पाश्चात्य काव्यशास्त्र/क्रोचे का अभिव्यंजनावाद

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भूमिका[सम्पादन]

क्रोचे का जन्म इटली के प्रसिध्द नगर नेपुल्स में 1866 ई. में हुआ था। बीसवीं शताब्दी के दार्शनिकों में उनका महत्वपूर्ण स्थान आता है। अभिव्यंजनावाद क्रोचे की प्रसिध्दि का सबसे बडा़ आधार था, जिसका विशद विवेचन 'ईस्थेटिक' नामक ग्रंथ, इतालवी भाषा में प्रकाशित 1901 ई. में हुआ। 'ईस्थेटिक' शब्द को यूरोप में अर्वाचीन तथा हिंदी रूपांतर 'सौंदर्यशास्त्र होता है। ईस्थेटिक शब्द ग्रीक 'आइस्थेसिस' से निष्पन्न है। जिसका अर्थ-इंद्रिय प्रत्यक्ष या इंद्रिय-ग्राह्य ज्ञान। किंतु अब इसका प्रयोग सामान्य ज्ञान के लिए न होकर सौंदर्यात्मक ज्ञान के लिए होता है। सौंदर्य का सम्बन्ध दो शास्त्रों- दर्शन और मनोविज्ञान से है। दर्शन में सौंदर्य तत्व की मीमांसा और मनोविज्ञान में सर्जन और आस्वादन होता है। दर्शन के दो धाराएं हैं: आत्मवादी (प्रत्ययवादी) और भौतिकवादी (जड़वादी)। क्रोचे आत्मवादी दार्शनिक हैं। अत: उनके सौंदर्य का विवेचन आत्मवाद रहा है। उन्होंने आत्मा के चार तत्व माने है दो सैध्दांतिक (ज्ञान की क्रियाएं) और दो व्यावहारिक (ईच्छा की क्रियाएं)। ज्ञान की क्रियाओं के दो भेद हैं- १) अंत:प्रज्ञात्मक (intuition) २) तर्कात्मक (logical) ईच्छा के क्रियाओं के भी दो भेद हैं- १) आर्थिक (economical) २) नैतिक (moral) क्रोचे ने ज्ञान के दो रूपों अंत:प्रज्ञा तथा बौध्दिक में निम्न अन्तर बताते है, १) अंत:प्रज्ञा में कल्पना का ज्ञान होता है जबकि इसमें बुध्दि के द्वारा। २) इसमें व्यक्ति का ज्ञान होता है जबकि इसमें सामान्य का ज्ञान। ३) इसमें पृथक-पृथक वस्तुओं का ज्ञान होता है जबकि इसमें वस्तुओं के संबंधों का ज्ञान। ४) इसमें बिंबों के द्वारा उत्पादक ज्ञान होता है जबकि इसमें concepts के द्वारा ज्ञान।

अंत:प्रज्ञा-अभिव्यंजना[सम्पादन]

क्रोचे की कलाविषयक धारणा की दो आधारशिला है- अंतप्रज्ञा और अभिव्यंजना। अंग्रेजी के 'इंट्यूशन' शब्द के लिए स्वयंप्रकाश ज्ञान, सहज ज्ञान, सहाजानुभूति, अंत:प्रज्ञा आदि अनेक शब्द प्रयोग हुए हैं। अंत:प्रज्ञा एक प्रकार का आंतरिक ज्ञान या अनुभूति है, जो स्वयंप्रकाश है, उसके लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं होती। अंत:प्रज्ञा के साथ अभिव्यंजना का नित्य संबंध है, अथात् जहां भी अंत:प्रज्ञा होगी, वहां अभिव्यंजना जरूर होगी। यह संभव नहीं है कि हम किसी चीज को जानें और उसे कह न सकें या जिसे कहें, उसे जानें नहीं। कोई भी अंत:प्रज्ञा अभिव्यंजना के बिना या अभिव्यंजना अंत:प्रज्ञा के बिना संभव नहीं है। क्रोचे का सारा सौंदर्य-निरूपण इसी पर आश्रित है। किसी वस्तु की सत्ता का ज्ञान तीन प्रमाण से मानते है, प्रत्यक्ष, अनुमान, और शब्द। प्रत्यक्ष ज्ञान पांच ज्ञानेंद्रियों शब्द, स्पर्श, गंध आदि के रूप में होता है इसी तरह कहीं उठता धुआं देखकर आग का अनुमान आदि यह सब हमारे पूर्व प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ज्ञान अनुमान से होता है। प्रकृति से परे (आत्मा-परमात्मक) अनुभूति के चीजे सोज्हम् ( मैं ब्रह्म हू); तत् त्वम् असि ( तुम ब्रह्म हो); सर्व खलु इदं ब्रह्म (सब कुछ ब्रह्म है) आदि उपनिषद-वाक्यों अथवा योगी को ईश्वर की साक्षात्कार अंत:प्रज्ञा से होता है। लेकिन वैज्ञानिक प्रत्यक्ष और अनुमान को स्वीकार्य करता है अप्रत्यक्ष ज्ञान को नहीं। दार्शनिक श्री अरविंद वैज्ञानिकता के विरोध कहते है कि '"अंत:प्रज्ञा या आध्यात्मिक अनुभूति कल्पना का विलास नहीं है, बल्कि विश्वसनीय ज्ञान है जितना नहीं, वह प्रत्यक्ष की अपेक्षा कहीं अधिक सत्य और सबल है।"' अंत:प्रज्ञा एकीकरण, अखंड रूप में देखता है। जबकि बुध्दि विभाजन, खंडित रूप में अत: अंत:प्रज्ञा और बुध्दि परस्पर पूरक और सहायक हैं। अत: दोनों के समन्वय से प्राप्त ज्ञान ही वास्तविक, पूर्ण और आदर्श ज्ञान है। अत:प्रज्ञा और अभिव्यंजना का अभेद (संबंध) प्रतिपादित करने के बाद क्रोचे कला के साथ उनका अभेद प्रतिपादित करते है। अंत:प्रज्ञा और अभिव्यंजना में भेद नहीं है, वैसे ही अंत:प्रज्ञा और कला में भेद नहीं हैं। जब अंत:प्रज्ञा स्फुरित होती है तो वह अभिव्यंजना के द्वारा कला में परिणत हो जाती है। यह पुरी प्रक्रिया आंतरिक है, अर्थात् कला की सृष्टि कलाकार के भीतर होती है, बाहर नहीं। अत: कला वस्तु में नहीं, वस्तु के द्वारा अभिव्यक्त रूप में है। क्रोचे कला को आंतरिक के साथ अखंड बताता है, क्योकि अंत:प्रज्ञा अखंड होती है। जब अंत:प्रज्ञा अखंड होगी तो उसकी अभिव्यंजना भी अखंड होगी; स्वभावत: कला भी अखंड होगी। अभिप्राय यह है कि कोई भी काव्य अखंड होती है,कवि के मन के स्फुरित (अभिव्यंजना) के साथ कलात्मक रूप ग्रहण कर लेती है। जैसे, कोई चित्रकार या मूर्तिकार के मन में वह चित्र पहले से रहता है वह केवल छेनी-हथौडे़ से पत्थर को काट-तराशकर एक-एक भाव उत्कीर्ण कर मूर्ति गढ़ता है अत: वह वास्तविक मूर्ति नहीं हैं, वास्तविक मूर्ति तो मूर्तिकार की मन (अंत:प्रज्ञा) में थी। यह उसका प्रतिभास है। फलत: कुरूप का अर्थ केवल असफल अभिव्यंजना है। सुन्दर में एकता होती है और कुरूप में अनेकता। क्रोचे कलात्मक निर्माण के चार चरण मानते है १. संस्कार २. अभिव्यंजना ३. आनंद ४. भौतिक द्रव्यों । प्रथम स्थान संस्कार को देते है।

अभिव्यंजना और वक्रोक्तिवाद[सम्पादन]

संस्कृत के सुप्रसिध्द आचार्य कुन्तक ने अपने ग्रंथ 'वको्क्तिजीवित' में वको्क्ति को काव्य की आत्मा माना है। वको्क्ति से उनका अभिप्राय कथन की वक्रता से है।आचार्य शुक्ल ने अभिव्यंजनावाद को वको्क्तिवाद का विलायती उत्थान माना है।परन्तु उनकी यह धारणा भ्रामक है क्योंकि जिसे हम अभिव्यंजना कहते है, क्रोचे उसे अभिव्यंजना नहीं मानता है। दोनों ने अभिव्यंजना को कला का प्राण-तत्व तथा काव्य में कल्पना-तत्व की प्रमुखता मानते है। और दोनों अभिव्यंजना को अखंड मानते है। इन समानताओं के होते हुए भी दोनों में भिन्नता हैं, क्योंकि कुन्तक अलंकारवादी होने के नाते काव्य में अलंकारमयी या चमत्कारपूर्ण उक्ति, कवि कौशल, वको्क्ति आदि वाह्य अंगों पर बल देते है। जबकि क्रोचे सहजानुभूति (अभिव्यंजना) के आन्तरिक तत्व को मानते है। क्रोचे के अनुसार सौन्दर्य का चरम लक्ष्य अभिव्यंजाना जबकि कुन्तक आनन्द को मानता है।


संदर्भ[सम्पादन]

१. पाश्चात्य काव्यशास्त्र---देवेन्द्रनाथ शर्मा। प्रकाशक--मयूर पेपरबैक्स, पंद्रहवां संस्करण: २०१६, पृष्ठ--१७७-१८५

२. भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र---डाँ. सत्यदेव चौधरी, डाँ. शन्तिस्वरूप गुप्त। अशोक प्रकाशन, नवीन संस्करण-२०१८, पृष्ठ--२८२,२८३