सामग्री पर जाएँ

चाणक्यनीति चतुर्थ अध्याय

विकिपुस्तक से

चतुर्थोऽध्यायः

[सम्पादन]

आयुः कर्म च वित्तञ्च विद्या निधनमेव च।
पञ्चैतानि हि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः।। १।।


साधुभ्यस्ते निवर्तन्ते पुत्रामित्राणि बान्धवाः।
ये च तैः सह गन्तारस्तध्दर्मात्सुकृतं कुलम्।। २।।

दर्शनाध्यानसंस्पर्शैर्मत्सी कूर्मी च पक्षिणी।
शिशुपालयते नित्यं तथा सज्जनसड्गतिः।। ३।।

यावत्स्वस्थो ह्ययं देहो यावन्मृत्युश्च दूरतः।
तावदात्महितं कुर्यात् प्राणान्ते किं करिष्यति।।४।।

कामधेनुगुण विद्या ह्यकाले फलदायिनी।
प्रवासे मातृसदृशी विद्या गुप्तं धनं स्मृतम्।। ५।।
विद्या कामधेनु के समान गुणोंवाली है, बुरे समय में भी फल देनेवाली है, प्रवास काल में माँ के समान है तथा गुप्त धन है।


एकोऽपि गुणवान् पुत्रो निर्गुणैश्च शतैर्वरः।
एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च ताराः सहस्त्रशः।। ६।।
जिस प्रकार एक चाँद ही रात्रि के अन्धकार को दूर करता है, असंख्य तारे मिलकर भी रात्रि के गहन अन्धकार को दूर नहीं कर सकते, उसी प्रकार एक गुणी पुत्र ही अपने कुल का नाम रोशन करता है, उसे ऊंचा उठता है। सैकड़ों निकम्मे पुत्र मिलकर भी कुल की प्रतिष्ठा को ऊंचा नहीं उठा सकते।


मूर्खश्चिरायुर्जातोऽपि तस्माज्जातमृतो वरः।
मृतः स चाऽल्पदुःखाय यावज्जीवं जडोदहेत्।। ७।।
मुर्ख पुत्र के चिरायु होने से मर जाना अच्छा है, क्योंकि ऐसे पुत्र के मरने पर एक ही बार दुःख होता है, जिन्दा रहने पर वह जीवन भर जलता रहता है।


कुग्रामवासः कुलहीनसेवा।
कुभोजनं क्रोधमुखी च भार्या।।

पुत्रश्च मूर्खो विधवा च कन्या।
विनाग्निमेते प्रदहन्ति कायम्।। ८।।
दुष्टों के गावं में रहना, कुलहीन की सेब, कुभोजन, कर्कशा पत्नी, मुर्ख पुत्र तथा विधवा पुत्री ये सब व्यक्ति को बिना आग के जला डालते हैं।


किं तया क्रियते धेन्वा या न दोग्ध्री न गर्भिणी।
कोऽर्थः पुत्रेण जातेन यो न विद्वान्न भक्तिमान्।। ९।।
उस गाय से क्या करना, जो न दूध देती है और न गाभिन होती है। इसी तरह उस पुत्र के जन्म लेने से क्या लाभ, जो न विद्वान हो और न ईश्वर का भक्त हो


संसारतापदग्धानां त्रयो विश्रान्तेहेतवः।
अपत्यं च कलत्रं च सतां सड्गतिरेव च।। १०।।
सांसारिक ताप से जलते हुए लोगों को तीन ही चीजें आराम दे सकती हैं - सन्तान, पत्नी तथा सज्जनों की संगति |


सकृज्जल्पन्ति राजानः सकृज्जल्पन्ति पण्डिताः।
सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते त्रीण्येतानि सकृत्सकृत्।। ११।।


एकाकिना तपो द्वाभ्यां पठनं गायनं त्रिभिः।
चतुर्भिर्गमनं क्षेत्रं पंचभिर्बहुभी रणम्।। १२।।
तप अकेले में करना उचित होता है, पढ़ने में दो, गाने मे तीन, जाते समय चार, खेत में पांच व्यक्ति तथा युद्ध में अनेक व्यक्ति होना चाहिए।


सा भार्या या शुचिर्दक्षा सा भार्या या पतिव्रता।
सा भार्या या पतिप्रीता साभार्या सत्यवादिनो।। १३।।
वही पत्नी है, जो पवित्र और कुशल हो। वही पत्नी है, जो पतिव्रता हो। वही पत्नी है, जिसे पति से प्रीति हो। वही पत्नी है, जो पति से सत्य बोले।


अपुत्रस्य गृहं शून्यं दिशः शुन्यास्त्वबांधवाः।
मूर्खस्य हृदयं शून्यं सर्वशून्या दरिद्रता।। १४।।
पुत्रहीन के लिए घर सूना हो जाता है, जिसके भाई न हों उसके लिए दिशाएं सूनी हो जाती हैं, मूर्ख का हृदय सूना होता है, किन्तु निर्धन के लिए सब कुछ सूना हो जाता है।


अनभ्यासे विषं शास्त्रमजीर्णे भोजनं विषम्।
दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृध्दस्य तरुणी विषम्।। १५।।
जिस प्रकार बढ़िया-से बढ़िया भोजन बदहजमी में लाभ करने के स्थान में हानि पहुँचता है और विष का काम करता है, उसी प्रकार निरन्तर अभ्यास न रखने से शास्त्रज्ञान भी मनुष्य के लिए घातक विष के समान हो जाता है।


त्यजेध्दर्म दयाहीनं विद्याहीनं गुरुं त्यजेत्।
त्यजेत्क्रोधमुखीं भार्यान्निः स्नेहानबंधवांस्त्यजेत्।। १६।।
धर्म में यदि दया न हो तो उसे त्याग देना चाहिए। विद्याहीन गुरु को, क्रोधी पत्नी को तथा स्नेहहीन बान्धवों को भी त्याग देना चाहिए।


अध्वा जरा मनुष्याणां वाजिनां बंधनं जरा।
अमैथुनं जरा स्त्रीणां वस्त्राणामातपं जरा।। १७।।
सतत भ्रमण करना व्यक्ति को बूढ़ा बना देता है। यदि घोड़े को हर समय बांध कर रखें तो वह बूढ़ा हो जाता है। यदि स्त्री उसके पति के साथ प्रणय नहीं करती हो तो बूढ़ी हो जाती है। धूप में रखने से कपड़े पुराने हो जाते हैं।


कःकालः कानि मित्राणि को देशः को व्ययागमौ।
कस्याहं का च मेशक्तिरिति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः।। १८।।
कैसा समय है ? कौन मित्र है ? कैसा स्थान है ? आय-व्यय क्या है ? में किसकी और मेरी क्या शक्ति है ? इसे बार-बार सोचना चाहिए।


अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम्।
प्रतिमा त्वल्पबुध्दीनां सर्वत्र समदर्शिनाम्।। १९।।