प्राचीन भारत की सामाजिक विसंगतियां: एक विवेचन

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प्राचीन भारत की सामाजिक विसंगतियां : एक विवेचन

डॉ॰ अर्चना शर्मा
एसोशिएट प्रोफेसर, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-221005

प्राचीन भारतीय सामाजिक इतिहास का अनेक विद्वानों ने अध्ययन किया है। इन विद्वानों ने अपने अध्ययनों में पृथक-पृथक दृष्टियों का उपयोग किया है। प्रारम्भिक अध्ययन वेदों एवं धर्मशास्त्रों को आधार बनाकर सामाजिक संस्थाअों के अध्ययन की अोर प्रवृत्त दिखाई देते हैं। कालान्तर के विद्वानों ने अपनी स्रोत सामग्री का विस्तार कर लौकिक साहित्य, अभिलेखों, मुद्राअों एवं कला साक्ष्यों के आधार पर सामाजिक संस्थाअों का अध्ययन कर एक पृथक् ऐतिहासिक अध्ययन पद्धति का विकास किया। कालान्तर में ऐसे अध्ययन हुए, जिनमें सामाजिक इतिहास लेखन में केवल सामाजिक संस्थाअों के अध्ययन ही नहीं वरन्, समस्त लोक के इतिहास को प्रतिबिम्बित किया गया। यद्यपि यह प्रवृत्ति यथार्थ के प्रस्तुतीकरण में पूर्व की अपेक्षा अधिक सफल हुई, किन्तु अभी भी सैद्धान्तिक पक्षों का उद्घाटन ही अधिक हो पाया अौर अनेक सामाजिक विसंगतियां जो प्राचीन समाज में भी मौजूद थी, का विश्लेषण नहीं हो पाया। फलतः मेरा यह शोधपत्र इसी कमी को पूर्ण करने की दिशा में एक प्रयास है। अध्ययन के मुख्य स्रोत लौकिक साहित्य होंगे।

ईसा पूर्व की शताब्दियों से ही कुछ साहित्यकारों ने समाज की कतिपय विसंगतियों की अोर इंगित करना प्रारंभ कर दिया था। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र के द्वितीय अधिकरण ‘अध्यक्ष प्रचार’ के नौवें अध्याय ‘उपयुक्त परीक्षा’ में राजकीय अधिकारियों में व्याप्त अनियमितता एवं भ्रष्ट आचरण का उल्लेख कर दण्ड का विधान किया है। कुछ दृष्टांत महत्त्वपूर्ण है- (1) जीभ में रखे हुए मधु अथवा विष का स्वाद लिये बिना नहीं रहा जा सकता, उसी प्रकार अर्थाधिकार कायरें पर नियुक्त पुरुष, अर्थ का थोड़ा भी स्वाद न ले यह असंभव है। (2) आकाश में उड़ने वाले पक्षियों की गतिविधि का पता लगाया जा सकता है, किन्तु धन का अपहरण करने वाले कर्मचारियों की गतिविधि से पार पाना कठिन है।[1] इस प्रकार कौटिल्य अधिकांशतः राज्याधिकारियों, शिल्पियों आदि का वर्णन यथार्थतापूर्वक प्रस्तुत करते हैं। तमिल के महाकाव्य शिलप्पदिकारम्, जिसकी रचना चेर शासक शेनगुटुवन के भाई इलंगो अदिगल ने किया था। इस ग्रंथ में कवि प्रस्तुत करता है कि किस प्रकार नायक कोवलन जो एक व्यापारी है, को रानी के एक नुपुर चुराने के झूठे अभियोग में राजा द्वारा मृत्युदण्ड दे दिया जाता है। कालान्तर में उसकी पतिव्रता पत्नी कण्णगी के द्वारा उसी प्रकार का दूसरा नुपुर प्रस्तुत करने पर कोवलन की निदोषता सिद्ध होती है, किन्तु तब तक मृत्युदण्ड दिया जा चुका होता है। न्यायिक प्रक्रिया की विसंगति का यह एक उत्कृष्ट प्रस्तुतीकरण है।[2]

इसी प्रकार का संकेत कालिदास के ‘अभिज्ञानशाकुन्तल्’ में भी मिलता है। उसमें राजा के साले नगर कोतवाल एवं सिपाहियों का उल्लेख है जो केवल संदेह के आधर पर एक निरीह पुरुष (धीवर) को मारते-पीटते हैं।[3] इस प्रकार के अनेक संदर्भ लौकिक साहित्य में विद्यमान है, जिनका विवेचन प्राचीन भारतीय समाज को समझने का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र हो सकता है। संस्कृत रूपकों में ऐसे संदर्भ अधिक हैं। रूपकों में कुछ विशेष विधाएं यथा- प्रकरण, प्रहसन एवं भाण आदि तो मुख्यतः सामाजिक विसंगतियों को ही उजागर करने वाली विधाएं हैं। इसके अतिरिक्त कुछ प्रतीक एवं छायानाटकों में भी ऐसे संदर्भ मिल जाते हैं।

शूद्रक की रचना मृच्छकटिक जो एक प्रकरण है, सामाजिक विसंगतियों के उद्घाटन को दूर तक ले जाती है। इस प्रकरण में एक ब्राह्मण चोर के रूप में वर्णित है जो यज्ञोपवीत को सेंध नापने का यंत्र बताता है।[4] शर्विलक नामक यह ब्राह्मण, ब्राह्मण व्यापारी नायक चारुदत्त के घर चोरी करता है, जिसका उद्देश्य होता है नायिका, गणिका वसन्तसेना की क्रीतदासी, जिसे वह प्रेम करता है, को मुक्त कराना।[5] राजतन्त्र भ्रष्ट एवं अलोकप्रिय है। धर्मशास्त्रों में राजा से आशा की जाती थी कि वह लोककल्याण का ध्यान रखें तथा योग्य, ईमानदार एवं निष्पक्ष अधिकारियों का चयन करें, किन्तु मृच्छकटिक का राजा पालक पक्षपाती, अलोकप्रिय, दुश्चरित्र एवं अन्यायी था। उसकी उपपत्नी (रखेैल) के भाई शकार की प्रशासन पर पकड़ थी। न्यायालय का अधिकारी अधिकरणिक शकार के प्रभाव में तथा स्थानान्तरण के भय से निदरेष को सजा सुनाता है।[6] वह भी जनता में अलोकप्रिय है। अन्य अधिकारी शोधनक एवं कायस्थ भी उसके निर्देशानुसार कार्य करते थे एवं जनता में नकारात्मक छवि वाले थे। कायस्थ की तुलना सर्प से की गयी है।[7] समस्त न्याय प्रक्रिया आदर्श एवं यथार्थ के द्वन्द्व से जूझती दिखाई देती है।[8] धर्मशास्त्रीय विधान ब्राह्मण अबध्य है, के अनुकूल न्यायाधीश निर्णय देता है, किन्तु राजा उसे मृत्युदण्ड में परिवर्तित कर देता है।[9] इस प्रकार राजा का सम्पूर्ण प्रशासन विफल था। सामान्यजन सायंकाल से ही नगर के मागरें पर जाने से बचते थे। उन पर वेश्या, विट, चेट अौर सिपाही ही घूम सकते थे।[10] प्रकरण की नायिका गणिका बसन्तसेना है, जिसके अत्यन्त उत्कृष्ट चरित्र का विवरण मिलता है। वह समस्त वैभवों से युक्त शकार की उपेक्षा कर निर्धन चारुदत्त से प्रेम करती है। उसकी दासी मदनिका जब चारुदत्त को दरिद्र कहती है तो बसन्तसेना का कथन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है कि ‘गरीब से प्रेम करने वाली गणिका बदनाम नहीं होती।’[11] दासों के प्रति करुणा का भाव रखती है। चारुदत्त की पत्नी एवं पुत्र के विषय में सतर्क एवं सहयोगी दिखाई देती है। मृच्छकटिक के समाज में अनेक विषमताएं मौजूद थी। आर्थिक असमानता, अन्धविश्वास आदि का वर्चस्व था। नगर में जहां एक अोर धनाढ्यों के परिवार थे जिनके बच्चे स्वर्ण शकट से खेला करते थे तथा नगर की प्रमुख गणिका का भवन रत्न जड़ित था, वहीं दूसरी अोर चोरों एवं सेंधमारों के विषय में भी जानकारी मिलती है। अपनी गरीबी एवं ऋण से परेशान होकर संवाहक बौद्ध भिक्षु बनता है।[12] नायक चारुदत्त निर्धन है। दीये में जलाने के लिए उसके पास तेल नहीं है[13] किन्तु उसके पास एक बड़ा आवास है। वह सुगन्धित वस्त्र पहनता है। संगीत गोष्ठियों में जाता है, अपनी प्रेयसी को उपवन में बुलाने के लिए ढ़की गाड़ी भेजता है इससे ऐसा लगता है कि उसकी निर्धनता सापेक्षिक थी। धनी महाजनों की तुलना में वह गरीब था। मृच्छकटिक में चाण्डालों का उल्लेख आता है, जो बधिक का कार्य करते थे किन्तु उनकी चरित्र अत्यन्त उत्कृष्ट था। वह निदरेष का वध करने में हिचकिचाते थे तथा दुष्ट राजा के शासन एवं न्याय की आलोचना करते थे।[14] इस प्रकार मृच्छकटिक का समाज अनेक विरोधाभासों का समुच्चय था, जिन्हें लेखक ने पूर्ण सफलता के साथ प्रस्तुत किया है।

समाज में मौजूद धार्मिक पाखण्ड एवं बाह्याचार का उल्लेख पल्लव राजा महेन्द्र वर्मन प्रथम अपने मत्तविलास प्रहसन में करते हैं, जिससे कापालिक, बौद्ध, जैन मतावलम्बियों में व्याप्त कुरीतियों का कच्चा-चिट्ठा ज्ञात होता है। कापालिक भोगी एवं मदिरापानी है वह भिक्षु पर कपाल चोरी का अभियोग लगाता है। भिक्षु भी मदिरापान करता है, दुष्कर्मी है।[15]

समाज के नैतिक पतन का चित्र कश्मीरी कवि दामोदरगुप्त ने, जो काकरेट वंशी राजा जयापीड का प्रधान अमात्य था, अपनी पुस्तक ‘कुट्टनीमतम्’ में अत्यन्त प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। इस ग्रन्थ का कथास्थल वाराणसी है। चूंकि कवि का समय उसकी लेखनी को अत्यन्त प्रभावित करता है अौर दामोदरगुप्त का युग समाज में चारित्रिक पतन अौर शेैथिल्य की दुःखद कहानी को प्रस्तुत करता है। जयापीड एवं ललितादित्य का दरबार कुट्टनियों से भरा रहता था।[16] राजाअों के चारित्रिक ह्रास का प्रभाव तत्कालीन राजकुमारों, धनी-मानी व्यक्तियों तथा समाज के कर्णधारों पर पड़ा अौर सामान्य जनता का जीवन भी इससे अछूता नहीं रह सका।[17] विकराला के माध्यम से कुट्टनियों के कुप्रयासों का सजीव चित्रण उक्त पुस्तक का मुख्य प्रतिपाद्य है। वेश्याएं धन ऐंठने का हर प्रयास करती हैं। अतः कवि इस शास्त्र के रचना का उद्देश्य बताता है कि जो मनुष्य इस काव्य को सुनता है अौर ठीक प्रकार से अनुसरण करता है, वह कभी वेश्या, धूर्त अौर कट्टनियों से ठगा नहीं जाता है।[18]

सामाजिक विसंगतियों के उद्घाटन के दृष्टान्त क्षेमेन्द्र की रचनाअों में अत्यन्त प्रमुखता से अभिव्यक्त है। वह परिवर्तनों एवं विसंगतियों के क्षेत्र को अौर अधिक व्यापक करता है। साथ ही उसके विवरणों में आक्रोश (तीव्रता) भी अधिक है। गणिकाअों के धन लूटने की तरीकों, अज्ञानी वैद्यों द्वारा झूठी अौषधि प्रदान, अल्पज्ञ ज्योतिषियों, प्रभुजनों द्वारा दासों पर किये जाने वाले अत्याचार, दुर्जन एवं कंदर्य (कंजूस) का चरित्र-चित्रण, सरकारी कर्मचारियों के दोषों आदि के उद्घाटन का संदर्भ क्षेमेन्द्र की अनेक रचनाअों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है।[19] सरकारी कर्मचारियों एवं वेश्याअों के दोषों पर वह अपने पूर्ववर्ती लेखकों की तुलना में तीव्र प्रहार करता है। इतना ही नहीं विद्यार्थी भी क्षेमेन्द्र की आलोचना से बच नहीं पाये हैं। इस प्रयोजन हेतु उसने अध्ययन के लिए कश्मीर आये गौड़ीय छात्रों को चुना है, जो विद्वान होने का आडंबर करते हैं। कश्मीर की लिपि के अक्षर को भी नहीं पहचानते परन्तु भाष्य, न्याय तथा मीमांसा के ग्रन्थों का अध्ययन शुरू कर देते हैं। उनकी रुचि बनने-संवरने, भोजन एवं दान प्राप्ति में ही अधिक थी।[20] इस प्रकार क्षेमेन्द्र समाज की विसंगतियों, परिवर्तनों आदि को व्यापकता में प्रस्तुत करता है, जिसका उद्देश्य होता है समाज को इनके प्रति जागरूक बनाना। इसीलिए संस्कृत साहित्य में क्षेमेन्द्र की कुछ रचनाएं उपदेशकाव्य के अन्तर्गत रखी गयी है।

सामाजिक यथार्थ के उद्घाटन में प्रतीक नाटकों का भी महत्वपूर्ण योगदान था। इसमें कृष्ण मिश्र कृत ‘प्रबोध चन्द्रोदय’ उल्लेखनीय है। जहां एक ऐसे पाखंडालय का उल्लेख है जिसमें दिगंबर साधु एवं बौद्ध भिक्षु रहते हैं। बौद्ध भिक्षु अपने इस जीवन का कारण उत्तम भोजन, आवास की प्राप्ति बिना प्रयास होने, स्त्री, वेश्या आदि के सम्पर्क की सुविधा को बताता है। इस प्रकार वह मदिरा सेवन एवं नारी संसर्ग का भोगी है।[21] गहड़वाल नरेश गोविन्द चन्द्र का सभाकवि शंखधर एक प्रहसन की रचना करता है जिसका नाम था लटकमेलक, इसमें शाक्त एवं जैन साधुअों पर तीव्र व्यंग्य किया गया है, साथ ही मूर्ख वैद्य, शुष्क पंडित, असफल प्रेमी, सनकी दार्शनिक, बौद्ध भिक्षु (व्यसनकर) की अवान्तर कथाएं भी अत्यन्त कटाक्षपूर्ण ढंग से उल्लिखित है। चमरसेन विहार का निवासी बौद्ध भिक्षु व्यसनकार रजकी स्त्री से अपने संसर्ग को अनात्मवाद अौर क्षणिकवाद के सिद्धान्त द्वारा सिद्ध करता है। इस प्रकार यह मिथ्याविहारी दार्शनिक अल्पज्ञता का प्रमाण है। देवी उपासना के नाम पर पंचमकारों में संलग्न शाक्तों के भ्रष्टाचार के भी अनेक उदाहरण इसमें ज्ञात होते हैं।[22]

उपर्युक्त संदभरें के आधार पर कहा जा सकता है कि समाज के समग्र अध्ययन के लिए इन विसंगतियों को भी विवेचन के अंतर्गत लाना आवश्यक है। विसंगतियां द्वन्द्व की परिचायक हैं, इनका परिष्कार करते हुए समाज अग्रसर होता है। हीगल की दृष्टि को अपनाते हुए कहा जा सकता है कि ये विसंगतियां वर्तमान Thesis की Antithesis है, अौर दोनों मिलकर Synthesis को जन्म देती हैं। Thesis, Antithesis and Synthesis का यह क्रम चलता रहता है अौर परिवर्तनोें के साथ समाज की निरन्तरता बनी रहती है।

संदर्भ:[सम्पादन]

1. कौटिलीय अर्थशास्त्रम्, संस्थापक, वाचस्पति गैरोला, वाराणसी, पुनर्मुद्रित संस्करण, 2009 दूसरा अधिकरण, प्रकरण, 25, अध्याय 9, पृ0 117

2. शास्त्री, के0ए0 नीलकंठ, दक्षिण भारत का इतिहास, अनुवादक, डॉ0 वीरेन्द्र वर्मा, पटना, नवम् संस्करण, 2006, पृ0 405-6

3. कालिदास ग्रन्थावली, संपादक, ब्रह्मानन्द त्रिपाठी, हिन्दी व्याख्या, रामतेज शास्त्री, वाराणसी संस्करण, 2012, षष्ठ अंक, पृ0 426-27

4. महाकविशूद्रकप्रणीत मृच्छकटिकम्, व्याख्याकार, आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र, वाराणसी, 2012, पृ0 155

5. वही, पृ0 160-62, पृ0 185, 193-202

6. वही, पृ0 419-466

7. वही, पृ0 435

8. वही, पृ0 498

9. वही, पृ0 466-467; पी0वी0 काणे, धर्मशास्त ् र का इतिहास, भाग-1, लखनऊ, 1992 (चतुर्थ संस्करण), पृ0 157, कदाचित ऐसी बदली परिस्थितियों में कात्यायन आदि जैसे कुछ धर्मशास्त्रकारों ने ब्राह्मण को भी मृत्युदण्ड देने की व्यवस्था की है, जबकि अधिकांश धर्मशास्त्रकार ब्राह्मण को अवध्य मानते थे। गौतम ने तो ब्राह्मण को अवध्य, अवन्ध्य, अदण्ड्य, अबहिष्कार, अपरिवाद्य एवं अपरिहार्य माना है।

10. मृच्छकटिकम्, पृ0 32, एतस्यां प्रदोषबेलायाम् इह राजमार्गे गणिका विटाश्चेटा राजबल्लभाश्च पुरुषाः सहचरन्ति।

11. वही, पृ0 95

12. वही, पृ0 130, तत् संवाहको द्यूतकरः शाक्य श्रमणकः संवत इति स्मत्र्तत्यानि आर्यमा एतानि अक्षराणि।

13. वही, पृ0 87

14. वही, पृ0 471-486, दशवें अंक में एक स्थल पर चाण्डाल कहता है कि चाण्डाल कुल में जन्म लेकर भी हम लोग चाण्डाल नहीं है, असली चाण्डाल तो वे हैं जो अकारण सज्जनों को सताते हैं, वे ही पापकर्मी है।

15. उपाध्याय, आचार्य बलदेव, संस्कृत साहित्य का इतिहास, वाराणसी, 1978, पृ0 586-587

16. उपाध्याय, आचार्य बलदेव, संस्कृत साहित्य का इतिहास, वाराणसी, 1978, पृ0 586-587

17. वही, पृ0 91

18. दामोदर गुप्त द्वारा विरचित कुट्टनीमतम अथवा शम्भलीमत नामक काव्य, अनुवादक, अत्रिदेव विद्यालंकार, वाराणसी, 2003, आर्यांक 1059, पृ0 208

19. क्षेमेन्द्र ने अनेक ग्रन्थ लिखे जिनमें, ‘कलाविलास’ नामक ग्रन्थ में- दम्भ, लोभ, कामवेश्यावृत्ति, कायस्थचरित, पद, गायन, सुवर्णकारोत्पति, नाना धूर्त तथा समस्त कलावर्णन है, ‘सेव्यसेवकोपदेश’ में सेवकों की दीन दशा, ‘समयमातृका’ नामक ग्रन्थ में वेश्याअों का वर्णन विशेषतः धन ऐंठने के उपायों के संदर्भ में, ‘देशकोपदेश’ में, कंदर्य, वेश्या, कुट्टिनी, छद्म विद्यार्थियों आदि का वर्णन, ‘नर्ममाला’ में कायस्य एवं नियोगी आदि अधिकारियों की कुत्सित लीलाअों का वर्णन।

20. उपाध्याय, आचार्य बलदेव, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ0 295-96

21. विन्तर्नित्स, एम0, भारतीय साहित्य का इतिहास, भाग-तीन, खण्ड-एक, संस्कृत काव्य का इतिहास, अनुवादक एवं परिवर्द्धक सुभद्र झा, वाराणसी, 1978, 329-334

22. वही, पृ0 344; आचार्य बलदेव उपाध्याय, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ0 587-588