पर्यावरण अध्ययन/3.प्राकृतिक संसाधन

विकिपुस्तक से

प्राकृतिक संसाधन

प्राकृतिक शब्द 'प्रकृति से बना हुआ है, जिसका सामान्य अर्थ है- प्रकृति से संबंधित प्रकृति में बहुत सी वस्तुएँ हैं, लेकिन सबका प्रयोग एक संसाधन के तौर पर नहीं किया जा सकता। सीधे अर्थों में कहा जाए तो सभी वस्तुएँ संसाधन नहीं होती हैं। इस विषय को समझने के लिए सर्वप्रथम प्राकृतिक संसाधन क्या होते हैं, इसे समझना अति आवश्यक है।

हमारा पर्यावरण दैनिक जीवन के लिए आवश्यक अनेक प्रकार की वस्तुएँ और सेवाएँ हमें प्रदान करता है। इन प्राकृतिक संसाधनों में हवा, पानी, मिट्टी और खनिज शामिल हैं और साथ में जलवायु और सौर ऊर्जा भी लगभग दास हजार पहले मानवजाति जंगलों और घास के मैदानों में आखेटक संग्राहक रूप में रहती थी और फिर कृषकों और पशुपालकों में परिवर्तित हो गई। तब हाने अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप अपने परिवेश को बदलना आरंभ किया। जब हमारी फसलें उगाने और पालतू पशुओं का उपयोग करने की योग्यता बढ़ी तब ये प्राकृतिक पारितंत्र खेतिहर जमीनों में बदल गए। अधिकतर परपंरागत कृषक जल के लिए प्राकृतिक संसाधनों- वर्षा, जलधाराओं और नदियों पर बहुत हद तक निर्भर थे। आगे चलकर उन्होंने भूमिगत जल निकालने के लिए कुओं का उपयोग किया और जलप्रवाह को रोकने के लिए बाँध बनाया। वर्तमान समय में हम डीजल व विद्युत से चलाने वाले पंपों की सहायता से भूमिगत जल निकालते हैं। जल निकालने के तरीके नदी, कुएँ से होते हुए पंप तक आ गए, लेकिन सिंचाई आज भी जल से ही कर रहे हैं। यह जल प्राकृतिक रूप से ही हमारे पास मौजूद हैं, इसलिए हम इसे प्राकृतिक संसाधन के रूप में देखते हैं। इस छोटे से उदाहरण के माध्यम से हमने प्राकृतिक संसाधन के स्वरूप को समझने की कोशिश की। अगर हम इसे एक परिभाषा के रूप में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि प्राकृतिक संसाधन वह प्राकृतिक पूँजी है, जो निवेश की वस्तु में बदलकर बुनियादी पूँजी प्रक्रियाओं में लगाई जाती है। इनमें शामिल हैं मिट्टी, लकड़ी, तेल, खनिज और अन्य पदार्थ जो कम या ज्यादा धरती से ही लिए जाते हैं। बुनियादी संसाधन के दोनों निषकर्षण शोधन करके ज्यादा शुद्ध रूप में बदले जाते हैं, जिन्हें सीधे तौर पर इस्तेमाल किया जा सके जैसे- धातुएँ व रिफाइंड तेल। इन्हें आमतौर पर प्राकृतिक संसाधन गतिविधियों माना जाता है। एक राष्ट्र के राजनीतिक प्रभाव को तय करते हुए उस देश के प्राकृतिक संसाधन अक्सर वैश्विक आर्थिक प्रणाली में उसकी संपत्ति का निर्धारण करते हैं। विकसित राष्ट्रों ने प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर दोहन किया और आज तकनीकी सहायता से कम दोहन कर ज्यादा परिणाम पाने में भी सफल हो रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों की महत्ता देखते हुए आज जमीन के जिस हिस्से पर प्राकृतिक संसाधन भरपूर मात्रा में पार जाते हैं, उन पर मालिकाना हक जमाने की प्रवृत्ति काफी बढ़ चली है। हाल के वर्षों में प्राकृतिक पूँजी का हास तथा दीर्घकालिक विकास की ओर स्थानांतरण पर विकास एजेंसियों का ज्यादा ध्यान रहा। वर्षा वन प्रदेशों में यह ज्यादा चिंता का विषय रहा, क्योंकि यहाँ पर पृथ्वी की सबसे अधिक जैव विविधता पायी जी है। इस जैविक प्राकृतिक पूँजी की जगह कोई नहीं ले सकता। प्राकृतिक पूँजीवाद, पर्यावरणवाद, पारिस्थितिकी आंदोलन तथा ग्रीन पार्टियों का सर्वाधिक ध्यान प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण पर है। कुछ लोग इस हास को विकासशील राष्ट्रों में सामाजिक अशांति व संघर्ष के प्रमुख कारण के रूप में भी देखते हैं।

इस पृथ्वी पर जीवन के संचालन के लिए जिनकी आवश्यकता पड़ेगी, वह सब कुछ हमें प्रकृति द्वारा ही प्राप्त होगा। हमारी आधारभूत आवश्यकता वायु एवं जल प्रकृति प्रदत्त हैं। वायु एवं जल के बाद जिसकी आवश्यकता हमें है, वह है भोज्य पदार्थ। ये भोज्य पदार्थ भी हमें भूमि संसाधन पर कृषि व्यवस्था के फलस्वरूप मिलते हैं। कृषि व्यवस्था के लिए भूमि, जल व वायु की ही आवश्यकता होती है। आज अनेक पर्यावरणविद चिंतित इसीलिए रहते हैं, क्योंकि हम मानवों ने इनमें अवांछनीय तत्त्वों अर्थात् प्रदूषण के लिए स्थान बनाया, जिससे ये प्राकृतिक संसाधन दूषित हो रहे हैं और भविष्य में ये हमारी आधारभूत आवश्यकताओं पर संकट पैदा करेंगे। इसीलिए इन विषयों पर हम आज से ही चेत कर लगातार वैश्विक स्तर के सम्मेलनों में भाग लेकर एक हल की ओर अग्रसर होने के प्रयास करते हुए नजर आ रहे हैं।

भूमि संसाधन:-

जल एवं वायु की ही तरह भूमि भी एक संसाधन है। इसी भूमि से अनेक प्रकार के संसाधनों एवं संपदाओं को मानव अपने लिए प्रयोगधर्मी बनाता है। भोज्य पदार्थों के लिए हम लगभग कृषि पर निर्भर रहते हैं और कृषि का अधिकांश हिस्सा भूमि पर ही निर्भर है। मृदा जिस प्रकार की होगी, खेती भी उसी अनुरूप ही होगी। हम अपने जीवन में अनेक स्तरों पर खनिज संसाधनों का उपयोग करते हैं, वे खनिज संसाधन भी भूमि से ही पाए जाते हैं। धरती पर जितने भी प्रकार के वन पाए जाते हैं उनका आधार यही भूमि ही है। उन वनों से हम अनेक प्रकार के संसाधनों को प्राप्त करते हैं एवं उनका उपयोग हम अपने लिए करते हैं। औषधीय वनस्पतियों की प्राप्ति भी हम वनों आदि से करते हैं। इन्हीं सब पर न जाने कितने ही सारे उद्योग-धंधे स्थापित हैं। एवं करोड़ों-अरबों लोगों को रोजगार मिला हुआ है। इन सभी प्रकार के संसाधनों के मूल में भी जो संसाधन हैं, वह है भू या भूमि संसाधन यह उन सभी संसाधनों जो इन पर निर्भर हैं, से प्राथमिक संसाधन की श्रेणी में आएगा।

खनिज संसाधन:-

'खनिज से तात्पर्य प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले ऐसे पदार्थों से है, जिनका निश्चित रासायनिक भौतिक गुणधर्म एवं रासायनिक संघटक हो। इनको खनन, उत्खान एवं प्रवेधन द्वारा प्राप्त किया जाता है, साथ ही इन सभी का आर्थिक महत्त्व भी होता है। खनिज क्षयशील प्रकार के संसाधन हैं जिनका नवीकरण नहीं किया जा सकता है। खनिज किसी भी देश की प्राकृतिक संपदा है। भारत में खनिजों के प्रचुर भण्डार हैं। यहाँ 100 से अधिक प्रकार के खनिज पाए जाते हैं। भारत में अधिकांश खनिज क्षेत्र प्रायद्वीपीय भारत में पाए जाते हैं। भारत में खनिज संसाधनों का वितरण असमान एवं अनियमित है, क्योंकि खनिजों की उपस्थिति कुछ विशिष्ट भू वैज्ञानिक संरचनाओं से संबद्ध होती है। रासायनिक एवं भौतिक गुण-धर्म के आधार पर खनिजों को दो प्रमुख श्रेणियों- धात्विक एवं अधात्विक में वर्गीकृत किया जा सकता है। धातुएँ कठोर पदार्थ हैं, जो उष्मा की व विद्युत की सुचालक होती हैं, जबकि अधिकांश अधातुएँ उष्मा व विद्युत की कुचालक होती हैं। लोहा, ताँबा, जस्ता, मैंगनीज, चूना पत्थर, डोलोमाइट, जिप्सम कोयला, अभ्रक, कैल्शियम, सल्फेट आदि प्रमुख खनिज संसाधन हैं, जो भारत में इसके अयस्कों आदि से प्राप्त किए जाते हैं।

वर्तमान समय में खनिजों के अनियंत्रित दोहन से बहुत से महत्त्वपूर्ण खनिज संसाधन समाप्ति के कगार पर पहुँच गए हैं। खनिजों के उत्खनन से पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं। इससे सर्वाधिक कृषि एवं वन संपदा प्रभावित हुई है। ऐसे में हम नए-नए खनिज क्षेत्रों की खोज करते हैं. जिससे स्थानीय लोगों का विस्थापन होता है, जिससे अनेक प्रकार की सामाजिक समस्याएँ भी पैदा हो रही हैं। घटते संसाधनों की स्थिति में यह जरूरी है कि खनिज संसाधनों का न्यायसंगत उपयोग वर्तमान पीढ़ी द्वारा किए जाए व इसे एक आदत के रूप में भावी पीढ़ियों को भी सिखाया जाए। साथ ही संसाधनों के पुनर्चक्रण की कोशिश की जाए। प्रौद्योगिकी की मदद से संसाधनों को प्रतिस्थापित किया जाए व खनिजों के कौशल युक्त उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

मृदा:-

मृदा जिसे सामान्य शब्दों में मिट्टी कहा जाता है, कई ठोस, तरल और गैसीय पदार्थों का मिश्रण होती है। यह भूपर्पटी के सबसे ऊपरी भाग में पाई जाती है। धरातलीय चट्टानों के अपक्षय, जलवायु पौधों और करोड़ों भूमिगत कीटाणुओं तथा कृमियों के बीच होने वाले आपसी क्रियाकलाप का अंतिम परिणाम ही मिट्टी है। इन भौतिक, रासायनिक और जैविक प्रक्रियाओं के एक लंबी अवधि तक कार्यरत रहने से मिट्टी की परतों का निर्माण होता है। चट्टानों के प्रकार, जलवायु, वनस्पति आदि से संबंधित होने के कारण ही भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न प्रकार की मृदा पाई जाती है। फलतः फसलों, घासों तथा वनस्पतियों में भिन्नता पाई जाती है। सबसे जरूरी बात यह ध्यान रखने की है कि मृदा महत्त्वपूर्ण क्षयशील संसाधन है, क्योंकि एक बार नष्ट हो जाने पर इसकी स्थानापूर्ति नहीं की जा सकती है। मानवीय क्रियाकलापों द्वारा अत्यधिक अपरदन के कारण इसका क्षय हो जाता है। मृदा निर्माण प्रक्रिया की दर अत्यंत मंद होने के कारण मृदा को अनवीकरणीय संसाधन भी माना जा सकता है।

खनिज पदार्थ मृदा का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं अधिक मात्रा में पाया जाने वाला अवयव है। ये मृदा अंश में दो प्रकार के होते हैं:-

प्राथमिक खनिज एवं द्वितीयक खनिज प्राथमिक खनिजों के बायोटाइट, आर्थोक्लेज, हार्नब्लेण्डे, ऑगाइट व मास्कोवाइट आदि होते हैं। द्वितीयक खनिज वे होते हैं, जिनका निर्माण प्राथमिक खनिजों से होता है, जैसे एपेटाइट, कैल्साइट, डोलोमाइट, जिप्सम, हीमेटाइट आदि मृदा में खनिज अंश विभिन्न प्रकार के कणों के रूप में पाया जाता है। कणों के व्यास एवं अनुपात के आधार पर भारत में मुख्य रूप से निम्नलिखित मृदा पाई जाती हैं- बलुई, गाद, चिकनी, दोमट, चूना व बलुई दोमट।

वर्तमान समय में मृदा अपरदन व मृदा क्षय एक बड़ा संकट है, लेकिन इसे रोका भी जा सकता है। संतुलन बनाए रखने के लिए प्रकृति के अपने नियम हैं। बिना संतुलन बिगाड़े भी प्रकृति मानवों को अपनी अर्थव्यवस्था का विकास करने का पर्याप्त अवसर देती है। मृदा संरक्षण एक विधि है, जिससे मिट्टी की उर्वरता बनाए रखी जा सकती है, मिट्टी के अपरदन व क्षय को रोका जा सकता है व मिट्टी की निम्नीकृत दशाओं को सुधारा जा सकता है। समोच्च रेखा के अनुसार मेढ़बंदी, समोच्च रेखी सीढ़ीदार खेत बनाना, नियमित वानिकी नियंत्रित चराई, आवरण फसलें उगाना आदि कुछ ऐसे ही तरीके हैं, जिससे मृदा अपरदन को रोका जा सकता है।

फसलें:-

कृषि एक प्राथमिक क्रिया है जिसमें भू-संसाधनों का इष्टतम् उपयोग करते हुए फसलों, फलों, सब्जियों, फूलों आदि को उगाने के साथ पशुपालन भी शामिल है। विश्व के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न भौतिक, सामाजिक एवं आर्थिक दशाएँ कृषि कार्य प्रभावित करती हैं एवं इसी आधार पर विभिन्न कृषि प्रणालियाँ देखी जाती हैं। कृषि कार्य से संबंधित सबसे बड़ा हिस्सा फसलों से संबंधित है। फसलों को उगाने के उद्देश्य से यह निर्धारित होता है कि आप कृषि के किस प्रकार को अपना रहे हैं। जब कोई कृषक पारंपरिक रूप से भिन्न स्तरीय प्रौद्योगिकी और अधिकाधिक पारिवारिक श्रम का उपयोग करके अपने परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए मात्र फसलों को उगाता है तो उसे निर्वाह स्तर की कृषि माना जाता है अर्थात् वह कृषक यह कार्य मात्र अपने निर्वाह के लिए कर रहा है। वहीं इसके दूसरी ओर जब किसी फसल का उत्पादन बाजार में विक्रय हेतु किया जाता है तो उसे वाणिज्यिक कृषि कहते हैं। इसमें विस्तृत कृषि पर अधिकांश कार्य मशीनों द्वारा किया जाता है। साथ ही इसमें अधिक पूँजी का निवेश भी किया जाता है। फसलों को अग्रलिखित प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है-

1.खाद्यान्न फसलें- चावल, मक्का, जौ, गेहूँ दाल आदि।

2.नकदी फसलें – फल, गन्ना, तंबाकू, तिलहन, मसाले आदि।

3.रेशेदार फसलें जूट, कपास आदि।

4.बागानी फसलें – कोको, रबर, नारियल, कॉफी, चाय आदि।


प्राकृतिक वनोत्पाद:-

किसी भी देश में वनों की सघनता से न केवल उसकी भौगोलिक व पर्यावरणीय स्थिति अच्छी होती है, अपितु वनों से प्राप्त होने वाले उत्पाद वहाँ की आर्थिक समृद्धि में भी बढ़ोतरी करते हैं। वन संसाधन का महत्त्व वे लोग बखूबी समझते हैं, जो वनों के पास रहते हैं, क्योंकि उनकी आजीविका उसी पर निर्भर रहती है। जिस जल का हम उपयोग करते हैं, वह नदियों की घाटियों के पास के जल विभाजक क्षेत्रों में स्थित वनों पर निर्भर होता है। हमारे घर फर्नीचर और कागज वनों से प्राप्त लकड़ी से बने होते हैं। हम ऐसी अनेक दवाओं का प्रयोग करते हैं, जो वन उत्पादों से बनी होती हैं। अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थ भी वहाँ से प्राप्त किए जाते हैं। मवेशियों के लिए चारे का प्रबंध भी वनों से किया जाता है। नए प्रकार के शहरी घरों में तो केवल दीवार व खिड़कियाँ ही लकड़ियों से बनाई जाती हैं, लेकिन आदिवासी क्षेत्रों एवं ग्रामीण क्षेत्रों के घरों में खंभे भी लकड़ियों से ही बनाए जाते रहे हैं। आजकल एल.पी.जी. गैस आसानी से उपलब्ध होने लगी हैं, लेकिन फिर भी खाना पकाने हेतु जलावन लकड़ियों का बड़ा भाग वनों से ही प्राप्त होता है। रस्सी व सुतली बनाने के लिए तंतुओं की भी प्राप्ति वहीं से होती है। पारंपरिक चिकित्सा के लिए औषधीय पौधे प्रायः वनों से ही प्राप्त किए जाते हैं। साथ ही साथ नई आधुनिक औषधियों के स्रोत के रूप में अनुसंधान हेतु पौधे वनों से ही मिलते हैं। वैज्ञानिकों के अनुमान के अनुसार भारत की 33% भूमि वनाच्छदित होनी चाहिए, लेकिन आज यह केवल 12% ही है। वनों की कटाई से वनों का क्षेत्रफल कम हे जाता है। हमें इसके महत्व को समझकर इसको न केवल सुरक्षित रखना है, अपितु इसको इस तरह उपयोग करना है कि हम दीर्घकालिक लाभ ले सकें।

औषधीय पौधे:-

पौधों से पारंपरिक रूप से हम जिन वस्तुओं को प्राप्त करते हैं, वे सब तो आवश्यक हैं ही, हम उनसे औषधीय तत्व भी प्राप्त करते हैं, जो चिकित्सा प्रणाली में काफी मददगार साबित होते हैं। भारतीय आयुर्वेद की चिकित्सा प्रणाली पूरी तरह से इसी पर निर्भर थी। साथ ही साथ अनुसंधान हेतु भी इन पौधों का उपयोग किया जाता है कि किस प्रकार के पौधे में कौन सा चिकित्सा से संबंधित गुण पाया जाता है जो आगे चलकर मानव जाति के कल्याण के लिए कार्य कर एके। आँवला, बेल, भूमि आँवला, ब्राह्मी, चिरैता, गुगुल, गुडमार, अशोक अश्वगंधा, गिलोई, लौंग, कालमेघ, लिली, पिपरमिंट, हिना, सदाबहार, भृंगराज, घृत कुमारी, गोखुर, बहाड़ा आदि ऐसे ही औषधीय पौधों की श्रेणी में आते हैं।

वन आधारित उद्योग:-

वन संपदाएँ विशाल व विस्तृत होती हैं। वे उद्योगों को कच्चा माल दिलाने की प्राथमिक स्रोते होते हैं। यहाँ से प्राप्त कच्चे मालों का उपयोग विभिन्न उद्योगों के लिए किया जाता है। इमारती लकड़ियाँ प्रमुखतया वनों से ही प्राप्त होती हैं और यह वनों पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण उद्योग के रूप में जाना जाता है। देवदार, चीड़, नीला पाइन, साइप्रस, सागौन, साल, सुन्दरी, शीशम जैसे वृक्षों की लकड़ियाँ मजबूत होती हैं, इसलिए यह गृह निर्माण एवं फर्नीचर बनाने के साथ-साथ रेलों के स्लीपर जहाज व लकड़ी की पेटियाँ बनाने आदि में किया जाता है। इसी प्रकार कागज उद्योग हेतु बाँस, बूदा छीजन व सबाई घास की आवश्यकता भी यहीं से पूरी होती है। रबड उद्योग विश्व भर में बड़े उद्योग के रूप में जाना जाता है। इस उद्योग में प्रयुक्त किए जाने वाले महत्त्वपूर्ण कच्चे माल प्राकृतिक एवं कृत्रिम रबड़ है। प्राकृतिक रबड़ की अधिकाधिक आपूर्ति वनों से ही की जाती है। रबड़ उत्पादों में वाहनों के टायर व ट्यूब, जूते, जलरोधी पदार्थ, संप्रेषण पेटी इत्यादि शामिल हैं। माचिस उद्योग के लिए तीलियाँ लकड़ियों से ही बनाई जाती है। श्वेत सनोवर, चीड़ आदि वृक्षों से माचिस की तीलियाँ बनाई जाती हैं। बेंत का उपयोग रस्सी, चटाई, थैली, टोकरी बनाई में तेंदू के पत्ते का प्रयोग बीडी बनाने में, लाख का प्रयोग औषधि बनाने, रेशम रंगने, चूडियों व पेंट बनाने में चीड़ के वृक्षों से पाया जाने वाला रेजिन स्याही व स्नेहक बनाने में गोंद का प्रयोग कागज छाँटने कैण्डी व पेन्ट बनाने में किया जाता है। इन सभी प्रक्रियाओं में अनेकों लोग को रोजगार के अवसर प्रदान होते हैं। वनों से कच्चे माल को निकालने से लेकर उसे उद्योग हेतु फैक्ट्रियों तक लाने तथा फैक्ट्रियों में काम करने वालों का एक बड़ा समूह है, जिसकी आजीविका इन्हीं वन के उत्पादों पर निर्भर रहती है।

भूमि आवरण:-

भूमि आवरण धरती की सतह पर मौजूद भौतिक पदार्थ हैं, जिसमें वृक्ष, घास, जल, गीली भूमि, वन, कृषि आदि आते हैं। भूमि आवरण ज्ञात करने के लिए प्रायः सैटेलाइट द्वारा ली गई तस्वीरों का प्रयोग करते हैं। उसके मध्यम से यह विश्लेषण किया जाता है कि भूमि के किस हिस्से में क्या है। सैटेलाइट द्वारा ली गई तस्वीरों से वर्तमान भूस्थितियों के अध्ययन में भी मदद मिलती है। तटीय क्षेत्रों में इस आँकड़े का प्रयोग कर प्राकृतिक घटनाओं के अध्ययन में सहायता ली जाती है। इन नक्शों के प्रयोग से पुराने व नए के तुलनात्मक अध्ययन की सहायता से शहरी विकास, समृद्ध तल में वृद्धि, बाढ़ व तूफान के प्रभाव आदि का अध्ययन किया जाता है।

भूमि उपयोग में बदलाव:-

यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें मानव हस्तक्षेप द्वारा भूमि के आर्थिक रूप से आयोग करने के कारण बदलाव आते हैं। जनसंख्या वृद्धि के कारण लगातार बनों की कटाई की जा रही है, जिससे हमारे पारिस्थितिकी तंत्र में बड़ा परिवर्तन आता है। इस कारण से ग्रीन हाउस गैस व कार्बन उत्सर्जन चक्र में भी परिवर्तन होता है। इस कारण से वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड आदि हानिकारक गैसों का संतुलन बिगड़ जाता है, जो दूरगामी परिणाम दर्शाते हैं एवं मानव हितों के विपरीत साबित होते हैं।

मृदा निम्नीकरण अवकर्षण:-

मृदा निम्नीकरण एक गंभीर पर्यावरणीय समस्या है। सामान्यतः कृषि, उद्योग और शहरीकरण के लिए मृदा का अवैज्ञानिक प्रबंधन और अनावश्यक इस्तेमाल के कारण मृदा गुणवत्ता में भौतिक, रासायनिक और जैविक रूप से गिरावट को ही मृदा निम्नीकरण कहा जाता है। यद्यपि मृदा निम्नीकरण प्राकृतिक रूप से भी होता है। वर्षा, बाढ, पवन द्वारा अपरदन, मानवीय एवं पादप अभिक्रियाएँ, अवज्ञानिक कृषि पद्धतियाँ, अतिचारण और शहरीकरण, उर्वरकों का अत्यधिक उपयोग, औद्योगिक एवं खनन गतिविधियाँ आदि इसके प्रमुख कारण हैं। इसके परिणामस्वरूप कृषि योग्य भूमि का हास होता है, जिससे कृषक प्रभावित होते हैं। कृषि संबंधी माल में कमी से खाद्यान्न आपूर्ति में कमी व महँगाई में वृद्धि होती है। सूखा, बाढ़ एवं शुष्कता भी जूदा निम्नीकरण की ही देन हैं। समाष्टिगत प्रयासों के साथ-साथ व्यष्टिगत प्रयासों के द्वारा इस चुनौती का सामना किया जा सकता है।

मृदा अपरदन एवं मरुस्थलीकरण:-

मृदा अपरदन का साधारण अर्थ मृदा के ऊपरी परम का क्षरण होता है जिसे मृदा अपरदन की संज्ञा दी जाती है। प्राकृतिक रूप से होने वाले मृदा अपरदन व मृदा निर्माण प्रक्रिया में एक प्रकार का संतुलन पाया जाता है, लेकिन मानवीय हस्तक्षेप से मृदा अपरदन की दर में वृद्धि होती है। अत्यधिक पशुचारण से मिट्टी का काव कम होता है, जिससे मिट्टी जल व पवन से तीव्र गति से कटती जाती है। वन, पानी के बहाव एवं वायु की गति को कम करते हैं, लेकिन लगातार निर्वनीकरण के कारण मृदा अपरदन की दर में वृद्धि होती है। जलीय एवं वायु द्वारा अपरदन मृदा अपरदन के प्राकृतिक कारणों में से एक हैं। हिमानी एवं भूस्खलन अपरदन भी मृदा अपरदन के ही कारणों में से एक हैं। बूँद अपरदन, परत अपरदन, रिल अपरदन, अवनलिका अपरदन एवं धारा चैनल अपरदन, मृदा अपरदन के ही प्रकार हैं। इसलिए मृदा अपरदन को पहचान कर उसको संरक्षित करने की जरूरत है। मेड़बंदी कर मृदा का समतलीकरण कर, समोच्च रेखीय कृषि व पत्थर के मेड़ व चट्टान बाँधकर मृदा अपरदन को रोकने का प्रयास किया जा सकता है। इन सबसे इतर अन्य जैविक उपाय भी हैं, जिन्हें अपनाकर मृदा अपरदन को कम किया जा सकता है। फसल चक्रों में एक फसल के साथ दूसरे का चक्रीकरण कर अपररन की दर को कम किया जा सकता है। वर्मी कम्पोस्ट एवं हरीव जैविक खाद मृदा अपरदन रोकने का एक बड़ा माध्यम है। पट्टीदार खेती करके जल प्रवाह को कम कर सकते हैं, जिससे मृदा अपरदन की दर काफी कम होगी। साथ ही साथ हमें अपने उत्तरदायित्व को भी समझना होना, तभी हम इससे बचने में सफल हो पाएँगे। ज्ञान के अभाव में कृषक आज भी अपने पशुओं को चारण के लिए खुला। छोड़ देते हैं। अतिचारण से भूमि का कसाव ढीला हो जाता है एवं मृदा अपरदन की दर बढ़ती जाती है, हमें इस मामले में जागरूक करने की भी आवश्यकता है। साथ-साथ हम वनों की लगातार कटाई कर उस भूमि का उपयोग अन्य कार्यों में कर रहे हैं, जिससे मृदा अपरदन में वृद्धि होती हैं, हमें ऐसा करने से बचना होगा।

मरुस्थलीकरण जमीन के अनुपजाऊ हो जाने की ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें जलवायु परिवर्तन तथा मानवीय गतिविधियों समेत अन्य कई कारणों से शुष्क, अर्द्ध शुष्क और निर्जल अर्ध नम इलाकों की जमीन रेगिस्तान में बदल जाती इससे जमीन की उत्पादन में कमी और हास होता है। यदि सामान्य शब्दों में कहा जाए तो मरुस्थलीकरण क्षरण का वह प्रकार है, जब शुष्क भूमि क्षेत्र निरंतर बंजर होता जाता है और नम भूमि की कमी हो जाती है, साथ ही साथ वन्य जीव व वनस्पतियाँ भी खत्म होते जाते हैं। इसकी कई वजहें हैं, जिसमें जलवायु परिवर्तन एवं इंसानी गतिविधियाँ प्रमुख कारक हैं।

निर्वनीकरण के कारण:-

बड़े पैमाने पर वनों की कटाई को निर्वनीकरण कहा जाता है। इसके पीछे सन्निहित प्रमुख कारण अधिकतर मानवीय ही हैं। वनों में आग लगने से बड़ी मात्रा में जंगलों का भाग नष्ट होता है इसके अतिरिक्त प्राकृतिक कारण सामान्यतया नहीं दिखाई पड़ते। परंतु लगातार बढ़ती आबादी ने उसकी जरूरतों को पूरा करने के लिए वनों की लगातार कटाई की। वनों की कटाई एक तो वनोत्पाद प्राप्त करने के लिए की गई, दूसरी कृषि योग्य भूमि की अधिक आवश्यकता ने भी वनों को काट उसे कृषि भूमि में तब्दील करने पर विवश किया। निर्वनीकरण से प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता है साथ ही वन जो मृदा अपरदन को रोकने के बड़े कारक है, उसमें हास होने से मृदा अपरदन की दर में वृद्धि होती है जिससे अन्य प्रकार की समस्याऐं जन्म लेती हैं।

खनन एवं बाँध निर्माण का पर्यावरण, वनों, जैव विविधता एवं जनजातियों पर प्रभाव:-

अवैध खनन का मामला पिछले कुछ दिनों में काफी चर्चित रहा है एवं एन.जी.टी. ने इस पर काफी सख्त रुख अपनाया है। नदियों से लगातार रेत खनन से नदियों का तंत्र पूरी तरह प्रभावित होता है तथा इससे नदियों की खाद्य श्रृंखला भी नष्ट होती है। रेत के खनन में इस्तेमाल होने वाले सैंड पंपों के कारण नदी की जैव विविधता पर भी असर पड़ता है। रेत खनन से नदियों का प्रवाह पथ प्रभावित होता है। इससे भू कटाय बढ़ने से भूस्खलन जैसी आपदाओं की आवृत्ति में वृद्धि हो सकती है। नदियों में रेत खनन से निकटवर्ती क्षेत्रों का भू-जल स्तर बुरी तरह प्रभावित होता है। साथ ही भू-जल प्रदूषित होता है। प्राकृतिक चक्र में पानी को शुद्ध करने में रेत की बड़ी भूमिका होती है। रेत खनन के कारण नदियों की स्वतः जल साफ करने की क्षमता पर बुरा असर पड़ता है।

सामान्य अवधारणा में यह समझ विकसित है कि नदियों पर बाँध बनाना विकास का सूचक है, परंतु इस विषय को व्यापकता में समझने में इसका दूसरा पहलू भी मारे समक्ष आता है। बाँध बनाकर नदी के जल को एक जलाशय में एकत्र करके उससे जल विद्युत बनाई जाती है और नहरें बनाकर सिंचाई के लिए जल उपलब्ध कराया जाता है। इस दृष्टि से तो यह बहुत प्रगतिशील कदम मालूम होता है, परंतु इसके अपने कुछ नुकसान भी हैं। बाँध निर्माण से एक तालाब बन जाता है, जिसमें पीछे से आने वाली बालू तालाब में जमा हो जाती है, जिससे आगे नदी का प्रवाह तंत्र प्रभावित होता है। बहाव बंद होने से पानी की ताजगी खत्म होने लगती है व पानी सड़ने लगता है। बाँध के जलाशयों में पत्ते, टहनियाँ और जानवरों की लाशें नीचे जमी हैं और सड़ने लगती है। तालाब के नीचे इन्हें ऑक्सीजन नहीं मिलती है जिस कारण मीर्थेन गैस बनती है जो ग्लोबल वार्मिंग का कारक है। तालाब का दायरा बढ़ने से आस-पास के वन क्षेत्र इसमें डूबने लगते हैं, जिससे चारा आदि जो प्राप्त होता था उसका नुकसान होता है। बाँधों में तालाब से पानी रुकने के कारण सडन से मछलियों की कई तरह की प्रजातियाँ समाप्त होने लगती हैं। इस प्रकार यह जै विविधता के लिए भी एक संकट की स्थिति पैदा करता है। बाँधों द्वारा सुरंग बनाने के क्रम में पहाड़ियों में ब्लास्टिंग की जाती है, जो पहाड़ियों को अस्थिर कर देता है। इस कारण से भूस्खलन की घटनाएँ लगातार बढ़ने लगती है। आस-पास के क्षेत्रों में रहने वाले लोग पयान के लिए मजबूर होते हैं। वनों की लगातार कटाई से जिस प्रकार आदिवासी व जनजातीय समूहों का लगातार पयान होता है, उससे कई बार सामाजिक संकट भी उत्पन्न होने लगते हैं। हमें उन जनजातीय समूहों के हितों का भी ख्याल करना चाहिए। खनन एवं बाँध से कुछ लाभ अवश्य हो सकते हैं, लेकिन हमें यह देखना आवश्यक है कि हम यह सब किसकी कीम पर हासिल हो रहे हैं। हमें विकास जैव विविधता, पर्यावरण एवं आदिवासी जनजातीय समूह के हितों को नजरअंदाज करके नहीं अपितु एक सम्यक् व संतुलित दृष्टि अपनाकर ही करना चाहिए, ताकि विकास किसी एक वर्ग के लिए न होकर समूचे समाज के लिए हो।

★ जल संसाधन

प्राकृतिक एवं कृत्रिम संसाधन के रूप में:- पृथ्वी के लगभग 71 प्रतिशत भू-भाग पर जल का विस्तार है, जिसके अंतर्गत महासागर, सागर झीलें, नदियाँ, ग्लेशियर इत्यादि सम्मिलित हैं। यह मनुष्यों, जीव-जन्तुओं, पादपों की जीवनोपयोगी एवं मूलभूत आवश्यकता का एक प्रमुख प्राकृतिक संसाधन तथा बहुमूल्य राष्ट्रीय संपदा है। जल संसाधनों का कुशलतम उपयोग तथा अधिकतम विकास अत्यंत महत्वपूर्ण हैं जल संसाधन के दो प्रमुख स्रोत हैं- धरातलीय जल एवं भूमिगत जल धरातलीय जल के प्रमुख स्रोत नदियों, झीलें, जलाशय इत्यादि हैं। मैदानी भागों में पाई जाने वाली नदियाँ सिंचाई व पेयजल के लिए विशेष रूप से उपयोगी हैं। प्राप्त आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार देश का लगभग 50% से ज्यादा सिंचित क्षेत्र उत्तर प्रदेश, पंजाब और तमिलनाडु के अंतर्गत आता है। हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों तथा प्रायद्वीपीय पठार से प्रवाहित होने वाली नदियाँ विशेष रूप से जलविद्युत उत्पादन के लिए महत्त्वपूर्ण है। इन नदियों पर विभिन्न बहुउद्देशीय परियोजनाएँ चलाई जा रही हैं। भूमिगत जल से अभिप्राय है वह पानी जो चट्टानों और मिट्टी के माध्यम से रिसकर, धरातल की निचली सतहों पर भंडारित होता रहता है। जिन चट्टानों में यह जल संगृहीत होता है उन्हें जलीय चट्टानी परत कहते हैं। देश के विभिन्न भू-भागों में भौम जल का विकास समान रूप से नहीं हुआ है। कुछ क्षेत्रों में भौम जल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं तो वहीं कुछ क्षेत्रों में इनकी कमी है। भाम जल के विभिन्न कार्यों में अति दोहन से भी इसमें कमी आई है। भूमिगत जल संसाधन अनेक कारकों से प्रभावित होते हैं, जिसमें जलवायुवीय दशाएँ उच्चावच, भूगार्भिक संरचना तथा जलीय दशाएँ सम्मिलित हैं। इन विशेषताओं के आधार पर भारत को मुख्तः 8 भूमिगत जल प्रदेशों में बाँटा गया है, जहाँ जल की उपस्थिति विभिन्न मात्राओं में है। जल संसाधन का भूमिगत रूप से असमान वितरण क्षेत्रों में समस्याएँ पैदा करता है। जहाँ जल की पर्याप्त उपलब्धता है, वहाँ तो कोई दिक्कत नहीं है परन्तु जहाँ यह कम है, वहाँ पीने के पानी तक की समस्या है। इसलिए प्राकृतिक तौर पर हमें जो जल मिला हुआ है, उसका अंधाधुंध दोहन करने से बचना होगा अथवा आने वाले समय में जल की कमी बहुत सी भीषड़ समस्याएं उत्पन्न करने वाली है। प्राकृतिक रूप से जो जल हमारे पास मौजूद हैं, हम इससे इतर बाँध या तालाव तथा नहर बनाकर जल का उपयोग अपने अनुसार, अपने लाभ के लिए करते हैं।

जल का उपयोग:-

जल हमारे जीवन का अत्यंत महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, जिसके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। मानव जीवन के लिए जल का सबसे प्राथमिक उपयोग पीने के लिए किया जाता है, लेकिन इससे इतर हमारी रोजमर्रा की अनेक जरूरतों को पूरा करने में पानी की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ये जरूरी है, लेकिन जल का बड़े पैमाने पर उपयोग सिंचाई के लिए किया जाता है। खेतों में फसलों को कृत्रिम रूप से जल देना सिंचाई कहलाता है। भारत की कृषि का ज्यादातर हिस्सा मानसूनी वर्षा पर निर्भर है। यही कारण है कि जब मानसून ठीक रहता है तो फसलों का उत्पादन बढ़ जाता है, जबकि मानसून के खराब होने पर फसलें या तो नष्ट हो जाती हैं या उनका उत्पादन अपेक्षा के अनुरूप नहीं हो पाता। भारत की उष्णकटिबंधीय मानसूनी जलवायु वर्षा की असमानता एवं अनिश्चितता, वर्षा जल का तेजी से बहकर सागरों में चले जाना, जल का तीव्र वाष्पीकरण, फसलों की बहुलता एवं विशिष्टता तथा मिट्टी की प्रकृति आदि कारणों से सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। भारत में सिंचाई योजना को सामान्यतः तीन भागों में बाँटा गया है वृहद सिंचाई योजना, मध्यम सिंचाई योजना एवं लघु सिंचाई योजना इन योजनाओं में सिंचाई हेतु क्रमश: बड़ी नहरों तथा बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं, छोटी नहरों एवं कुओं, नलकूपों, तालाबों तथा दिए सिंचाई आदि को शामिल किया जाता है। सिंचाई के बाद जल का वृहत्तर उपयोग बहुउद्देशीय परियोजनाओं में किया जाता है। बहुउद्देशीय परियोजनाओं को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 'आधुनिक भारत का मंदिर कहा था बहुउद्देशीय परियोजनाओं का मकसद सिंचाई का प्रबंध, जलविद्युत उत्पादन, बाढ़ नियंत्रण, पेयजल आपूर्ति नौकायन, मत्स्य पालन, वन्यजीव संरक्षण, मृदा संरक्षण एवं पर्यटन आदि होता है। दामोदर घाटी परियोजना, भाखड़ा नांगल परियोजना, हीराकुण्ड परियोजना, टिहरी बांध परियोजना व नर्मदा घाटी परियोजना आदि प्रमुख बहुउद्देशीय परियोजनाएँ हैं। इनकी सहायता से जल संसाधन का व्यापक उपयोग कर अधिकाधिक लाभ प्राप्त किया जाता है।

भूमिगत एवं घरातलीय जल संसाधन का अत्यधिक दोहन:-

कुओं एवं नलकूप से सिंचाई के लिए अधिक जल निकालने के कारण गर्मी के मौसम में भूमिगत जल का स्तर अत्याधिक नीचे चला जाता है, जिसके कारण पेयजल की उपलब्धता में समस्या उत्पन्न हो जाता है। जल मैदानी भागों में सामान्यतः बड़ी आसानी से उपलब्ध रहा है अतः लोगों को इसकी महत्ता समझ नहीं आई। उन्होंने जल का अंधाधुंध दोहन करना प्रारंभ किया। परिणामस्वरूप भूजल स्तर लगातार नीचे चला गया। हमने आज भी इसकी पूर्ति का कोई सार्थक प्रयास नहीं किया है। आज पानी की कमी के चलते भूजल का अनियंत्रित दोहन होने से स्थिति और भी भयावह हो गई है। भारत में गंगोत्री ग्लेशियर अपने मूल स्थान से 23 मीटर पीछे हट चुका है, जिसके अगले 20-30 वर्षों में खत्म हो जाने की आशंका जताई जा रही है। इससे भारत, चीन व नेपाल सहित 7 नदियों का अस्तित्व संकट में आ सकता है। इसके लिए बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग को रोकना भी आवश्यक है। हमें उतना ही भूजल निकालना चाहिए, जितना पुनर्भरण किया जा सके। भूजल के अत्यधिक दोहन का दूसरा दुष्परिणाम यह है कि धरती के गर्भ में पड़े रसायन ऊपर आ जाते हैं। धरती के निचली सतह से ऊपर आने पर ये रसायन पानी के साथ मिलकर लोगों द्वारा गृहण किए जाते हैं, जिससे रोगों में वृद्धि होती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि 2050 तक 30 फीसदी प्रति व्यक्ति पानी की कमी होगी। वर्तमान में उपलब्ध प्रति व्यक्ति 1140 क्यूसेक पानी को सापेक्ष तब केवल प्रति व्यक्ति यह मात्रा मात्र 1000 ही रह जाएगी। इसलिए इस गंभीर विषय पर हमें अभी से सोचना व सचेत होना होगा।

बाद:-

बाद एक ऐसी प्राकृतिक आपदा है जिसमें अत्यधिक वर्षा होने से नदियों की अपवाह क्षमता अत्यधिक हो जाती है तथा वह अपने तटबंधों को पार कर आस-पास के क्षेत्रों को जलमग्न कर देती है। मानसूनी वर्षा प्राय: तेज बौछारों के साथ होती है जिससे देश में बाढ़ आती है। अंतर्राष्ट्रीय सिंचाई जल प्रवाह आयोग के अनुसार बाढ़ मूलतः नदी-नालों में जल प्रवाह का वह आधिक्य है जो सामान्य स्थिति को छोड़कर प्राकृतिक किनारों या मानव निर्मित किनारों के ऊपर से बहता है, जिसके कारण निचले क्षेत्र पानी से घिर जाते हैं। जल का स्तर बढ़ना तथा आबादी व कृषि भूमि का डूब जाना बाढ़ के प्रभाव की श्रेणी में आता है। हालांकि बाद विश्व में विस्तृत क्षेत्र में आती है तथा काफी तबाही लाती है, परंतु दक्षिण, दक्षिण-पूर्व और पूर्व, पूर्व एशिया के देशों विशेषकर चीन, भारत और बांग्लादेश में इसकी बारंबारता से होने वाले नुकसान अधिक हैं। भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, पंजाब, राजस्थान पश्चिम बंगाल, ओड़िशा, गुजरात, केरल, आंध्र, प्रदेश, हरियाणा, तमिलनाडु आदि राज्य बाढ़ प्रवण क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। भारत में बाढ़ प्रवण क्षेत्रों को मुख्यतः 3 भागों- गंगा बेसिन, ब्रह्मपुत्र एवं बराक बेसिन तथा मध्य भारत एवं प्रायद्वीपीय भारत की नदियों के बेसिन में बाँट कर देखा जाता है। बाढ़ आने के दो कारण हो सकते हैं प्राकृतिक कारण एवं मानवकृत कारण बाढ़ आने के कुछ प्रमुख कारण अग्रलिखित हैं- वनों की कटाई, नदियों में अवसादों की मात्रा में बढ़ोतरी से गहराई में कमी, नदी नालों के प्राकृतिक किनारों से ऊपर जल प्रवाह की स्थिति, सहायक नदियों का जल सामान्य से अधिक मात्रा में मुख्य नदी में मिलने से नदी के क्षेत्र में भूकंप एवं भूस्खलन से कृत्रिम रूप से नदी के प्रवाह को रोकने से सामान्य से अधिक वर्षा बाँधों का टूटना आदि। स्वतंत्रता के पश्चात् 1954 में आई भीषण बाढ़ के उपरांत 1954 में ही राष्ट्रीय बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम लागू किया गया। इस कार्यक्रम के अंतर्गत तात्कालिक, अल्पकालिक एवं दीर्घकालिक योजनाओं पर ध्यान दिया गया। 1976 में राष्ट्रीय बाढ़ आयोग की स्थापना की गई। वर्तमान में देश में 199 केंद्रों से बाढ़ के पूर्वानुमान की सूचनाएँ जारी की जाती हैं।

सूखा:-

सूखा ऐसी स्थिति को कहा जाता है, जब लंबे समय तक कम वर्षा, अत्यधिक वाष्पीकरण और जलाशयों तथा भूमिगत जल के अत्याधिक प्रयोग से भूतल पर जल की कमी हो जाए। सामान्यतः अनिश्चित व कम वर्षा के क्षेत्रों में वर्षा की विचलनशीलता अधिक होती है और यही क्षेत्र सूखा या सूखाग्रस्त क्षेत्रों के अंतर्गत आते हैं। भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 19% व कुल जनसंख्या का 12% भाग लगभग प्रत्येक वर्ष सूखे की चपेट में रहता है। भारत जैसे देश में एक ही वर्ष में बाढ़ व सूखा जैसी स्थितियाँ एक साथ उत्पन्न हो सकती हैं। सूखे की बारंवारता एवं तीव्रता के कई वर्षों के अध्ययन के पश्चात् विभिन्न भौगोलिक अध्ययनों में इसे अत्यधिक सूखा प्रवण क्षेत्र अधिक सूखा प्रवण क्षेत्र एवं मध्यम सूखा प्रवण क्षेत्र में विभाजित किया गया है। सूखे की दशा एवं स्थिति को कई दृष्टिकोण के आधार पर विभक्त किया गया है-

(i) मौसम विज्ञान संबंधी सूखी- जब किसी बड़े क्षेत्र में अपेक्षा से 75% कम वर्षा हो ।

(ii) कृषि सूखा या भूमि आर्द्रता सूखा- मिट्टी में आर्द्रता की कमी के कारण फसलों का मुरझा जाना।

(iii) जलविज्ञान संबंधी सूखा- यह स्थिति तब पैदा होती है, जब विभिन्न जल संग्रहण, जलाशय, झीलों आदि का स्तर वृष्टि की जाने वाली जलापूर्ति के बाद भी नीचे गिर जाए।

(iv) पारिस्थितिकी सूखा- प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र में जल की कमी से उत्पादकता में कमी होती है। परिणामस्वरूप पारिस्थितिकी तंत्र में तनाव आता है तथा यह क्षतिग्रस्त होता है।

सूबे की समस्या से निपटने के लिए 1973-74 में सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम की शुरुआत गई। मरुस्थल के नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिए 1977-78 में मरुस्थल विकास कार्यक्रम प्रारंभ किया गया।

अंतर्राष्ट्रीय एवं अंतर्राज्यीय जल विवाद:- जो नदी दो या इससे अधिक देशों से होकर प्रवाहित होती है उसे अंतर्राष्ट्रीय नदी कहते हैं। भारत की प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय नदियाँ सिंध, झेलम चिनाब, रावी, सतलुज, काली, गण्डक, कोसी, तीस्ता, ब्रह्मपुत्र व गंगा इत्यादि हैं। इनके जल पर भारत एवं संबंधी पड़ोसी देशों का अधिकार होता है। इस संदर्भ में सिंधु नदी के जल के बंटवारे को लेकर भारत-पाकिस्तान के बीच 1960 में एक सिंघ-समझौता हुआ। आज भारत की अंतर्राष्ट्रीय नदियों के प्रमुख विवादास्पद बिंदु निम्नलिखित हैं- भारत-बांग्लादेश के बीच गंगा-जलविवाद (फरक्का बैरेज विवाद), भारत-पाकिस्तान के मध्य सिंधु नदी विवाद, भारत-पाकिस्तान के मध्य झेलम नदी पर तुलबुल नौकायन परियोजना, चिनाब नदी की बगलिहार तथा झेलम नदी की किशनगंगा विवाद, भारत-नेपाल के बीच महाकाली विवाद जिसके निस्तारण एवं विकास हेतु दोनों देशों के बीच 1996 में संधि हुआ।

भारत में अधिकांश नदियों दो राज्यों से होकर बहती हैं, जिन्हें अंतर्राज्यीय नदी कहते हैं। सिंचाई हेतु इन नदियों के जल के बंटवारे हेतु दोनों राज्यों के मध्य विवाद उत्पन्न होता है। भारत में उल्लेखनीय अंतर्राज्यी नदी विवाद निम्नलिखित हैं-

(i) यमुना जल विवाद- उत्तर प्रदेश, दिल्ली व हरियाणा के मध्य

(ii) कृष्णा नदी जल विवाद- आंध्र प्रदेश, कर्नाटक व महाराष्ट्र के मध्य

(iii) कावेरी जल विवाद- कर्नाटक, तमिलनाडु व केरल के मध्य

(iv) सतलुज-यमुना लिंक नहर विवाद- पंजाब तथा हरियाणा के मध्य अंतरर्राज्यीय जल विवादों के निपटान हेतु संसद द्वारा इस संबंध में 1956 में दो अधिनियम पारित किए गए-

नदी बोर्ड अधिनियम 1956

अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम, 195

  • ऊर्जा संसाधन

ऊर्जा संसाधन पृथ्वी पर सभी उपलब्ध संसाधनों को उपलब्ध मानते हुए ऊर्जा उत्पादन की अनुमानित अधिकतम क्षमता है। सूर्य पृथ्वी पर ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है। सौर ऊर्जा ही प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पृथ्वी और उस पर रहने वाले जीवों को अपनी कार्यों और क्रियाओं को संपादित करने में सहायता करती है। किसी भी देश में ऊर्जा का विकास उस देश के औद्योगिक विकास का सूचक होता है। अत: उच्च ऊर्जा उत्पादन और उसकी उचित खपत को सुनिश्चित कर देश में आर्थिक पिछड़ेपन, कुपोषण एवं अशिक्षा आदि समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। ऊर्जा संसाधन का सामान्य अर्थ है कि जिनका उपयोग ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए किया जाता है, जैसे- कोयला, प्राकृतिक गैस व पेट्रोलियम इत्यादि ।

ऊर्जा स्रोतों का वर्गीकरण

(1) परंपरागत प्रयोग के आधार पर:-

(i) परंपरागत स्रोत:- ऊर्जा प्राप्ति के ऐसे क्षेत्र जिनका उपयोग मानव पारंपरिक तौर पर आरंभ से ही करता चला आ रहा है। जैसे कोयला, पेट्रोलियम आदि।

(ii) गैर पारंपरिक ऊर्जा स्रोत:- ऊर्जा के ऐसे सोत जिनका उपयोग पारंपरिक रूप से नहीं होता था। जैसे- सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, भू-तापीय ऊर्जा, बायोगैस, शेल गैस आदि।

(2) उत्पत्ति के आधार पर:-

इसके आधार पर ऊर्जा स्रोतों के उत्पत्ति के अनुसार इनका निर्धारण किया जाता है। इसमें से कुछ स्रोत तो काफी नए हैं जिनका विकास तकनीकी के काफी विकसित हो जाने के बाद उसकी मदद से किया जा रहा है और आज से सब मानवहित के लिए लाभकारी साबित हो रहे हैं। पहले हमारे पास तकनीकी न होने के कारण हम बहुत से संसाधनों का जो हमारे पास प्राकृतिक रूप में मौजूद थे, उनका सदुपयोग नहीं कर पाते थे. परंतु विज्ञान व प्रौद्योगिी के विकास ने इसे संभव कर दिखाया है। इसके अंतर्गत भी कई प्रकार के ऊर्जा के स्रोत आते हैं जिसमें कुछ का प्रयोग हम कर रहे थे एवं कुछ को विकसित करने में हम अभी लगे हुए हैं। इनमें प्रमुख हैं- जीवाश्म परमाणु ऊर्जा, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जैव ऊर्जा, हाइड्रो पावर, ज्वारीय ऊर्जा, भू-तापीय ऊर्जा, तरंग ऊर्जा, समुद्र तापीय ऊर्जा आदि।

(3) सतत उपलब्धता के आधार पर:-

ऊर्जा के स्रोत एक नहीं, अपितु कई प्रकार के हैं। ऊर्जा के स्रोत भी हमेशा रहने वाले नहीं है। जब हम किसी चीज का बहुत उपयोग या दोहन करते हैं तो वह खत्म होने लगती है। ऊर्जा के स्रोतों के साथ भी ऐसी ही स्थिति है। इसलिए इसे भी दो प्रकार से देखा जा सकता है।

(i) नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत:- जब किसी ऊर्जा स्रोत का उपयोग पुनः या सतत रूप से किया जा सकता हो तो ऐसे स्रोतों से प्राप्त ऊर्जा को नवीकरणीय ऊर्जा' कहते हैं। जैसे- सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, ज्वारीय एवं भूतापीय ऊर्जा इस धरती पर सूर्य की रोशनी या वायु का चलना अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है, यह कभी कम नहीं होने वाली है. इसलिए इसका लगातार उपयोग किया जा सकता है। ऊर्जा क्षेत्र की संभावनाओं को देखते हुए इस क्षेत्र में हमें अधिक शोध व निवेश करने की जरूरत है, क्योंकि यह ऐसा क्षेत्र है, जहाँ से हमें लगातार ऊर्जा प्राप्त होती रहेगी। यह हम पर निर्भर करता है कि हम इसका कितना उपयोग कर पा रहे हैं। विकसित देश लगातार इस क्षेत्र में निवेश कर रहे हैं। भारत भी सौर ऊर्जा से विद्युत उत्पादन के लगातार नए कीर्तिमान गढ़ रहा है। अन्य नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों पर भी अधिक ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।

(ii) अनवीकरणीय ऊर्जा स्रोत:- जब किसी ऊर्जा स्रोत का उपयोग दुबारा न किया जा सके तथा उसकी उपलब्धता सीमित हो तो ऐसे स्रोतों से प्राप्त ऊर्जा को अनवीकरणीय ऊर्जा कहते हैं। जैसे- कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, परमाणु ऊर्जा आदि। भारत में विद्युत ऊर्जा के उत्पादन के लिए कोयले पर निर्भरता आज भी 59% तक हैं। लेकिर एक निश्चित उपलब्धता एवं समय के बाद कोयला के स्रोत खत्म हो जाएँगे। इसी तरह अन्य पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस भी समाप्त हो जाने वाले हैं। इसीलिए ऊर्जा क्षेत्र में अब निवेश को परिवर्तित करने की आवश्यकता है। हम जो निवेश अनवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों के लिए कर रहे हैं, वह अब बदलकर नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों की ओर करना होगा। इसी से एक दूरदर्शी व सकारात्मक परिणाम निकल सकता है। नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत, अनवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से कम प्रदूषण फैलाने वाले व अपेक्षाकृत स्वच्छ है। भविष्य की ऊर्जा आवश्यकताएँ इन्हीं स्रोतों से ही पूरी होने वाली हैं।

बढ़ती ऊर्जा आवश्यकताएँ:-

ऊर्जा आर्थिक विकास तथा जीवन का स्तर बेहतर बनाने के लिए एक अनिवार्य संसाधन है। इसकी जरूरत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1947 में प्रतिस्थापित विद्युत क्षमता 1400 मेगावट थी, जो 31 जनवरी, 2017 के अंत तक बढ़कर 314642.32 मेगावॉट हो गई। इसमें तापीय ऊर्जा का योगदान 68.22%, जल विद्युत का योगदान 14.04%. नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का योगदान 15.89% तथा परमाणु ऊर्जा की हिस्सेदारी 1.83% थी। सूचना, संचार एवं तकनीकी के बढ़ते युग में हमारा पूरा जीवन ऊर्जा पर ही निर्भर हो गया है। हमें कदम दर कदम इसकी आवश्यकता पड़ती है। भारत के विद्युत मंत्रालय के मुताबिक वर्ष 2014 15 में भारत में विद्युत की प्रतिव्यक्ति खपत 1010 किलोवॉट घटा प्रतिवर्ष थी, जो वर्ष 2015-16 में बढ़कर 1075 किलोवॉट घंटा हो गई। वर्तमान वैश्विक औसत खत 2730 किलोवॉट घंटा प्रतिवर्ष है। जाहिर है कि भारत अभी विकासशील राष्ट्र है। विकसित होने के क्रम में यह भी अब अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं में इजाफा करेगा जिससे इन आँकड़ों में वृद्धि होगी। फलस्वरूप नवीकरणीय व अनवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों से ऊर्जा प्राप्त करने की होड़ और अधिक बढ़ती जाएगी।

कोयला:-

कोयला मुख्यतः वनस्पतियों का कार्बनीकृत अवशेष होता है। इसका उपयोग ऊर्जा प्राप्ति के लिए किया जाता है। वैज्ञानिक रूप से समझें तो यह सामान्यतः हाइड्रोकार्बन से निर्मित एक ठोस संस्तरित शैल होता है। यह ज्वलनशील खजिन जैव पदार्थों से मिलकर बना होता है। इन जीवांशों में कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, फास्फोरस एवं सल्फर इत्यादि पाया जाता है। कोयले का प्रयोग विद्युत उत्पादन के साथ-साथ लौह, जिंक जैसे खनिजों निष्कर्षण में धातुकर्म कार्य के लिए किया जाता है। कोयला को उद्योगों की जननी की संज्ञा दी जाती है। भारत का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं बड़ा कोयला क्षेत्र ऊपरी दामोदर घाटी में स्थित है। इस क्षेत्र से देश का लगभग 35% कोयला प्राप्त होता है। भू-गर्भ में लाखों-करोड़ों वर्षों से दबे वनस्पतियों पर ताप एवं दाव' के कारण धीरे-धीरे कोयले का विकास होता है। इसी आधार पर विकास क्रम को ध्यान रखते हुए कोयले को 4 प्रकारों में विभक्त किया गया है-

(i) पीट कोयला- कोयले के विकास क्रम की प्रथम अवस्थ, लकड़ी से मिलता-जुलता, कम गुणवत्ता वाला, कार्बन का अंश 40% से कम।

(ii) लिग्नाइट कोयला- निम्न गुणवत्ता वाला, भूरे रंग का होने के कारण भूरा कोयला भी कहते हैं, कार्बन का अंश 40-55% तक।

(ii) बिटुमिनस कोयला- मध्यम श्रेणी का कोयला, कार्बन की मात्रा 55-80% भारत में पाए जाने वाले कुल कोयले का 80% भाग यही है।

(iv) एंथेसाइट कोयला- सर्वोत्तम श्रेणी का कोयला कार्बन की मात्रा 80-90% तक।

पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस:-

पेट्रोलियम धरातल के नीचे स्थित अवसादी परतों के बीच पाया जाने वाला संतृप्त हाइड्रोकार्बनों का काले भूरे रंग का तैलीय द्रव है, जिसका प्रयोग वर्तमान में ईंधन के रूप में किया जाता है। पेट्रोलियम को जीवाश्म ईंधन भी कहते हैं, क्योंकि इनका निर्माण धरातल के नीचे उच्च ताप व दाब की परिस्थितियों में मृत जीव-जन्तुओं व वनस्पतियों के जीवाश्मों के रासायनिक रूपांतरण से होती है। वर्तमान विश्व में इसे इसके ऊर्जा स्रोत के रूप में महत्त्व के कारण 'काला सोना' भी कहा जाता है। पेट्रोलियम की प्राप्ति धरातल के नीचे स्थित अवसादी चट्टानों के ऊपर कुएँ खोदकर की जाती है। इससे प्राप्त होने वाले पेट्रोलियम के रूप को कच्चा तेल' कहते हैं। कच्चे तेल को रिफाइनरियों में प्रसंस्कृत किया जाता है, जिससे पेट्रोल मिट्टी के तेल, विभिन्न हाइड्रोकार्बन, ईथर व प्राकृतिक गैस प्राप्त होते हैं।

कुओ से जब पेट्रोलियम प्राप्त किया जाता है तो उसमें सबसे ऊपर प्राकृतिक गैस पाई जाती है, मध्य में खनिज तेल व नीचे की ओर जल रहता है। खनिज तेल में 90-95% हाइड्रोकार्बन व 5 10% अन्य तत्त्व रहते हैं। हाइड्रोकार्बन में सामान्यतः 70% तेल व 30% प्राकृतिक गैस पाई जाती है। प्राकृतिक गैस कई गैसों का मिश्रण है, जिसमें मुख्यतः मिथेन होती है तथा 0-20% तक अन्य उच्च हाइड्रोकार्बन जैसे इथेन आदि होती है। इसका उपयोग खाद बनाने, विद्युत बनाने, नगर गैस वितरण, घरेलू गैस के रूप में, वाहनों के ईंधन के रूप में व कारखानों के ईंधन के रूप में होता है। प्राकृतिक गैस के भंडारण की दृष्टि से असम, गुजरात व आंध्र प्रदेश व उत्पादन की दृष्टि से क्रमशः असम, गुजरात व राजस्थान का स्थान आता है। भारत की पहली तेलशोधन इकाई असम के डिगबोई में 1901 में स्थापित की गई थी। अब इस क्षेत्र में भारत का प्रदर्शन अच्छा है। प्राकृतिक गैस को ही लगभग 200-250 किग्रा./ सेमी. के दबाव पर संपीड़ित कर सीएनजी बनाया जाता है, जिसे स्वच्छ ईंधन या हरित ईंधन के रूप में जाना जाता है।

बायोमास या जैव ऊर्जा:-

जैव ऊर्जा ग्रामीण ऊर्जा संकट को दूर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। यह ऊर्जा का एक स्वच्छ तथा सस्ता स्रोत है जो सफाई तथा स्वास्थ्य में सुधार करता है, महिलाओं के कामों की नीरसता कम करता है तथा कृषि के लिए जैविक खाद तैयार करता है। इसे पशुओं के गोबर मानव-मल, रसोई के अपशिष्ट, नगरीय अपशिष्ट तथा फसलों के अवशेष पदार्थों से प्राप्त किया जा सकता है। भारत में प्रतिवर्ष लगभग 1000 मिलियन टन फसल अवशेष तथा 300-400 मिलियन टन पशुओं का मल उपलब्ध हैं। इन पदार्थों से 70,000 मिलियन घनमीटर मीथेन गैस प्राप्त हो सकती है, जो 160 मिलियन टन जलाऊ लकड़ी के समतुल्य है। इससे देश के 50% ग्रामीण घरेलू ईंधन की आवश्यकता पूरी हो सकती है। इसके अतिरिक्त इससे 6 मिलियन टन नाइट्रोजन, 25 मिलियन टन फास्फेट, 4.5 मिलियन टन पोटेशियम तथा 50 मिलियन टन कम्पोस्ट खाद भी प्राप्त होगी। जेट्रोफा (रतनजोत) की सहायता से बायोडीजल का निर्माण किया जाता है। देश का पहला बायोडीजल संयंत्र आंध्र प्रदेश के काकीनाडा में लगाया गया है। पंजाब के जलखेरी में धान की भूसी से विद्युत तथा दिल्ली के ओखला व तिमारपुर में शहरी कचरे से विद्युत बनाने के संयंत्र लगाए गए हैं।

पर्यावरण से जुड़े हुए कुछ प्रमुख मुददे-

राष्ट्रीय सोलर मिशन- भारत सरकार ने राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन की शुरुआत की है जिसे जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय सौर मिशन भी कहा जाता है। देश में बढ़ती ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति तथा जीवाश्म ऊर्जा पर बढ़ती निर्भरता को कम करने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 11 जनवरी, 2010 को जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय मिशन का शुभारंभ किया। इस मिशन के तहत 13वीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक 20,000 मेगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य निर्धारित किया गया. है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए देश में सिलिकान वैली के तर्ज पर अनेक सोलर वैलियाँ का निर्माण किया जाएगा। ये सोलर वैली ऐसे औद्योगिक क्षेत्र होंगे, जहाँ बिजली के बजाय सौर ऊर्जा का इस्तेमाल किया जाएगा। इस मिशन का उद्देश्य भारत को सौर ऊर्जा के क्षेत्र में एक अग्रणी देश बनाता है। इस मिशन में 3 अवस्थाओं वाला एक प्लान बनाया गया है, जो 11वीं पंचवर्षीय योजना से आरंभ होकर 13वीं पंचवर्षीय योजना (2017-22) तक चलेगी। इस मिशन के प्रमुख लक्ष्य है- वर्ष 2022 तक 1 लाख मेगावाट सौर ऊर्जा की प्राप्ति के लिए फ्रेमवर्क तैयार करना, स्वदेशी तकनीक से सौर उष्मा के उत्पादन तथा बाजार के लिए आदर्श स्थिति निर्मित करना, 2022 तक 20 मिलियन वर्ग मीटर सोलर थर्मल संग्रह स्थल प्राप्त करना एवं 2022 तक ग्रामीण क्षेत्रों में 20 मिलियन सौर लाइटें लगाना 4337 करोड़ रुपए की आरंभिक पूँजी से आरंभ की गई यह महत्वकांक्षी परियोजना देश की ऊर्जा आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए काफी महत्वपूर्ण है।

कावेरी नदी जल विवाद:-

यह विवाद कर्नाटक, तमिलनाडु व केरल राज्यों के मध्य कावेरी जल के बंटवारे को लेकर है। इस विवाद में केंद्र शासित प्रदेश पुदुच्चेरी भी शामिल है। कावेरी एक अंतर्राज्यीय नदी है। इस नदी के जल विवाद का एक लंबा इतिहास रहा है, जिसकी शुरुआत 19वीं सदी में हुई। उस समय ब्रिटिश राज के अंतर्गत ये विवाद मद्रास प्रेसीडेंसी व मैसूर राज्य के बीच था। भारत सरकार द्वारा 1972 में बनाई गई एक कमेटी की रिपोर्ट और विशेषज्ञों की सिफारिशों के बाद अगस्त 1976 में कावेरी जल विवाद के सभी 4 दावेदारों के मध्य एक समझौता हुआ। इस समझौते की घोषणा संसद में भी की गई थी, लेकिन इस समझौते का ठीक ढंग से पालन न होने के कारण यह विवाद आज भी चल रहा है। कानूनी जानकारों का मानना है कि इस समस्या के कानूनी समाधान मौजूद हैं, लेकिन जब तक इन चारों संबद्ध राज्यों के बीच चल रही राजनीति व वर्चस्व का खेल समाप्त नहीं होता, इस विवाद का हल निकल पाना मुश्किल है।

सरदार सरोवर बाँध:-

सरदार सरोवर बाँध भारत का दूसरा सबसे बड़ा बाँध है, जिसकी कुल ऊँचाई 163 मीटर है। नर्मदा नदी पर बनने वाले 30 बाधों में सरदार सरोवर और महेश्वर दो सबसे बड़ी बाँध परियोजनाएँ हैं और इनका लगातार विरोध होता रहा है। इन परियोजनाओं का उद्देश्य गुजरात के सूखाग्रस्त इलाकों में पानी पहुँचाना और मध्य प्रदेश के लिए बिजली पैदा करना है। इसी कारण नर्मदा बचाओ आंदोलन भी चलाया गया। यह आंदोलन पर्यावरण की रक्षा, आदिवासियों एवं किसानों की आजीविका से जुड़ा हुआ एक वृहद आंदोलन है। इस नदी जल परियोजना द्वारा लगभग 1 लाख लोगों के विस्थापित होने जिनमें 58% आदिवासी हैं एवं 37,000 हेक्टेयर भूमि के जलमग्न होने का खतरा था। इस आंदोलन के नेतृत्वकर्ता बाबा आमटे, मेधा पाटकर एवं अरुंधति रॉय हैं और यह आंदोलन सफल रहा तथा उच्चतम न्यायायल ने विस्थापित लोगों के उचित पुनर्वास की स्पष्ट नीति लागू करने के निर्देश दिए।

चिपको आंदोलन:-

चिपको आंदोलन पेड़ों की कटाई रोकने के लिए किया गया एक महत्त्वपूर्ण आंदोलन था। आंदोलन के अंतर्गत 26 मार्च, 1974 को उत्तराखंड (तब उत्तर प्रदेश) के वनों में शात एवं अहिंसक विरोध प्रदर्शन किया गया। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य व्यावसायिक उपयोग हेतु वनों की कटाई को रोकना था। वनों की कटाई को रोकने के लिए लोग वृक्षों से चिपक कर खड़े होने लगे थे। चिपको आंदोलन की शुरुआत हेतु प्रेरणा राजस्थान के खेजडली गाँव से मिली। 1731 ई. में अजीत सिंह के आदेश पर काटे जा रहे खेजरी वृक्ष को बचाने के लिए अमृता देवी विश्नोई व उनकी 3 पुत्रियाँ वृक्षों से चिपककार विरोध करने लगीं, परंतु अजीत सिंह के लोगों द्वारा इन 4 समेत 363 लोगों को वृक्ष के साथ काट दिया गया था। इस आंदोलन के जनक सुंदरलाल बहुगुणा, गौरी देवी एवं चण्डी प्रसाद भट्ट थे तथा अन्य कार्यकर्ताओं में ग्रामीण महिलाएँ थीं। इस आंदोलन को बड़ी जीत तब मिली, जब 1980 में इंदिरा गांधी ने प्रदेश को हिमालयी वनों में वृक्षों की कटाई पर 15 वर्ष का प्रतिबंध लगा दिया।

अप्पिको आंदोलन:- उत्तर भारत का चिपको आंदोलन दक्षिण भारत में 'अप्पिको आंदोलन के रूप में उभरकर सामने आया। अप्पिको कन्नड़ शब्द है, जिसका अर्थ है गले लगना। यह आंदोलन कर्नाटक में सिंतबर 1983 में प्रारंभ हुआ। यह आंदोलन पूरे जोश के 38 दिनों तक चला। इसके नेतृत्वकर्ता पांडुरंग हेगड़े थे।

तरुण भारत संघ:- तरुण भारत संघ एक गैर-सरकारी संस्था है, जो लोगों को वन एवं जल संरक्षण के मुद्दों पर जागरूक करने का कार्य करती है। राजेंद्र सिंह इसके संस्थापक एवं वर्तमान अध्यक्ष हैं। इन्हें मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।

जंगल बचाओ आंदोलन:- जंगल बचाओ आंदोलन 1980 में बिहार में शुरू हुआ था, जो वर्तमान झारखंड एवं उडीसा तक फैल गया। जब सरकार ने प्राकृतिक साल के जंगल को काटकर वहाँ पर कीमती सागौन के वृक्ष लगाने की योजना बनाई तो सिंहभूम जिले के आदिवासियों ने यह आंदोलन प्रारंभ किया।

गंगा बचाओ आंदोलन:- गांधीजी के असहिंसक आंदोलन पर आधारित यह गंगा को स्वच्छ करने का आंदोलन था। यह आंदोलन उत्तर प्रदेश व बिहार में व्यापक रूप से चलाया गया, जिसे धार्मिक नेताओं, राजनीतिज्ञों, अध्यात्मवादियों, पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों तथा लेखकों का समर्थन व सहयोग मिला।