ब्रिटिश भारत में प्रशासनिक विकास
- ब्रिटिश प्रशासन में संवैधानिक एवं प्रशासनिक विकास
(Constitutional And Administrative Development In British Rule)
- भारतीय प्रशासनिक ढांचा प्रधानतया ब्रिटिश शासन की विरासत है। भारतीय प्रशासन के विभिन्न ढांचागत और कार्यप्रणालीगत पक्षों, जैसे- सचिवालय प्रणाली, अखिल भारतीय सेवाएँ, भर्ती, प्रशिक्षण, कार्यालय पद्धति, स्थानीय प्रशासन, जिला प्रशासन, बजट प्रणाली, लेखापरीक्षा, केंद्रीय करोँ की प्रवृत्ति, पुलिस प्रशासन, राजस्व प्रशासन आदि की जगह ब्रिटिश शासन मेँ निहित हैं।
- भारत मेँ ब्रिटिश शासन काल को दो चरणों मेँ विभक्त कर सकते हैंँ – वर्ष 1858 तक कंपनी का शासन और वर्ष 1947 तक ब्रिटिश ताज का शासन भारत।
प्रशानिक विकास
[सम्पादन]31दिसम्बर 1600 में एलिजाबेथ प्रथम की सहमति से दिया गवर्नर एण्ड कम्पनी आफ मर्चेंटस ट्रेडिंग इन टू दि ईस्ट इंडीज नामक व्यापारिक कम्पनी की स्थापना की गई,जिसे "केप ऑफ गुड होप" से लेकर पूर्व की तरफ मैगलन की खाड़ी,भारत, एशिया, अफ्रीका, अमेरिका आदि तक व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया गया। अंग्रेजों ने कम्पनी काम पहला व्यापारिक केंद्र के रूप में सूरत को चयनीत किया, राजपत्र की अधिसूचना अनुसार कम्पनी की पहली टोली 1601 में सर जेम्स लंकास्टर के नेतृत्व में यात्रा प्रारंभ की।
- ब्रिटिश शासन के दौरान संविधान मेँ हुए परिवर्तनों (जिससे ब्रिटिश शासन कालीन भारत मेँ प्रशासन की कार्य पद्धति और संगठन के लिए कानूनी आधार प्राप्त हुआ) की प्रमुख घटनाएँ इस प्रकार हैं- रेगुलेटिंग एक्ट 1773
- ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत मेँ ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्योँ को नियंत्रित करने और विनियमित करने की दिशा मेँ उठाया गया यह पहला कदम था। इसके फलस्वरूप केंद्रीय प्रशासन की नींव में निम्नलिखित 3 महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए-
- इस अधिनियम ने बंगाल के गवर्नर को, बंगाल के गवर्नर जनरल का पद दिया। प्रथम गवर्नल जनरल होने का श्रेय लार्ड वारेन हेस्टिंग्स को मिला।
- इसने मुंबई और मद्रास के गवर्नरों को बंगाल के गवर्नर जनरल के अधीन कर दिया।
- इसने कोलकाता मेँ शीर्ष नयायालय के रुप मेँ सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की।
पिट्स इंडिया एक्ट 1784
[सम्पादन]- इस अधिनियम ने भारतीयो को मामलोँ को सीधे ब्रिटिश सरकार के आधीन कर दिया।
- ईस्ट इंडिया कंपनी शासी निकाय ‘कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स’ पर नियंत्रण करने के लिए कंट्रोल बोर्ड का गठन किया गया, जो कैबिनेट का प्रतिनिधित्व करता था।
- इसने कम्पनी के राजनैतिक एवं व्यापारिक कार्यों को पृथक पृथक कर दिया।
चार्टर एक्ट 1833
[सम्पादन]- इस अधिनियम ने बंगाल के गवर्नर जनरल को, भारत के गवर्नर जनरल की पदवी प्रदान की। उसे सभी तरह की नागरिक और सैन्य शक्तियां प्राप्त हुईं।
- मुंबई और मद्रास की सरकार को अपनी विधायी शक्तियो से वंचित होना पड़ा।
- ब्रिटिश कालीन भारत के केंद्रीकरण की दिशा मेँ यह अंतिम कदम था। इस एक्ट के फलस्वरुप ही प्रथमतः भारत सरकार का आविर्भाव हुआ। जिसे ब्रिटिश शासकों द्वारा अधिकृत समस्त क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त था।
- इस एक्ट के माध्यम से ईस्ट इंडिया कंपनी की वाणिज्यिक गतिविधियाँ का भी अंत हो गया।
चार्टर एक्ट 1853
[सम्पादन]- इस अधिनियम के परिणामस्वरूप गवर्नर जनरल की परिषद की परिषद् के विधायी कार्यों का पहली बार पृथक्करण हुआ।
- इस अधिनियम के फलस्वरुप ही कंपनी के लिए लोक सेवको की भर्ती की खुली प्रतियोगिता प्रणाली का सूत्रपात हुआ तथा डायरेक्टरों को अपनी शक्तियोँ से वंचित होना पड़ा।
भारत शासन अधिनियम 1858
[सम्पादन]- इस अधिनियम के फलस्वरुप भारत की सरकार, क्षेत्र और राजस्व ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश ताज को हस्तांतरित हुआ, अर्थात कंपनी का शासन भारत मेँ ब्रिटिश ताज के द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया।
- भारत मेँ ब्रिटिश ताज की शक्तियों का प्रयोग सेक्रेटरी ऑफ स्टेट द्वारा होने लगा। इस प्रकार कंट्रोल और बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स का स्थान इस नए पद ने ले लिया।
- सेक्रेटरी ऑफ स्टेट केबिनेट ब्रिटिश कैबिनेट का सदस्य था, जिसकी सहायतार्थ 15 सदस्योँ वाली काउंसिल ऑफ इंडिया थी।
- सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को भारतीय प्रशासन पर सर्वाधिकार और नियंत्रण की शक्तियाँ प्राप्त थीं। गवर्नर जनरल उसका एजेंट होता था तथा वह ब्रिटिश संसद के प्रति जवाबदेह था।
भारतीय परिषद अधिनियम 1861
[सम्पादन]- भारत मेँ पहली बार प्रतिनिधिक संस्थाओं की शुरुआत हुई ताकि यह व्यवस्था की जा सके कि विधायी कार्यो के समय गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद मेँ गैर सरकारी सदस्योँ के रुप में कुछ भारतीय भी शामिल हों।
- इससे मुंबई और मद्रास प्रेसीडेंसी को विधायी शक्तियां प्राप्त हुईं, जिसके फलस्वरुप विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया का सूत्रपात हुआ।
- पोर्टफोलियो प्रणाली को संवैधानिक मान्यता मिली।
- इससे गवर्नल जनरल को परिषद में सुचारु कार्य व्यवहार करने के लिए नियम निरुपण की शक्ति प्राप्त हुई।
भारतीय परिषद अधिनियम 1892
[सम्पादन]- इस अधिनियम के माध्यम से अप्रत्यक्ष तौर पर चुनाव के सिद्धांत का परिचय हुआ।
- गवर्नर जनरल को तब भी नामांकन की शक्ति प्राप्त थी, जब सदस्य अप्रत्यक्ष तौर पर चुने जाते थे।
- इस अधिनियम द्वारा मेँ द्वारा विधायी परिषद के कार्य क्षेत्र मेँ विस्तार हुआ, उसे बजट संबंधी चर्चा करने और कार्यकारिणी के समक्ष प्रश्न रखने की शक्तियाँ प्राप्त हुईं।
भारतीय परिषद अधिनियम 1909
[सम्पादन]- इस अधिनियम को मिंटो-मार्ले सुधार अधिनियम के नाम से भी जानते हैंँ (लार्ड मार्ले भारत के तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट थे तथा लार्ड मिंटो गवर्नर जनरल थे)।
- इसके द्वारा सेंट्रल लेजिस्लेटिव कॉउंसिल का नाम बदलकर इंपीरियल लेजिसलेटिव कॉउंसिल कर दिया गया और इसमें आधिकारिक बहुमत का मार्ग प्रशस्त कर दिया गया।
- प्रांतीय विधान परिषदों में अनाधिकारिक बहुमत की शक्ति प्रदान की गई। इसके अतिरिक्त इस अधिनियम के माध्यम से विधान परिषदों के आकार और कार्यप्रणाली को विस्तार दिया गया।
- अधिनियम के माध्यम से पृथक निर्वाचक मंडल की धारणा को स्वीकार कर मुस्लिमो के लिए सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की शुरुआत भी की गई। इस प्रकार अधिनियम के माध्यम से संप्रदायवाद को वैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ और इसके द्वारा लार्ड मिंटो को सांप्रदायिक निर्वाचक मंडल का जनक माना जाता है।
भारतीय शासन अधिनियम 1919
[सम्पादन]- इस अधिनियम को मांटेग्यू चेंसफोर्ड सुधार (भारत मेँ तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट मोंटे तथा तत्कालीन गवर्नल जनरल लार्ड चेंसफोर्ड) के नाम से भी जाना जाता है।
- अधिनियम के माध्यम से केंद्रीय और प्रांतीय विषयों का अलग अलग निर्धारण कर प्रांतो पर केंद्र के नियंत्रण मेँ कमी लाई गई।
- केन्द्रीय और प्रांतीय विधान सभाओं को अपनी अपनी विषय सूची से संबंधित कानून बनाने के लिए प्राधिकृत किया गया।
- इस अधिनियम के माध्यम से प्रांतीय विषयो को स्थानांतरित और आरक्षित दो भागो मेँ विभक्त किया गया।
- स्थानांतरित विषयों को गवर्नर द्वारा प्रसारित किया जाता था। जिसे अपने कार्य मेँ विधानपरिषद के प्रति उत्तरदायी मंत्रियोँ का सहयोग प्राप्त था।
- आरक्षित विषय भी गवर्नर के अधीन थे, किंतु इसमेँ उसे कार्यकारी परिषद का सहयोग प्राप्त था जो विधानपरिषद के प्रति जिम्मेदार नहीँ थी। शासन की इस दोहरी पद्धति को द्वैध शासन के नाम से जाना जाता था, परंतु यह प्रयोग सफल नहीँ रहा था।
- इस अधिनियम के फलस्वरुप देश मेँ द्विसदनीय और प्रत्यक्ष चुनावों का सूत्रपात हुआ। इस प्रकार इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल की जगह द्विसदनी विधानमंडल अस्तित्व मेँ आया, जिसमेँ उच्च सदन (राज्य परिषद) और निम्न सदन (विधानसभा) का प्रावधान था। इन दोनो सदनोँ के अधिकांश सदस्य प्रत्यक्ष चुनाव द्वारा चुने जाते थे।
- इस अधिनियम मेँ यह प्रावधान किया गया कि 6 सदस्योँ गवर्नर जनरल काउंसिल में तीन सदस्य (कमांडर इन चीफ को छोड़कर) भारतीय होंगे।
भारत शासन अधिनियम 1935
[सम्पादन]- परिसंघ अधिनियम के तहत प्रांतों और इकाईयोँ के रुप में रजवाड़ों को शामिल करके अखिल भारतीय परिसंघ की स्थापना का प्रावधान किया गया। फलस्वरूप इस अधिनियम के द्वारा केंद्र और इकाईयों के बीच शक्तियोँ का विभाजन 3 सूचियोँ के संदर्भ मेँ हुआ-
- संघीय सूची केंद्र के लिए - 59 मदों सहित
- प्रांतीय सूची प्रांतो के लिए – 54 मदों सहित
- समवर्ती सूची केंद्र और प्रांत दोनो के लिए 36 मदों सहित।
- शेष अधिकार गवर्नर जनरल को दिए गए थे। तथापि संघ कभी अस्तित्व मेँ नहीँ आया क्योंकि रजवाड़े इसमेँ शामिल नहीँ हुए।
- प्रांतीय स्वायत्तता
- इस अधिनियम के द्वारा प्रांतो के द्वैध शासन का अंत हुआ तथा इसकी जगह प्रांतीय स्वायत्तता ने ले ली।
- प्रांत केंद्र के नियंत्रण से काफी हद तक मुक्त हुए तथा इन्हें अपने अपने परिभाषित क्षेत्र के अंतर्गत प्रशासन की स्वायत्त इकाई के रुप मेँ कार्य करने की आजादी मिली। इसके अतिरिक्त, इस अधिनियम द्वारा प्रांतो मेँ जिम्मेदार सरकार की शुरुआत हुई अर्थात प्रांतीय विधानसभा के प्रति जिम्मेदार मंत्रियोँ की सलाह पर गवर्नर को कार्य करना होता था।
- अधिनियम के यह भाग वर्ष 1930 मेँ प्रभावी हुआ पर वर्ष 1939 में इसको त्याग दिया गया।
- केंद्रीय स्तर पर द्वैध शासन
- इस अधिनियम केंद्र स्तर पर द्वैध शासन अंगीकृत करने का प्रावधान था।
- फलस्वरुप, संघीय विषय सूची को आरक्षित और स्थानांतरित विषय सूची मेँ विभक्त किया गया था। तथापि, अधिनियम का यह प्रावधान प्रभावी नहीँ हुआ।
- प्रांतो मेँ द्विसदनीय पद्धति
- इस अधिनियम द्वारा 11 प्रान्तों मेँ से 6 प्रान्तों मेँ द्विसदनीय पद्धति की शुरुआत हुई।
- इस प्रकार मुंबई, बंगाल, मद्रास, बिहार, असम और संयुक्त प्रांतो के विधान मंडलों को दो सदनों अर्थात विधान परिषद (उच्च सदन) और विधान सभा (निचला सदन) मेँ बांट दिया गया। इन पर कई प्रतिबंध भी लगाए गए थे।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम - 1947
[सम्पादन]- 1935 के अधिनियम के तहत परिसंघ और द्वैध शासन से जुड़े प्रावधानोँ के वर्ष 1947 तक प्रभावी न होने के कारण भारत सरकार का कामकाज 1919 के अधिनियम के प्रावधानोँ के अनुसार चलता रहा।
- इस प्रकार 1919 के अधिनियम के तहत किया गया - कार्यकारी परिषद द्वारा 1947 तक जारी रहा।
- इसके द्वारा भारत को स्वतंत्र और प्रभुता संपन्नता देश घोषित किया गया और भारत के प्रशासन के प्रति ब्रिटिश संसद की जवाबदेही समाप्त हुई।
- इसके द्वारा केंद्र और प्रांत दोनों स्तरों पर उत्तरदाई सरकार की स्थापना हुई। संवैधानिक प्रमुखोँ के रुप मेँ नाम मात्र के लिए भारत के गवर्नर जनरल और प्रांतीय गवर्नरों की नियुक्ति की गई। दूसरे शब्दोँ मेँ, उक्त दोनो को मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना होता था।
- इसने वर्ष 1946 मेँ गठित संविधान सभा को दो कार्य सौंपे (संवैधानिक और विधायी)। इस औपनिवेशिक विधायिका को इसने प्रभुता संपन्न संस्था घोषित किया।
लोक सेवा का विकासक्रम (Evolution of Civil Services)
[सम्पादन]- लोक सेवा और लोक सेवा प्रणाली की भारत मेँ शुरुआत पहली बार ब्रिटिश शासकों द्वारा ईस्ट इंडिया के शासनकाल (17वीं) शताब्दी के दौरान हुई थी।
- शुरु मेँ, वाणिज्यिक कार्य मेँ लगे ईस्ट इंडिया कंपनी के सेवको को कंपनी की स्थल सेना और नौसेना के कर्मचारिओं से अलग रखने के उद्देश्य से लोकसेवक कहा जाता था।
- 1675 में कंपनी ने पदो को नियमित तौर पर निम्नलिखित ढंग से श्रेणीबद्ध करने की परंपरा डाली- (नीचे से ऊपर के क्रम मेँ)
- अपरेंटिस
- राइटर
- फैक्टर
- जूनियर मर्चेंट
- सीनियर मर्चेंट
- बाद मेँ जब कंपनी के नियंत्रण क्षेत्र का विस्तार हुआ तो लोक सेवको को प्रशासनिक कार्य भी करने पड़े।
- वर्ष 1765 तक लोकसेवक शब्द का प्रयोग कंपनी के अधिकारिक अभिलेखों मेँ होने लगा था।
- लॉर्ड वारेन हैस्टिंग्स और लार्ड कार्नवालिस के प्रयासो के फलस्वरुप लोक सेवा का उदय हुआ। हेस्टिंग्स ने लोक सेवा की नींव रखी और कार्नवालिस ने इसे तर्कसंगत एवं नया रुप प्रदान किया।
- इसलिए लॉर्ड कार्नवालिस को भारत मेँ लोक सेवा का जनक कहा जाता है। उसने उच्च लोक सेवा की शुरुआत की, जो निचले स्तर की लोक सेवा से अलग थी।
- उच्च लोक सेवा का गठन कंपनी के कानून द्वारा जबकि निचले स्तर की लोक सेवा का गठन अन्यथा किया गया था।
- कार्नवालिस ने उत्तर लोक सेवा के पदो को अंग्रेजों के लिए ही आरक्षित रखकर भारतीयो को उच्च पदो से वंचित रखा क्योंकि-
- कार्नवालिस को भारतीयो निष्ठा और योग्यता पर विश्वास नहीँ था।
- उसकी सोच थी कि भारत मेँ ब्रिटिश शासन को स्थापित करने और संगठित रखने का कार्य भारतीय मूल के लोग पर नहीँ छोड़ा जा सकता।
- उसका मानना था कि भारत मेँ ब्रिटिश मॉडल पर आधारित प्रशासन केवल अंग्रेजो द्वारा ही स्थापित किया जा सकता है, भारतीयों द्वारा नहीँ।
- वह सिविल सेवा के अधीन उच्च पदों को ब्रिटिश समाज के प्रभावशाली लोगोँ के लिए आरक्षित रखना चाहता था।
- वर्ष 1800 में तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजजी ने कंपनी के लोक सेवको को प्रशिक्षण देने के लिए कोलकाता मेँ फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की।
- वेलेजली के इस कार्य को कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स (ईस्ट इंडिया कंपनी का शासी निकाय) का समर्थन नहीँ मिला, जिन्होंने प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए इंग्लैंड मेँ हेलीबरी में वर्ष 1806 मेँ ईस्ट इंडिया कॉलेज की स्थापना की थी।
- चार्टर एक्ट 1833 के माध्यम से कंपनी के लोक सेवको के चयन के आधार के रुप मेँ खुली प्रतियोगिता प्रणाली की शुरुआत का प्रयास किया।
- इस एक्ट में यह भी उल्लेख था कि भारतीयों को कंपनी के अंतर्गत रोजगार, पद और अधिकार से वंचित नहीँ किया जाना चाहिए।
- तथापि इस एक्ट के प्रावधान बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के विरोध के कारण लागू नहीँ हो सके जो संरक्षण प्रणाली को ही जारी रखना चाहते थे।
- मैकाले समिति चार्टर एक्ट 1853 के माध्यम से संरक्षण प्रणाली समाप्त हुई तथा कंपनी के लोक सेवकों के चयन और भर्ती के आधार के रुप मेँ खुली प्रतियोगिता प्रणाली का सूत्रपात हुआ।
- इस प्रकार बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स अपनी संरक्षक शक्तियो से वंचित हो गए और उच्च लोक सेवा की प्रतियोगिता मेँ नियंत्रण बोर्ड द्वारा बनाए जाने वाले नियमो के तहत भारतीयों को भी शामिल कर लिया गया।
- इस अधिनियम के उक्त प्रावधानोँ को लागू करने के उपाय सुझाने के लिए वर्ष 1854 मेँ मैकाले समिति (भारतीय लोक सेवा से संबंधित समिति) की नियुक्ति हुई।
मैकाले समिति ने अपनी रिपोर्ट 1854 में ही प्रस्तुत कर दी जिसमेँ निम्नलिखित सिफारिश की गई थीं-
- सिविल सेवाओं में भर्ती के लिए खुली प्रतियोगिता प्रणाली अपनायी जानी चाहिए।
- इस परीक्षा मेँ प्रवेश के लिए अभ्यार्थियोँ की आयु 18 से 23 वर्ष होनी चाहिए।
- प्रतियोगी परीक्षा का आयोजन लंदन मेँ किया जाना चाहिए।
- अभ्यर्थियों को अंतिम तौर पर नियुक्त करने से पहले उन्हें कुछ समय के लिए परिवीक्षा (प्रोबेशन) पर रखा जाना चाहिए।
- हेलीबरी स्थित ईस्ट इंडिया कॉलेज को बंद किया जाना चाहिए।
- प्रतियोगी परीक्षा का स्तर ऊँचा होना चाहिए तथा गहन ज्ञान से युक्त अभ्यर्थियोँ का ही चयन ही सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
- नियंत्रण बोर्ड ने उक्त सभी अनुशंसाओं को स्वीकार कर उन्हें लागू कर दिया।
- पहली खुली प्रतियोगिता का आयोजन 1855 मेँ गठित नियंत्रण बोर्ड के अधीन लंदन मेँ कराया गया।
- बाद में वर्ष 1858 मेँ इस प्रतियोगी परीक्षा के आयोजन की जिम्मेदारी वर्ष 1855 मेँ गठित ब्रिटिश सिविल सर्विस कमीशन को सौंपी गई।
- 1858 मेँ ही ईस्ट इंडिया कॉलेज को बंद करके लोक सेवको को ब्रिटिश विश्वविद्यालयो मेँ प्रशिक्षण दिया जाने लगा था।
- पहले भारतीय सत्येंद्र नाथ टैगोर को उच्चतर लोक सेवा मेँ प्रवेश 1864 मेँ जाकर ही प्राप्त हो सका।
- इंडियन सिविल सर्विस एक्ट 1861 मेँ उच्च सेवा के सदस्योँ के कुछ महत्वपूर्ण पदों को आरक्षित रखने का प्रावधान किया गया था।
- इसके बाद सिविल सर्विस एक्ट 1870 के माध्यम से 1861 के अधिनियम की त्रुटियों को सुधारा गया और इसमेँ भारतीयो के प्रवेश का प्रावधान किया गया। परंतु इसे तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिटन द्वारा 1879 मेँ ही लागू किया जा सका।
एचीशन आयोग
[सम्पादन]- वर्ष 1886 में चार्ल्स एचीशन की अध्यक्षता मेँ लोकसेवा आयोग का गठन किया गया ताकि लोक सेवा में उच्च पदों पर आसीन होने की भारतीयों की दावेदारी के प्रति पूरा न्याय किया जा सके।
- एचीशन आयोग ने अपनी रिपोर्ट वर्ष 1887 में प्रस्तुत की जिसमेँ निम्नलिखित सिफारिशें की गई थी-
- सिविल सेवाओं के दो स्तरीय वर्गीकरण (अर्थात उच्च और निचले) की जगह 3 स्तरीय वर्गीकरण अर्थात इंपीरियल (उच्चतम), प्रोविंशियल (प्रांतीय) और सबऑर्डिनेट (अधीनस्थ) को अपनाया जाना चाहिए।
- सिविल सेवा मेँ प्रवेश के लिए अधिकतम आयु सीमा 23 वर्ष निर्धारित की जानी चाहिए।
- भर्ती की सांविधिक सिविल सेवा प्रणाली का होना चाहिए।
- प्रतियोगी परीक्षा इंग्लैंड और भारत मेँ साथ-साथ आयोजित नहीँ होनी चाहिए।
- इंपीरियल सेवा के अधीन कुछ प्रतिशत पड़ प्रांतीय सिविल सेवा के सदस्योँ को पदोन्नत करके भरे जाने चाहि।ए आयोग की अनुशंसाओं को वृहद् स्तर पर स्वीकार और लागू किया गया। सांविधिक सिविल सेवा को 1892 मेँ समाप्त कर दिया गया।
इसलिंग्टन आयोग
[सम्पादन]- पुनः 1912 मेँ इसलिंग्टन की अध्यक्षता मेँ भारत मेँ लोक सेवा पर शाही आयोग की नियुक्ति की गई। इसलिंग्टन आयोग ने 1915 मेँ अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमेँ निम्नलिखित सिफारिशें की गई थीं-
- उच्चतर पदो पर भर्ती आंशिक रुप से इंग्लैंड और आंशिक रुप से भारत मेँ की जानी चाहिए। किंतु इसने इंग्लैंड और भारत मेँ एक ही समय पर प्रतियोगी परीक्षाएँ आयोजित करने के विचार के समर्थन नहीँ किया था।
- उच्चतर पदों 25 प्रतिशत आंशिक रुप से प्रत्यक्ष भर्ती तथा आंशिक रुप से पदोन्नति के माध्यम से भारतीयोँ द्वारा भरा जाए।
- भारत सरकार के अधीन सेवाओं को श्रेणी I और श्रेणी II मेँ वर्गीकृत किया जाए।
- लोक सेवको के वेतन का निर्धारण करते समय कार्य क्षमता को बनाए रखने के सिद्धांत का अंगीकरण किया जाना चाहिए।
- सीधी भर्ती के लिए 2 वर्ष की परिवीक्षा अवधि होनी चाहिए। आई. सी. एस. के लिए यह अवधि तीन वर्ष की होनी चाहिए।
- आयोग की रिपोर्ट 1917 मेँ प्रकाशित हुई जब इसकी सिफारिशें प्रथम विश्व युद्ध और 1917 की अगस्त घोषणा के कारण अप्रासंगिक हो चुकी थी। इसलिए इन सिफारिशों पर किसी प्रकार का गंभीर विचार विमर्श नहीँ हुआ था।
मोंट-फोर्ड रिपोर्ट
[सम्पादन]- लोक सेवा के विकासक्रम मेँ अगला मील का पत्थर 1918 में मांटेग्यू-चेंसफोर्ड-रिपोर्ट अथवा मोंट-फोर्ड रिपोर्ट या भारतीय संवैधानिक सुधारोँ पर रिपोर्ट) थी, जिसमेँ निम्नलिखित सिफारिशेँ की गई थीं-
- उच्चतर पदों का 33% भारत में भर्ती के माध्यम से भरा जाए और इस प्रतिशत को 1.5 % वार्षिक की दर से बढ़ाया जाए।
- भारत और इंग्लैंड मेँ एक ही समय पर प्रतियोगी परीक्षाएँ आयोजित की जाए।
- आई.सी.एस. के सदस्योँ को अच्छा वेतन, पेंशन लाभ और भत्ते दिए जाने चाहिए।
- उपरोक्त सिफारिशों को स्वीकार किया गया और 1919 के भारत शासन अधिनियम के द्वारा लागू किया गया।
- इस अधिनियम के समय 9 अखिल भारतीय सेवायें मौजूद थीँ-
- भारतीय सिविल सेवा ICS
- भारतीय पुलिस सेवा
- भारतीय वन सेवा
- भारती वन अभियांत्रिकी सेवा
- भारतीय अभियांत्रिकी सेवा
- इंडियन सिविल वेटरनरी सर्विस
- भारतीय चिकित्सा सेवा
- भारतीय शैक्षिक सेवा
- भारतीय कृषि सेवा
- इस सूची मेँ भारतीय कृषि सेवा के रुप मेँ अंतिम अखिल भारतीय सेवा 1906-07 मेँ जोड़ी गयी थी।
- इन सेवाओं के सदस्य भारत के राज्य सचिव द्वारा भर्ती और नियंत्रित किए जाते थे। इसलिए इन सेवाओं को राज्य सेवा के सचिव के रुप मेँ भी माना जाता था।
- उल्लेखनीय रुप से अखिल भारतीय सेवा शब्द का पहली बार 1918 मेँ कार्य विभाजन समिति द्वारा प्रयुक्त किया गया था। एम. इ. गाटलेट इस समिति के अध्यक्ष थे।
- 1918 और 1919 के सुहारोँ के परिणामस्वरुप पहली प्रतियोगिता परीक्षा (ICS परीक्षा) ब्रिटिश सिविल सेवा आयोग के पर्यवेक्षणाधीन 1922 मेँ भारत में (इलाहाबाद मेँ) आयोजित हुई थीं।
- इस समय तक उच्चतर लोक सेवा मेँ प्रवेश के लिए पांच पद्धतियाँ मौजूद थीं। ये पद्धतियाँ थीं-
- इंग्लैंड मेँ आयोजित खुली प्रतियोगी परीक्षाओं द्वारा
- भारत मेँ आयोजित पृथक प्रतियोगी परीक्षाओं द्वारा
- बार से नियुक्तियों द्वारा (न्यायिक पदों के संबंध मेँ)
- सामुदायिक एवं प्रांतीय प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देने के लिए नामांकन द्वारा (भारत मेँ)
- 1922 मेँ भारत सरकार द्वारा निम्नतर सेवाओं पर भर्ती के लिए कर्मचारी चयन बोर्ड का गठन किया गया। यह 1926 तक काम करता रहा।
- इसके बाद कार्योँ को नवगठित लोक सेवा आयोग द्वारा संपन्न किया जाने लगा।
ली आयोग
[सम्पादन]- वर्ष 1923 मेँ लार्ड विस्काउंट ली की अध्यक्षता मेँ भारत मेँ उच्च सिविल सेवाओं से सम्बंधित रॉयल कमीशन की नियुक्ति kigaithi
।
- कमीशन ने अपनी रिपोर्ट 1924 प्रस्तुत करते हुए निम्नलिखित अनुशंसाएँ कीं-
- भारतीय सिविल सेवा, भारतीय पुलिस सेवा, भारतीय चिकित्सा सेवा, भारतीय इंजीनियरिंग सेवा (सिंचाई शाखा), भारतीय वन सेवा (मुंबई प्रांत को छोड़कर) को बनाए रखना चाहिए। इन सेवाओं के सदस्योँ की नियुक्ति तथा उन पर नियंत्रण रखने का कार्य भारत के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट द्वारा किया जाना चाहिए।
- अखिल भारतीय स्तर की अन्य सेवाओं, यथा- भारतीय कृषि सेवा, भारतीय वेटरनरी सेवा, भारतीय शैक्षिक सेवा, भारतीय इंजीनियरिंग सेवा (सड़क एवं भवन शाखा) तथा भारतीय वन सेवा (केवल मुंबई प्रांत मेँ) के लिए आगे कोई नियुक्ति / भर्ती नहीँ की जानी चाहिए। भविष्य मेँ इन सेवाओं के सदस्योँ की नियुक्ति और नियंत्रण रखने का कार्य प्रांतीय सरकारों द्वारा किया जाना चाहिए।
- सेवाओं के भारतीयकरण के लिए उच्च पदों में से 20% पद प्रांतीय सिविल सेवा मेँ पदोन्नति के आधार पर भरे जाने चाहिए। सीधी भर्ती के समय अंग्रेजों और भारतीयों का अनुपात बराबर होना चाहिए ताकि लगभग 15 वर्ष मेँ 50-50 के अनुपात का लक्ष्य हासिल हो सके।
- ऐसे ब्रिटिश अधिकारियों को समानुपातिक पेंशन के आधार पर सेवानिवृत्ति की अनुमति दी जानी चाहिए जो भारतीय मंत्रियोँ के अधीन कार्य करने के इच्छुक न हों।
- भारत सरकार अधिनियम 1919 के प्रावधान के अनुसार लोक सेवा आयोग का गठन किया जाना चाहिए।
- उक्त अनुशंसाओं को मानते हुए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें लागू करते हुए 1926 मेँ लोक सेवा आयोग की स्थापना की और आयोग को लोक सेवकों की भर्ती करने का कार्य सौंपा।
- इस आयोग मेँ एक अध्यक्ष और चार अन्य सदस्योँ का प्रावधान था और इसके पहले अध्यक्ष ब्रिटिश गृह लोक सेवा के वरिष्ठ सदस्य सर रॅास बार्कर थे।
- 1937 मेँ (जब 1935 का अधिनियम लागू हुआ) इस आयोग का स्थान संघीय लोक सेवा आयोग ने ले लिया और अंत मेँ, 26 जनवरी 1950 (जब भारतीय संविधान लागू हुआ) को संघ लोक सेवा आयोग अस्तित्व में आया।
- भारत सरकार अधिनियम, 1935 मेँ लोकसभा के सदस्योँ के अधिकारोँ और विशेषाधिकारोँ की रक्षा संबंधी प्रावधान किया गया था।
- इस अधिनियम में संघीय लोक सेवा आयोग तथा प्रांतीय लोक सेवा आयोग की स्थापना के साथ-साथ दो या दो से अधिक प्रांतो के लिए संयुक्त लोक सेवा आयोग की स्थापना करने का भी प्रावधान था।
- वर्ष 1947 मेँ अखिल भारतीय स्तर की केवल दो सेवाएँ ही अस्तित्व मेँ थीं- इंडियन सिविल सर्विस और इंडियन पुलिस सर्विस।
- इसके अतिरिक्त केंद्रीय और राज्य स्तर की विभिन्न सेवायें भी अस्तित्व मेँ थीं। केंद्रीय सेवाएं 4 श्रेणियों में वर्गीकृत थीं- श्रेणी-I, श्रेणी-II, अधीनस्थ और चतुर्थ श्रेणी की निम्नतर सेवाएँ।
अन्य संस्थाओं का विकास
[सम्पादन]केन्द्रीय सचिवालय
[सम्पादन]- वर्ष 1843 मेँ भारत के गवर्नर जनरल ने भारत के सचिवालय को बंगाल सरकार के सचिवालय से पृथक कर दिया था, जिसके फलस्वरुप केंद्रीय सचिवालय मेँ गृह, वित्त, रक्षा और विदेश विभागों की स्थापना हुई।
- वर्ष 1859 में लार्ड कैनिंग द्वारा पोर्टफोलियो (विभाग-विभाजन) की प्रणाली शुरु की गई जिसके फलस्वरुप गवर्नल जनरल परिषद के एक सदस्य को केंद्रीय सचिवालय के एक या एक से अधिक विभागोँ का प्रभारी बनाया गया और परिषद की ओर से आदेश जारी करने के लिए प्राधिकृत किया गया था।
- वर्ष 1905 में लॉर्ड कर्जन ने सचिवालय के कार्मिकोँ के लिए कार्यकाल संबंधी प्रणाली शुरु की थी।
- वर्ष 1905 में भारत सरकार के एक प्रस्ताव द्वारा रेलवे बोर्ड का गठन किया गया, जिसके फलस्वरुप रेलवे पर नियंत्रण का कार्य लोक निर्माण विभाग से लेकर इस बोर्ड को सौंप दिया गया था।
- वर्ष 1947 मेँ भारत सरकार के विभागोँ का नाम बदलकर मंत्रालय कर दिया गया। उस समय केंद्रीय सचिवालय मेँ वैसे 18 मंत्रालय थे।
===राज्य प्रशासन=== सर्वप्रथम कलेक्टर के पद के रचना किया गया था।
ब्रिटिश शासनकाल के समय अस्तित्व मेँ आए और विकसित हुए राज्य प्रशासन से जुड़ी संस्थाएँ इस प्रकार थीं-
- वर्ष 1772 मेँ लार्ड वारेन हैस्टिंग्स ने राजस्व संग्रहण और न्याय प्रदान करने के दोहरे प्रयोजन से जिला कलेक्टर के पद की रचना की।
- वर्ष 1786 मेँ राज्य स्तर पर राजस्व प्रशासन से जुड़े मुद्दोँ पर निपटने के लिए सर्वप्रथम बंगाल मेँ राजस्व बोर्ड नामक संस्था का गठन किया गया था।
- वर्ष 1792 में लार्ड कार्नवालिस ने जमींदारी थानेदार प्रणाली की जगह दरोगा प्रणाली की शुरुआत की जो जिला प्रमुख के सीधे नियंत्रण मेँ थी।
- वर्ष 1829 मेँ लार्ड विलियम बेंटिक ने जिला और राज्य मुख्यालयों के बीच एक मध्यस्थ प्राधिकरण के रुप में प्रभागीय आयुक्त के पद की रचना की थी।
- वर्ष 1861 मेँ भारतीय पुलिस अधिनियम के माध्यम से कांस्टेबल प्रणाली की स्थापना हुई जिसके द्वारा जिला पुलिस को जिला मजिस्ट्रेट (जिला कलेक्टर) के अधीन किया गया था।
स्थानीय प्रशासन
[सम्पादन]वर्तमान भारत के शहरी स्थानीय शासन से जुड़ी संस्थाएँ ब्रिटिश शासनकाल के दौरान अस्तित्व मेँ आई और विकसित हुईं जो इस प्रकार हैं-
- वर्ष 1687 में भारत में पहले नगर निगम की स्थापना मद्रास मेँ हुई।
- वर्ष 1726 मेँ बंबई (वर्तमान मुंबई) और कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) नगर निगमों की स्थापना हुई।
- वर्ष 1870 मेँ लार्ड मेयो के वित्तीय विकेंद्रीकरण से संबंधित प्रस्ताव द्वारा स्थानीय स्वशासन संस्थाओं का विकास हुआ था।
- लॉर्ड रिपन के वर्ष 1882 के प्रस्ताव को स्थानीय स्वशासन का ‘मैग्नाकार्टा’ माना गया। लॉर्ड रिपन को भारत मेँ स्थानीय स्वशासन का जनक माना जाता है।
- विकेंद्रीकरण के मुद्दे पर रॉयल कमीशन की नियुक्ति सन 1905 मेँ की गई थी, जिसने अपनी रिपोर्ट 1009 मेँ प्रस्तुत की। इस कमीशन के चेयरमैन हॉबहाउस थे।
- भारत सरकार अधिनियम 1919 के माध्यम से प्रांतो मेँ शुरु की गई द्वैध शासन प्रणाली के तहत स्थानीय स्वशासन को हस्तांतरित विषय का दर्जा प्राप्त हुआ था, जिसके प्रभारी भारतीय मंत्री होते थे।
- सन 1924 में केंद्रीय विधायिका द्वारा एक कैंटोनमेंट एक्ट पारित किया गया।
- भारत सरकार अधिनियम 1935 द्वारा शुरु की गई प्रांतीय स्वायत्ता से जुड़ी योजना के तहत स्थानीय स्वशासन को प्रांतीय विजय घोषित किया गया।
वित्तीय प्रशासन
[सम्पादन]- 1735 मेँ भारतीय लेखा परीक्षा व लेखा विभाग का गठन किया गया।
- सन 1860 मेँ बजट प्रणाली की शुरुआत हुई।
- वर्ष 1870 में लार्ड मेयो ने वित्तीय प्रशासन का विकेंद्रीकरण किया जिसके फलस्वरूप प्रांतीय सरकारोँ को स्थानीय वित्तीय प्रबंधन के लिए उत्तरदायी बनाया गया था।
- वर्ष 1921 में आक्वर्थ समिति की सिफारिश पर रेल बजट को आम बजट से पृथक कर दिया गया।
- सन 1921 में केंद्र मेँ लोक लेखा समिति का गठन हुआ।
- वर्ष 1935 में केंद्रीय अधिनियम द्वारा भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना हुई।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद परिवर्तन
[सम्पादन]स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय संविधान के माध्यम से भारतीय प्रशासन का जो ढांचा तैयार हुआ, उसमें प्रजातांत्रिक और कल्याणकारी राज्य का प्रावधान किया गया था। स्वतंत्र भारत मेँ प्रशासन की दृष्टि कई बदलाव हुए, जो इस प्रकार हैं-
- केंद्र और राज्य दोनों स्तर पर संसदीय प्रणाली की सरकार की शुरुआत हुई। इसमेँ कार्यपालिका, जो विधायिका से उत्पन्न थी, को प्रमुखता प्रदान करने के साथ-साथ इसे विधायिका के प्रति जवाबदेह भी बनाया गया।
- केंद्र और राज्योँ के बीच शक्तियोँ के बटवारे के साथ साथ संघीय राजनीतिक प्रणाली की शुरुआत हुई किंतु केंद्र सरकार को अधिक शक्ति प्रदान की गई।
- राजनीतिक कार्यपालिका की उच्चतर लोक सेवकों पर बरकरार रखी गई तथा लोक सेवको को राजनीतिक कार्यपालिका के अधीन माना गया।
- राजनीति के दोनों स्तरों (केंद्र और राज्य) पर कल्याण और विकास से जुड़े कई विभागोँ का विकास किया गया। दोनो स्तरों पर नई लोक सेवाओं (अखिल भारतीय, जैसे- आई.एफ.एस. और केंद्रीय सेवा दोनों) तथा लोक सेवा आयोग का गठन किया गया।
- लोक सेवको की भूमिका मेँ बदलाव लाया गया और अन्य सामाजिक आर्थिक विकास प्रक्रिया मेँ बदलाव लाने वाले अभिकर्ता का कार्यभार सौंपा गया।
- राष्ट्रीय क्रांति और जिला स्तर पर नियोजन के माध्यम से प्रशासन मेँ कल्याण और विकास संबंधी पक्षों को शामिल किया गया। सबसे नीचे के स्तरों पर पर प्रजातंत्र को बल प्रदान करने के लिए पंचायती राज प्रणाली का आविर्भाव हुआ।
- सलाहकार समितियों, दबाव समूह और अन्य के माध्यम से सभी स्तरों पर प्रशासन मेँ लोगोँ की भागीदारी सुनिश्चित की गई।