देशप्रेम की कविताएं/मेरे नगपति मेरे विशाल - रामधारी सिंह दिनकर

विकिपुस्तक से

मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
पौरुष के पुन्जीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हिम-किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त,
युग-युग गर्वोन्नत, नित महान,
निस्सीम व्योम में तान रहा
 युग से किस महिमा का वितान?
कैसी अखंड यह चिर-समाधि?
यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान?
तू महाशून्य में खोज रहा
 किस जटिल समस्या का निदान?
उलझन का कैसा विषम जाल?
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

ओ, मौन, तपस्या-लीन यती!
पल भर को तो कर दृगुन्मेष!
रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल
 है तड़प रहा पद पर स्वदेश।
 सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,
गंगा, यमुना की अमिय-धार
 जिस पुण्यभूमि की ओर बही
 तेरी विगलित करुणा उदार,
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त
 सीमापति! तू ने की पुकार,
 'पद-दलित इसे करना पीछे
 पहले ले मेरा सिर उतार।'
उस पुण्यभूमि पर आज तपी!
रे, आन पड़ा संकट कराल,
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
 डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल।
 मेरे नगपति! मेरे विशाल!

कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा
 कितना मेरा वैभव अशेष!
तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर
 वीरान हुआ प्यारा स्वदेश।
 वैशाली के भग्नावशेष से
 पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?
ओ री उदास गण्डकी! बता
 विद्यापति कवि के गान कहाँ?
तू तरुण देश से पूछ अरे,
गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग?
अम्बुधि-अन्तस्तल-बीच छिपी
 यह सुलग रही है कौन आग?
प्राची के प्रांगण-बीच देख,
जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल,
तू सिंहनाद कर जाग तपी!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
पर, फिरा हमें गाण्डीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
 कह दे शंकर से, आज करें
 वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।
 सारे भारत में गूँज उठे,
 'हर-हर-बम' का फिर महोच्चार।
 ले अंगडाई हिल उठे धरा
 कर निज विराट स्वर में निनाद
 तू शैलीराट हुँकार भरे
 फट जाए कुहा, भागे प्रमाद
 तू मौन त्याग, कर सिंहनाद
 रे तपी आज तप का न काल
 नवयुग-शंखध्वनि जगा रही
 तू जाग, जाग, मेरे विशाल