढ़ी व्यवस्थाएँ
वहाँ पर भव्य दीप-स्तम्भ तक पहुँचे
कि जिस उद्दीप्त दीप स्तम्भ के नीचे
रहे गम्भीर - तन्मय ध्यान-मग्ना
पूर्ण मानव-मूर्ति
जीवन-लक्ष्य की दुर्दान्त ।
यह थी भूमिका हम-तुम मिले थे
जब अतः हमने अपरिचय, बेरुखेपन
औ' उपेक्षा की
खड़ी भूरी पहाड़ी खोद डाली और
उसमें से निकाले जगमगाते रत्न
मंगल शुक्र के कण
अंशुमाली - सूर्य
के चुति-खण्ड तेजस्वी
(हमारी जिन्दगी के ये)
व इन नक्षत्र - खण्डों को
ललककर ले लिया हमने इसे देने, उसे देने,
इन्हें देने, उन्हें देने ।