चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)/मुझे याद आते हैं

विकिपुस्तक से

मुझे याद आते हैं


आँखों के सामने, दूर...

ढँका हुआ कुहरे से

कुहरे में से झाँकता-सा दीखता पहाड़...

स्याह!


अपने मस्तिष्क के पीछे अकेले में

गहरे अकेले में

ज़िन्दगी के गन्दे न-कहे-सके-जाने-वाले अनुभवों के ढेर का

भयंकर विशालाकार प्रतिरूप!!

स्याह!


देखकर चिहुँकते हैं प्राण,

डर जाते हैं।

(प्रतिदिन के वास्तविक जीवन की चट्टानों से

जूझकर पर्यवसित प्राणों का हुलास है)

मात्र अस्तित्व ही की रक्षा में व्यतीत हुए दिन की

कि फलहीन दिवस की निरर्थकता की ठसक को देखकर

श्रद्धा भी भर्त्सना की मार सह लेती है,

झुकाती है लज्जा से देवोपम ग्रीव निज,

ग्लानि से निष्ठा का जी धँस जाता है।

दुनिया के बदरंग भूरेपन में से झाँककर

भैंगी व कानी-सी आँखे दो

(किसी जीवित मृत्यु की)

आशीर्वाद देती हैं...

क्रमशः मृत्यु का।


सुबह से शाम तक...

काम की तलाश में इस गुज़रे हुए दिन की

निरर्थता की आग में

जलता-धुआँता हुआ

ज़िन्दगी की दुनिया को कोसता

मैं रास्ते पर चलता हूँ कि

भयंकर दुःस्वप्न-सा, सामने--

आँखों के सामने वह

ढँका हुआ कुहरे से...

दीखता पहाड़

स्याह--!


आज के अभाव के व कल के उपवास के

व परसों की मृत्यु के...

दैन्य के, महा-अपमान के, व क्षोभपूर्ण

भयंकर चिन्ता के उस पागल यथार्थ का

दीखता पहाड़--

स्याह!


अपने मस्तिष्क के पीछे अकेले में

गहरे अकेले में

न-कह-सके-जाने-वाले अनुभवों के ढेर का

भयंकर विशालाकार प्रतिरूप

दीखता पहाड़...

स्याह !

दूसरी ओर

क्षुद्रतम सफलता की आड़ से

(नहीं है जो) निज की सुयोग्यता का लाड़ करता हुआ

पानी हुई चमक से चमककर

चांद का अधूरा मुँह

व्यंग्य मुसकराता है

फैलाता अपार वह व्यंग्य की विषैली चांदनी

कुहरे से ढँके घोर दर्द-भरे यथार्थ के देह पर

--पहाड़ के देह पर

ज़िन्दगी के भयंकर स्वप्नों के मेह

रहते तैरते, मसानी आसमान में।


रास्ते पर चलता हूँ कि पैरों के नीचे से

खिसकता है रास्ता--यह कौन कह सकता है।

दीखते हैं सटे हुए बड़े-बड़े अक्षरों में

मुसकराते विज्ञापन

सिनेमा के, दुकानों के, रोगों के प्रभीमतर

चमकते हुए, शानदार।

चलता हूँ कि देखता हूँ नगर का मुसकराता व्यक्तित्व महाकार,

दमकती रौनक़ का उल्लास,

चहचहाती सड़कों की साड़ियाँ।

लगता है--

कि समस्त स्वर्गीय चमचमाते आभालोक वाले


इस नगर का निजत्व जादुई

कि रंगीन मायाओं का प्रदीप्त पुंज यह

नगर है अयथार्थ

मानवी आशा औ' निराशा के परे की चीज़

रूप में अरूप

अथवा आकार में निराकार

समूहीकृत गुणों में है निर्गुण

अपौरुषय, झूठ,

भयंकर दुःस्वप्न का विश्व रूप,

कर्म के फल पर नहीं--कर्म पर ही अधिकार

सिखानेवाले वचन का आडम्बर

पावडर में सफ़ेद अथवा गुलाबी

छिपे बड़े-बड़े चेचक के दाग़ मुझे दीखते हैं

सभ्यता के चेहरे पर।

संस्कृति के सुवासित आधुनिकतम वस्त्रों के

अन्दर का वासी यह

नग्न अति बर्बर देह

सूखा हुआ रोगीला पंजर मुझे दीखता है

एक्स-रे की फोटो में रोग-जीर्ण

रहस्मयी अस्थियों के चित्र-सा विचित्र और

भयानक।

(सपनों के तार पर टूटते ही नहीं है;)

शोषण की सभ्यता के नियमों के अनुसार

बनी हुई संस्कृति के तिलिस्मी

सियाह चक्रव्यूहों में

फँसे हुए प्राण सब मुझे याद आते हैं,

मर्माहत कातर पुकार सुन पड़ती है

मेरी ही पुकार जैसी चिन्तातुर समुद्विग्न।

अंधेरे में चुपचाप

अंतर से बहनेवाले ढुलते हुए रक्त की

(अनदेखे अनजाने जनों के)

मुझे याद आती है;

आँखों में तैरता है चित्र एक

उर में संभाला दर्द

गर्भवती नारी का

कि जो पानी भरती है वज़नदार घड़ों से,

कपड़ों को धोती है भाड़-भाड़,

घर के काम बाहर के काम सब करती है,

अपनी सारी थकान के बावजूद।

मज़दूरी करती है

घर कि गिरस्ती के लिए ही

पुत्रों के भविष्य के लिए सब।

उसके पीले अवसाद-भरे कृश मुख पर

जाने किस (धोखे-भरी?) आशा की दृढ़ता है।

करती वह इतना काम

क्यों किस आशा पर?

प्रश्न पूछता हूँ मैं;

आँखों के कोनों पर उत्तर के प्रारम्भिक

कड़ुए-से आँसू ये मिठास छू ही लेते हैं।

मिथ्या का प्रबलतम

रहस्योद्घाटन द्रुत

श्रद्धा का आँचल थाम लेता है

दर्द-भरी याचनाएँ आँखों में दरसाकर।

यदि उस श्रमशील नारी की आत्मा

सब अभावों को सहकर

कष्टों को लात मार, निराशाएँ ठुकराकर

किसी ध्रुव-लक्ष्य पर

खिंचती-सी जाती है,

जिवित रह सकता हूँ मैं भी तो वैसे ही!

जीवन के क्षुब्ध अन्तःकरण में युग-सत्य का

जो आते भयानक

वेदनार्थ भार हैं

उसके ही लिए तो यह--

कष्टजीवि प्राणों की अपार श्रमशीलता।

विशाल श्रमलता की जीवन्त

मूर्तियों के चेहरों पर

झुलसी हुई आत्मा की अनगिन लकीरें

मुझे जकड़ लेती हैं अपने में, अपना-सा जानकर

बहुत पुरानी किसी निजी पहचान से।

माता-पिता के संग बीते हुए

भयानक चिन्ताओं के लम्बे-लम्बे काल-खण्ड

में से उठ-उठकर

करुणा में मिली हुई गीली हुई गूंजे कुछ

मुझे दिला देती हैं नई ही बिरादरी,

हिये की धारित्री की

बड़ी अजीब (आँसूओं-सी नमकीन)

वह मिट्टी की सुगन्ध

मेरे हिये में समाती है,

दिल भर उठता है

ओस-गीली झुलसी हुई चमेली की आहों से।

दूर-दूर मुफ़लिसी के टूटे-फूटे घरों में

सुनहले चिराग़ बल उठते हैं;

ललाई में निलाई से नहाकार

पूरी झुक जाती है

थूहर के झुरमुटों से लसी हुई मेरी इस राह पर!

धुंधलके में खोए इस

रास्ते पर आते-जाते दीखते हैं

लठ-धारी बूढ़े-से पटेल बाबा

उँचे-से किसान दादा

वे दाढ़ी-धारी देहाती मुसलमान चाचा और

बोझा उठाए हुए

माएँ, बहनें, बेटियाँ......

सबको ही सलाम करने की इच्छा होती है,

सबको ही राम-राम करने को चाहता है जी

आँसूओं से तर होकर प्यार के......

(सबका प्यारा पुत्र बन)

सभी ही का गीला-गीला मीठा-मीठा आशीर्वाद

पाने के लिए होती अकुलाहट।

किन्तु अनपेक्षित आँसुओं के नव धारा से

कण्ठ में दर्द होने लगता है।


कुछ पलों बाद--

हिये में प्रकाश-सा होता है......

खुलती है दिशाएँ उजला आँचल पसारे हुए

रास्ते पर रात होते हुए भी मन में प्रात

नहा-सा मैं उठता भव्य किसी नव-स्फूर्ति से

असह्य-सा स्वयं-बोध विश्व-चेतना-सा कुछ

नवशक्ति देता है


निज उत्तर-दायित्व की विशेष सविशेषता

रास्ते पर चलते हुए गहरी गति देती है।

नगर का अमूर्त-सा तिलिस्मी आभालोक

शोषण की सभ्यता का राक्षसी दुर्ग-रूप

यथार्थ की भित्ति पर

समुद्घाटित करता है।

किन्तु उसके सम्मुख न निस्सहाय--

--निरवलम्ब पहले-जैसा अनुभव मैं करता हूँ,

नहीं कर पाता हूँ।

मौलिक जल-धारा मेरे वक्ष का शैल-गर्भ

धोती ही रहती है

रास्ता ख़त्म होता है कि संघर्षों के अंगारे

लाल-लाल सितारों से

बुलाते मुझे पास निज

कभी मांस-पेशियों के लौह-कर्म-रत

मजूर लोहर के अथाह-बल

प्रकाण्ड हथौड़े की

दीख पड़ती है चोट।

निहाई से उठती हुई लाल-लाल

अंगारी तारिकाएँ बरसती है जिसके उजाले में कि

एक अति-भव्य देह,

प्रचण्ड पुरुष श्याम

मुझे दीख पड़ता है

क्षेम में, शक्ति में मुस्कराता खड़ा-सा!

...लगता है मुझे वह--

काल मूर्ति,

क्रान्ति-शक्ति, जन युग!!


घर आ ही जाता है कि द्वार खटखटाता

अन्तर से 'आयी' की ध्वनि सुनाई पड़ती है

अपना उर-द्वार खटखटाता हुआ

निश्चय-सा, संकल्प-सा करता हूँ!