प्रश्नसमुच्चय--१७
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सामान्य ज्ञान भास्कर पर चलें
- सोरठा छन्न्द के लक्षण है - यह मात्रिक सम छन्न्द है। विषम चरण में 11 व सम चरण में 13 मात्राएं होती है। तुक विषम चरणों की मिलती है। यह छन्न्द दोहा का उल्टा होता है।
- सोरठा का उदाहरण है -
- अकबर समंद अथाह तहै डूबा हिन्दू तुरक
- मेवाड़ों तिण मांह पोयण फूल प्रताप सी
- चौपाई छंद के लक्षण है - यह मात्रिक सम छंद है। प्रत्येक चरण में 16 मात्रा और अंत में गुरु लघु न होते है
- चौपाई का उदाहरण है -
- सुनी जननी! सोह सुत बडभागी, जो पितृ मात वचन अनुरागी
- तनय मात-पितृ तोखनहारा, दरलभ जननि! सकल संसारा
- हरिगीतिका के प्रत्येक चरण में कितनी मात्राएं होती है - 28
- वर्णिक छंद कौन-कौन से है - दु्रतविलम्बित, कवित्त, मंदाक्रांता
- श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि... में छंद है - दोहा
- कंकन किंकिन नूपुर धुनि सुनि, कहत लखन सन राम ह्दय गुनि में छंद है - चौपाई
- संसार की समर स्थली में धीरता धारण करो चलते हुए निज दुष्ट पथ पर, संकटों से मत डरो में छंद है - हरिगीतिका
- मेरी भव बाधा हरो, राधा नागरि सोय, जा तन की झांई परे, श्यामु हरित दु्रति होय में छंद है - दोहा
- नील सरोरूह स्याम, तरून अरून वारिज नयन, करउ सो मम उर धाम, सदा छीरसागर सयन में छंद है - सोरठा
- प्रबल जो तुम में पुरूषार्थ हो, सुलभ कौन तुम्हे न पदार्थ हो। प्रगति के पथ पर विचरो उठो, भुवन में सुख-शांति भरो उठो ॥ में छंद है - दु्रतविलम्बित
- मत मुखर होकर बिखर यों, तू मौन रह मेरी व्यथा, अवकाश है किसको सुनेगा, कौन यह तेरी कथा। में छंद है - हरिगीतिका
- "विलसता कटि में पट पीत था। रुचिर वस्त्र विभूषित गात था। लस रही उर में बलमाल थी। कल दुकूल अलंकृत स्कंध था" में छंद है - चौपाई
- या लकुटी अरू कामरिया पर, राज तिहुं पुर को तजि डारो में छंद है - मतगयंद सवैया
- रहिमन मोहि न सुहाय, अमिय पियावत मान बिनु, वरन विष देय बुलाय, मान सहित मरिबो भलो में छंद होगा - सोरठा
- निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को शूल में छंद होगा - दोहा
- इस भांति गदगद कंठ से तू,रो रही है हाल में रोती फिरेगी कौरवो की, नारियां कुछ काल में यहां छंद है - हरिगीतिका
- बोला बचन नीति अति पावन, सुनहु तात कुछ मोर सिखावन में छंद है - चौपाई
- निसि द्यौंस ख्री उर मांझ अरी, छवि रंग भरी मुरि चाहनि की। तकि मोर नित्यो खल ढोरि रहे, टरिगो हिय ढोरनि बाहनि की में छंद है - दुर्मिल सवैया
- छंद के प्रकार है - मात्रिक और वर्णिक छंद (गण बध्द और मुक्तक)
- चार से अधिक चरण वाले छंद कहलाते हैं - विषम छंद (कवित्त और कुण्डलिया)
- कवित्त छंद के भेद है - मनहरण कवित्त और घनाक्षरी
- मनहरण कवित्त के प्रत्येक चरण में वर्ण होते हैं - 31 (8 8 7 8 वर्णो पर यति)
- घनाक्षरी छंद के भेद है - रूप घनाक्षरी (32 वर्ण ) और देव घनाक्षरी (33 वर्ण)
- सवैया के तीन प्रकार है - भगण से बना हुआ, सगण से बना हुआ और जगण से बना हुआ
- सवैया छंद के भेद है - मतगयंद (मालती) सवैया, सुमुखी सवैया, चकोर सवैया (23 वर्ण), किरीट सवैया, दुर्मिल सवेया, अरसात सवैया (24 वर्ण), सुंदरी सवैया, अरविंद सवैया, लवंगलता सवैया (25 वर्ण) एवं सुख सवैया या कुंदलता सवैया (26 वर्ण)
- आचार्य भरत ने नाटयशास्त्र में रस माने है - उन्होंने नाटक में आठ रस माने है
- नवां रस 'शांत रस' कब से स्वीकार किया गया - हर्षवर्ध्दन रचित नागानंद नाटक की रचना के बाद
- वात्सल्य रस की स्थापना कब हुई - महाकवि सूरदास द्वारा वात्सल्य सम्बन्धित मधुर पद से
- भक्ति को रस रूप माना गया - भक्ति रसामृत सिंधु और उवल नीलमणि नामक ग्रंथ की रचना के बाद
- रसों की कुल संख्या है - वर्तमान में 11
- रस शब्द किसके योग से बना है - रस् + अच्
- नाटयशास्त्र के आधार पर रस की परिभाषा है - स्थाई भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पति होती है।
- आनंदवर्धन ने रस की परिभाषा दी है - रस का आश्रमय ग्रहण कर काव्य में अर्थ नवीन और सुंदर रूप धारण कर सामने आता है।
- काव्य पढ़ने के बाद ह्दय में जो भाव जगते हैं उसे रस कहते हैं यह परिभाषा दी है - डॉ. दशरथ औझा ने
- रस के अंग (अवयव) है - चार, विभाव, अनुभाव, संचारी और स्थाई
- विभाव का अर्थ है - कारण। लोक में रति आदि स्थायी भावों की उत्पति के जो कारण होते हैं उन्हें विभाव कहते है।
- विभाव के प्रकार है - 1 आलम्बन (विषयालम्बन और आश्रयालम्बन), 2 उद्दीपन (आलम्बन की चेष्टा और प्रकृति तथा वातावरण को उद्दीप्त करने वाली वस्तु)
- विषयालम्बन कहते हैं - उन रति आदि भावों का जो आधार है वह आश्रय है।
- आश्रयालम्बन कहते हैं - उन रति आदि भावों का जो आधार है वह आश्रय है।
- उद्दीपन विभाव कहते हैं - स्थाई भाव को और अधिक उद्प्रबुध्द, उद्दीप्त और उत्तेजित करने वाले कारण को कहते है।
- अनुभाव कहते हैं - विभावों के उपरांत जो भाव उत्पन्न होते हैं उन्हें अनुभाव कहते है।
- ""बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाई, सौंह करे, भौंहनि हंसे, दैन कहै नटि जाय"" में अनुभाव है?
- - गोपियों की चेष्टाएं, सौंह करे, भौंहनि हंसे आदि अनुभाव है।
- अनुभाव के प्रकार है - 1 कायिक (शारीरिक), 2 मानसिक, 3 आहार्य (बनावटी), 4 वाचिक (वाणी), 5 सात्विक (शरीर के अंग विकार)
- सात्विक अनुभाव की संख्या है - आठ। स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, वेपथु, वैवण्य, अश्रु, प्रलय
- नायिका के अनुभाव माने गए है - 28 प्रकार के।
- व्यभिचारी या संचारी भाव कहते हैं - वह भाव जो स्थायी भाव की ओर चलते है, जिससे स्थायी भाव रस का रूप धारण कर लेवे। इसे यो भी कह सकते हैं जो भाव रस के उप कारक होकर पानी के बुलबुलों और तरंगों की भांति उठते और विलिन होते है। उन्हें व्यभिचारी या संचारी भाव कहते है।
- संचारी भाव के भेद है - भरत मुनि ने 33 संचारी भाव माने है (निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, देन्य, चिंता, मोह, स्मृति, घृति, ब्रीडा, चपलता, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अमर्ष, अविहित्था, उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, मरण, वितर्क) महाकवि देव ने 34 वां संचारी भाव छल माना लेकिन वह विद्वानों को मान्य नहीं हुआ। महाराज जसवंत सिंह ने भारतभूषण में 33 संचारी भावों को गीतात्मक रूप में लिखा है।
- स्थायी भाव का अर्थ है - जिस भाव को विरोधी या अविरोधी भाव आने में न तो छिपा सकते हैं और न दबा सकते हैं और जो रस में बराबर स्थित रहता है।
- 'हा राम! हा प्राण प्यारे। जीवित रहूं किसके सहारे' में रस है - करूण रस
- हे खग मृग हे मधुकर श्रेणी। तुम देखी सीता मृगनैनी॥ में रस है - वियोग शृंगार रस
- स्थायी भाव की विशेषताएं है - अन्य भावों को लीन करने की, विभाव, अनुभाव, संचारी भाव से पुष्ट होकर रस में बदलता है।
- स्थायी भाव के भेद है- प्राचीन काव्यशास्त्रियों के अनुसार नौ तथा आधुनिक के अनुसार 11
- स्थायी भाव के भेद के नाम - रति, शोक, क्रोध, उत्साह, ह्यास, भय, विस्मय, घृणा, निर्वेद, आत्म स्नेह और ईष्ट विषयक रति।
- भाव और रस में अंतर है -
- - भाव का सम्बन्ध रज, तम, सतो गुण से है रस में सत्व का उद्रेक होता है।
- - भाव का उदय मनुष्य ह्दय से, रस आस्वादन आनंद रूप में होता है।
- - रस की अनुभूति शाश्वत पर भावों की अनुभूति क्षणिक होती है।
- - रस का उदय अद्वेत रूप में जबकि भावों का उदय खण्ड रूप में होती है।
- शृंगार रस का परिचय है - विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से पति-पत्नी का या प्रेमी-प्रेमिका का रति स्थायी भाव शृंगार रस कहलाता है। यह रस विष्णु देवता से सम्बन्धित है। इसके आश्रय और आलम्बन नायक-नायिका है।
- शृंगार रस के भेद है- संयोग और वियोग
- वियोग शृंगार के भेद है - पूर्वराग, मान, प्रवास, अभिशाप (करूण विरह)
- हास्य रस का परिचयन है - हास्य रस का स्थायी भाव हास हे। इसका आलम्बन विलक्षण प्राणी या हंसी जगाने वाली वस्तु तथा आश्रय दर्शक है। इस रस के देवता प्रमथ है।
- हास्य रस के भेद है - स्मित, हसित, विहसित, अपहसित, प्रतिहसित
- अपहसित का अभप्राय है - हंसते-हंसते नेत्र से आंसू निकल पडे।
- प्रतिहसित का अर्थ है - सारा शरीर हिले और लोटपोट हो जाए।
- करूण रस का परिचय है - करूण रस का स्थायी भाव शोक है। दु:खी, पीड़ित या मृत व्यक्ति आलम्बन विभाव और उससे सम्बन्ध रखने वाली वस्तुओं को तथा अन्य सम्बन्धियों को देखना उद्दीपन विभाव है।
- वियोग शृंगार और करूण रस में अंतर है -
- - वियोग शृंगार में मिलन की आस रहती है किंतु करूण रस में आस समाप्त हो जाती है।
- - वियोग शृंगार के देवता श्याम है जबकि करूण रस के देवता यम है।
- - वियोग शृंगार सुखात्मक भी होता है जबकि करूण रस पूरी तरह दुखात्मक होता है।
- वीर रस का परिचय है- कठिन कार्य (शत्रु के अपकर्ष, दीन दुर्दशा या धर्म की दुर्गती मिटाने) के करने का जो तीव्र भाव ह्दय में उत्पन्न होता है उसे उत्साह कहते है। यही उत्साह विभा, अनुभाव और संचारियों के योग से वीर रस में तब्दील हो जाता है।
- वीर रस के भेद है -युध्द वीर, दानवीर, दयावीर और धर्मवीर
- रोद्र रस की परिभाषा दीजिए- रोद्र रस का स्थायी भाव क्रोध है। अपने विरोधी अशुभ चिंतक आदि की अनुचित चेष्टा से अपने अपमान अनिष्ठ आदि कारणों से क्रोध उत्पन्न होता है वह उद्दीपन विभाव, मुष्टि प्रहार अनुभाव और उग्रता संचारी भाव से मेल कर रोद्र रस बन जाता है।
- भयानक रस का परिचय है - भय इसका स्थायी भाव है। सिंह, सर्प, भंयकर जीव, प्राकृतिक दृश्य, बलवान शत्रु को देखकर या वर्णन सुनकर भय उत्पन्न होता है। स्त्री, नीच मानव, बालक आलम्बन है। व्याघ्र उद्दीपन विभाव और कम्पन अनुभाव, मोह त्रास संचारी भाव है।
- बौरो सबे रघुवंश कुठार की, धार में वार बाजि सरत्थहिं। बान की वायु उडाय के लच्छन, लच्छ करौं अरिहा समरत्थहिं॥ में रस है - रोद्र रस
- जौ तुम्हारि अनुसासन पावो, कंदूक इव ब्रह्माण्ड उठावों। काचे घट जिमि डारों फोरी संकऊं मेरू मूसक जिमि तोरी में रस है - रोद्र
- 'शोक विकल सब रोवहिं रानी, रूप शील बल तेज बखानी, करहिं विलाप अनेक प्रकारा, परहिं भूमि-तल बारहिं बारा' में रस है - करूण
- वीभत्स रस की परिभाषा है - वीभत्स रस का स्थायई भाव जुगुप्सा है। दुर्गन्धयुक्त वस्तुओं, चर्बी, रूधिर, उद वमन आदि को देखकर मन में घृणा होती है।
- अद्भूत रस का परिचय है - इस रस का स्थायी भाव विस्मय है। अलौकिक एवं आश्चर्यजनक वस्तुओं या घटनाओं को देखकर जो विस्मय भाव हृदय में उत्पन्न होता है उसमें अलौकिक वस्तु आलम्बन विभाव और माया आदि उद्दीपन विभाव है।
- शांत रस की व्याख्या कीजिएि - शांत रस का विषय वैराग्य एवं स्थायी भाव निर्वेद है। संसार की अनित्यता एवं दुखों की अधिकता देखकर हृदय में विरक्ति उत्पन्न होती है। सांसारिक अनित्यता-दर्शन आलम्बन और सजन संगति उद्दीपन विभाव है।
- शांत रस का उदाहरण है - हरि बिनु कोऊ काम न आवै, यह माया झूठी प्रपंच लगि रतन सौ जनम गंवायो
- वात्सल्य रस का परिचय दीजिए- इसका स्थायी भाव वत्सल है। इसमें अल्पवयस्क शिशु आलम्बन विभाव, उसकी तोतली बोली एवं बाल चेष्टाएं उद्दीपन विभाव है।
- भक्ति रस की परिभाषा है - स्थायी भाव देव विषयक रति आराध्य देव, आलम्बन, सांसारिक कष्ट एवं अतिशत दुख उद्दीपन विभाव है। दैन्य, मति, वितर्क, ग्लानि आदि संचारी भाव है।
- रस को आनंद स्वरूप मानने वाले तथा अभिव्यक्तिवाद के संस्थापक है - अभिनव गुप्त
- भट्टनायक ने किस रस सिध्दांत की स्थापना की - भुक्तिवाद की।
- संयोग शृंगार का उदाहरण है - बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय
- वियोग शृंगार का उदाहरण है- कागज पर लिखत न बनत, कहत संदेश लजाय
- 'एक और अजगरहि लखि, एक और मृगराय, विकल बटोही बीच ही, परयो मूरछा खाय' में रस है - भयानक रस
- आचार्य भट्लोल्लट का उत्पतिवाद है - आचार्य के अनुसार रस वस्तुत: मूल पात्रों में रहता। दर्शक में भ्रम होने से रस की उत्पति होती है।
- आचार्य शंकुक का अनुमितिवाद है - रंगमंच पर कलाकार के कुशल अभिनय से उसमें मूल पात्र का कलात्मक अनुमान होता है, जैसे चित्र में घोड़ा वास्तविक नहीं होता है, देखने वाला अश्व का अनुमान लगाता है।
- आचार्य अभिनवगुप्त के अभिव्यक्तिवाद के निष्पति का अर्थ है - विभव, अनुभाव आदि से व्यक्त स्थायी भाव रस की अभिव्यक्ति करता है। इस प्रक्रिया में काव्य पढ़ते या नाटक देखते हुए व्यक्ति स्व और पर का भेद भूल जाता है और स्वार्थवृति से परे पहुंचकर अवचेतन में अभिव्यक्त आनंद का आस्वाद लेने लगता है।
- मन रे तन कागद का पुतला। लागै बूंद विनसि जाय छिन में गरब करै क्यों इतना॥ में रस है - शांत रस
- अंखिया हरि दरसन की भूखी। कैसे रहे रूप रस रांची ए बतियां सुनि रूखी। में रस है - वियोग शृंगार
- रिपु आंतन की कुण्डली करि जोगिनी चबात, पीबहि में पागी मनो, जुबति जलेबी खात॥ में निहित रस है - जुगुप्सा, वीभत्स
- मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई में रस निहित है - ईश्वर रति, भक्ति
- यह लहि अपनी लकुट कमरिया, बहुतहि नाच नचायौ। में रस निहित है - वत्सल, वात्सल्य
- समस्त सर्पो संग श्याम यौ ही कढे, कलिंद की नंदिनि के सु अंक से। खडे किनारे जितने मनुष्य थे, सभी महाशंकित भीत हो उठे॥ में निहित रस है - भय, भयानक
- देखि सुदामा की दीन दसा, करूणा करि के करूणानिधि रोये। में रस है - शोक, करूण
- मैं सत्य कहता हूं सखे! सुकुमार मत जानो मुझे। यमराज से भी युद्ध में, प्रस्तुत सदा जानो मुझे॥ में रस है - उत्साह, वीर
- 'एक और अजगरहि लखि, एक ओर मृगराज। विकल बटोहीं बीच ही, परयो मूरछा खाय' में रस है - भयानक
- पुनि-पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू, पुलक गात, उर अधिक उछाहू। में कौनसा अनुभाव है - कायिक, सात्विक, मानसिक
- रस के मूल भाव को कहते हैं - स्थायी भाव
- चित्त के वे स्थिर मनोविकार जो विरोधी अथवा अविरोधी, प्रतिकू अथवा अनुकूल दोनों प्रकार की स्थितियों को आत्मसात कर निरंतर बने रहे रहते हैं कहलाते हैं - स्थायी भाव
- वे बाह्य विकार जो सहृदय में भावों को जागृत करते हैं कहलाते हैं - विभाव
- स्थायी भाव को उद्दीप्त या तीव्र करने वाले विभाव कहलाते हैं - उद्दीपन
- जिसके मन में भाव या रस की उत्पति होती है उसे कहते हैं - आश्रय
- रोमांच, स्वेद, अश्रु, कंप, वैवण्र्य आदि कौनसे अनुभाव है - सात्विक
- जिनके द्वारा आलम्बन के मन में जागृत होने वाले स्थायी भाव की जानकारी होती है उन्हें कहते हैं - अनुभाव
- करूण रस का स्थायी भाव है - शोक
- देखन मिस मृग विहंग तरू, फिरति बहोरि-बहोरि, निरखि-निरखि रघुवीर-छवि। काव्यांश में आश्रय है - सीता
- अधिक सनेह देह भई भोरी। सरद-ससिहि जनु चितव चकोरी।। लोचन मग रामहि उर आनी, दीन्हें पलक कपाट सयानी।। उक्त चौपाई में रस है - शृंगार
- मधुबन तुम कत रहत हरे, विरह वियोग स्याम सुंदर के, ठाडे क्यो न जरे ? काव्यांश में आलम्बन है - श्याम सुंदर
- सुन सुग्रीव मैं मारि हो, बालि हिं एकहि बान, ब्रह्मा रूद्र सरणागत, भयउ न उबरहि प्रान। काव्यांश में व्यक्त उत्साह भाव का आलम्बन कौन है - सुग्रीव
- कामायनी कुसुम पर पडी, न वह मकरंद रहा। एक चित्र बस रेखाओं का, अब उसमें है रंग कहा। पंक्तियों में निहित स्थायी भाव व आश्रय है - शोक, मनु
- समता लहि सीतल भया, मिटी मोह की ताप, निसि वासर सुख निधि लह्या, अंतर प्रगट्या आप में स्थायी भाव है - निर्वेद
- भाषे लखन कुटिल भई भौहे। रद पद फरकत नयन रिसौहें। रघुबंसिन मंह जहं कोउ होई। तेहि समाज अस कहै न कोई। में रस है - उत्साह, वीर
वर्ण विचार
- वर्ण कहलाते है- वह छोटी से छोटी मूल ध्वनि जिसके खण्ड न हो सके, वर्ण कहलाती है। जैसे अ् क् च् ज् त् तथा वर्णो के समूह को वर्णमाला कहते है।
- हिन्दी वर्णमाला में वर्ण है- 49 (इनमें 11 स्वर, 33 व्यंजन, दो अयोगवाह और तीन संयुक्ताक्षर है)
- अयोगवाह वर्ण कहलाते हैं - स्वर व व्यंजन से बने वर्ण को इसमें पहले स्वर का उच्चारण होता है जैसे अ + ङ = अं और अ + ह = अ:
- संयुक्ताक्षर कहलाते हैं - जो दो व्यंजनों के मेल से बने है। जैसे क्+ष = क्ष, त् + र = त्र और ञ +ज = ज्ञ
- स्वर किसे कहते है- वह वर्ण जो किसी अन्य वर्ण की सहायता के बिना स्वतंत्र रूप से बोले जाते है। इनकी संख्या 11 है।
- हृस्व, मूल या एक मात्रिक स्वर है - जिनके उच्चारण मेें काफी कम समय लगता है। इनकी संख्या चार है। अ इ उ ऋ
- दीर्घ स्वर, संधि स्वर किसे कहते है- वह स्वर जिनके उच्चारण में हृस्व से दुगना समय लगता है। यह दो हृस्व स्वर के मेल से बनने के कारण संधि स्वर भी कहते है।
- प्लुत स्वर किसे कहते है- किसी को दूर से पुकारते समय दीर्घ स्वर से भी अधिक शब्द लगता है। ऐसे स्वर को प्लुत स्वर कहते है। जैसे ओ ३ म में ३ का चिह्न प्लुत स्वर है। इसे त्रिमात्रिक स्वर भी कहते है। वर्तमान हिन्दी में प्लुत स्वर का प्रचलन बंद हो गया है।
- व्यंजन कहते हैं - जो वर्ण स्वरों की सहायता के बिना न बोले जा सके उन्हें व्यंजन कहते है।
- व्यंजन कितने प्रकार के होते है- तीन प्रकार के (स्पर्श, अंत:स्थ, उष्म)
- स्पर्श व्यंजन की परिभाषा है - क से म तक 25 वर्ण स्पर्श व्यंजन कहलाते है। इनका उच्चारण करते समय जिह्वा का कंठ आदि से उच्चारण स्थानों से पूरा स्पर्श होता है।
- ईषत/अंत:स्थ व्यंजन अथवा अर्ध स्वर व्यंजन कहलाते हैं - य, र, ल, व को अंत:स्थ व्यंजन कहते है। यह आधे स्वर और आधे व्यंजन कहलाते है। इनके उच्चारण में जिह्वा विशेष सक्रिय नहीं रहती है।
- ईषत/विवृत उष्म व्यंजन की परिभाषा है - श, ष, स, ह को उष्म व्यंजन कहा गया है। इनके उच्चारण में श्वांस की प्रबलता के कारण एक प्रकार की गर्मी उत्पन्न होती है।
- विवृत स्वर है - आ (इसे बोलते वक्त मुख सर्वाधिक खुला हुआ होता है)
- संवृत स्वर है - केवल हृस्व अ को इसके अंतर्गत माना गया है। हालांकि विद्धानों ने इ ई उ ऊ को भी इसके अंतर्गत माना है (जिह्वा का अग्र भाग स्वरों के उच्चारण के लिए अधिकतम ऊंचाई पर होता है)
- अल्प प्राण शब्द कहलाते है- जिनके उच्चारण में कम समय लगता है। पंचम वर्ग के प्रथम, तृतीय व पंचम वर्ण और य र ल व को अल्प प्राण शब्द कहा जाता है।
- महाप्राण शब्द है - इसमें पंचम वर्ग के दूसरे व चौथे और श ष स ह को लिया जाता है।
- घोष ध्वनि की परिभाषा है - पंचम वर्ग के तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम तथा य र ल व ह घोष ध्वनि है।
- अघोष ध्वनि कहलाती है- पंचम वर्ग का प्रथम व द्वितीय तथा श ष स और विसर्ग अघोष ध्वनि कहलाती है।
- अनुनासिक और अनुस्वार में दीर्घ ध्वनि किसमें होती है- अनुस्वार में
- हिन्दी शब्दकोष में शब्दों का क्रम होता है - अं अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ क क्ष ख ग घ च छ ज ज्ञ झ ट ठ ड ढ त त्र थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह
- उत्क्षिप्त व्यंजन है - ड और ढ
- ध्वनि संकेतों के मौखिक व लिखित रूप को कहा जाता है - वर्ण
- वे ध्वनियां जिनके उच्चारण में हवा निर्बाध रूप से मुख या नाक से बाहर निकल जाती है, कहलाती है ? - स्वर
- अ आ ओ एवं ए में मध्य स्वर है - अ
- जिस स्वर के उच्चारण में मुख सर्वाधिक खुला हुआ होता है कहलाता है- विवृत स्वर
- स्वरों का सुमेल -
- - पश्च स्वर = आ, उ, ऊ, ओ
- - वृताकार स्वर=उ, ऊ, ओ, औ
- - संवृत स्वर = इ, ई, उ, ऊ
- - दीर्घ स्वर = ए, ऐ, ओ, औ
- हृस्व और दीर्घ स्वरों का विभाजन किस आधार पर हुआ है - समय के आधार पर
- जिन ध्वनियों के उच्चारण में श्वांस जिह्वा के दोनों ओर से निकल जाती है, कहलाती है - पार्श्विक
- सुमेलित है
- - मूर्धन्य = ट, ठ, ड, ढ, ण
- - उष्म = श, ष, स
- - कोमल तालव्य = क, ख, ग, घ, ङ
- ड ढ किस व्यंजन वर्ग की ध्वनियां है- मूर्धन्य व उत्क्षिप्त
- च व्यंजन वर्ग की ध्वनियां कहलाती है - तालुवस्त्र्य
- वर्गो के प्रथम, तृतीय व पंचम वर्ण है - अल्प प्राण
- वर्गो के द्वितीय व चतुर्थ वर्ण है - महाप्राण
- अनुस्वार किन ध्वनियों को कहा जाता है - स्वर के बाद आने वाली नासिक्य ध्वनियां
- सुमेलित है -
- -लुंठित व्यंजन है - र
- - पार्श्विक व्यंजन - ल
- - काकल्य ध्वनि - ह
- - वत्स्र्य व्यंजन - न, ल, स
शब्द भेद
- अर्थ की दृष्टि से शब्द के प्रकार है- सार्थक और निरर्थक
- सार्थक शब्द कहलाते हैं - जिन शब्दों से किसी अर्थ का बोध हो वे सार्थक शब्द कहलाते है।
- निरर्थक शब्द कहलाते हैं - जिन शब्दों का कोई अर्थ नहीं निकलता उन्हें निरर्थक शब्द कहते है। जैसे चर्र चूं, खटर-पटर, गडगड
- व्युत्पति (बनावट) की दृष्टि से शब्दों के भेद है - रूढ, यौगिक, योगारूढ़
- रूढ शब्द कहलाते हैं - जिन शब्दों के खण्ड न किए जा सके और यदि खण्ड कर भी दिए तो उनका कोई अर्थ नहीं निकलता जैसे घोडा, मोर आदि
- यौगिक शब्द कहलाते है- जो दो या दो से अधिक शब्दों अथवा शब्दांशों के मेल से बने हो वे यौगिक शब्द कहलाते है। इनके शब्दांश सार्थक होते है।
- योगरूढ शब्द किसे कहते हैं - जो शब्द यौगिक होने पर भी किसी सामान्य अर्थ को प्रकट न करके रूढ शब्दों के समान किसी विशेष अर्थ को प्रकट करते है।
- रूप परिवर्तन की दृष्टि से शब्दों की कोटियां है - दो (विकारी और अविकारी)
- विकारी शब्द होते हैं - ऐसे शब्द जिनमें व्याकरणिक नियमों के अनुसार अर्थात लिंग, वचन, कारक, पुरूष, काल आदि के आधार पर रूप में परिवर्तन आ जाता है वे विकारी शब्द कहलाते है।
- अविकारी शब्द होते हैं - इन शब्दों में लिंग, वचन, कारक, पुरूष, काल आदि के कारण कोई परिवर्तन नहीं होता है। जैसे आज, अरे, यहां, कौन, बहुत, धीरे
- स्त्रोत के आधार पर शब्द के प्रकार है - तत्सम, तद्भव, देशी और विदेशी
- तत्सम शब्द का शाब्दिक अर्थ है - तत् = उसके (संस्कृत), सम=समान। अर्थात संस्कृत भाषा के समान है। तत्सम शब्द संस्कृत है और मौलिक रूप में बिना परिवर्तन के हिन्दी में प्रयुक्त होते है।
- तत्सम शब्द के उदाहरण है - अंकुर, अम्बुज, इच्छा, गिरि, गीत, चरम, छिद्र, ज्वाला, दास, नारी, परास्त, परम आदि
- तद्भव शब्द है - ये शब्द संस्कृत शब्दों के विकृत रूप है और इसी रूप में ये हिन्दी भाषा में प्रयुक्त होने लगे हैं। जैसे अचरज, ऑंख, कान, ऊंट, चॉंद, खेत, दॉंत, दूध, सूत
- देशी या देशज शब्द है- यह शब्द भारत की भिन्न भिन्न प्रांतीय भाषा या आदिम निवासियों की भाषाओं से हिन्दी में आए है जसे लकड़ी, पगड़ी, पेट, खिचड़ी, ठेठ, तेंदुआ
- विदेशी शब्द से आशय है - वह शब्द जो विदेशी भाषाओं से हिन्दी में आए गए और यथावत प्रयोग हो रहे है।
- अरबी भाषा से हिन्दी में प्रयुक्त शब्द है - औलाद, कानून, मौलवी, औरत, फकीर, इज्जत
- फारसी भाषा से हिन्दी में प्रयुक्त शब्द है - दुकान, अनार, आदमी, खंजर, कलम, चश्मा जल्दी
- पुर्तगाली से हिन्दी में लिए गए शब्द है - गिरजा, आलू, बाल्टी, नीलाम, कमरा, कारतूस, आलपीन, कमीज, चाबी,
- हिन्दी में तुर्की भाषा में लिए शब्द है - तोप, कालीन, तमगा, चाकू
संज्ञा
- संज्ञा किसे कहते है- किसी व्यक्ति, वस्तु, नाम आदि के गुण, धर्म व स्वभाव का बोध कराने वाले शब्द संज्ञा कहलाते है।
- संज्ञा के भेद है - व्यक्तिवाचक, जातिवाचक, भाववाचक, समुदाय वाचक और द्रव्यवाचक
- व्यक्तिवाचक संज्ञा किसे कहते हैं - जिस शब्द से किसी विशेष व्यक्ति, स्थान अथवा वस्तु का बोध हो वह व्यक्तिवाचक संज्ञा कहलाती है। इसमें व्यक्तियों के नाम, दिशाएं, देश, पहाड़ों के नाम, समुद्र, दिन-महीने, पुस्तक, समाचार पत्र, त्यौहार व उत्सव, नगर, सडक़, चौक के नाम, ऐतिहासिक युद्ध, राष्ट्रीय जाति, नदियों के नाम
- जातिवाचक संज्ञा कहलाती है - जिस संज्ञा शब्द से उसकी सम्पूर्ण जाति का बोध हो वह जातिवाचक संज्ञा कहलाती है। इसमें पशु-पक्षियों के नाम, वस्तुओं के नाम, प्राकृतिक आपदा, सामाजिक सम्बन्ध, पद और कार्य के नाम
- भाव वाचक संज्ञा किसे कहते हैं - जिस संज्ञा शब्द से पदार्थो की अवस्था, गुण, दोष, धर्म आदि का बोध हो। भाव वाचक संज्ञा अधिकांशत: प्रत्ययों से बनती है, जिनमें क्रदंत और तद्वित प्रत्यय है। कृदंत धातुओं से और तद्वित विशेषण व सर्वनाम से बनते है।
- समुदाय वाचक संज्ञा कहलाती है - जिन संज्ञा शब्दों से व्यक्तियों वस्तुओं आदि के समूह का बोध हो उन्हें समुदाय वाचक संज्ञा कहते है। जैसे कक्षा, भीड, सभा, गुच्छा, मण्डल, झुण्ड आदि
- द्रव्यवाचक संज्ञा है- जिन संज्ञा शब्दों से किसी धातु, द्रव्य आदि पदार्थो का बोध हो उन्हें द्रव्यवाचक संज्ञा कहते है। जैसे तेल, चांदी, सोना, चावल, पीतल, कोयला
- मानवता शब्द में संज्ञा है - भाववाचक
- वात्सल्य के वत्स शब्द में संज्ञा है - भाववाचक
- देव संज्ञा शद का विशेषण है -दैवीय
- संज्ञा के भेद होते हैं - पांच (व्यक्ति, जाति, भाव, द्रव्य और समुदाय वाचक)
- संज्ञा का भेद नहीं है - गुणवाचक
- ‘इन्हीं जयचंदों के कारण देश पराधीन हुआ’ वाक्य में तिरछे शब्द की संज्ञा है - जातिवाचक
- भाववाचक संज्ञा ‘औचित्य’ में मूल शब्द है - उचित
- लडक़ा शब्द का भाव वाचक संज्ञा होगी - लडक़पन
- स्त्रीत्व शब्द में कौन सी संज्ञा है - भाव वाचक संज्ञा
- सफेदी शब्द है - भाव वाचक संज्ञा
- सच्चरित्रता किस मूल शब्द से बना है - चरित्र से
- जवान, बालक, सुंदर, मनुष्य में कौनसा शब्द जातिवाचक संज्ञा नहीं है - सुंदर
- डकैती, आलसी, हरियाली, धीरज में भाव वाचक संज्ञा का उदाहरण नहीं है - आलसी
- बुढापा भी अभिशाप है इस वाक्य में बुढापा संज्ञा है - भाव वाचक संज्ञा की।
- ईश्वरत्व है - भाव वाचक संज्ञा
- निजत्व संज्ञा निर्मित है - सर्वनाम से
- विद्धवता, सेना, बचपन, दुःख में जातिवाचक संज्ञा है - सेना
- परिष्कार, हरियाली, मिलावट संज्ञाएं है - भाव वाचक
- पानी कौनसी संज्ञा है - जातिवाचक
- लाल बहादुर शास्त्री भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री थे। यशस्वी संज्ञा है - व्यक्तिवाचक
वाक्यांश के लिए एक शब्द
[सम्पादन]- जिसे गिना न जा सके - अगणित
- जो कुछ भी नहीं जानता हो - अज्ञ
- जो बहुत थोड़ा जानता हो - अल्पज्ञ
- जिसका जन्म नहीं होता - अजन्मा
- पुस्तकों की समीक्षा करने वाला - समीक्षक , आलोचक
- जिसकी आशा न की गई हो - अप्रत्याशित
- जो इन्द्रियों से परे हो - अगोचर
- जो विधान के विपरीत हो - अवैधानिक
- जो संविधान के प्रतिकूल हो - असंवैधानिक
- जिसे भले-बुरे का ज्ञान न हो - अविवेकी
- जिसके समान कोई दूसरा न हो - अद्वितीय
- जिसे वाणी व्यक्त न कर सके - अनिर्वचनीय
- जैसा पहले कभी न हुआ हो - अभूतपूर्व
- जो व्यर्थ का व्यय करता हो - अपव्ययी
- बहुत कम खर्च करने वाला - मितव्ययी
- सरकारी गजट में छपी सूचना - अधिसूचना
- जिसके पास कुछ भी न हो - अकिंचन
- दोपहर के बाद का समय - अपराह्न
- जिसका निवारण न हो सके - अनिवार्य
- देहरी पर रंगों से बनाई गई चित्रकारी - अल्पना
- आदि से अन्त तक - आघन्त
- जिसका परिहार करना सम्भव न हो - अपरिहार्य
- जो ग्रहण करने योग्य न हो - अग्राह्य
- जिसे प्राप्त न किया जा सके - अप्राप्य
- जिसका उपचार सम्भव न हो - असाध्य
- भगवान में विश्वास रखने वाला - आस्तिक
- भगवान में विश्वास न रखने वाला- नास्तिक
- आशा से अधिक - आशातीत
- ऋषि की कही गई बात - आर्ष
- पैर से मस्तक तक - आपादमस्तक
- अत्यंत लगन एवं परिश्रम वाला - अध्यवसायी
- आतंक फैलाने वाला - आंतकवादी
- देश के बाहर से कोई वस्तु मंगाना - आयात
- जो तुरंत कविता बना सके - आशुकवि
- नीले रंग का फूल - इन्दीवर
- उत्तर-पूर्व का कोण - ईशान
- जिसके हाथ में चक्र हो - चक्रपाणि
- जिसके मस्तक पर चन्द्रमा हो - चन्द्रमौलि
- जो दूसरों के दोष खोजे - छिद्रान्वेषी
- जानने की इच्छा - जिज्ञासा
- जानने को इच्छुक - जिज्ञासु
- जीवित रहने की इच्छा- जिजीविषा
- इन्द्रियों को जीतने वाला - जितेन्द्रिय
- जीतने की इच्छा वाला - जिगीषु
- जहाँ सिक्के ढाले जाते हैं - टकसाल
- जो त्यागने योग्य हो - त्याज्य
- जिसे पार करना कठिन हो - दुस्तर
- जंगल की आग - दावाग्नि
- गोद लिया हुआ पुत्र - दत्तक
- बिना पलक झपकाए हुए - निर्निमेष
- जिसमें कोई विवाद ही न हो - निर्विवाद
- जो निन्दा के योग्य हो - निन्दनीय
- मांस रहित भोजन - निरामिष
- रात्रि में विचरण करने वाला - निशाचर
- किसी विषय का पूर्ण ज्ञाता - पारंगत
- पृथ्वी से सम्बन्धित - पार्थिव
- रात्रि का प्रथम प्रहर - प्रदोष
- जिसे तुरंत उचित उत्तर सूझ जाए - प्रत्युत्पन्नमति
- मोक्ष का इच्छुक - मुमुक्षु
- मृत्यु का इच्छुक - मुमूर्षु
- युद्ध की इच्छा रखने वाला - युयुत्सु
- जो विधि के अनुकूल है - वैध
- जो बहुत बोलता हो - वाचाल
- शरण पाने का इच्छुक - शरणार्थी
- सौ वर्ष का समय - शताब्दी
- शिव का उपासक - शैव
- देवी का उपासक - शाक्त
- समान रूप से ठंडा और गर्म - समशीतोष्ण
- जो सदा से चला आ रहा हो - सनातन
- समान दृष्टि से देखने वाला - समदर्शी
- जो क्षण भर में नष्ट हो जाए - क्षणभंगुर
- फूलों का गुच्छा - स्तवक
- संगीत जानने वाला - संगीतज्ञ
- जिसने मुकदमा दायर किया है - वादी
- जिसके विरुद्ध मुकदमा दायर किया है - प्रतिवादी
- मधुर बोलने वाला - मधुरभाषी
- धरती और आकाश के बीच का स्थान - अन्तरिक्ष
- हाथी के महावत के हाथ का लोहे का हुक - अंकुश
- जो बुलाया न गया हो - अनाहूत
- सीमा का अनुचित उल्लंघन - अतिक्रमण
- जिस नायिका का पति परदेश चला गया हो - प्रोषित पतिका
- जिसका पति परदेश से वापस आ गया हो - आगत पतिका
- जिसका पति परदेश जाने वाला हो - प्रवत्स्यत्पतिका
- जिसका मन दूसरी ओर हो - अन्यमनस्क
- संध्या और रात्रि के बीचकी वेला - गोधुलि
- माया करने वाला - मायावी
- किसी टूटी-फूटी इमारत का अंश - भग्नावशेष
- दोपहर से पहले का समय - पूर्वाह्न
- कनक जैसी आभा वाला - कनकाय
- हृदय को विदीर्ण कर देने वाला - हृदय विदारक
- हाथ से कार्य करने का कौशल - हस्तलाघव
- अपने आप उत्पन्न होने वाला - स्त्रैण
- जो लौटकर आया है - प्रत्यागत
- जो कार्य कठिनता से हो सके - दुष्कर
- जिसने किसी दूसरे का स्थान अस्थाई रूप से ग्रहण किया हो - स्थानापन्
- जो देखा न जा सके - अलक्ष्य
- बाएँ हाथ से तीर चला सकने वाला - सव्यसाची
- वह स्त्री जिसे सूर्य ने भी न देखा हो - असुर्यम्पश्या
- यज्ञ में आहुति देने वाला - हौदा
- जिसे नापना सम्भव न हो - असाध्य
श्रुतिसमभिन्नार्थक शब्द
[सम्पादन]श्रुतिसमभिन्नार्थक शब्द का अर्थ है- सुनने में समान लगने वाले किन्तु भिन्न अर्थ वाले दो शब्द। अर्थात वे शब्द जो सुनने और उच्चारण करने में समान प्रतीत हों, किन्तु उनके अर्थ भिन्न-भिन्न हों।
उदाहरण के लिए, अवलम्ब और अविलम्ब -- दोनों शब्द सुनने में समान लग रहे हैं, किन्तु वास्तव में समान हैं नहीं। अत: दोनों शब्दों के अर्थ भी पर्याप्त भिन्न हैं , 'अवलम्ब ' का अर्थ है - सहारा , जबकि अविलम्ब का अर्थ है - बिना विलम्ब के अर्थात शीघ्र ।
शब्द-१ | अर्थ-१ | शब्द-२ | अर्थ-२ |
---|---|---|---|
अंस | कंधा | अंश | हिस्सा |
अंत | समाप्त | अत्य | नीच |
अन्न | अनाज | अन्य | दूसरा |
अभिराम | सुंदर | अविराम | लगातार |
अम्बुज | कमल | अम्बुधि | सागर |
अनिल | हवा | अनल | आग |
अश्व | घोड़ा | अश्म | पत्थर |
अनिष्ट | हानि | अनिष्ठ | श्रद्धाहीन |
अचर | न चलने वाला | अनुचर | नौकर |
अमित | बहुत | अमीत | शत्रु |
अभय | निर्भय | उभय | दोनों |
अस्त | आँसू | अस्त्र | हथियार |
असित | काला | अशित | भोथरा |
अर्घ | मूल्य | अर्घ्य | पूजा सामग्री |
अली | सखी | अलि | भौंरा |
अवधि | समय | अवधी | अवध की भाषा |
आरति | दुःख | आरती | धूप |
आहूत | निमंत्रित | आहुति | होम |
आसन | बैठने की वस्तु | आसन्न | निकट |
आवास | मकान | आभास | झलक |
आभरण | आभूषण | आमरण | मरण तक |
आर्त्त | दुखी | आर्द्र | गीला |
ऋत | सत्य | ऋतु | मौसम |
कुल | वंश | कूल | किनारा |
कंगाल | दरिद्र | कंकाल | हड्डी का ढाँचा |
कृति | रचना | कृती | निपुण |
कान्ति | चमक | क्रान्ति | उलटफेर |
कलि | कलयुग | कली | अधखिला फूल |
कपिश | मटमैला | कपीश | वानरों का राजा |
कुच | स्तन | कूच | प्रस्थान |
कटिबन्ध | कमरबन्ध | कटिबद्ध | तैयार / तत्पर |
छात्र | विधार्थी | क्षात्र | क्षत्रिय |
गण | समूह | गण्य | गिनने योग्य |
चषक | प्याला | चसक | लत |
चक्रवाक | चकवा पक्षी | चक्रवात | तूफान |
जलद | बादल | जलज | कमल |
तरणी | नाव | तरुणी | युवती |
तनु | दुबला | तनू | पुत्र |
दारु | लकड़ी | दारू | शराब |
दीप | दिया | द्वीप | टापू |
दिवा | दिन | दीवा | दीपक |
देव | देवता | दैव | भाग्य |
नत | झुका हुआ | नित | प्रतिदिन |
नीर | जल | नीड़ | घोंसला |
नियत | निश्चित | निर्यात | भाग्य |
नगर | शहर | नागर | शहरी |
निशित | तीक्ष्ण | निशीथ | आधी रात |
नमित | झुका हुआ | निमित | हेतु |
नीरद | बादल | नीरज | कमल |
नारी | स्त्री | नाड़ी | नब्ज |
निसान | झंडा | निशान | चिन्ह |
निशाकर | चन्द्रमा | निशाचर | राक्षस |
पुरुष | आदमी | परुष | कठोर |
प्रसाद | कृपा | प्रासाद | महल |
परिणाम | नतीजा | परिमाण | मात्रा |