प्रमुख बीज शब्द : प्रतिबद्धता, आलोचनात्मक यथार्थवाद, अति यथार्थवाद, विलगाव और व्यर्थताबोध

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अति-यर्थाथवाद आधुनिकतावादी आंदोलन की एक प्रमुख प्रवृत्ति के रूप में अति-यर्थाथवाद को जाना जाता है। इस प्रवृत्ति में ऐसे व्यक्ति का चित्रण मिलता है जो यह नहीं जानता कि उसके ' मैं' का कहा से आरंभ होता है। और कहा अंत होगा। यह एकाकी मनुष्य की गाथा है। इसे ठंडे और रहस्यात्मक लोक से चुनौती मिलती है। अति-यर्थाथवाद का मानना है कि समाज में अव्यवस्था है और वह अपने कलात्मक उपकरणों के माध्यम से वस्तुओं और व्यक्ति के बीच टूटे हुए संबंधों को जोड़ने की कोशिश करता है। वह दावा करता है कि रचनात्मक कल्पना के लिए असीमित स्वतंत्रता है। किसी भी तार्किक सीमा से मुक्ति का दावा करता है।

  अति-यर्थाथवादी प्रविति में अविवेकपूर्ण बौद्धिकातावाद और ठंडी छद्म भावनात्मक की अभिव्यक्ति होती है। अति-यर्थाथवादी रचनाकर कलात्मक प्रक्रियाओं और व्यक्ति के नैतिक नियम पर नियंत्रण को अस्वीकार करता है। काव्य में अति- यर्थाथवाद 'सुपर मेटाफर' के रूप में अभिव्यक्त होता है। अनैतिहासिकता को सिद्धांत: स्वीकार करता है। परिणाम: यर्थाथ का लोप हो जाता है। समय एवम् स्थान को 'डिफ्यूज' (विसारित) करता है। इसके कारण इतिहास का लोप हो जाता है। अति - यर्थाथवादी मानते है कि ऐतिहासिक प्रक्रिया मौजूद नहीं रहती। अत: समय अनैतिहासिक होता है। इतिहास से अलगाव के नाम पर ' सोल' (आत्मा) ही इतिहास बन जाता है।
 इनकी रचनाओं में प्रत्येक वस्तु के प्रति उदासीनता का भाव है। कलाकार भ्रमो , फैंटेसी, स्वप्नो, चमत्कारों के द्वारा अपनी स्वतंत्रता का दायरा निर्धारित करता है। कांत के दर्शन का इस पर गहरा प्रभाव है।
इसी तरह आधुनिकतावादी आंदोलन में अस्तित्ववादी दर्शन का गहरा प्रभाव देखा जाता है। यह अकेलेपन का दर्शन है। जीव की अर्थहिनता की इसमें वकालत की गई है। हिन्दी साहित्य में कविता एवम् कथासाहित्य में यह प्रवृत्ति एक जमाने में काफी लोकप्रिय रही है। विशेषकर नई कविता और अकविता के अनेक लेखकों में यह प्रवृत्ति दिखाई देती है। अर्थहीनता, अमूर्तन, बौद्धिकतावाद का आग्रह इसकी खूबियां है।