भारतीय साहित्य/आधुनिक भारतीय भाषाओं के साहित्य का संक्षिप्त परिचय

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आधुनिक भारतीय भाषाए

असिमया[सम्पादन]

असमिया साहित्य


यद्यपि असमिया भाषा की उत्पत्ति १७वीं शताब्दी से मानी जाती है किंतु साहित्यिक अभिरुचियों का प्रदर्शन १३वीं शताब्दी में कंदलि के द्रोण पर्व (महाभारत) तथा कंदलि के रामायण से प्रारंभ हुआ। वैष्णवी आंदोलन ने प्रांतीय साहित्य को बल दिया। शंकर देव (१४४९-१५६८) ने अपनी लंबी जीवन-यात्रा में इस आंदोलन को स्वरचित काव्य, नाट्य व गीतों से जीवित रखा।

असमिया के शिष्ट और लिखित साहित्य का इतिहास पाँच कालों में विभक्त किया जाता है:

(१) वैष्णवपूर्वकाल : 1200-1449 ई. (2) वैष्णवकाल : 1449-1650 ई. (3) गद्य, बुरंजी काल : 1650-1926 ई. (4) आधुनिक काल : 1926-1947 ई. (5) स्वाधीनतोत्तर काल : 1947 ई.

अनुक्रम 1 वैष्णवपूर्वकाल 2 वैष्णवकाल 3 बुरंजी, गद्यकाल 4 आधुनिक काल 5 स्वाधीनतोत्तरकाल 6 इन्हें भी देखें 7 बाहरी कड़ियाँ वैष्णवपूर्वकाल अद्यतन उपलब्ध सामग्री के आधार पर हेम सरस्वती और हरिवर विप्र असमिया के प्रारंभिक कवि माने जा सकते हैं। हेम सरस्वती का "प्रह्लादचरित्र" असमिया का प्रथम लिखित ग्रंथ माना जाता है। ये दोनों कवि कमतातुर (पश्चिम कामरूप) के शासक दुर्लभनारायण के आश्रित थे। एक तीसरे प्रसिद्ध कवि कबिरत्न सरस्वती भी थे, जिन्होने "जयद्रथवध" लिखा। परंतु वैष्णवपूर्वकाल के सबसे प्रसिद्ध कवि माधव कन्दली हुए, जिन्होंने राजा महामाणिक्य के आश्रय में रहकर अपनी रचनाएँ कीं। माधव कंदली के रामायण के अनुवाद ने विशेष ख्याति प्राप्त की। संस्कृत शब्दसमूह को असमिया में रूपांरित करना कवि की विशेष कला थी। इस काल की अन्य फुटकर रचनाओं में कुछ गीतिकाव्य उल्लेखनीय हैं। इन रचनाओं में तत्कालीन लोकमानस विशेष रूप से प्रतिफलित हुआ। तंत्र मंत्र, मनसापूजा आदि के विधान इस वर्ग की कृतियों में अधिक चर्चित हुए हैं।

वैष्णवकाल इस काल की पूर्ववर्ती रचनाओं में विष्णु से संबद्ध कुछ देवताओं को महत्त्व दिया गया था। परंतु आगे चलकर विष्णु की पूजा की विशेष रूप से प्रतिष्ठा हुई। स्थिति के इस परिवर्तन में असमिया के महान कवि और धर्मसुधारक शंकरदेव (1449-1568) ई. का योग सबसे अधिक था। शंकरदेव की अधिकांश रचनाएँ भागवतपुराण पर आधारित हैं और उनके मत को भागवती धर्म कहा जाता है। असमिया जनजीवन और संस्कृति को उसके विशिष्ट रूप में ढालने का श्रेय शंकरदेव को ही दिया जाता है। इसलिए कुछ समीक्षक उनके व्यक्तित्व को केवल कवि के रूप में ही सीमित नहीं करना चाहते। वे मूलत: उन्हें धार्मिक सुधारक के रूप में मानते हैं। शंकरदेव की भक्ति के प्रमुख आश्रय थे श्रीकृष्ण। उनकी लगभग 30 रचनाएँ हैं, जिनमें से "कीर्तनघोष" उनकी सर्वोत्कृष्ट कृति है। असमिया साहित्य के प्रसिद्ध नाट्यरूप "अंकीया नाटक" के प्रारंभकर्ता भी शंकरदेव ही हैं। उनके नाटकों में गद्य और पद्य का बराबर मिश्रण मिलता है। इन नाटकों की भाषा पर मैथिली का प्रभाव है। "अंकीया नाटक" के पद्यांश को "वरगीत" कहा जाता है, जिसकी भाषा प्रमुखत: ब्रजबुलि है।

शंकरदेव के अतिरिक्त इस युग के दूसरे महत्वपूर्ण कवि उनके शिष्य माधवदेव हुए। उनका व्यक्तित्व बहुमुखी था। वे कवि होने के साथ-साथ संस्कृत के विद्वान्, नाटककार, संगीतकार तथा धर्मप्रचारक भी थे। "नामघोषा" इनकी विशिष्ट कृति है। शंकरदेव के नाटकों में "चोरधरा" अधिक प्रसिद्ध रचना है। इस युग के अन्य लेखकों में अनंत कंदली, श्रीधर कंदली तथा भट्टदेव विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। असमिया गद्य को स्थिरीकृत करने में भट्टदेव का ऐतिहासिक योग माना जाता है।

बुरंजी, गद्यकाल आहोम राजाओं के असम में स्थापित हो जाने पर उनके आश्रय में रचित साहित्य की प्रेरक प्रवृत्ति धार्मिक न होकर लौकिक हो गई। राजाओं का यशवर्णन इस काल के कवियों का एक प्रमुख कर्तव्य हो गया। वैसे भी अहोम राजाओं में इतिहासलेखन की परंपरा पहले से ही चली आती थी। कवियों की यशवर्णन की प्रवृत्ति को आश्रयदाता राजाओं ने इस ओर मोड़ दिया। पहले तो अहोम भाषा के इतिहास ग्रंथों (बुरंजियों) का अनुवाद असमिया में किया गया और फिर मौलिक रूप से बुरंजियों का सृजन होने लगा। "बुरंजी" मूलत: एक टाइ शब्द है, जिसका अर्थ है "अज्ञात कथाओं का भांडार"। इन बुरंजियों के माध्यम से असम प्रदेश के मध्ययुग का काफी व्यवस्थित इतिहास उपलब्ध है। बुरंजी साहित्य के अंतर्गत कामरूप बुरंजी, कछारी बुरंजी, आहोम बुरंजी, जयंतीय बुंरजी, बेलियार बुरंजी के नाम अपेक्षाकृत अधिक प्रसिद्ध हैं। इन बुरंजी ग्रंथों के अतिरिक्त राजवंशों की विस्तृत वंशावलियाँ भी इस काल में हुई। उपयोगी साहित्य की दृष्टि से इस युग में ज्योतिष, गणित, चिकित्सा आदि विज्ञान संबंधी ग्रंथों का सृजन हुआ। कला तथा नृत्य विषयक पुस्तकें भी लिखी गईं। इस समस्त बहुमुखी साहित्यसृजन के मूल में राज्याश्रय द्वारा पोषित धर्मनिरपेक्षता की प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।

इस काल में हिंदी के दो सूफी काव्यों (कुतुबन की "मृगावती" तथा मंझन की "मधुमालती") के कथानकों के आधार पर दो असमिया काव्य लिखे गए। पर मूलत: यह युग गद्य के विकास का है।

आधुनिक काल अन्य अनेक प्रांतीय भाषाओं के साहित्य के समान असमिया में भी आधुनिक काल का प्रारंभ अंग्रेजी शासन के साथ जोड़ा जाता है। 1826 ई. असम में अंग्रेजी शासन के प्रारंभ की तिथि है। इस युग में स्वदेशी भावनओं के दमन तथा सामाजिक विषमता ने मुख्य रूप से लेखकों को प्ररेणा दी। इधर 1838 ई. से ही विदेशी मिशनरियों ने भी अपना कार्य प्रारंभ किया और जनता में धर्मप्रचार का माध्यम असमिया को ही बनाया। फलत: असमिया भाषा के विकास में इन मिशनरियों द्वारा परिचालित व्यवस्थित ढंग के मुद्रण तथा प्रकाशन से भी एक स्तर पर सहायता मिली। अंग्रेजी शासन के युग में अंग्रेजी और यूरोपीय साहित्य के अध्ययन मनन से असमिया के लेखक प्रभावित हुए। कुछ पाश्चात्य आदर्श बंगला के माध्यम से भी अपनाए गए। इस युग के प्रारंभिक लेखकों में आनंदराम टेकियाल फुकन का नाम सबसे महत्वपूर्ण है। अन्य लेखकों में हेमचंद्र बरुआ, गुणाभिराम बरुआ तथा सत्यनाश बोड़ा के नाम उल्लेखनीय हैं।

असमिया साहित्य का मूल रूप प्रमुखत: तीन लेखकों द्वारा निर्मित हुआ। ये लेखक थे चंद्रकुमार अग्रवाल (1858-1938), लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ (1858-1938) तथा हेमचंद्र गोस्वामी (1872-1928)। कलकत्ता में रहकर अध्ययन करते समय इन तीन मित्रों ने 1889 में "जोनाकी" (जुगुनू) नामक मासिक पत्र की स्थापना की। इस पत्रिका को केंद्र बनाकर धीरे-धीरे एक साहित्यिक समुदाय उठ खड़ा हुआ जिसे बाद में जोनाकी समूह कहा गया। इस वर्ग में अधिकांश लेखक अंग्रेजी रोमांटिसिज्म से प्रभावित थे। 20वीं सदी के प्रारंभ के इन लेखकों में लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ बहुमुखी प्रतिभासंपन्न थे। उनका "असमिया साहित्येर चानेकी" नामक संकलन विशेष प्रसिद्ध है। असमिया साहित्य में उन्होंने कहानी तथा ललित निबंध के बीच के एक सहित्य रूप को अधिक प्रचलित किया। बेजबरुआ की हास्यरस की रचनाओं को काफी लोकप्रियता मिली। इसीलिए उसे "रसराज" की उपाधि दी गई। इस युग में अन्य कवियों में कमलाकांत भट्टाचार्य, रघुनाथ चौधरी, नलिनीबाला देवी, अंबिकागिरि रायचौधुरी, फुकन आदि का कृतित्व महत्वपूर्ण माना जाता है। मफिजुद्दीन अहमद की कविताएँ सूफी धर्मसाधना से प्रेरित हैं।

गद्य, विशेष रूप से कथासाहित्य, के क्षेत्र में 19वीं शताब्दी के अंत में दो लेखक पद्यनाथ गोसाई बरुआ तथा रजनीकांत बारदोलाई अपने ऐतिहासिक उपन्यासों तथा नाटकों के लिए महत्वपूर्ण समझे जाते हैं। जोनाकी समुदाय के समानांतर जिन गद्यलेखकों ने साहित्यसृजन किया उनमें से वेणुधर राजखोवा तथा शरच्चंद्र गोस्वामी के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। शरच्चंद्र गोस्वामी की प्रतिभा वैसे तो बहुमुखी थी, पर उनकी ख्याति प्रमुखत: कहानियों को लेकर है। कहानी के क्षेत्र में लक्ष्मीधर शर्मा, बीना बरुआ, कृष्ण भुयान आदि ने प्रणय संबंधी नए अभिप्रायों के कुछ प्रयोग किए। लक्ष्मीनाथ फुकन अपनी हास्यरस की कहानियों के लिए स्मरणीय हैं। कथासाहित्य के अतिरिक्त नाटक के क्षेत्र में अतुलचंद्र हजारिका तथा ज्योतिप्रसाद अग्रवाल का कार्य अधिक महत्वपूर्ण है। समीक्षा तथा शोध की दृष्टि से अंबिकानाथ बरा, वाणीकांत काकती, कालीराम मेधी, विरंचि बरुआ तथा डिंबेश्वर नियोग का कृतित्व उल्लेखनीय है।

असमिया साहित्य के आधुनिक काल में पत्र पत्रिकाओं का माध्यम भी काफी प्रचलित हुआ। इनमें से "अरुणोदय", "जोनाकी", "बोली", "आवाहन", "जयंती", तथा "पछोवा" ने विभिन्न क्षेत्रों में काफी उपयोगी कार्य किया है। नए प्रकार का साहित्यसृजन प्रमुखत: "रामधेनु" को केंद्र बनाकर हुआ है।

स्वाधीनतोत्तरकाल इस युग में पाश्चात्य प्रभाव अधिक स्वस्थ तथा संतुलित रूप में आए हैं। इलियट तथा उनके सहयोगी अंग्रेजी कवियों से नए असमिया लेखकों को प्रमुखत: प्रेरणा मिली है। केवल कविता में ही नहीं, कथासाहित्य तथा नाटक में भी इन नए प्रयोगों की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। समाजशास्त्रीय तथा मनोवैज्ञानिक दोनों ही प्रकार की समस्याओं का नए लेखकों ने उठाया है। उनके शिल्प संबंधी प्रयोग भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।

प्राचीन असम की साहित्य-रुचि-संपन्नता का पता तत्कालीन ताम्रपत्रों से चलता है। इसी प्रकार वहाँ के पुस्तकोत्पादन के संबंध में भी एक प्राचीन उल्लेख मिलता है, जिसके अनुसार कुमार भास्करवर्मन (ईसा की सातवीं शताब्दी) ने अपने मित्र कन्नौजसम्राट् हर्षवर्धन को सुंदर लिपि में लिखी हुई अनेक पुस्तकं भेंट की थीं। इन पुस्तकों में से एक संभवत: तत्कालीन असम में प्रचलित कहावतों तथा मुहावरों का संकलन था।

बहुत प्राचीन काल से ही असम में संगीतप्रियता की परंपरा चलती आ रही है। इसके प्रमाणस्वरूप आधुनिक असम में अलिखित और अज्ञात लेखकों द्वारा प्रस्तुत वस्तुत: अनेकानेक लोकगीत मिलते हैं, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक परंपरा से सुरक्षित रह सके हैं। ये लोगगीत धार्मिक अवसरों, अचारों तथा ऋतुओं के परितर्वनों से संबद्ध हैं। कुछ लोकगाथाओं में राजकुमार नायकों के आख्यान भी मिलते हैं। शिष्ट साहित्य के उद्भव के पूर्व इस काल में दार्शनिक डाक का महत्त्व असाधारण है। उसके कथनों को वेदवाक्य संज्ञा दी गई है। डाकवचनों की यह परंपरा बंगाल तथा बिहार तक मिलती है। असम के प्राय: प्रत्येक परिवार में कुछ समय पूर्व तक इन डाकवचनों का एक हस्तलिखित संकलन रहता था।

असम के प्राचीन नाम "कामरूप" से प्रकट होता है कि वहाँ बहुत प्राचीन काल से तंत्र मंत्र की परंपरा रही है। इन गुह्यचारों से संबद्ध अनेक प्रकार के मंत्र मिलते हैं जिनसे भाषा तथा साहित्य विषयक प्रारंभिक अवस्था का कुछ परिचय मिलता है। "चर्यापद" के लेखक सिद्धों में से कई का कामरूप से घनिष्ठ संबंध बताया जाता है, जो इस प्रदेश की तांत्रिक परंपरा को देखते हुए काफी स्वाभाविक जान पड़ता है। इस प्रकार चर्यापदों के समय से लेकर 13वीं शताब्दी के बीच का मौखिक साहित्य या तो जनप्रिय लोकगीतों और लोकगाथओं का है या नीतिवचनों तथा मंत्रों का। यह साहित्य बहुत बाद में लिपिबद्ध हुआ।

बांग्ला[सम्पादन]

बँगला भाषा (बाङ्ला भाषा) का साहित्य स्थूल रूप से तीन भागों में बाँटा जा सकता है -

प्राचीन साहित्य (950-1,200 ई.), मध्यकालीन साहित्य (1,200-1,800 ई.), तथा आधुनिक साहित्य (1,800 के बाद)। प्रारंभिक साहित्य बंगाल के जीवन तथा उसके गुण-दोष-विवेचन की दृष्टि से ही अधिक महत्वपूर्ण है। चंडीदास, कृतिवास, मालाधर बसु, विप्रदास पिपलाई, लोचनदास, ज्ञानदास, कविकंकण मुकुन्दराम, कृष्णदास, काशीराम दास, रायगुणाकर भारतचन्दराय आदि कवि इसी काल में हुए हैं।


अनुक्रम 1 प्राचीन बँगला साहित्य (950 से 1200 ई. तक) 2 मध्यकालीन बँगला साहित्य (1200 से 1800 ई. तक) 2.1 संक्रमणकालीन साहित्य (१२००-१३५०) 2.2 प्रारम्भ का मध्यकालीन साहित्य (1350 से 1607 तक) 2.3 उत्तरकालीन माध्यमिक बांगला साहित्य (1600-1800) 3 आधुनिक बँगला साहित्य (1800 से 1950 तक) 4 आधुनिक युग के बाद 5 इन्हें भी देखें 6 बाहरी कड़ियाँ प्राचीन बँगला साहित्य (950 से 1200 ई. तक) भारत के अन्य विद्वानों की तरह बंगाल के भी विद्वान् संस्कृत की रचनाओं को ही विशेष महत्त्व देते थे। उनकी दृष्टि में वही "अमर भारती" का पद सुशोभित कर सकती थी। बोलचाल की भाषा को वे परिवर्तनशील और अस्थायी मानते थे। किन्तु जनसाधारण तो अपने विचारों और भावों को प्रकट करने के लिए उसी भाषा को पसन्द कर सकते थे जो उनके हृदय के अधिक निकट हो। उसी भाषा में वे उपदेश और शिक्षा ग्रहण कर सकते थे। पुरातन बंगाल में इस तरह की दो भाषाएँ प्रचलित थीं-एक तो स्थानीय भाषा, जिसे हम प्राचीन बँगला कह सकते हैं, दूसरी अखिल भारतीय जन साहित्यिक भाषा, जो सामान्यतः समूचे उत्तर भारत में समझी जा सकती थी। इसे नागर या शौरसेनी अपभ्रंश कह सकते हैं जो मोटे तौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पूर्वी पंजाब तथा राजस्थान की भाषा थी। सामान्य जनता के लिए इन दोनों भाषाओं में थोड़ा सा साहित्य विद्यमान था। प्रेम और भक्ति के गीत, कहावतें और लोकगीत मातृभाषा में पाए जाते थे। बौद्ध तथा हिंदू धर्म के उपदेशक जनता में प्रचार करने के लिए जो रचनाएँ तैयार करते थे वे प्रायः पुरानी बँगला तथा नागर अपभ्रंश, दोनों में होती थीं।

पुरातन बँगला की उपलब्ध रचनाओं में 47 चर्यापद विशेष महत्त्व के हैं। ये प्रायः आठ (या कुछ अधिक) पंक्तियों के रहस्यमय गीत हैं जिनका संबंध महायान बौद्धधर्म तथा नाथपंथ, दोनों से संबद्ध गुप्त संप्रदाय से है। इनका सामान्य बाहरी अर्थ तो प्रायः यों ही समझ में आ जाता है और गूढ़ अर्थ भी साथ की संस्कृत टीका की सहायता से, जो इस संग्रह के साथ ही श्री हरप्रसाद शास्त्री को प्राप्त हुई थी, समझा जा सकता है। इन गीतों या पद्यों में "कविता" नाम की चीज तो नहीं है किंतु जीवन की एकाध झलक अवश्य किसी किसी में देख पड़ती है। इससे मिलती जुलती कुछ अन्य पद्यात्मक रचनाएँ नेपाल से भी डॉ॰ प्रबोधचंद्र बागची तथा राहुल सांकृत्यायन आदि को प्राप्त हुई थीं"।

12वीं शताब्दी के अन्त तक पुरातन बँगला में यथेष्ट साहित्य तैयार हो चुका था जिससे उस समय के एक बंगाली कवि ने यह गर्वोक्ति की थी "लोग जैसा गंगा में स्नान करने से पवित्र हो जाते हैं, वैसे ही वे 'बंगाल वाणी' में स्नात होकर पवित्र हो सकते हैं।" किन्तु दुर्भाग्यवश उक्त 47 चर्यापदों तथा थोड़े से गीतों या पदों के सिवा उस काल की अन्य बहुत ही कम रचनाएँ आज उपलब्ध हैं।

गीतगोविंद के रचयिता जयदेव बंगाल के हिंदू राजा लक्ष्मण सेन (लगभग 1180 ई.) के शासनकाल में विद्यमान थे। राधा और कृष्ण के प्रेम का वर्णन करनेवाले इस सुन्दर काव्य में 24 गीत हैं जो अतुकान्त न होकर, सबके सब तुकान्त हैं। संस्कृत में प्रायः तुकान्त नहीं मिलता। यह तो अपभ्रंश या नवोदित भारतीय-आर्य भाषाओं की विशेषता है। कुछ विद्वानों का मत है कि इन पदों की रचना मूलतः पुरानी बँगला में या अपभ्रंश में की गई थी और फिर उनमें थोड़ा परिवर्तन कर संस्कृत के अनुरूप बना दिया गया। इस तरह जयदेव पुरातन बंगाल के प्रसिद्ध कवि माने जा सकते हैं जिन्होंने संस्कृत के अतिरिक्त संभवतः पुरानी बँगला में भी रचना की। जो हो, बंगाल के कितने ही परगामी कवियों को उनसे प्रेरणा मिली, इसमें संदेह नहीं।

मध्यकालीन बँगला साहित्य (1200 से 1800 ई. तक) पुरानी बँगला में कोई बड़ा प्रबंध काव्य रचा गया हो, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। उस समय ऐसी रचनाएँ बंगाल में भी प्राय: अपभ्रंश में ही होती थीं। जो हो, मिथिला (बिहार) के प्रसिद्ध कवि विद्यापति ने जब प्रसिद्ध ऐतिहासिक काव्य (कीर्तिलता) की रचना की (लगभग १४१० ई.) तब उन्होंने भी इसका प्रणयन अपनी मातृभाषा मैथिली में न कर अपभ्रंश में ही किया, यद्यपि बीच-बीच में इसमें मैथिल शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। 15वीं शती तथा विशेष रूप से 16वीं शती से ही बड़े प्रबंध काव्यों एवं वर्णनात्मक रचनाओं का निर्माण प्रारंभ हुआ, उदाहरणार्य आदर्श नारी बिहुला और उसके पति लखीधर की कथा, कालकेतु और फुल्लरा का कथानक, इत्यादि।

संक्रमणकालीन साहित्य (१२००-१३५०) इस समय की साहित्यिक रचनाओं के कोई विशिष्ट प्रामाणिक ग्रंथ नहीं बताए जा सकते। पुराने गायकों और लोकगीतकारों में बिहुला आदि की जो कथाएँ प्रचलित थीं, उन्हीं के आधार पर कुछ अज्ञात कवियों ने रचनाएँ प्रस्तुत की जिन्हें बँगला के प्रारंभिक प्रबंध काव्य की संज्ञा दी जा सकती है। इसी अवधि में बँगला भाषी मुसलिम आबादी का उद्भव हुआ और उसमें क्रमश: वृद्धि होती गई। तुर्क आक्रमणकारियों में से बहुतों ने बंगाल की स्त्रियों से ही विवाह कर लिया और धीरे-धीरे "यहाँ की भाषा, रहन सहन आदि को" अपना लिया। तुर्की को वे भूल ही गए और अरबी केवल धर्म-कर्म की भाषा रह गई। बंगाल में हिंदू जमींदारों और सामंतों की ही व्यवस्था अभी प्रचलित थी, फलतः मुसलिम विचारों और पद्धतियों का जनजीवन पर अभी दृष्टिगोचर होने योग्य विशेष प्रभाव नहीं पड़ने पाया था।

प्रारम्भ का मध्यकालीन साहित्य (1350 से 1607 तक) कुछ काल के अनंतर बंगाल में शांति स्थापित होने पर जब फिर संस्कृत के अध्ययन, प्रचार आदि की सुविधा प्राप्त हुई तब शिक्षा और साहित्य का मानो प्राथमिक पुनर्जागरण प्रारंभ हुआ। माध्यमिक बँगला के प्रथम महाकवि, जिनके संबंध में हमे कुछ जानकारी है, संभवत: कृत्तिवास ओझा थे (जन्म लगभग 1399 ई.)। संस्कृत रामायण को बँगला में प्रस्तुत करनेवाले (लगभग 1418 ई.) वे पहले लोकप्रिय कवि थे जिन्होंने राम का चित्रण वाल्मीकि की तरह शुद्ध मानव और वीर पुरुष के रूप में न कर भगवान के करुणामय अवतार के रूप में किया जिसकी ओर सीधी सादी भक्तिमय जनता का हृदय सहज भाव से आकर्षित हो सकता था। इसी तरह कृष्णागाथा का वर्णन उसी शताब्दी में (1475 ई.) मालाधर बसु ने किया। यह भागवत पुराण पर आधारित है।

बिहुला की कथा, जो विवाह की प्रथम रात्रि में ही मनसा देवी द्वारा प्रेषित सर्प के द्वारा पति के डसे जाने पर विधवा हो गई थी और जिसने बड़ी बड़ी कठिनाइयाँ झेलकर देवताओं को तथा मनसा देवी को भी प्रसन्न कर पति को पुन: जीवित करा लेने में सफलता प्राप्त की थी, पतिव्रता नारी के प्रेम और साहस की वह अपूर्व परिकल्पना है जिसका आविर्भाव कभी किसी भारतीय मस्तिष्क में हुआ हो। यह कथा शायद मुसलमानों के आगमन के पहले से ही प्रचलित थी किंतु उसपर आधारित प्रथम कथाकाव्य बँगला में 15वीं शती में रचे गए। इनमें से एक के रचयिता विजयगुप्त और दूसरी के विप्रदास पिपलाई माने जाते हैं।

पूर्वमाध्यमिक बँगला के एक प्रसिद्ध कवि चंडीदास माने जाते हैं। इनके नाम से कोई 1200 पद या कविताएँ प्रचलित हैं। उनकी भाषा, शैली आदि में इतना अंतर है कि वे एक ही व्यक्ति द्वारा रचित नहीं जान पड़तीं। ऐसा प्रतीत होता है कि माध्यमिक बँगला में इस नाम के कम से कम तीन कवि हुए। पहले चंडीदास (अनंत बडु चंडीदास) श्रीकृष्णकीर्तन के प्रणेता थे जो चैतन्य के पहले, लगभग 1400 ई. में, विद्यमान थे। दूसरे चंडीदास द्विज चंडीदास थे जो चैतन्य के बाद में या उत्तर काल में हुए। इन्होंने ही राधा कृष्ण के प्रेमविषयक उन अधिकांश गीतों की रचना की जिनसे चंडीदास को इतनी लोकप्रसिद्धि प्राप्त हुई। तीसरे चंडीदास दीन चंडीदास हुए जो संग्रह के तीन चौथाई भाग के रचयिता प्रतीत होते हैं। चंडीदास की कीर्ति के मुख्य आधार प्रथम दो चंडीदास ही थे, इसमें संदेह नहीं जान पड़ता।

15वीं शताब्दी में बंगाल पर तुर्क तथा पठान सुलतानों का शासन था पर उनमें यथेष्ट बंगालीपन आ गया था और वे बँगला साहित्य के समर्थक बन गए थे। ऐसा एक शासक हुसेनशाह था (1493-1519)। उसने चटगाँव के अपने सूबेदारों और पुत्र नासिरुद्दीन नसरत के द्वारा महाभारत का अनुवाद बँगला में करवाया। यह रचना "पांडवविजय" के नाम से कवींद्र द्वारा प्रस्तुत की गई थी।

इसी समय प्रसिद्ध वैष्णव कवि चैतन्य का आविर्भाव हुआ (1486-1533)। समसामयिक कवियों और विचारकों पर उनका गहरा प्रभाव पड़ा। उनके आविर्भाव और मृत्यु के उपरांत संतों तथा भक्तों के जीवनचरित्रों के निर्माण की परंपरा चल पड़ी। इनमें से कुछ ये हैं- वृंदावनदास कृत चैतन्यभागवत (लग. 1573), लोचनदास कृत चैतन्यमंगल; जयानंद का चैतन्यमंगल तथा कृष्णदास कविरत्न का चैतन्यचरितामृत (लग. 1581)। कृष्ण और राधा के दिव्य प्रेम संबंधी बहुत से गीत और पद भी इस समय रचे गए। बंगाल के इस वैष्णव गीत साहित्य पर मिथिला के विद्यापति का भी यथेष्ट प्रभाव पड़ा जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है।

इसी समय के लगभग बँगला पर "ब्रजबुलि" का भी प्रभाव पड़ा। मिथिला का राज्य मुसलमान आक्रमणों से प्रायः अछूता रहा। बंगाल के कितने ही शिक्षार्थी स्मृति, न्याय, दर्शन आदि का अध्ययन करने वहाँ जाया करते थे। मिथिला के संस्कृत के विद्वान् अपनी मातृभाषा में भी रचना करते थे। स्वयं विद्यापति ने संस्कृत में ग्रंथरचना की किन्तु मैथिली में भी उन्होंने बहुत सुंदर प्रेमगीतों का निर्माण किया। उनके ये गीत बंगाल में बड़े लोकप्रिय हुए और उनके अनुकरण में यहाँ भी रचना होने लगी। बंकिमचंद्र तथा रवीन्द्रनाथ ठाकुर तक ने इस तरह के गीतों की रचना की।

वैष्णव प्रेमगीतकार के रूप में जयदेव कवि की चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं। उनके बाद बडुचंडीदास तथा चैतन्य के अनुयायी आते हैं। इनमें उड़ीसा के एक क्षत्रप रामानंद थे जिन्होंने संस्कृत में भी रचना की। गोविन्ददास कविराज (1512-1) ने ब्रजबुलि में कितने ही सुन्दर गीत प्रस्तुत किए। बर्धमान जिले के कविरंजन विद्यापति ने भी ब्रजवुलि में प्रेमगीत लिखे जिनके कारण वे "छोटे विद्यापति" के नाम से प्रसिद्ध हुए। 16वीं शती के दो कवियों ने कालकेतु और उसकी स्त्री फुल्लरा तथा धनपति और उसके पुत्र श्रीमन्त के आख्यान की रचना की जिसमें चण्डी या दुर्गादेवी की महिमा वर्णित की गई। कविकंकण मुकुंदराम चक्रवर्ती ने चंडीकाव्य बनाया जो आज भी लोकप्रिय है। इसमें तत्कालीन बँगला जीवन की अच्छी झलक देख पड़ती है। पद्यलेखक होते हुए भी वे एक तरह से बंकिमचंद्र तथा शरच्चंद्र चटर्जी के पूर्वग माने जा सकते हैं।

उत्तरकालीन माध्यमिक बांगला साहित्य (1600-1800) वैष्णव गीतकारों तथा जीवनी लेखकों की परंपरा 17वीं शती में चलती रही। जीवनीलेखकों में ईशान नागर (1564) और नित्यानंद (1600 ई.) के बाद यदुनंदनदास (कर्णानंद के लेखक, 1607), राजवल्लभ (कृति मुरलीविलास), मनोहरदास (1652, कृति "अनुरागवल्ली") तथा घनश्याम चक्रवर्ती (कृति, भक्तिरत्नाकर तथा नरोत्तमविलास) का नाम लिया जा सकता है। गीतलेखकों की संख्या 200 से अधिक है। वैष्णव विद्वानों तथा कवियों ने इनके कई संग्रह तैयार किए थे जिनमें से वैष्णवदास (1770 ई.) का "पदकल्पतरु" विशेष प्रसिद्ध है। इसमें 170 कवियों द्वारा रचित 3101 पद आए हैं।

इसी समय कुछ धार्मिक ढंग की कथाएँ भी लिखी गईं। इनमें रूपराम कृत धर्ममंगल विशेष प्रसिद्ध है जिसमें लाऊसैन के साहसिक कार्यों का वर्णन है। इस कथा के ढंग पर मानिक गांगुलि तथा घनराम चक्रवर्ती ने भी रचनाएँ प्रस्तुत कीं। एक और कथानक जिसके आधार पर 17वीं, 18वीं शती में रचनाएँ प्रस्तुत की गईं, राजा गोपीचंद का है। वे राजा मानिकचंद्र के पुत्र थे। जब वे गद्दी पर बैठे तो उनकी माता मयनामती को पता चला कि उनके पुत्र को राजपाट तथा स्त्री का परित्याग कर योगी बन जाना चाहिए, नहीं तो उनकी अकालमृत्यु की संभावना है। अत: माता के आदेश से उन्हें ऐसा ही करना पड़ा। भवानीदासकृत "मयनामतिर गान" तथा दुर्लभ मलिक की रचना "गोविंदचंद्र गीत" इसी कथानक पर आधारित हैं।

बिहुला की कथा पर 18वीं शती में भी प्रबंध काव्य वंशीदास, केतकादास तथा क्षेमानन्द इत्यादि द्वारा रचे गए। आल्हा के ढंग पर कुछ वीरकाव्य या गाथाकाव्य भी 17वीं शती में रचे गए। इनका एक संग्रह अंग्रेजी अनुवाद सहित दिनेशचंद्र सेन ने तैयार किया जो कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित किया गया। इसी समय बंगाली मुसलमान लेखकों ने अरबी और फारसी की प्रेम तथा धर्म कथाएँ बंगला में प्रस्तुत करने का प्रयत्न आरम्भ किया। इन कवियों ने उस समय के उपलब्ध बँगला साहित्य का ही अध्ययन नहीं किया वरन् संस्कृत, अरबी तथा फारसी के ग्रंथों का भी अनुशीलन किया। उन्होंने अवधी या कोशली से मिलती जुलती एक और भाषा 'गोहारी' (গোহারি) या 'गोआरी' भी सीखी। इसी तरह पूर्वी हिंदी के क्षेत्र से जो सूफी मुसलमान पूर्वी बंगाल पहुँचे, वे अपने साथ नागरी वर्णमाला भी लेते गए। सिलहट के मुसलमान कवि बहुत दिनों तक इसी "सिलेटी नागरी" लिपि में बँगला लिखते रहे। उस समय के कुछ मुसलमान कवि ये हैं- दौलत काज़ी, जिसने "लोरचंदा" या "सती मैना" शीर्षक प्रेमकाव्य लिखा, कुरेशी मागन ठाकुर जिसने "चंद्रावती" की रचना की, मुहम्मद खाँ, जिसकी दो रचनाएँ (मौतुलहुसेन तथा केयामतनामा) प्रसिद्ध हैं; तथा अब्दुल नबी जिसने बड़ी सुंदर शैली में "आमीर हामज़ा" का प्रणयन किया। इनके सिवा 17वीं शती के एक और प्रसिद्ध मुसलिम कवि आलाओल हैं जिनकी कृति "पद्मावती" (1651) यथेष्ट लोकप्रिय रही। यह हिंदी कवि मलिक मुहम्मद जायसी की इसी नाम की रचना का रूपान्तर है। इनकी अन्य रचनाएँ हैं- सैफुल मुल्क बदीउज्जमाँ (सहस्ररजनीचरित्र के आधार पर रचित प्रेमकाव्य), हफ्त पैकार, सिकंदरनामा तथा तोहफा।

17वीं शती के तीन हिंदू कवियों - काशीरामदास, जिन्होंने महाभारत का अनुवाद बँगला पद्य में किया, उनके बड़े भाई कृष्णकिंकर, जिन्होंने श्रीकृष्णविलास बनाया, तथा जगन्नाथमंगल के लेखक गदाधर।

18वीं शती के कुछ प्रसिद्ध कवि ये हैं - रामप्रसाद सेन (मृत्यु 1775) जिनके दुर्गा संबंधी गीत आज भी लोकप्रिय हैं; भारतचंद्र, जिनका "अन्नदामंगल" (या कालिकामंगल) काव्य बँगला की एक परिष्कृत रचना है; राजा जयनारायण, जिन्होंने पद्मपुराण के काशीखंड का बँगला में अनुवाद किया और उस समय के बनारस का बहुत ही मनोरंजक विवरण उसमें समाविष्ट कर दिया। इस काल में हलके-फुलके गीतों तथा समस्यापूर्ति के रूप में लिखे गए सद्यःप्रस्तुत पद्यों का काफी जोर रहा। कुछ मुसलमान कवियों ने मुहर्रम तथा कर्बला के संबंध में रचनाएँ प्रस्तुत कीं (मुहर्रम पर्व या जंगनामा हायत मुहम्मद, नसरुल्ला खाँ तथा याकूब अली द्वारा रचित)। लैला मजनू पर दौलत वज़ीर बहराम ने लिखा और मुहम्मद साहब के जीवन पर भी ग्रंथ प्रस्तुत किए गए।

बँगला गद्य के कुछ नमूने सन् 1550 के बाद पत्रों तथा दस्तावेजों के रूप में उपलब्ध हैं। कैथलिक धर्म संबंधी कई रचनाएँ पुर्तगाली तथा अन्य पादरियों द्वारा प्रस्तुत की गईं और 1778 में नथेनियल ब्रासी हलहद ने बंगला व्याकरण तैयार कर प्रकाशित किया। 1799 में फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना के बाद बाइबिल के अनुवाद तथा बँगला गद्य में अन्य ग्रंथ तैयार कराने का उपक्रम किया गया।

आधुनिक बँगला साहित्य (1800 से 1950 तक) 19वीं सदी में अंग्रेजी भाषा के प्रसार और संस्कृत के नवीन अध्ययन से बँगला के लेखकों में नए जागरण और उत्साह की लहर सी दौड़ गई। एक ओर जहाँ कंपनी सरकार के अधिकारी बँगला सीखने के इच्छुक अंग्रेज कर्मचारियों के लिए बँगला की पाठ्यपुस्तकें तैयार करा रहे थे और बेपतिस्त मिशन के पादरी कृत्तिवासीय रामायण का प्रकाशन तथा बाइबिल आदि का बँगला अनुवाद प्रस्तुत कराने का प्रयत्न कर रहे थे, वहाँ दूसरी ओर बंगाली लेखक भी गद्य-ग्रंथलेखन की ओर ध्यान देने लगे थे। रामराम बसु ने राजा प्रतापादित्य की जीवनी लिखी और मृत्युजंय विद्यालंकार ने बँगला में "पुरुष परीक्षा" लिखी। 1818 में "समाचारदर्पण" नामक साप्ताहिक के प्रकाशन से बँगला पत्रकारिता की भी नींव पड़ी।

राजा राममोहन राय ने भारतीयों के "आधुनिक" बनने पर बल दिया। उन्होंने ब्रह्मसमाज की स्थापना की। उन्होंने कतिपय उपनिषदों का बँगला अनुवाद तैयार किया। अंग्रेजी में बँगला व्याकरण (1826) लिखा और अपने धार्मिक तथा सामाजिक विचारों के प्रचारार्थ बँगला और अंग्रेजी, दोनों में छोटी छोटी पुस्तिकाएँ लिखीं। इसी समय राजा राधाकांत देव ने "शब्दकल्पद्रुम" नामक संस्कृत कोष तैयार किया और भवानीचरण बनर्जी ने कलकतिया समाज पर व्यंग्यात्मक रचनाएँ प्रस्तुत कीं।

प्रारंभिक गद्यलेखकों की भाषा, प्रचलित संस्कृत शब्दों के प्रयोग के कारण, कुछ कठिन थी किंतु 1850 के लगभग अधिक सरल और प्रभावपूर्ण शैली का प्रचलन आरंभ हो गया। ईश्वरचंद्र विद्यासागर, प्यारीचंद मित्र आदि का इसमें विशेष हाथ था। विद्यासागर ने अंग्रेजी तथा संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद बँगला में किया और गद्य की सुंदर, सरल शैली का विकास किया। प्यारीचंद मित्र ने "आलालेर घरेर दुलाल" नामक सामाजिक उपन्यास लिखा (1858)। अक्षयकुमार दत्त ने विविध विषयों पर कई निबंध लिखे। अन्य गद्यलेखक थे - राजनारायण बसु, ताराशंकर तर्करत्न (जिन्होंने "कादंबरी" का संक्षिप्त रूपांतर बँगला में प्रस्तुत किया) तथा तारकनाथ गांगुलि (जिन्होंने प्रथम यथार्थवादी सामाजिक उपन्यास "स्वर्णलता" प्रकाशित किया)।

माइकेल मधुसूदन दत्त को हम उस समय के "युवक बंगाल" का प्रतिनिधि मान सकते हैं जिसके हृदय में अन्य युवकों की तरह आत्मविकास तथा आत्माभिव्यक्ति का बहुत सीमित अवकाश ही हिंदू समाज में मिलने के कारण एक प्रकार का असंतोष सा व्याप्त हो उठा था। इसका एक विशेष कारण उनका अंग्रेजी तथा अन्य विदेशी साहित्य के संपर्क में आना था। ईसाई धर्म में अभिषिक्त होने के बाद मधुसूदन ने पहले अंग्रेजी में, फिर बँगला में लिखना आरंभ किया। उन्होंने भारतीय विषयों पर ही लेखनी चलाई पर उन्हें युरोपीय ढंग पर सँवारा, सजाया। उनकी मुख्य रचनाएँ हैं - मेघनादवध काव्य, वीरांगना काव्य तथा व्रजांगना काव्य। उन्होंने बँगला में अनुप्रासहीन कविता का प्रचलन किया और इटैलियन सोनेट की तरह चतुर्दशपदियों की भी रचना की।

बंकिमचंद्र चट्टोपध्याय रवींद्रनाथ ठाकुर के आगमन के पूर्व बँगला के सर्वश्रेष्ठ लेखक माने जाते हैं। उनका साहित्यिक जीवन अंग्रेजी में लिखित "राजमोहन की स्त्री" नामक उपन्यास (1864) से आरंभ होता है। बँगला में पहला उपन्यास उन्होंने दुगेंशनंदिनी (1865) के नाम से लिखा। इसके बाद उन्होंने एक दर्जन से अधिक सामाजिक तथा ऐतिहासिक उपन्यास लिखे। इनके कारण बँगला साहित्य में उन्हें स्थायी स्थान प्राप्त हो गया और आधुनिक भारत के विचारशील लेखकों तथा चिंतकों में उनकी गणना होने लगी। 1872 में उन्होंने "बंगदर्शन" नामक साहित्यिक पत्र निकाला जिसने बँगला साहित्य को नया मोड़ दिया। उनके ऐतिहासिक उपन्यासों में राजसिंह, सीताराम, तथा चंद्रशेखर मुख्य हैं। सामाजिक उपन्यासों में "विषवृक्ष" तथा "कृष्णकांतेर विल का स्थान ऊँचा है। उनका "कपालकुंडला" शुद्ध प्रेम और कल्पना का उत्कृष्ट नमूना माना जा सकता है। "आनंदमठ" प्रसिद्ध राजनीतिक उपन्यास है जिसका "वंदेमातरम्" गीत चिरकाल तक भारत का राष्ट्रीयगान माना जाता रहा और आज भी इस रूप में इसका समादर है। उनके उपन्यासों तथा अन्य रचनाओं का भारत की प्राय: सभी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।

एक और प्रसिद्ध व्यक्ति जिसे भारत के पुनर्जागरण में मुख्य स्थान प्राप्त हैं, स्वामी विवेकानंद हैं। भारत की गरीब जनता ("दरिद्रनारायण") की सेवा ही उनका लक्ष्य था। उन्होंने अमरीका और यूरोप जाकर अपने प्रभावकारी भाषणों द्वारा हिंदू धर्म का ऐसा विशद विवेचन उपस्थित किया कि उसे पश्चिमी देशों में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त हो गई। बँगला तथा अंग्रेजी, दोनों के वे प्रभावशील लेखक थे। रंगलाल बंद्योपाध्याय ने राजपूतों की वीरगाथाओं के आधार पर "पद्मिनी" (1858), कर्मदेवी (1862) तथा सूरसुंदरी (1868) की रचना की। कालिदास के "कुमारसंभव" का बँगला अनुवाद भी उन्होंने प्रस्तुत किया।

बँगला नाटकों का उदय 1870 के आसपास माना जा सकता हैं, यद्यपि इसके पहले भी इस दिशा में कुछ प्रयास किया जा चुका था। बंगाल में पहले एक तरह के धार्मिक नाटक प्रचलित थे जिन्हें "यात्रा" नाटक कहते थे। इनमें दृश्य और परदे नहीं होते थे, गायन और वाद्य की प्रधानता होती थी। एक रूसी नागरिक जेरासिम लेबेडेव ने 1795 में कलकत्ता आकर बँगला की प्रथम नाट्यशाला स्थापित की, जो चली नहीं। संस्कृत नाटकों के सिवा अंग्रेजी नाटकों तथा कलकत्ते में स्थापित अंग्रेजी रंगमंच से बँगला लेखकों को प्रेरणा मिली। दीनबंधु मित्र ने कई सुखांत नाटक लिखे। उनके एक नाटक नीलदर्पण (1860) में निलहे गोरों के उत्पीड़न का मार्मिक चित्रण हुआ था जिससे इस प्रथा की बुराइयाँ दूर करने में सहायता मिली।

राजा राजेंद्रलाल मित्र (1822-91) इतिहासलेखक और प्रथम बंगाली पुरातत्वज्ञ थे। भूदेव मुखोपाध्याय (1825-94) शिक्षाशास्त्री, गद्यलेखक और पत्रकार थे। समाज और संस्कृति के संरक्षण तथा पुनरुद्धार संबंधी उनके लेखों का आज भी यथेष्ट महत्त्व है। कालीप्रसन्न सिंह कट्टर हिंदू समाज के एक और प्रगतिशील लेखक थे। उन्होंने महाभारत का बँगला गद्य में तथा संस्कृत के दो नाटकों का भी अनुवाद किया। उन्होंने कलकत्ते की बोलचाल की बँगला में "हुतोम पेंचार नक्शा" नामक रचना प्रस्तुत की जिसमें उस समय के कलकतिया समाज का अच्छा चित्रण किया गया था। बँगला के प्रतिष्ठित साहित्य में इसकी गणना है। हेमचंद बंदोपाध्याय (1838-1903) ने शेक्सयिर के दो नाटकों 'रोमियों और जूलियट' तथा 'टेंपेस्ट' का बँगला में अनुवाद किया। मेघनादवध से प्रोत्साहित होकर उन्होंने "वृत्तसंहार" नामक महाकाव्य की रचना की। नवीनचंद्र सेन (1847- 1909) ने कुरुक्षेत्र, रैवतक तथा प्रभास नाटक बनाए तथा बुद्ध, ईसा और चैतन्य के जीवन पर अमिताभ, ख्रीष्ट तथा अमृताभ नामक लंबी कविताएँ लिखीं। पलासीर युद्ध तथा रंगमती और भानुमती के भी लेखक वही थे। पाँच खंडों में अपनी जीवनी ""आमार जीवन"" भी उन्होंने लिखी।

रवींद्रानाथ ठाकुर के सबसे बड़े भाई द्विजेंद्रनाथ ठाकुर (1840-1926) कवि, संगीतज्ञ तथा दर्शनशास्त्री थे। उनकी प्रसिद्ध रचना "स्वप्नप्रयाण" है। रवींद्रनाथ के एक और बड़े भाई ज्योतींद्रनाथ ठाकुर थे। उनके लिखे चार नाटक बड़े लोकप्रिय थे - पुरुविक्रम, सरोजिनी, आशुमती तथा स्वप्नमयी। उन्होंने फ्रेंच भाषा, अंग्रेजी तथा मराठी से भी कई ग्रंथों का अनुवाद किया।

रमेशचंद्र दत्त ने ऋग्वेद का बँगला अनुवाद किया। भारतीय अर्थशास्त्र के भी वे लेखक थे और उन्होंने कई उपन्यास भी लिखे- 1. राजपूत जीवनसंध्या, 2. महाराष्ट्र जीवनसंध्या; 3. माधवी कंकण; 4. संसार, तथा 5. समाज। इनके समसामयिक गिरीशचंद्र घोष बँगला के महान नाटककार थे। उन्होंने 90 नाटक, प्रहसन आदि लिखे, जिनमें से कुछ ये हैं - बिल्वमंगल, प्रफुल्ल, पांडव गौरव, बुद्धदेवचरित, चैतन्य लीला, सिराजुद्दौला, अशोक, हारानिधि, शंकराचार्य, शास्ति की शांति। शेक्सपियर के मेकबेथ नाटक का बँगला अनुवाद भी उन्होंने किया। अमृतलाल बसु भी गिरीशचंद्र घोष की तरह अभिनेता नाटककार थे। हास्य रस से पूर्ण उनके नाटक तथा प्रहसन बँगला भाषियों में काफी लोकप्रिय हैं। वे बंगाल के मोलिए कहलाते थे, जिस तरह गिरीशचंद्र बंगाली शेक्सपियर माने जाते थे।

हास्यरस के दो और बँगला लेखक इस समय हुए - त्रैलोक्यनाथ मुखेपाध्याय (1847-1919), उपन्यासकार तथा लघुकथा लेखक और इंद्रनाथ बंदोपाध्याय (1849-1911), निबंधलेखक तथा व्यंग्यकार।

संस्कृत और इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान् हरप्रसाद शास्त्री (1853-1931) का उल्लेख पहले 47 चर्यापद के सिलसिले में किया जा चुका है। वे उपन्यासकार और अच्छे निबंधलेखक भी थे। उनके दो उपन्यास हैं- "बेणेर मेये" तथा "कांचनमाला"। भारतीय साहित्य, धर्म तथा सभ्यता के संबंध में उनके लेख विशेष महत्वपूर्ण हैं। उनका लिखा "वाल्मीकिर जय" नामक गद्यकाव्य बड़ी सुन्दर और प्रभावोत्पादक बँगला में लिखा गया है।

राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत 1857 के आसपास हो चुकी थी। 1885 में राष्ट्रीय महासभा की स्थापना से इसे बल मिला और 1905 में लार्ड कर्जन द्वारा किए गए बंगाल के विभाजन ने इसमें आग फूँक दी। स्वदेशी का जोर बढ़ा और भाषा तथा साहित्य पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ा। सन् 1913 में रवींद्रनाथ ठाकुर को नोबेल पुरस्कार मिलने से बंगाल तथा भारत में राष्ट्रीय भावना की प्रबलता बढ़ गई और बँगला साहित्य में एक नए युग का आरंभ हुआ जिसे हम "रवींद्रनाथ युग" की संज्ञा दे सकते हैं।

रवींद्रनाथ ठाकुर (1861-1941) में महान लेखक होने के लक्षण शुरू से ही देख पड़ने लगे थे। क्या कविता और क्या नाटक, उपन्यास और लघु कथा, निबंध और आलोचना, सभी में उनकी बहुमुखी प्रतिभा ने नया चमत्कार उत्पन्न कर दिया। उनके विचारों और शैली ने बँगला साहित्य को मानो नया मोड़ दे दिया। व्यापक दृष्टि और गहरी भावना से संपृक्त उत्कृष्ट सौंदर्य तथा अज्ञात की रहस्यमय अनुभूति उनकी रचनाओं में स्थान स्थान पर अभिव्यक्त होती देख पड़ती हैं। गीत रचनाकार के रूप में वे अद्वितीय हैं। प्रेम, प्रकृति, ईश्वर और मानव पर लिखे गए उनके गीतों की संख्या 200 से ऊपर है। ये गीत परमात्म और आधिदैविक शक्ति की रहस्यमय भावना से ओतप्रोत हैं, इस कारण संसार के महान रहस्यवादी लेखकों में उनकी गणना की जाती है। उनके निबंध स्वस्थ चिंतन एव सुस्पष्ट विवेचन के लिए प्रसिद्ध हैं। वे बुद्धिपरक भी हैं तथा कल्पनाप्रधान भी, याथार्थिक भी हैं और काव्यमय भी। उनके उपन्यास तथा लघुकथाएँ तथ्यात्मक, नाटकीयता पूर्ण एवं अंर्तदृष्टि प्रेरक हैं। वे अंतरराष्ट्रीयता एवं मानव एकता के बराबर समर्थक रहे हैं। उन्होंने अथक रूप से इस बात का प्रयत्न किया कि भारत अपनी गौरवपूर्ण प्राचीन बातों की रक्षा करते हुए भी विश्व के अन्य देशों से एकता स्थापित करने के लिए तत्पर रहे।

रवींद्रनाथ के समसामयिक लेखकों में कितने ही विशेष उल्लेखनीय हैं। उनके नाम हैं-

1. गोर्विदचंद्रदास, कवि;

2. देवेंद्रनाथ सेन, कवि;

3. अक्षयकुमार बड़ाल, कवि;

4. श्रीमती कामिनी राय, कवयित्री;

5. श्रीमती सुवर्णकुमारी देवी, कवयित्री;

6. अक्षयकुमार मैत्रेय, इतिहासलेखक;

7. रामेद्रसुंदर त्रिवेदी, निबंधलेखक, वैज्ञानिक एवं दर्शनशास्त्री;

8. प्रभातकुमार मुखर्जी, उपन्यासकार तथा लघुकथा लेखक;

9. द्विजेंद्रलाल राय, कवि तथा नाटककार;

10. क्षीरोदचंद्र विद्याविनोद, लगभग 50 नाटकों के प्रणेता;

11. राखालदास वंद्योपाध्याय, इतिहासकार और ऐतिहासिक उपन्यासों के लेखक,

12. रामानंद चटर्जी, सुप्रसिद्ध पत्रकार जिन्होंने 40 वर्ष तक माडर्न रिव्यू तथा बँगला प्रवासी का संपादन किया;

13. जलधर सेन, उपन्यासलेखक तथा पत्रकार;

14. श्रीमती निरुपमा देवी तथा

15. श्रीमती अनुरूपा देवी, सामाजिक उपन्यासों की लेखिका।

आधुनिक बँगला के सर्वप्रसिद्ध उपन्यासकार शरच्चंद्र चटर्जी (1876-1938) माने जाते हैं। सरल और सुंदर भाषा में लिखे गए इनके कुछ उपन्यास ये हैं - श्रीकांत, गृहदाह, पल्ली समाज, देना पावना, देवदास, चंद्रनाथ, चरित्रहीन, शेष प्रश्न आदि।

यद्यपि समस्त बँगाल प्रदेश में परिनिष्ठ बँगला का ही साहित्य में विशेष प्रयोग होता है फिर भी बहुत से ग्रंथ कलकत्ता तथा आस पास की बोलचाल की भाषा में लिखे गए हैं तथा लिखे जा रहे हैं। उपन्यासों में रंगमंच पर तथा रेडियो और सिनेमा में उसका प्रयोग बहुलता से होता है। पिछले 30-35 वर्ष में, रवींद्रयुग की प्रधानता होते हुए भी, कितने ही युवक लेखकों ने नग्न यथार्थवाद के पथ पर चलने का प्रयत्न किया, यद्यपि इसमें अब यथेष्ट शिथिलता आ गई है। इसके बाद कुछ लेखकों में समाजवाद तथा साम्यवाद (कम्यूनिज्म) की भी प्रवृत्ति देख पड़ी। इसी तरह अंग्रेजी तथा रूसी साहित्य का भी बहुत कुछ प्रभाव बँगला लेखकों पर पड़ा। किंतु वर्तमान बँगला साहित्य में कथासाहित्य की ही विशेष प्रधानता है, जिसका लक्ष्य मानव जीवन और मानव स्वभाव का सम्यग् रूप से चित्रण करना ही है। कितने ही लेखक रवींद्र तथा शरद् बाबू की परंपरा पर चलने का प्रयत्न कर रहे हैं। कुछ के नाम ये हैं - (कवियों में) जतींद्रमोहन बागची, करुणानिधान बंद्योपाध्याय, कुमुदरंजन मलिक, कालिदास राय, मोहितलाल मजूमदार, श्रीमती राधारानी देवी, अमिय चक्रवर्ती प्रेगेंद्र मित्र, सुधींद्रनाथ दत्त, विमलचंद्र घोष, विष्णु दे, इत्यादि। गद्यलेखकों में इनके नाम लिए जा सकते हैं- ताराशंकर बैनर्जी, विभूतिभूषण बैनर्जी (पथेर पांचाली, आरण्यक के लेखक जिन्होंने बंगाल के ग्राम्य जीवन का चित्रण किया है), राजशेखर वसु (हास्य कथालेखक), आनंदशंकर राय, डॉ॰ बलाईचाँद मुखर्जी, सतीनाथ भादुड़ी, मानिक बैनर्जी, शैलजानं मुखर्जी, प्रथमनाथ वसु, नरेंद्र मित्र, गौरीशंकर भट्टाचार्य, समरेश वसु, वाज़िद अली, बुद्धदेव, काजी अब्दुल वदूद, नरेंद्रदेव, डॉ॰ सुकुमार सेन, गोपाल हालदार, श्रीमती शांतादेवी, सीतादेवी, अवधूत, इत्यादि।

यहाँ श्री अवनींद्रनाथ ठाकुर (1871-1951) का भी उल्लेख कर देना चाहिए। उन्होंने कितनी ही पुस्तकें बालकों की दृष्टि से लिखीं और उनकी चित्रसज्जा स्वयं प्रस्तुत की। ये पुस्तकें कल्पनात्मक साहित्य के अन्य प्रेमियों के लिए भी अत्यंत रोचक हैं। उन्होंने कुछ छोटे-छोटे नाटक भी लिखे और कला पर कुछ गंभीर निबंध भी प्रकाशित किए। इसी तरह योगी अरविंद घोष का भी नाम यहाँ लिया जाना चाहिए जिनकी महत्वपूर्ण रचनाओं से बँगला साहित्य की श्रीवृद्धि में सहायता मिली।

यद्यपि विभाजन के पूर्व कुछ मुसलिम राजनीतिज्ञों की राय थी कि बँगला में मुसलिम भावनाओं से प्रेरित स्वतंत्र मुसलिम साहित्य का विकास होना चाहिए किंतु श्रेष्ठ मुसलिम लेखकों ने भाषा में इस तरह के पार्थक्य की कभी कल्पना नहीं की, भले ही कुछ लेखकों ने अपनी कृतियों में हिंदुओं की अपेक्षा अधिक अरबी-फारसी शब्दों का प्रयोग करना शुरू कर दिया। पुराने मुसलिम कवियों में कैकोवाद अधिक प्रसिद्ध है और उपन्यासलेखकों में मशरफ हुसेन का नाम लिया जा सकता है जिनके जंगनामा की तर्ज पर लिखित "विषाद सिंधु" के एक दर्जन से अधिक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। शिक्षित मुसलिम समाज में कितने ही लेखक उपन्यास, कहानी, आलोचना तथा निबंध लिखने में ख्याति प्राप्त कर रहे हैं। उपन्यासकार काज़ी अब्दुल वदूद का नाम ऊपर लिया जा चुका है। उन्होंने रवींद्र साहित्य पर विवेचनात्मक पुस्तक लिखने के बाद गेटे पर भी एक ग्रंथ दो खंडों में प्रकाशित किया। केंद्रीय सरकार के पूर्वकालीन वैज्ञानिक अनुसंधान मंत्री हुमायूँ कबीर बँगला के प्रतिभावान् कवि तथा अच्छे गद्यलेखक हैं। कुछ अन्य मुसलिम लेखकों के नाम ये हैं - (कवि) गुलाम मुस्तफा, अब्दुल कादिर, बंदे अली, फारुख अहमद, एहसान हवीब आदि; (गद्यलेखक) डॉ॰ मुहम्मद शहीदुल्ला, अवू सैयिद अयूव, मुताहर हुसेन चौधरी, श्रीमती शमसुन नहर, अबुल मंसूर अहमद, अबुल फ़जल, महबूबुल आलम। विभाजन के बाद यद्यपि पाकिस्तान सरकार ने प्रयत्न किया कि पूर्वी बंगाल के मुसलमान अपनी भाषा अरबी लिपि में लिखने लगें, पर इसमें सफलता नहीं मिली। मुसलिम छात्रों तथा अन्य लोगों ने इस प्रयत्न का तथा बंगालियों पर उर्दू लादने का जोरदार विरोध किया और बंगलादेश का उदय हुआ।

आधुनिक युग के बाद तीस के दशक में जो कविगण आये वे बांग्ला कविता की जगत में पश्चिमी प्रभाव को पनपने का अवसर दिया और रबिन्द्रनाथ के बाद के कविता को एक नई दिशा दी। उनमें प्रधान थे बुद्धदेब बसु, सुधीन्दृनाथ दत्त, विष्णु दे, जीवनानंद दास प्रमुख। चालिस के दशक में बामपंन्थी कवियों का बोलबला रहा जिसमें प्रधान थे बीरेन्द्रनाथ चट्टोपध्याय, सुभाष मुखोपाध्याय, कृष्ण धर प्रमुख। पचास के दशक से पत्रिका-केन्द्रित कवियों का आबिर्भाव हुया, जैसे कि शतभिषा, कृत्तिबास इत्यादि। शतभिषा के आलोक सरकार्, अलोक्रंजन दाशगुप्ता प्रमुखों ने नाम कमाये, जबकि कृत्तिबास के सुनील गंगोपाध्याय, शरतकुमार मुखोपाध्याय, तारापदो राय, समरेन्द्र सेनगुप्ता नाम किये। साठ के दशक में शुरू हुये अंदोलनसमूह जो कविता का चरित्र ही बदल डाला। आंदलनों में प्रधान था भुखी पीढी (हंगरी जेनरेशन) जिसके कवि-लेखकों पर बहुत सारे आरोप लगाये गये। भुखी पीढी के सदस्यों ने समाज को ही बदलने का ऐलान कर डाला। उनलोगों के लेखनप्रक्रिया से बंगालि समाज भी खफा हो गये थे। सदस्यों के विरुद्ध मुकदमें दायर हुये एवम आखिरकार मलय रायचौधुरीको उनके कविताके चलते कारावास का दण्ड दिया गया था।

उड़िया[सम्पादन]

१५०० ईसवी तक उड़िया साहित्य में धर्म, देव-देवी के चित्रण ही मुख्य ध्येय हुआ करता था और साहित्य सम्पूर्ण रूप से काव्य पर ही आधारित था। उड़िया भाषा के प्रथम महान कवि झंकड़ के सारला दास रहे, जिन्हें 'उड़िशा के व्यास' के रूप में जाना जाता है। इन्होने देवी की स्तुति में 'चंडी पुराण' व 'विलंका रामायण' की रचना की थी। 'सारला महाभारत' आज भी घर-घर में पढ़ा जाता है। अर्जुन दास द्वारा रचित 'राम-विभा' को उड़िया भाषा की प्रथम गीतकाव्य या महाकाव्य माना जाता है। उड़िया साहित्य को काल और प्रकृति के अनुसार निम्नलिखित प्रकार से बाँटा जा सकता है :

(१) आदियुग (1050-1550), (२) मध्ययुग (1550-1850), (क) पूर्व मध्ययुग -- भक्तियुग या धार्मिक युग या पञ्चसखा युग, (ख) उत्तर मध्ययुग, रीति युग या उपेन्द्रभंज युग, (३) आधुनिक युग या स्वातंत्र्य काल ; (1850 से वर्तमान समय तक)

अनुक्रम 1 आदियुग 2 मध्ययुग 2.1 पूर्वमध्ययुग 2.2 रीतियुग 3 आधुनिक युग

आदियुग आदियुग में सारलापूर्व साहित्य भी अंतर्भुक्त है, जिसमें "बौद्धगान ओर दोहा", गोरखनाथ का "सप्तांगयोगधारणम्", "मादलापांजि", "रुद्रसुधानिधि" तथा "कलाश चौतिशा" आते हैं। "बौद्धगान ओ दोहा" भाषादृष्टि, भावधारा तथा ऐतिहासिकता के कारण उड़ीसा से घनिष्ट रूप में संबंधित है। "सप्तांगयोगधारणम्" के गोरखनाथकृत होने में संदेह है। "मादलापांजि" जगन्नाथ मंदिर में सुरक्षित है तथा इसमें उड़ीसा के राजवंश और जगन्नाथ मंदिर के नियोगों का इतिहास लिपिबद्ध है। किंवदंति के अनुसार गंगदेश के प्रथम राजा चोड गंगदेव ने 1042 ई. (कन्या 24 दिन, शुक्ल दशमी दशहरा के दिन) "मादालापांजि" का लेखन प्रारंभ किया था, किंतु दूसरा मत है कि यह मुगलकाल में 16वीं शताब्दी में रामचंद्रदेव के राजत्वकाल में लिखवाई गई थी। "रुद्र-सुधा-निधि" का पूर्ण रूप प्राप्त नहीं है और जो प्राप्त है उसका पूरा अंश छपा नहीं है। यह शैव ग्रंथ एक अवधूत स्वामी द्वारा लिखा गया है। इसमें एक योगभ्रष्ट योगी का वृत्तांत है। इसी प्रकार वत्सादास का "कलाश चौतिशा" भी सारलापूर्व कहलाता है। इसमें शिव जी की वरयात्रा और विवाह का हास्यरस में वर्णन है।

वस्तुतः सारलादास ही उड़िया के प्रथम जातीय कवि और उड़िया साहित्य के आदिकाल के प्रतिनिधि हैं। कटक जिले की झंकड़वासिनी देवी चंडी सारला के वरप्रसाद से कवित्व प्राप्त करने के कारण सिद्धेश्वर पारिडा ने अपने को "शूद्रमुनि" सारलादास के नाम से प्रचारित किया। इनकी तीन कृतियाँ उपलब्ध हैं : 1. "विलंका रामायण", 2. महाभारत और 3. चंडीपुराण। कुछ लोग इन्हें कपिलेन्द्रदेव (1435-1437) का तथा कुछ लोग नरसिंहदेव (1328-1355 ई.) का समकालीन मानते हैं।

इस युग का अर्जुनदास लिखित "रामविभा" नामक एक काव्यग्रंथ भी मिलता है तथा चैतन्यदासरचित "विष्णुगर्भ पुराण" और "निर्गुणमाहात्म्य" अलखपंथी या निर्गुण संप्रदाय के दो ग्रंथ भी पाए जाते हैं।

मध्ययुग इसके दो विभाग हैं-

(क) पूर्वमध्ययुग अथवा भक्तियुग, तथा (ख) उत्तरमध्ययुग अथवा रीतियुग। पूर्वमध्ययुग इस युग में में पंचसखाओं के साहित्य की प्रधानता है। ये पंचसखा हैं - बलरामदास, जगन्नाथदास, यशोवन्तदास, अनन्तदास और अच्युतानन्ददास। चैतन्यदास के साथ सख्य स्थापित करने के कारण ये 'पंचसखा' कहलाए। वे 'पंच शाखा' भी कहलाते हैं। इनके उपास्य देवता थे पुरी के जगन्नाथ, जिनकी उपासना शून्य और कृष्ण के रूप में ज्ञानमिश्र योग-योगप्रधान भक्ति तथा कायसाधना द्वारा की गई। पंचसखाओं में से प्रत्येक ने अनेक ग्रंथ लिखे, जिनमें से कुछ तो मुद्रित हैं, कुछ अमुद्रित और कुछ अप्राप्य भी।

16वीं शताब्दी के प्रथमार्ध में दिवाकरदास ने "जगन्नाथचरितामृत" के नाम से पंचसखाओं के जगन्नाथ दास की जीवनी लिखी तथा ईश्वर दास ने चैतन्यभागवत लिखा। सालवेग नामक एक मुसलमान भक्तकवि के भी भक्तिरसात्मक अनेक पद प्राप्त हैं।

पञ्चसखाओं के वैशिष्त्य का वर्णन नीचे इस ओडिया कविता में देखिये-

अगम्य भाब जाणि यशोवन्त गारा कटा यन्त्र जाणि अनन्त आगत नागत अच्युत भणे बलराम दास तत्त्व बखाणे भक्तिर भाब जाणे जगन्नाथ पञ्चसखा ए मोर पञ्च महन्त ॥ इसी युग में शिशुशंकरदास, कपिलेश्वरदास, हरिहरदास, देवदुर्लभदास, तथा प्रतापराय की क्रमश : "उषाभिलाष", "कपटकेलि", "चद्रावलिविलास", "रहस्यमंजरी" और "शशिसेणा" नामक कृतियाँ भी उपलब्ध हैं।

रीतियुग इस युग में में पौराणिक और काल्पनिक दोनों प्रकार के काव्य हैं। नायिकाओं में सीता और राधा का नखशिख वर्णन किया गया है। इस युग का काव्य, शब्दालंकार, क्लिष्ट शब्दावली और श्रृंगाररस से पूर्ण है। काव्यलक्षण, नायक-नायिका-भेद आदि को विशेष महत्व दिया गया। उपेंद्रभंज ने इसको पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया, अत: इस युग का नाम भंजयुग पड़ गया, किंतु यह काल इसके पहले शुरू हो गया था। उपेंद्रभंज के पूर्व के कवि निम्नांकित हैं :

धनंजयभंज- ये उपेंद्रभंज के पितामह और घुमसर के राजा थे। इनकी कृतियाँ हैं : रघुनाथविलास काव्य, त्रिपुरसुंदरी, मदनमंजरी, अनंगरेखा, इच्छावती, रत्नपरीक्षा, अश्व और गजपरीक्षा आदि। कुछ लक्षणग्रंथ और चौपदीभूषण आदि संगीतग्रंथ भी हैं।

दीनकृष्णदास (1651-1703)- व्यक्तित्व के साथ साथ इनका काव्य भी उच्च कोटि का था। "रसकल्लोल", "नामरत्नगीता", "रसविनोद", "नावकेलि", "अलंकारकेलि", "आर्तत्राण", "चौतिशा" आदि इनकी अनेक कृतियाँ प्राप्य हैं।

वृंदावती दासी, भूपति पंडित तथा लोकनाथ विद्यालंकार की क्रमश : "पूर्णतम चंद्रोदय", प्रेमपंचामृत" तथा "एक चौतिशा" और "सर्वागसुंदरी", "पद्मावती परिणय", "चित्रकला", "रसकला" और "वृंदावन-विहार-काव्य", नाम की रीतिकालीन काव्यलक्षणों से युक्त कृपियाँ मिलती हैं।

उपेन्द्रभंज (1685-1725) - ये रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। इनके कारण ही रीतियुग को भंजयुग भी कहा जाता है। शब्दवैलक्षण्य, चित्रकाव्य एवं छंद, अलंकार आदि के ये पूर्ण ज्ञाता थे। इनकी अनेक प्रतिभाप्रगल्भ कृतियों ने उड़िया साहित्य में इनकों सर्वश्रेष्ठ पद पर प्रतिष्ठित किया है। "वैदेहीशविलास", "कलाकउतुक", "सुभद्रापरिणय", "ब्रजलीला", "कुंजलीला", आदि पौराणिक काव्यों के अतिरिक्त लावण्यवती, कोटि-ब्रह्मांड-सुंदरी, रसिकहारावली आदि अनेक काल्पनिक काव्यग्रंथ भी हैं। इन काव्यों में रीतिकाल के समस्त लक्षणों का संपूर्ण विकास हुआ है। कहीं कहीं सीमा का अतिक्रमण कर देने के कारण अश्लीलता भी आ गई है। इनका "बंधोदय" चित्रकाव्य का अच्छा उदाहरण है। "गीताभिधान" नाम से इनका एक कोशग्रंथ भी मिलता है जिसमें कांत, खांत आदि अंत्य अक्षरों का नियम पालित है। "छंदभूषण" तथा "षड्ऋतु" आदि अनेक कृतियाँ और भी पाई जाती हैं।

भंजकालीन साहित्य के बाद उड़िया साहित्य में चैतन्य प्रभावित गौड़ीय वैष्णव धर्म और रीतिकालीन लक्षण, दोनों का समन्वय देखने में आता है। इस काल के काव्य प्राय: राधाकृष्ण-प्रेम-परक हैं और इनमें कहीं कहीं अश्लीलता भी आ गई है। इनमें प्रधान हैं : सच्चिदानंद कविसूर्य (साधुचरणदास), भक्तचरणदास, अभिमन्युसामंत सिंहार, गोपालकृष्ण पट्टनायक, यदुमणि महापात्र तथा बलदेव कविसूर्य आदि।

इस क्रम में प्रधानतया और दो व्यक्ति पाए जाते हैं : (1) ब्रजनाथ बडजेना और (2) भीमभोई। ब्रजनाथ बडजेना ने "गुंडिचाविजे" नामक एक खोरता (हिंदी) काव्य भी लिखा था। उनके दो महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं : "समरतंरग" और "चतुरविनोद"। भीमभोई जन्मांध थे और जाति के कंध (आदिवासी) थे। वे निरक्षर थे, लेकिन उनके रचित "स्तुतिचिंतामणि", "ब्रह्मनिरूपण गीता" और अनके भजन पाए जाते हैं। उड़िया में वे अत्यंत प्रख्यात हैं।

आधुनिक युग यद्यपि ब्रिटिश काल से प्रारंभ होता है, किंतु अंग्रेजी का मोह होने के साथ ही साथ प्राचीन प्रांतीय साहित्य और संस्कृत से साहित्य पूरी तरह अलग नहीं हुआ। फारसी और हिंदी का प्रभाव भी थोड़ा बहुत मिलता है। इस काल के प्रधान कवि राधानाथ राय हैं। ये स्कूल इंस्पेक्टर थे। इनपर अंग्रेजी साहित्य का प्रभाव स्पष्ट है। इनके लिखे "पार्वती", "नंदिकेश्वरी", "ययातिकेशरी", आदि ऐतिहासिक काव्य हैं। "महायात्रा" प्रथम अमित्राक्षर छंद में लिखित महाकाव्य है, जिस पर मिल्टन का प्रभाव है। इन्होंने मेघदूत, वेणीसंहार और तुलसी पद्यावली का अनुवाद भी किया था। इनकी अनेक फुटकल रचानाएँ भी हैं। आधुनिक युग को कुछ लोग राधानाथ युग भी कहते हैं।


ओड़िया उपन्यास सम्राट फकीर मोहन सेनापति बंगाल से राजेंद्रलाल मित्र द्वारा चलनेवाले "उड़िया एक स्वतंत्र भाषा नहीं है" आंदोलन का करारा जवाब देनेवालों में उड़िया के उपन्यास सम्राट् फकीर मोहन सेनापति प्रमुख हैं। उपन्यास में ये बेजोड़ हैं। "लछमा", "मामु", "छमाण आठगुंठ" आदि उनके उपन्यास हैं। "गल्पस्वल्प" नाम से दो भागों में उनके गल्प भी हैं। उनकी कृति "प्रायश्चित्त" का हिंदी में अनुवाद भी हुआ है। पद्य में "उत्कलभ्रमण", "पुष्पमाला" आदि अनेक ग्रंथ हैं। उन्होंने छांदोग्यउपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि का पद्यानुवाद भी किया है।

इस काल के एक और प्रधान कवि मधुसूदन राय हैं। पाठ्य पुस्तकों के अतिरिक्त उन्होंने भक्तिपरक कविताएँ भी लिखी हैं। इनपर रवींद्रनाथ का काफी प्रभाव है।

इस काल में काव्य, उपन्यास और गल्प के समान नाटकों पर भी लोगों की दृष्टि पड़ी। नाटककारों में प्रधान रामशंकर राय हैं। उन्होंने पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, गीतिनाट्य, प्रहसन और यात्रा आदि भिन्न भिन्न विषयों पर रचनाएँ की हैं। "कांचिकावेरी", "वनमाला", "कंसवध", "युगधर्म" आदि इनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।

राधानाथ युग के अन्य प्रसिद्ध कवि हैं गंगाधर मेहेर, पल्लीकवि नंदकिशोर वल, (प्राबंधिक और संपादक) विश्वनाथ कर, व्यंगकार गोपाल चंद्र प्रहराज आदि।

इसके उपरांत गोपबंधु दास ने सत्यवादी युग का प्रवर्तन किया। इनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ "धर्मपद", "बंदीर आत्मकथा", "कारा कविता" आदि हैं। नीलकंठ दास तथा गोदावरीश मिश्र आदि इस युग के प्रधान साहित्यिक हैं। पद्मचरण पट्टनायक और कवयित्री कुंतलाकुमारी सावत छायावादी साहित्यकार और लक्ष्मीकांत महापात्र हास्यरसिक हैं।

सत्यवादी युग के बाद रोमांटिक युग आता है। इसके प्रधान कवि मायाधर मानसिंह हैं। उनके "धूप", "हेमशस्य", "हेमपुष्प" आदि प्रधान ग्रंथ हैं।

कालिंदीचरण पाणिग्राही, वैकुंठनाथ पट्टनायक, हरिहर महापात्र, शरच्चंद्र मुखर्जी और अन्नदाशंकर राय ने "सबुज कवित्व" से सबुज युग का श्रीगणेश किया है। "वासंती" उपन्यास इनके संमिलित लेखन का फल है।

इसके बाद प्रगतियुग या अत्याधुनिक युग आता है। सच्चिदानंद राउतराय इस युग के प्रसिद्ध लेखक हैं। इनकी रचनाओं में "पल्लीचित्र", "पांडुलिपि" आदि प्रधान हैं। आधुनिक समय में उपन्यासकार गोपीनाथ महांति, कान्हुचरण महांति, सुरेन्द्र महांति, नित्यानंद महापात्र, क्षुद्रगाल्पिक गोदावरीश महापात्र, कथाकार मनोज दास, विभूति पट्टनायक, वीणापाणि महांति, शान्तनु आचार्य, महापात्र नीलमणि साहु, गोपाल छोटराय आदि प्रमुख हैं। आधुनिक ओडिया कवियों में राधामोहन गडनायक, भानुजी राओ, रवि सिंह, सिताकांत महापात्र, प्रतिभा शतपथि, हरप्रसाद दास, रामकृष्ण नन्द, रमाकान्त रथ, सच्चि राउतराय, सौरीन्द्र बारीक, जगन्नाथ प्रसाद दास, तपन कुमार प्रधान, हलधर नाग आदि हैं ।

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