पर्यावरण अध्ययन/2.अवधारणा एवं परिभाषा

विकिपुस्तक से

पारितंत्र : अवधारणा एवं परिभाषा

पारितंत्र प्रकृति की वह क्रियात्मक इकाई है, जिसमें जीवमंडल के सभी घटकों के समूह, पारस्परिक क्रिया में सम्मिलित होते हैं, परिणामतः सजी व निर्जीव अंशों में विभिन्न तत्त्वों का चक्रण होता रहता है। यह भौगोलिक विशेषताओं पर आधारित विशेष भूदृश्य वाला क्षेत्र होता है। जैविक समुदाय व पर्यावरण के इस अंतसंबंध को ए.जी. टेन्सले ने वर्ष 1935 में इकोसिस्टम की संज्ञा देते हुए इसे इस रूप में परिभाषित किया-पारिस्थितिक तंत्र वह तंत्र है जिसमें पर्यावरण के जैविक व अजैविक कारण अंतसंबंधित होते हैं।

पर्यावरण ही वनस्पति व जीवों के अस्तित्व का आधार है व इन्हें पोषित करता है, पर्यावरण ही पारितंत्र को नियंत्रित व संचालित करता है। माकहाँउस व स्माल के मतानुसार पादप व जैविक समुदाय (जीव जंतु+-मानव) के प्राकृतिक पर्यावरण व आवास के आधार पर अध्ययन करना पारिस्थितिक तंत्र है। पीटर हेगेट की परिभाषानुसार पारितंत्र वह पारिस्थितिक व्यवस्था है, जिसमें पादप व जीव जंतु पोषक श्रृंखला द्वारा अपने पर्यावरण से संयुक्त रहते हैं। पारितंत्र के किसी घटक में परिवर्तन होने की स्थिति में ऊर्जा प्रवाह बाधित होता है, असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती है व यह जैविक अस्तित्व के लिए संकटप्रायः भी हो सकता है। पारितंत्र के अंतर्गत समस्त जीव पर्यावरण से प्रतिक्रिया करते हुए, ऊर्जा प्रवाह से पोषण ग्रहण करते हैं फलतः जैव विविधता व विभिन्न भौतिक चक्रों का प्रादुर्भाव होता है।

पर्यावरण व उसमें विद्यमान जीवन तंत्र के अंतसंबंधों की देन ही पारितंत्र है। यह तंत्र क्षेत्रीय व विस्तृत निरंतर पदार्थों का चक्रण होता है तथा इसके तीन संघटक हैं- ऊजा संघटक, जैविक संघटक व अजैविक संघटक कभी-कभी मानव की आर्थिक गतिविधियों के कारण इन संटकों में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है परिणामस्वरूप विभिन्न पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हो जाती है। जैसे प्रदूषण पारितंत्र में निरंतर ऊर्जा व पदार्थों का निवेश व बहिर्गमन होता रहता है।

★ पारितंत्र की संचरना:- जैविक व अजैविक घटक

पारितंत्र दो प्रकार के घटकों द्वारा संरचित है, यह घटक है- जैविक व अजैविक घटक। इन घटकों की अंतुर्क्रिया के फलस्वरूप ही एक भौतिक संरचना विकसित होती है।

(a) जैविक घटक:- इसमें पर्यावरण के सभी जैविक तत्त्व सम्मिलित हैं। जीवमंडल के जैविक घटकों में सूक्ष्म जीवों से लेकर पक्षीजगत, स्तनपायी, जलथलचारी, रेंगनेवाले प्राणी सम्मिलित हैं। मनुष्य भी इसी जैविक घटक का एक उदाहरण है। यह सभी जीवित प्राणी अन्योन्याश्रित है, इसलिए इन्हें उत्पादक, उपभोक्ता व अपघटक की श्रेणी में विभक्त किया जाता हैं।

i) उत्पादक:- यह क्लोरोफिल युक्त स्वपोषित जीव होते हैं, जो सौर प्रकाश में अपना भोजन बनाते हैं अर्थात् पौधे, शैवाल इत्यादि। स्वपोषित होने के कारण यह प्राथमिक उत्पादक भी कहलाते हैं।

ii) उपभोक्ता:- यह जीव, उत्पादकों पर आश्रित होते हैं।

> प्राथमिक उपभोक्ता:- यह जीव भोजन आपूर्ति के लिए पौधों पर निर्भ होते हैं, जैसे भेड़, बकरी, खरगोश आदि।

>द्वितीयक उपभोक्ता यह वर्ग पोषण के लिए प्राथमिक उपभोक्ता पर आश्रित होते हैं, जैसे- भेडिया, लोमडी, साँप आदि।

> तृतीयक उपभोक्ता यह जीव, प्राथमिक व द्वितीयक उपभोक्ताओं पर निर्भर हैं, जैसे- शार्क, बाज़, शेर इत्यादि

iii) मृतजीवी / अपघटक:- यह जीव आहार के रूप में मृत कार्बनिक सामग्री का सेवन करते हैं। यह जीव मृत पौधों व पशुओं के अवशेषों द्वारा उत्सर्जित पदार्थों का सेवन कर जीवित रहते हैं, उदाहरण- जीवाणु, कवक व छोटे कीड़े-मकोडे इत्यादि।

(b) अजैविक घटक:- पारितंत्र में अजैविक तत्त्वों का विशेष महत्त्व है। पारितंत्र के अजैविक घटक हैं तापमान, प्रकाश ऊर्जा, अकार्बनिक पदार्थ जैसे- ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, रासायनिक व भौतिक क्रियाएँ आदि।

★ पारितंत्र के प्रकार्य:-

वास्तव में पारितंत्र का मुख्य कार्य खाद्य श्रृंखलाओं में ऊर्जा व पाषण का प्रवाह करना हैं, जो कि जैविक घटकों के जीवित रहने के लिए नितांत आवश्यक है।

(a) ऊर्जा प्रवाह (Energy Flow ):-

पारितंत्र में ऊर्जा के प्रवाह को खाद्य या ऊर्जा पिरामिड द्वारा समझा जा सकता है। पिरामिड में सबसे निचले स्तर पर उत्पादकों (पेड़-पौधों आदि) को रखा जाता है व सबसे ऊपर द्वितीय व तृतीय क्रम के उपभोक्ता आते हैं। उत्पादक सौर ऊर्जा ग्रहण व संचयन द्वारा अपना भोजन निर्मित करते, हैं व स्वपोषित होते हैं। किंतु प्राथमिक उपभोक्ता, उत्पादकों से ऊर्जा का केवल 10% भाग ग्रहण कर पाते हैं। द्वितीयक उपभोक्ता प्राथमिक उपभोक्ताओं के पास व्याप्त ऊर्जा का 10% ग्रहण करते हैं। इसे नियम के अनुसार एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर में केवल 10% ऊर्जा ही एक दिशीय रूप से सीनांतरित होती है। यह सीनांतरण सदैव चलता रहता है। उदाहरण के लिए यदि एक पौधा सूर्य ऊर्जा से 100 कैलोरी प्राप्त करता है, व एक बकरी जो उस पौधे के पत्ते खाती हैं केवल ऊर्जा की 10 कैलोरी प्राप्त करती है, जो शेर उस बकरी का शिकार करता है, वह केवल 1 कैलोरी ग्रहण कर पाता है। ऊर्जा श्रृंखला में जो जीव उत्पादक स्तर के जितना निकट होगा, उसे उतनी अधिक ऊर्जा प्राप्त होगी।

(b) खाद्य श्रृंखला (Food Chains):-

पारितंत्र में सभी जीव जीवित रहने के लिए एक दूसरे पर आश्रित हैं व इसी अन्योन्याश्रितता द्वारा पोषण प्राप्त करते हैं। प्रत्येक जीव अन्य जीव का भोजन जाता है इस प्रकार एक खाद्य श्रृंखला निरंतर चलती रहती है। कोई भी खाद्य श्रृंखला उत्पादकों से शुरू होकर उपभोक्ताओं के अनिश्चित क्रम पर समाप्त होती है। सरल शब्दों में, खाद्य श्रृंखला एक ऐसी जैविक श्रृंखला है, जिसमें जीव श्रृंखला के निचले जीव द्वारा भोजन ग्रहण करते हैं। कुछ उदाहरण हैं-

(A) 1.पौधे को हिरण खाती है! 2.और हिरण को शेर खाता है!

(B) 1.शैवाल को मच्छर लार्वा खाता है! 2.मच्छर लारवा को ड्रेगनफ्लाई लार्वा खाता है! 3.ड्रेगनफ्लाई लार्वा को मछली खाती है! 4.मछली को पक्षी खाते हैं!

(c) खाद्य जाल (Food web):-

विभिन्न खाद्य श्रृंखलाओं के परस्पर संबंध द्वारा खाद्य जाल निर्मित होता है, यह खाद्य श्रृंखलाओं का नेटवक है। एक जीव विभिन्न खाद्य श्रृंखलाओं का भाग हो सकता है। कभी-कभी मानव क्रियाओं द्वारा इन पास्परिक संबंधों में समस्या उत्पन्न हो जाती है, जिससे विभिन्न प्रजातियाँ संकटग्रस्त भी हो सकती है। स्मिथ व स्मिथ के अनुसार, खाद्य जाल एक समुदाय के भीतर संबंधों का प्रतिनिधित्व करती है। उदाहरण के लिए एक पौधा एक से अधिक शाकभक्षियों के लिए भोजन हो सकता है, जैसे- घास पर भेड़-बकरी, खरगोश निर्भर होते हैं। यही शाकभक्षी भिन्न-भिन्न मांसभक्षी प्रजातियों का भोजन बन जाते हैं।

1.पौधे को खरगोश और बकरी खाती है! 2.खरगोश को बिल्ली खाती है, और बकरी को सियार! 3.बिल्ली और सियार को शेर खाता है!

(d) पारिस्थितिकीय अनुक्रमण (Ecological Succession):-

जैविक समुदाय समय के साथ परिवर्तित होते रहते हैं, वह स्थिति जब किसी विशेष पारितंत्र में पाई जाने वाली जैये संपदा का स्थान दूसरा जैविक समुदाय ले लेता है, पारिस्थितिकीय अनुक्रमण कहलाता है। यह परिवर्तन विभिन्न सामुदायिक क्रियाकलापों व भौतिक पर्यावरण में कारण होता है। प्राणियों व पौधों के समुदाय में यह परिवर्तन मौसमी बदलावों के कारण होते हैं। जैविक व अजैविक दोनों चटक इस परिवर्तन में सम्मिलित होते हैं। पारितंत्रीय अनुक्रमण के दो प्रकार हैं:-

i) प्रारंभिक अनुक्रमण:-यह अनुक्रमण ऐसे खाली क्षेत्रों में होता है, जहाँ पहले किसी समुदाय का अस्तित्व नहीं था। जैसे- द्वीप समूह, रेत के ढले, नवनिर्मित डेत्आ इत्यादि । इस प्रकार के अनुक्रमण अधिक समय लेते हैं, क्योंकि यहाँ पहले मृदा निर्माण की प्रक्रिया चलती है। इस स्थान को सर्वप्रथम अपना आवास बनाने वाले समुदाय को अग्रगामी समुदाय कहते हैं, तत्पश्चात् अनुक्रमिक व अंततः चरमोत्कर्ष समुदाय आता है, यह अंतिम समुदाय दीर्घावधिक जटिल व स्थायी होता है।

ii) द्वितीयक अनुक्रमण:-ऐसे क्षेत्र जहाँ प्राकृतिक या मानवीय घटनाओं के कारण वहाँ की मूल वनस्पति आंशिक या पूर्णतः नष्ट हो जाने के पश्चात् पुनः वनस्पति समुदाय का विकास हुआ हो। यह अनुक्रमण प्राथमिक अनुक्रमण की अपेक्षा तेज गति से होता है।

जैव भू-रसायन चक्र (Biogeochemical Process):-

पोषक तत्त्वों व अन्य लघु- दीर्घ तत्त्वों के जैविक से अजैविक व अजैविक से जैविक प्रावस्था में परिवर्तन से ही पारितंत्र में पोषक तत्वों का प्रवाह चक्रित होता है। इस परिवर्तन की प्रक्रिया को ही जैव भू-रसायन चक्र कहा जाता है। पोषण चक्र ही जैव भू-रसायन चक्र कहा जाता है। क्योंकि पारिस्थितिक तंत्र में पोषक तत्त्व सदैव पुनः चक्रित होते रहते हैं व अनंत काल तक चलते रहते हैं, पोषक तत्त्वों की गतिशीलता ही पोषण चक्र कहलाती है। पोषण चक्र दो प्रकार के होते हैं-

> गैसीय चक्र:- इस चक्र में गैसों का भंडारण वायु व समुद्र में होता है। इसके अंतर्गत जलीय चक्र, कार्बन चक्र, ऑक्सीजन चक्र व नाइट्रोजन चक्र सम्मिलित है।

> अवसादी चक्र:- इन चक्रों में तत्त्वों व पोषण का भंडारण पृथ्वी की सतह पर होता है इसके अंतर्गत आयरन, कैल्शियम, सल्फर व फॉस्फोरस का भंडारण होता है।

★ पारिस्थितिक उत्पादकता की अवधारणा:-

किसी क्षेत्र में प्राथमिक उत्पादकों अर्थात् स्वपोषितों द्वारा प्रति समय इकाई में सकल संचित ऊर्जा की वृद्धि दर को पारिस्थितिक उत्पादकता कहते हैं। अर्थात् पहले पोषण स्तर में पेड़-पौधों द्वारा एकत्रित ऊर्जा व जैविक पदार्थों की सकल मात्रा को उत्पादकता कहते हैं। उत्पादकता को प्रभावित व निर्धारित करने वाले दो करके हैं- (a)सौर ऊर्जा की मात्रा व (b)स्वपोषितों द्वारा सौर ऊर्जा को आहार ऊर्जा में परिवर्तित करने की क्षमता क्षेत्र विशेष में बायोमास की वृद्धि दर उत्पादकता कहलाती है। बायोमास के अंतर्गत पौधों व जंतुओं के शुष्क मार को शामिल किया जाता है। उत्पादकता को प्रभावित करने वाले कारक हैं तापमान, जलवायु, क्षेत्रीयता, सहजीविता, प्रतिस्पर्धा, पोषक तत्त्वों की आपूर्ति आदि।

★ पारितत्रीय पिरामिड:-

खाद्य श्रृंखला के विभिन्न ऊर्जा स्तरों में जीवों के संबंधों को दर्शाने वाले आलेख को पारितंत्रीय पिरामिड किया जाता है। यह पिरामिड प्रजातियों की संख्या में हास, बायोमास व ऊर्जा के संचयन व हास को दर्शाता है। सर्वप्रथम इसका प्रदर्शन एल्टन ने वर्ष 1927 ई. में किया। पिरामिड में सबसे निचले स्तर पर स्वपोषित उत्पादक होते हैं व सर्वोच्च स्तर पर उपभोक्ता होते हैं। पारितंत्रीय पिरामिड 3 प्रकार के होते हैं

★ संख्या पिरामिड:-

पोषण स्तर में जीवों की संख्या के आधार पर बनने वाला पिरामिड संख्या पिरामिड कहलाता है। पिरामिड उत्पादकों व उपभोक्ताओं के मध्य यह संबंध को दर्शाता है। संख्या पिरामिड 2 प्रकार के होते हैं- (i) सीधा संख्या पिरामिड व (ii) उल्टा संख्या पिरामिड तालाब व घासीय पारितंत्र में सीधा संख्या पिरामिड पाया जाता है व वृक्ष पारितंत्र में उल्टा पिरामिड देखा जा सकता है।

★ जीवभार / बायोमास पिरामिड:-

खाद्य श्रृंखलाओं में सभी पोषण स्तरों में कुल जीवों का सकल भार बायोमास पिरामिड द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। इस पिरामिड का आधार जीवों का सकल भार है। बायोमास में जीवों के शुष्क भार को सम्मिलित किया जाता है। स्थल पारितंत्र में सीधा बायोमास पिरामिड बनता है व तालाब पारितंत्र में उल्टा बायोमास पिरामिड बनता है, क्योंकि सर्वोच्च उपभोक्ता का भार अधिक होता है।

★ ऊर्जा पिरामिड:-

एक स्तर से दूसरे स्तर में ऊर्जा का स्थानांतरण ऊर्जा पिरामिड द्वारा दर्शाया जाता है। यह पिरामिड सदैव सीधा बनता है, क्योंकि सर्वाधिक ऊर्जा उत्पादकों के पास होती है व एक स्तर से दूसरे में केवल 10% ऊर्जा का स्थानांतरण होता है।

★ मू-संतुलन/समस्थिति:-

प्राणियों को अपने वातावरण की परिस्थितियों के अनुकूल होने की क्षमता को बनाए रखने की प्रक्रिया समस्थिति कहलाती है। जीवों की आंतरिक स्थिरता को बनाए रखने के लिए यह तरीके अत्यंत उपयोगी हैं। जीवित प्राणियों के पास आंतरिक संतुलन बनाए रखने के लिए भिन्न-भिन्न शारीरिक तंत्र होते हैं। यह समस्थिति जीवों को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए अत्यंत आवश्यक है।

★ पारितंत्रों के प्रकार:-

जैविक व अजैविक घटकों के समूह के मध्य होने वाली पारस्परिक क्रियाओं के क्रियान्वयन की इकाई पारितंत्र कहलाती है। सौर विकिरणों पर आश्रित पारितंत्र प्राकृतिक पारितंत्र कहलाते हैं जैसे सागर, मरुस्थल, घासस्थल, जंगल इत्यादि।

•टुंड्रा पारितंत्र:-

टुंड्रा पारितंत्र यहाँ की तीव्र हवाओं व ठंडी जलवायु के कारण बंजर होते हैं। इस पारितंत्र में वर्षा होना दुर्लभ है। पूर्ण वर्ष बर्फ से ढके होने के कारण यहाँ की पर्यावरणीय दशाएँ अत्यंत कठिन होती हैं। विपरीत मौसमी परिस्थितियों के कारण यहाँ की वनस्पति का पूर्ण रूप से विकास नहीं हो पाता। यह पारितंत्र पृथ्वी की सतह के 10% भाग पर फैला हुआ है। यह अलास्का, ग्रीनलैंड, आइसलैंड, रूस, उत्तरी कनाडा, अर्जेंटीना के उप-अंटार्कटिक द्वीपों में पाया जाता है। टुंड्रा पारितंत्र तीन प्रकार के होते हैं- अल्पाइन आर्कटिक व अंटार्कटिक टुंड्रा पारितंत्र इस पारितंत्र में सूर्य के प्रकाश का अभाव होता है। इस पारितंत्र में निम्न तापमान होने के कारण जैव विविधता निम्न पाई जाती है। यहाँ जाने वाले प्रमुख पादप हँ- कारिबू मोस, पासक्यू फूल, बीयरबेरी व लाइकेन इत्यादि पशु प्रजातियाँ भी यहाँ सीमित हैं। ध्रुवीय भालू, कारिव, मसखरा बत्तख, बर्फ उल्लू, कस्तूरी बैल जैसे प्राणी पाए जाते हैं।

•वन पारिस्थितिक तंत्र:-

वृक्ष, पौधों, झाड़ियों व लताओं के समुदाय को वन कहा जाता है। इस पारितंत्र के मुख्य तत्त्व तापमान, मृदा व आर्द्रता हैं। वन पारितंत्र एक वुडलैंड इकाई है जिसमें जैविक घटक व अजैविक घटक मिलकर कार्य करते हैं। फूल देने वाली प्रजातियाँ (angiospeuns) व फूल न देने वाली प्रजातियाँ (gymnospeuns), स्तनपायी, सरीसृप, जलथलचारी, मछलियाँ, अन्य सूक्ष्मप्राणी वन पारितंत्र में पाए जाते हैं। मनुष्य भी इन वन्य पारितंत्रों का भाग है वन पारितंत्रों को तीन वर्गों में विभक्त किया जाता है- शीतोष्ण कटिबंधीय वन, उष्णकटिबंधीय वन व शंकुधारी वन वन पारितंत्र में व्यापक स्तर पर जैव विविधता पाई जाती है। यहाँ वर्षा भी समयानुसार होती रहती है। महोगनी, रोजवुड, सागवान, शीशम, साल, वालनट, चेस्टनट, पाइन, जैतून इत्यादि के वृक्ष पाए जाते हैं। वन पारितंत्र के प्रमुख जीव हाथी, गैंडा, शेर, लोमड़ी, मिंक इत्यादि हैं। वन पारितंत्र विभिन्न जीवों के आवास विपरीत पर्यावरणीय दशाओं से सुरक्षा व मृदा व जल का संरक्षण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

•घास पारितंत्र:-

चरागाह ऐसे वृक्षहीन क्षेत्र हैं, जहाँ विस्तृत घास प्रजाति पाई जाती है, क्योंकि निम्न वर्षा क्षेत्र होने के कारण बड़े झाड़ व पेड़ यहाँ नहीं उग सकते, किंतु इतनी वर्षा, घास के आवरण को पैदा करने के लिए पर्याप्त है। उत्तरी अमेरिका के प्रेयसी व दक्षिण-पश्चिमी रूस के स्टेपी चरागाह इस पारितंत्र का उदाहरण हैं। इस प्रकार के पारितंत्र में शाकभक्षी अधिक पाए जाते हैं। यह क्षेत्र कृषि क्षेत्र में परिवर्तित कर दिए जाते हैं, क्योंकि इनकी अवर्रता दर उच्च होती है। यह पारितंत्र पृथ्वी की सतह के 20% भाग पर फैले हुए। विभिन्न देशों में इन्हें भिन्न-भिन्न नाम से जाना जाता है, जैसे अफ्रीका में सवाना, दक्षिण अमेरिका में पम्पास, ऑस्ट्रेलिया में डाउन्स गधे, जेब्रा, चिंकारा, बकरियाँ इत्यादि शाकभक्षी इस पारितंत्र के प्रमुख जीव हैं। यह पारितंत्र दूध व चमड़ा उद्योग का आधार है। भारत में 8 प्रकार के चरागाह पारितंत्र पाए जाते हैं।

•मरुस्थलीय पारितंत्र:-

मरुस्थलीय पारितंत्र, पृथ्वी के अतिसंवेदनशील वह क्षेत्र है, जहाँ औसत वार्षिक वर्षा 25 सेमी. से भी कम होती है। इन अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में तापमान अधिक होने के कारण दीर्घ अवधि तक आर्द्रता कम रहती है। तापमान के आधार पर मरुस्थल दो प्रकार के होते हैं- (a) गर्म मरुभूमि जैसे राजस्थान में थार का रेगिस्तान व (b) लद्दाख जैसे ठंडे मरुस्थल भी हैं। मरुभूमि पृथ्वी का वाँ भाग घेरे हुए हैं। इस पारितंत्र में काँटेदार पौधे, झाड़ियाँ जैसे नागफनी, बबूल, यूफोबिया इत्यादि पाए जाते हैं इनका तना गूदेदार होता है, जिसमें यह जल संचित करके रखते हैं। भेड़िये. रेगिस्तानी, बिल्ली, रेगिस्तानी लोमड़ी व पक्षियों में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड जैसे दुर्लभ जीव भारतीय मरुस्थलीय पारितंत्र में पाए जाते हैं। माना जाता है कि मेसोजोइक काल में भारतीय मरुस्थलीय क्षेत्र समुद्र का भाग था। ठंडे रेगिस्तान में हिमतेंदुआ, जंगली याक, भूरा भालू, कियांग, जैसी संकटग्रस्त प्रजातियाँ मिलती हैं। भारतीय शीत रेगिस्तान लेह-लद्दाख से किन्नौर तक फैला हुआ है। मरुस्थलीय क्षेत्र की प्रमुख फसलें बाजरा, गेहूँ, जौ, मक्का हैं।

•जलीय पारितंत्र:-

अन्य पारितंत्रों की भाँति जलीय परितंत्र का भी एक स्वरूप होता है, नदियाँ, झीलें, तालाब, समुद्र इसी पारितंत्र का भाग है। इस पारितत्र में पौधों व प्राणियों की प्रजातियाँ जल में रहने में सक्षम होती है। यह एक विशिष्ट प्रकार का पारितंत्र है जिसे स्थिर व प्रवाहमयी पारितंत्रों में विभक्त किया जा सकता है। जल के आधार पर कुछ ताजे जल, कुछ सागरीय जल व कुछ मटमैले जल के पारितंत्र होते हैं। मनुष्य का जीवन पूर्णतः जलीय पारितंत्र पर निर्भर है। जल का प्रयोग पीने के लिए, कृषि, उद्योग व विद्युत उत्पादन इत्यादि के लिए किया जाता है।

> तालाब पारितंत्र:- बड़े-छोटे आकार के यह पारितंत्र भारत के प्रत्येक गाँव में पाए जाते हैं। यह सबसे सरल जलीय पारितंत्र है। तालाब अस्थायी व स्थायी होते हैं। इनमें विभिन्न खाद्य श्रृंखलाएँ चलती रहती हैं। मछलियाँ, मेंढक, घोंघे, केंचुए इन पारितंत्रों में पाए जाते हैं।

> झील पारितंत्र:- यह एक विस्तृत स्थायी तालाब होता है, इस पारितंत्र में ऊर्जा सूर्य से ग्रहण की जाती है। पौधों से यह ऊर्जा शाकभक्षियों व मांसभक्षियों तक स्थानांतरित होती है। इस प्रकार झील पारितंत्र में ऊर्जा का स्रोत सौर प्रकाश है। भारत में अधिकतर झीलें हिमालय व सतलुज-गंगा-ब्रह्मपुत्र के मैदानों में हैं।

> एक्यूएरी पारितंत्र:- नदियों का स्वच्छ जल एल्यूएरी में समुद्री जल से मिलता है। एस्यूएरी उच्च रूप से उत्पादक पारितंत्र है।

> नदी पारितंत्र:- यह प्रवाहित जल के पारितंत्र है। प्रवाह की गति के अनुरूप इसमें भिन्न-भिन्न प्रजातियों पाई जाती हैं। इस पारितंत्र में वर्ष भर जल बहता रहता है व तीव्र वर्षा के कारण बाढ़ भी आती है।

> समुद्री पारितंत्र:- इस प्रकार के पारितंत्र में जल खारा होता है। प्रायद्वीपीय भारत के समुद्री पारितंत्र हिंद महासागर, अरब सागर व बंगाल की खाड़ी है। इन पारितंत्रों में विश्व की कुछ अद्वितीय प्रवाल भित्तियाँ पाई जाती हैं। पृथ्वी के लगभग 71% भाग पर जलीय पारितंत्र है।

पारितंत्रों का महत्त्व व संभावित खतरे:-

पारितंत्र जीवन का आधार है। यह जीवमंडल की वह इकाई है, जहाँ जीवन संभव है। पारितंत्र न केवल जीवित रहने हेतु अपितु प्रतिदिन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति का आधार है। पारितंत्रीय प्रक्रयों के अभाव में मानव सभ्यता का अस्तित्व असंभव है। किंतु मानव ने लालच व लाभ की लालसा में पारितंत्रों को अपने कार्यकलापों द्वारा अत्यंत हास किया है। हमारी तेजी से बढ़ती जनसंख्या व धनी समाज ने प्राकृतिक संसाधनों व ऊर्जा का अत्यधिक दोहन किया है, जिसका मूल्य हमारे प्राकृतिक पारितंत्र को भुगतना पड़ रहा है। अनेकों प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं, ग्लेशियर पिघल रहे हैं, घासस्थलों को कृषि क्षेत्रों में बदला जा रहा है, जलीय पारितंत्रों को बाँध बनाकर प्रभावित किया जा रहा है, वन काटे जा रहे हैं. मरुस्थली भूमि बढ़ रही है, घटते हुए वनावरण के कारण भूस्खलन व बाद जैसी समस्याएँ आ रही हैं। वन भूमि को कृषि भूमि में बदला जा रहा है, जिस कारणवश विभिन्न जीवों को अपना आवास छोड़कर प्रवास के लिए मजबूर होना पड़ता है। नए स्थान पर नई पर्यावरणीय समस्याओं व प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है, जिस कारणवश वह संकटग्रस्त हो जाते हैं। पिछले 2000 वर्षों में पशुओं की 600 प्रजातियाँ व पौधों की 3000 से अधिक प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं।

मरुस्थलीय पारितंत्र में सिंचाई की व्यापक व्यवस्था के कारण इस क्षेत्र की प्रकृति में बदलाव आया है। राष्ट्रीय पाकों व अभयारणों में इस पारितंत्र के सीमित भाग को बचाया जा सकता है। निश्चित सीमा से अधिक वन काट लेने के कारण पशुओं के आवासों की गुणवत्ता बदल गई है। इन सभी कारणों से जैव विविधता व मानवीय अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। प्रदूषण, खनन व वनों की कटाई के कारण पश्चिमी घाट की एक तिहाई से अधिक प्राकृतिक वनस्पति नष्ट हो चुकी है। जंगलों में लगने वाली आग भी पारितंत्र को व्यापक स्तर पर नुकसान करती है। हिमालयी क्षेत्रों में सड़क निर्माण व बाँध जैसी परियोजनाओं के कारण पारितंत्र नष्ट हो रहे हैं। गंगा व ब्रह्मपुत्र नदी बेसिन अनेकों स्थानिक (endemic) व दुर्लभ प्रजातियों का आवास रही है किंतु जल प्रदूषण, औद्योगीकरण, रसायनों के रिसाव के कारण इन जीवों का जीवन संकट में आ गया है। सुंदरबन के तट पर बढ़ती कृषि व औद्योगिक क्रियाओं के कारण हजारों हेक्टेयर मैग्रोव वन खत्म हो गए हैं। अंडमान निकोबार द्वीप समूह में अव्यवस्थित पर्यटन के कारण आदिवासी व द्वीप की विशिष्ट जैव विविधता संकटग्रस्त हो गई है। अनेकों पर्यावरणीय नीति-नियम बनाए जाते हैं, किंतु उनका अनुपालन भी मानव के बस की बात नहीं।