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नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन/स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास

विकिपुस्तक से

स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास


पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी से भारत में यूरोपीय कंपनियाँ व्यापार के लिए आने लगी थीं जिनमें पुर्तगाली, डच, फ्रांसीसी और ब्रिटिश कंपनियाँ शामिल थीं । इन सभी कंपनियों को उनके देशों की सरकारों का समर्थन हासिल था। इन देशों की सरकारों ने उन्हें सेना रखने और शासन चलाने तक का अधिकार दे रखा था। भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी, जो एक ब्रिटिश कंपनी थी, का आगमन सत्रहवीं सदी में हो गया था | व्यापार के साथ-साथ ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश भी की। इसके लिए उन्होंने कूटनीति और युद्धों का सहारा लिया। जैसाकि पहले कहा जा चुका है कि अंग्रेजों के साम्राज्य की शुरूआत 1757 के प्लासी के युद्ध में नवाब सिराजुद्दौला की हार के साथ हुई। इसके लगभग सौ साल बाद तक विभिन्न रियासतों के शासकों की आपसी लड़ाई का लाभ उठाकर उन्होंने धीरे-धीरे हिंदुस्तान के अधिकांश हिस्से पर कब्जा कर लिया । 1857 तक लगभग पूरे हिंदुस्तान पर अंग्रेजों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अधिकार हो गया था। लेकिन इसका अर्थ नहीं था कि अंग्रेजों को विजय आसानी से मिलती गई । अंग्रेजों को लगातार भारतीय प्रतिरोध का सामना करना पड़ा । न केवल विभिन्न राज्यों के शासकों की तरफ से बल्कि आदिवासियों, किसानों और दूसरे लोगों की तरफ से भी अंग्रेजी शासकों को प्रतिरोध झेलना पड़ा। लगातार चलने वाले विद्रोहों की परिणति 1857 के महाविद्रोह में हुई जब स्वयं ईस्ट इंडिया कंपनी के भारतीय सैनिकों ने ही अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया। भारतीय सिपाहियों ने इसकी शुरूआत 11 मई 1857 को मेरठ से की थी जहाँ के अंग्रेज अफसरों और उनके वफादार सैनिकों को परास्त कर उन्होंने दिल्ली की तरफ कूच किया और दिल्ली पर अधिकार कर लिया । भारतीय सिपाहियों ने अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफ़्र को भारत का शासक घोषित किया और अंग्रेजों को पूरे भारत से खदेड़ने का अभियान चलाया। पंजाब से लेकर बंगाल तक भारतीय सिपाहियों ने देशी सामंतों, जमींदारों, किसानों और नागरिकों के साथ मिलकर अंग्रेजों से लोहा लिया। कार्ल मार्क्स ने भारतीयों के इस संघर्ष को भारत की स्वतंत्रता का पहला संघर्ष बताया था। दिल्ली चार महीने से अधिक समय तक विद्रोही भारतीय सिपाहियों के नियंत्रण में रही। लेकिन अंग्रेज आखिरकार दिल्ली पर दुबारा कब्जा करने में कामयाब हो गए। कई भारतीय सामंतों ने इस संग्राम में अंग्रेजों की मदद की थी । 1857 के प्रमुख योद्धाओं में तात्या टोपे, नाना फड़नवीस, झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई, जीनतमहल, कुंवर सिंह को आज भी भारत की जनता श्रद्धापूर्वक याद करती है। इनके अलावा मंगल पांडे, झलकारी बाई, मातादीन, गंगू बाबा आदि का नाम भी 1857 के जननायकों में गिना जाता है।

1857 के साथ ही भारत से ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो गया। भारत सीधे अंग्रेजी सत्ता के अधीन आ गया। 1857 के महाविद्रोह में भारतीयों की हार भले ही हो गई हो, लेकिन अंग्रेजी सत्ता से उनका संघर्ष समाप्त नहीं हुआ। भारत की जनता विशेष रूप से किसान और आदिवासी अंग्रेजों के विरुद्ध अपना संघर्ष चलाते रहे। संथाल विद्रोह के एक ऐसे ही नेता बिरसा मुंडा थे।

अंग्रेजों के शासन के दौरान भारत में सीमित ही सही उद्योगीकरण की शुरूआत हुई। नई शासन व्यवस्था ने जो नया मध्यवर्ग पैदा किया वह अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त था । एक अंग्रेज अधिकारी लार्ड मैकाले ने इस अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त वर्ग से उम्मीद की थी कि वह अंग्रेजी सत्ता का समर्थक होगा। यह वर्ग अंग्रेजी सत्ता का समर्थक तो था, लेकिन वह अंग्रेजी सत्ता से भारतीयों के प्रति बेहतर व्यवहार की उम्मीद करता था। यह वर्ग ज्यादा स्वतंत्रता की आकांक्षा रखता था। वह उनसे उसी व्यवहार और वैसे ही अधिकार की आशा करता था जो ब्रिटेन में ब्रिटिश नागरिकों को मिले हुए थे। भारतीय मानते थे कि वे भी ब्रिटिश की महारानी की वैसी ही प्रजा है । इसी की माँग वे लगातार करते रहे। लेकिन जब उनकी आवाज नहीं सुनी गई तो उन्होंने 1885 में एक राजनीतिक संगठन की स्थापना की जो अंग्रेजी सत्ता का समर्थक तो था लेकिन जो भारतीयों की तरफ से अधिक अधिकारों की माँग के लिए बनाया गया था । इस संगठन को भारतीय कांग्रेस नाम दिया गया। एक अंग्रेज 'मिस्टर ह्यूम' को उसका अध्यक्ष बनाया गया । इस प्रकार कांग्रेस भारतीयों का पहला ऐसा संगठन था जिसने हिंसा का सहारा लेने की बजाए लोकतांत्रिक तरीके से अपनी माँगों के लिए आंदोलन करने का रास्ता अपनाया। आरंभ में कांग्रेस के नेताओं ने प्रार्थना के जरिए ही अपनी माँगें अंग्रेजी सत्ता के सामने रखीं। यह सिलसिला लगभग तीन दशकों तक चला। लेकिन जब उसका कोई खास नतीजा नहीं निकला और भारतीयों की स्वतंत्रता की आकांक्षा को अंग्रेज लगातार कुचलते रहे तो कांग्रेस में ही नेताओं की एक नई पीढ़ी सामने आई जिन्होंने चिट्ठी-पत्री लिखने की बजाए जनता को एकजुट कर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने का निश्च्य किया । अब तक कांग्रेस का संबंध मध्यवर्ग से ही था। लेकिन अब कांग्रेस ने किसान और मजदूर जनता को भी अपने आंदोलन में शामिल करने का फैसला किया। 1908 में पहली बार अपनी माँगों के लिए मजदूरों ने हड़ताल का सहारा लिया। कांग्रेस के वे नेता जो चिट्ठी-पत्री द्वारा अपनी माँगें माने जाने की आशा कर रहे थे जिनमें दादा भाई नौरोजी, बदरुद्दीन तैयबजी, गोपालकृष्ण गोखले जैसे नेता थे और जिन्हें इतिहास में नरमदल का नेता माना जाता था, उनकी जगह पर बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय, विपनचंद्र पाल आदि नेताओं की एक नयी पीढ़ी सामने आई जिन्हें गरम दल के रूप में जाना जाता था | इन नेताओं ने जनआंदोलनों का तरीका अपनाया और 1857 के बाद पहली बार कांग्रेस के नेतृत्व में जनता की व्यापक भागीदारी के साथ आजादी के आंदोलन ने एक नए चरण में प्रवेश किया।

गरमदल ने कांग्रेस को एक नई ऊर्जा प्रदान की। उसने जन आंदोलनों की शुरूआत भी की फिर भी कांग्रेस का आंदोलन अब भी मध्यवर्ग तक ही सीमित था । यही वजह थी कि कांग्रेस ने जनता के सवालों को अपनी माँगों में शामिल नहीं किया। आजादी की लड़ाई में व्यापक किसान जनता को शामिल करने का जरूरी काम महात्मा गाँधी के प्रवेश के साथ हुआ। दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद उन्होंने एक साल तक घूम-घूमकर पूरे भारत को देखा और समझा। इसके बाद उन्होंने बिहार के चंपारण से किसानों की माँगों के साथ आजादी के आंदोलन में अपनी भागीदारी की शुरूआत की। किसानों को आजादी के आंदोलन से जोड़ने का परिणाम यह हुआ कि स्वतंत्रता संघर्ष भारत के गाँव-गाँव तक पहुँच गया। इस समय तक जवाहरलाल नेहरू के साथ युवाओं की एक नयी पीढ़ी भी इस लड़ाई में कूद पड़ी थी। इन युवाओं में आजादी के लिए संघर्ष करने और उसके लिए हर तरह के बलिदान की भावना थी। इन युवाओं पर 1917 में रूस में हुई बोल्शेविक क्रांति का भी जबर्दस्त असर था। इस क्रांति के द्वारा रूस में समाजवाद की स्थापना हुई। समाजवादी व्यवस्था की स्थापना करना भारत के युवाओं का स्वप्न बन गया। आजादी की लड़ाई में शामिल नई पीढ़ी यह तो समझ रही थी कि व्यापक जन आंदोलन के बिना आजादी का सपना पूरा नहीं हो सकता। लेकिन इसके साथ ही उनमें यह भावना भी प्रबल होती जा रही थी कि केवल अहिंसक रास्तों से ही अंग्रेजों को सत्ता से नहीं हटाया जा सकता। यह भावना 1919 में बैसाखी के दिन अंग्रेजों द्वारा अमृतसर के जलियाँवाला बाग में निहत्थे भारतीयों पर चारों ओर से की गई गोलीबारी से और तीव्र हो गई । इस गोलीबारी में सरकारी आँकड़ों के अनुसार भी पाँच सौ से अधिक लोग मारे गए इन मरने वालों में बूढ़े, औरतें और बच्चे भी शामिल थे। इस घटना से क्षुब्ध होकर रवींद्रनाथ टैगोर ने अंग्रेजों द्वारा मिली नाइटहुड की उपाधि वापस लौटा दी। 1920-30 के दशकों में भारत में अंग्रेजी हिंसा का प्रतिरोध करने के लिए कई क्रांतिकारी संगठन अस्तित्व में आए और उन्होंने अंग्रेजी दमन का मुकाबला किया।

इन क्रांतिकारियों में ही रामप्रसाद बिस्मिल, असफाकुल्लाह, चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव आदि भी थे। रामप्रसाद बिस्मिल और असफाकुल्लाह को उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए फाँसी दे दी गई। कई क्रांतिकारियों को अंडमान-निकोबार द्वीप पर भेज दिया जाता था जहाँ अंग्रेजों ने भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को कैद रखने के लिए जेल का निर्माण किया था । इस जेल को सेलुलर जेल के नाम से जाना जाता था। पंजाब के स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपत राय जब प्रदर्शन के दौरान पुलिस की लाठी से घायल हो गए और थोड़े दिनों बाद उनकी मौत हो गई तो इस घटना से विचलित होकर भगत सिंह और उनके साथियों ने पुलिस के अधिकारी सांडर्स को मार गिराया। इसके कुछ दिन बाद सारी दुनिया को भारत की आजादी के संघर्ष के प्रति जागरूक करने के लिए भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय असेंबली में बम का धमाका किया। इन क्रांतिकारियों का इरादा किसी को मारना नहीं था। यही वजह है कि उन्होंने ऐसा ही बम फोड़ा जिससे किसी को मामूली सी चोट भी नहीं आई । भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त बम फोड़कर भागे नहीं बल्कि वहीं खड़े रहकर उन्होंने इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाए और पर्चे बाँटे । उन दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया | थोड़े दिनों बाद अन्य क्रांतिकारी भी एक-एक कर पकड़े गए । भगतसिंह और दूसरे क्रांतिकारियों पर मुकदमा चलाया गया। भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा हो गई, अन्य क्रांतिकारियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई । चंद्रशेखर आजाद पकड़े नहीं जा सके लेकिन इलाहाबाद में पुलिस के साथ मुठभेड़ में वे मारे गए।

कांग्रेस में शामिल समाजवादियों, क्रांतिकारी संगठनों और कम्युनिस्ट पार्टी के अस्तित्व में आने ने पूरे देश में इस सवाल को अहम बना दिया कि आजाद भारत किस तरह का होना चाहिए। इस बहस का नतीजा था कि कांग्रेस ने 1930 में पूर्ण आजादी की माँग रखी । जनता को इस बात का विश्वास दिलाया गया कि आजाद भारत में जरमींदारी प्रथा खत्म कर दी जाएगी और भूमि सुधार को अमली जामा पहनाया जाएगा । लेकिन आजादी के इस चरण में दो महत्त्वपूर्ण मुद्दे और उभरकर आए । भारत की बहुसंख्यक हिंदू जनता में जातिवाद बहुत गहरे रूप में समाया हुआ था । नवजागरण के दौरान जातिवाद के विरोध में चलाए गए आंदोलनों, अंग्रेजों की जातिवाद विरोधी नीतियों और स्वयं दलित वर्ग में उभर रहे मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों द्वारा चलाए जा रहे आंदोलनों ने इस बात को मुख्य मुद्दा बना दिया कि निम्न समझी जाने वाली जातियों का आजादी के बाद क्या उसी तरह शोषण किया जाएगा? क्या उनके साथ वैसा ही अमानुषिक व्यवहार किया जाएगा? यह एक ऐसा मुद्दा था जिसका राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश अंग्रेजी सत्ता ने की। 1932 में अंग्रेजों ने दलित जातियों के लिए अलग निर्वाचन मंडलों की व्यवस्था की । कांग्रेस ने इसका विरोध किया। कांग्रेस का कहना था कि उनका संगठन सारे हिंदुस्तान का प्रतिनिधित्व करता है। इस मसले को लेकर गाँधी जी उपवास पर बैठ गए । अंततः गाँधी जी और बाबा साहब अंबेडकर के बीच पुणे में एक समझौता हुआ जिसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है। इस घटना के बाद से दलित जातियों के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए प्रयत्न करना एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन गया । साथ ही इस बात का वचन दिया गया कि आजाद भारत में दलित जातियों के साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किय जाएगा और उनको सभी नागरिक अधिकार प्राप्त होंगे।


भारत में वैसे तो कई धार्मिक समुदाय सदियों से रहते आए हैं लेकिन हिंदुओं के बाद सबसे बड़ा धार्मिक समुदाय इस्लाम धर्मावलंबियों का था। हिंदुओं की तुलना अल्पसंख्यक होते हुए भी मुसलमानों की आबादी बहुत अधिक थी। 1857 की लड़ाई हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर लड़ी थी। इस घटना से सबक लेते हुए अंग्रेजों ने इन दोनों समुदायों के बीच फूट डालने की हर संभव कोशिश की जिसमें वे कुछ हद तक कामयाब भी हुए। अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना से पहले भारत में मुस्लिम शासकों का राज था। इसलिए मुसलमानों के एक वर्ग में अंग्रेज इस धारणा को बलवती करने में सफल हुए कि यदि आजादी के बाद काग्रेस का शासन हुआ तो मुसलमानों के साथ बराबरी का व्यवहार नहीं किया जाएगा क्योंकि कांग्रेस हिंदुओं की पार्टी है । यह बात सही नहीं थी। कांग्रेस अपनी स्थापना के समय से ही सभी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करती रही थी। एक और कारण यह भी था कि मुस्लिम जमींदारों में यह भी डर समाया हुआ था कि जब देश आजाद हो जाएगा तो कांग्रेस, जैसा कि 1930 में घोषित कर चुकी थी कि वह जमींदारी प्रथा समाप्त कर देगी। इससे मुस्लिम भूस्वामी वर्ग को अपने वजूद के मिट जाने का खतरा पैदा हो गया। इस प्रकार मुसलमानों में अलगाव की भावना पैदा करने की कोशिश की गई। मुस्लिम लीग ने इसी समझ के तहत मुसलमानों के लिए अलग राज्य की माँग की। इसने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दूरियाँ बढ़ाई । दोनों तरफ के सांप्रदायिक संगठनों ने जनता के बीच सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ाने में मदद की। इन बढ़ती दूरियों ने सांप्रदायिक दंगे करवाए और अंततः 1947 में देश आजाद हुआ तो धर्म के आधार पर उसका विभाजन भी हो गया। आजादी के साथ यह महान देश भारत और पाकिस्तान के रूप में दो देशों में बँट गया।