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नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन/हिंदी नवजागरण

विकिपुस्तक से

हिंदी नवजागरण


उन्होंने मुसलमानों में आधुनिक चेतना जगाने का अत्यंत महत्वपूर्ण काम किया। वे चाहते थे कि मुसलमान आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर प्रगति करे और रूढ़िवाद और अंधविश्वासों से अपने को दूर रखे। उन पर यूरोपीय सभ्यता और संस्कृति का गहरा असर था। मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा प्रदान करने के लिए उन्होंने 1873 मोहम्मडन एंग्लो- ओरियंटल कालेज की स्थापना की। यह कालेज ही आगे चलकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के नाम से विख्यात हुआ। सर सैयद अहमद खां द्वारा शुरू किए गए जनजागरण को अलीगढ़ आंदोलन के नाम से जाना जाता है। के. दामोदरन ने इस आंदोलन पर टिप्पणी करते हुए लिखा था , "अपने धार्मिक और सांप्रदायिक स्वरूप के बावजूद अलीगढ़ आंदोलन ने मुल्लाओं और उलमा की शक्ति को कमजोर करने में मदद की और, अंतिम विश्लेषण में, भारत में सामंतवाद के प्रभुत्व को कमजोर करने में सहायता पहुंचायी।" में थे। इसके बावजूद यह सच है कि हिंदी प्रदेश में राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, महादेव गोविंद रानाडे, ज्योतिबा फुले, नारायण गुरु, दयानंद सरस्वती जैसा कोई नेता नहीं हुआ। सर सैयद अहमद खाँ ने जरूर इस प्रदेश में उसी तरह का काम किया जो बंगाल, महाराष्ट्र आदि राज्यों के समाज सुधारकों ने किया था । लेकिन उनका प्रभाव सिर्फ मुसलमानों तक सीमित था। नवजागरण का यह एक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है कि उन्नीसवीं सदी के सभी समाज सुधारक सिर्फ अपने धर्मावलंबियों के बीच ही कार्य करते रहे।

आर्यसमाज से प्रभावित होकर कुछ सुधारकों ने पंजाब से लेकर बिहार तक के क्षेत्र में समाज सुधार का काम जरूर किया था। आर्यसमाज का सबसे अधिक प्रभाव भी इसी क्षेत्र पर दिखाई देता है। आर्यसमाज की सीमा यह थी कि यह एक पुनरुत्थानवादी आंदोलन था। हालाँकि आर्यसमाज ने धार्मिक अंधविश्वासों और सामाजिक रूढ़ियों को दूर करने में अहम भूमिका निभाई।

हिंदी नवजागरण की शुरूआत भारतेंदु युग से मानी जाती है। भारतेंदु (1850- 1885 ) का संबंध बनारस के एक अत्यंत प्रतिष्ठित व्यावसायिक परिवार से था । साहित्य से लगाव उनको अपने परिवार से विरासत में मिला था। उन्होंने 18 वर्ष की आयु में हिंदी में 'कविवचन सुधा' नामक साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया । बाद में उन्होंने 'हरिश्चंद्र मैगज़ीन' नामक पत्रिका निकाली जिसका नाम बाद में बदलकर 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' कर दिया गया। स्त्री शिक्षा और जागृति के लिए उन्होंने 'बालाबोधिनी' नामक पत्रिका का भी प्रकाशन किया। भारतेंदु ने हिंदी भाषा और साहित्य को नया स्वरूप प्रदान करने का प्रयास किया। वह स्वयं तो साहित्यकार थे ही, साथ ही उन्होंने बहुत से युवाओं को साहित्य की ओर प्रेरित किया। भारतेंदु से प्रेरणा लेकर साहित्य रचना करने वाले और साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय रहने वाले लेखकों को भारतेंदु मंडल के नाम से जाना जाने लगा। उनके समकालीन कई लेखकों ने भी विभिन्न पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। भारतेंदु युग के साहित्य के बारे में आप विस्तार से भारतेंदु युग वाले अध्याय में पढ़ेंगे। यहाँ हम सिर्फ इस बात पर प्रकाश डालेंगे कि भारतेंदु युग ने नवजागरण में किस तरह का योगदान किया।

भारतेंदु युग के लेखकों ने अपनी पत्रिकाओं और साहित्य के माध्यम से समाज में नई जागृति लाने का प्रयास किया। उन्होंने समाज में व्याप्त कुप्रथाओं का विरोध किया। इनमें बाल विवाह, सती प्रथा, अनमेल विवाह आदि का विरोध शामिल था । इसके साथ ही उन्होंने विधवा विवाह का समर्थन किया। स्त्री शिक्षा की ज़रुरत पर बल दिया। धार्मिक कुरीतियों और अंधविश्वासों की भी आलोचना की । यह अवश्य है कि हिंदी के लेखकों पर पुनरुत्थानवाद का गहरा असर था। भारतेंदु युग के अधिकांश लेखकों ने गौ रक्षा, हिंदू एकता और उर्दू के विरुद्ध हिंदी का पक्ष लिया । भारतेंदु युग के ही एक लेखक प्रतापनारायण मिश्र ने हिंदी को हिंदुओं के साथ जोड़ते हुए 'हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तान' का नारा दिया। लेकिन जल्दी ही इन लेखकों ने यह भी पहचान लिया था कि भारत की प्रगति तभी संभव है जब यहाँ के लोगों में एकता और आपसी सौहार्द्र हो। भारतेंदु युग के लेखक भी देश की प्रगति के समर्थक थे और भारत को आधुनिक राष्ट्र बनाना चाहते थे। भारतेंदु ने उद्योगीकरण की आवश्यकता पर बल दिया था। समाज को बदलने और उसे प्रगति की राह पर ले जाने के लिए उन्होंने साहित्य को माध्यम बनाया । इसके लिए उन्होंने साहित्य के परंपरागत रूपों को त्यागते हुए नए रूपों में साहित्य रचना की। उन्होंने गद्य में लेखन किया। नाटक लिखे और कविता में श्रृंगार और भक्ति के साथ-साथ राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर भी रचना की । तत्कालीन मध्यवर्ग के अनुरूप भारतेंदु युग के हिंदी लेखक भी इस बात में यकीन करते थे कि अंग्रेज ही भारत को एकसूत्र में बाँधे रख सकते हैं और उसे प्रगति की राह पर आगे बढ़ा सकते हैं। यही कारण है कि उनमें राजभक्ति की भावना काफी मजबूत थी । लेकिन धीरे-धीरे उन्हें यह भी एहसास होने लगा था कि अंग्रेजों का मकसद भारत को लूटना है। इस धारणा के बलवती होते जाने के साथ उनमे राष्ट्रीयता की भावना भी प्रबल होती गई ।