जनपदीय साहित्य सहायिका/गढ़वाली गीत
यह पृष्ठ 'गढ़वाली लोकगीत' (गोविंद चातक द्वारा) के संदर्भ में लिखा गया है।
पुण्य गंगा यमुना का उद्गम स्थल, गिरिराज हिमालय का हृदय, भारत का दिव्य भाल गढ़वाल प्रकृति देवी के शिशु की क्रीडा भूमी-सा धरा का अद्वितीय श्रृंगार है। इसे कालिदास ने देवभूमि कहा है और पाली सहित्य में इसे हिमवन्त के नाम से जाना जाता है। बाद में गढ़ो की अधिकता के कारण इसका नाम गढ़वाल पड़ गया। मध्यदेश में राजनैतिक संघर्ष होने पर कई भारतीय जातियां शरण की खोज में गढ़वाल पहुची। पवार, चौहान, कत्युरी, राठौर, राणा, गूर्जर, पाल, तथा कुछ बंगाल और दक्षिण ब्राह्मण जाती के लोगो ने इस पर्वतीय प्रदेश को अपने प्राणो और धर्म की रक्षा के लिए सुरक्षित समझ कर इसे अपना आधिवास बना लिया। यही कारण है कि गढ़वाल लोकजीवन, भाषा और संस्कृति पर भारत के सभी भागो विशेषत-राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब और बंगाल का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। गढ़वाल का हृदय संगीतमय है। यहाँ की हरी भारी धरती गाती है। गढ़वाल कई सुरों मॆं गाता है। यहाँ की जागर, पवाड़े, बाजुबन्द, खुन्देल गीत लिखित सहित्य की भक्ति, वीर, श्रृंगार, और करुण रस की परम्पराओं को भी मात देने की क्षमता रखती है। पवाड़े काव्य खंड बनने की क्षमता रखते है। बाजुबन्द, छोपती और लामण उदात श्रृंगार के मनोहरी सम्वाद गीत है। चौफुला में प्रकृति का वैभव बिखरा है और जागर देवी देवताओं की अर्चना और स्तुति के गीत है। इन गीतों के रूप में स्वयं गढ़वाल ही गाता है। घुघुति पहाड़ के सबसे लोकप्रिय लोकगीतों में से एक है।
घुघुती क्या है?
- पहाड़ी घुघुती का रूप कबूतर से काफी मिलता है।
- यह आकर में कबूतर से छोटी होती है।
- इसके पंख में सफ़ेद चित्तिदार धब्बे होते है।
प्रकृति प्रेम पहाड़वासियों के हृदय में बसता है। पहाड़ी लोकगीतों का विषय अकसर पहाड़, मौसम, पेड़-पौधे, पक्षी आदि होते है। बात जब पहाड़ की होती है तो घुघुती पक्षी का ज़िक्र अवश्य होता है। शहरो में यह पक्षी विरले ही देखने को मिलता है। यह नन्हा पक्षी विवाहिताओं को उनके मइके की याद दिलाता है, साथ ही उनके हर दुःख में उनका साथी भी बनता है।
घुघुती से जुड़ी लोकगाथा
कहते है कि प्राचीनकाल में एक भाई अपनी बहन से मिलने उसके ससुराल गया था। जब वह बहन के घर पँहुचा तब बहन गहन निंद्रा में थी। उसकी नींद में खलल डालना भाई को अच्छा नहीं लगा। भाई रातभर घर के बाहर बहन के जागने की प्रतीक्षा करता रहा। बहन जागी नहीं तो उसे सोता हुआ छोड़कर वापिस लौट गया। जब बहन की नींद खुली तो उसने अपनी माँ के बनाए पाकवान और मिष्ठान रखे देखें। लोगो ने उसे बताया कि उसका भाई आया था। वह प्रतीक्षा करता रहा और अंत में भूखे पेट ही लौट गया। इस बात से बहन को इतना दुःख हुआ कि उसने आत्मग्लानी के चलते अपने प्राण त्याग दिए।
कहते है कि यही बहन बाद में घुघुती बनी। आज भी घुघुती की आवाज़ में वहीं दर्द और पीड़ा झलकती है। कुमाऊँ अन्चल में मकर सक्रन्ती का त्यौहार भी घुघुती त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। घुघुती पहाड़ के सबसे लोकप्रिय लोकगीतों का हिस्सा है।
घुघुती लोकगीत
(किशन महिपाल)
पिंगर का झाला घुगुती ..पांगर का डाला घुगुती
ले घुर घुरान्दी घुगुती ..ले फुर उड़ान्दि घुगुती
ले टक लगान्दी घुगुती ..के रेंदी बिगांदी घुगुती ..
के देश की होली घुगुती ..के देश बे आई घुगुती ..
किंगर का झाला......होए होए ..
किंगर का झाला घुघूती ..पांगर का डाला घुघूती ..
ले घुर घुरन्दी घुघूती ..ले फुर उड़ान्दि घुगुती
तू कब बसदी घुगुती..तू कन बसानी घुगुती ...
तू मालु झाले की...होए होए ..
तू मालु झाले की घुगुती ..तू मालु रंग की घुगुती ..
बल चैत बैशाख घुगुती ..तू घुर घुरांदी घुगुती
जहांँ तक गढ़वाली लोकगीतों की शैली का प्रश्न है, सभी गीतों में शैली की एक सूत्रता नहीं मिलती। प्रत्येक वर्ग के गीतों की अपनी पृथक शैली होती है किंतु स्थूल रूप से प्रवधात्मक, वर्णात्मक, भावात्मक नामों के अंतरगर्त रखा जा सकता है।
गढ़वाली लोकगीत: उदाहरण
प्रस्तुत गीत यश और जय की कामना को प्रकट करता है।
पोखरी का हीत जय जश दे।
तेरी जाती आयो जय जश दे।
भेंटुली क्या लायो जय जश दे।
सोवन धुपारगी लायो जय जश दे।
मोत्यों भरी थाल लायो जय दे।
अर्थ:
-हे पोखरी के हितदेव, जय और यश दे
तेरे यहाँ आया हूँ, जय और यश दे
भेंट क्या लाया हूँ, जय और यश दे
सोने की धूपदानी लाया हूँ, जय और यश दे
मोतिओं से भरी थाली लाया हूँ, जय और यश दे
मेरो गढ़वाल:
मेरो गढ़वाल दिदौं, कनौ भग्यान दिदौं
डांडी काठ्यों मा दिदौं, सेयू छुह्यू दिदौं
सूरज को उद्यौं दिदौं, चमलाँदू कैलास दिदौं
गंगा और जमुना दिदौं, दूध की धार दिदौं
बद्री केदार दिदौं, नर नारैैणा दिदौं
देवतों को डेरो दिदौं, भाछरी भोडार दिदौं
मेरो गढ़वाल दिदौं, कनौ भग्यान दिदौं
अर्थ:
मेरा गढ़वाल कितना भाग्यशाली है भाइयों
यहाँ पर्वत शिखरों पर हिम सोया है भाइयों
सूर्य के प्रथम उदय से यहाँ कैलाश चमकता है भाइयों
दूध के धार की तरह गंगा और यमुना बहती है
यहाँ बद्री और केदार है, नर और नारायण है
यहाँ देवतयों के आवास है, अपसराओं की गुफाएं है
मेरा गढ़वाल कितना भाग्यशाली है भाइयों
हित-कामना
मांगलिक कार्यों के अवसर पर, गृहद्वार पर ढोल बजाते हुए गृह स्वामी की हित कामना करते है।
यूँ का राज रखो देवता,
माथा भाग दे देवता!
यूँ का बेटा बेटी रखे देवता,
यूँ का कुल की ज्योत जगौ देवता!
यूँ का खाना जश दे,
माथा भाग दे देवता!
यूँ की डांडी काठ्यों मा,
फूलीं रौ फ्योंली डंँड्योली!
यूँ की साग सग्वाड़ी,
रौन रोज कलबलो!
धरती माता सोनो बरखाओं,
नाजा का कोठरा दे,
धन के भंडार देवता!
अर्थ:
इनका राज रखना देवता,
इनके माथे भाग्य दे देवता!
इनके बेटे बेटी जीवित रखे देवता,
इनके कुल की ज्योति जगाये देवता!
इनके कुल को यश दे देवता,
इनके माथे भाग्य दे देवता!
इनकी डांडी काठ्यों में,
फूली रहे फ्यूली डंड्योली!
इनकी साग की बाड़ियां,
रहे रोज हरी भरी!
धरती माता सोना बरसाऐ,
अन्न के इन्हें कोठार दे,
धन के दे भंडार देवता!
सगुन बोला (माँगल)
यहाँ गीतों के स्थरों पर धरती, कूर्म, गणेश तथा भूमीपाल देवताओं से मंगल मय कामनाएँ की जा रही है।
बोला न बोला, सगुन बोला,
जौ जस द्यान, कुरम देवता;
जौ जस द्यान, धरती माता।
जौ जस द्यान, खोली का गणेश;
जौ जस द्यान, भूमी को भुमियाल!
तुम्हारी थाती मा, यो कारज वीरे,
यो कारज सुफल कल्यान!
अर्थ:
बोलो न बोलो, सगुन बोलो,
कूर्म देवता जय और यश दे,
धरती माता जय और यश दे
सिंह पौर पर स्थापित गणेश जय और यश दे,
भूमी का भूमिपाल जय और यश दे,
तुम्हारी थाती में यह कार्य हो रहा है,
यह कार्य सुफल रहे, जय और यश दे!
लामण (प्रेम गीत)
लामण प्रेम गीत है। वैसे बाजूबन्द, छोपती, आदि गीतों का विषय प्रेम ही है। किंतु बाजूबन्द और छोपती में सम्वाद होते है। लामण विशेष अवसरो पर नृत्य के साथ गाया जाता है। लामण का विषय यद्यपि छोपती और बाजूबन्द की भाति प्रेम ही है किंतु उसकी शैली, छंद और लय सर्वथा अपनी है जिसके कारण लोक बुद्धि ने उसका एक पृथक आस्तित्व माना है। प्रेयसी के लिए अपना सर्वस्व अर्पित करने की भावना के साथ लामणो में प्रेम का एक ऊँचा आदर्श व्यक्त हुआ है। वहाँ प्रेम प्राप्ति का नाम नहीं और प्रेम का आलम्बन ही वासना की विभूति है। प्रेम के स्थयित्व की बहुत कामना की गई है और प्रेमियो के परस्परिक सम्बन्धों को प्रकृति के माध्यम से व्यक्त किया गया है। ऐसी उक्तियाँ बहुत रसात्मक है और उनमे काव्य की सहज गरिमा लक्षित होती है।
कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार है।
लामण लांढग्यि किति लामण जाणों,
डोडी के भीतर किनी फीमरे दाणो।
लाऊँ लामण, लाऊँ देवोरा वुंगा,
कोइ शुण टीर, कोइ शुण वाडवा तुगा।
लाऊँ लामण जाण फिणाई जाला...