भारतीय साहित्य/संस्कृत साहित्य

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भारतीय साहित्य
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संस्कृत भारोपीय परिवार की भारत-ईरानी शाखा की भारतीय आर्य भाषा उप शाखा की प्राचीनतम भाषा है। संस्कृत बोलने वाले आर्य भारत में बाहर से आये या नहीं, यह विवाद का प्रश्न हो सकता है, लेकिन यह सत्य है कि संस्कृत तथा इससे आगे भारतीय आर्य भाषाओं का विकास क्रम भारत की भूमि पर ही हुआ। संस्कृत के आदि ग्रंथ वेदों की रचना इस धरती पर हुई।

संस्कृत एक प्राचीन भाषा है। एक समय में संस्कृत एक व्यापक क्षेत्र में बोली जाती थी, लेकिन अब यह भाषा किसी समुदाय द्वारा बोली नहीं जाती है। संस्कृत का विपुल साहित्य उपलब्ध है। संस्कृत का श्रेष्ठ साहित्य आज तक विभिन्न भारतीय भाषाओं के लिए प्रेरणा स्रोत रहा है।

भाषा की दृष्टि से संस्कृत को भारतीय भाषाओं की जननी कहा जाता है। आर्य भाषाओं की लगभग 50 प्रतिशत शब्दावली संस्कृत से आयी है। द्रविड़ भाषाओं में संस्कृत के कई शब्द हैं। आधुनिक युग में भी भारत की प्रमुख भाषाएँ शब्दावली निर्माण के लिए संस्कृत भाषा का सहारा लेती हैं, क्योंकि संस्कृत की शब्द रचना की शक्ति असीम है। वाक्य संरचना, क्रिया संरचना आदि व्याकरणिक व्यवस्थाएँ संस्कृत की संरचनाओं से मेल खाती हैं। इसी कारण कहा जाता है कि संस्कृत ही परिवर्तित होकर पालि, प्राकृत आदि रूपों से होते हुए आधुनिक आर्य भाषाओं में विकसित हुई। इस इकाई में हम संरचनाओं की समानता पर ध्यान रखते हुए संस्कृत भाषा के स्वरूप का अध्ययन करेंगे।

भारतीय आर्य भाषाओं का इतिहास लगभग 3500 साल पुराना है। प्राचीन संस्कृत में वेदों की रचना हुई। वेदों के रचना काल के संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं, फिर भी निर्विवाद मत यह है कि वेदों का रचना काल ई.पू. 1500 से माना जा सकता है। तब से अब तक के समय को तीन विशिष्ट युगों में बाँटा जा सकता है।

ये हैं: प्राचीन भारतीय आर्य भाषा- 1500 ई.पू. से 500 ई.पू. मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा -500 ई. पू. से 1000 ई. आधुनिक भारतीय आर्य भाषा -1000 ई. से आज तक

प्राचीन भारतीय आर्य भाषा युग वास्तव में संस्कृत भाषा का युग है। पालि प्राकृत और अपभ्रंश आदि मध्यकालीन आर्य भाषाएँ हैं।

वैदिक संस्कृत साहित्य[सम्पादन]

संस्कृत भाषा का युग ऊपर की चर्चा के अनुसार लगभग 1000 वर्ष का है। इस युग में संस्कृत का विपुल साहित्य रचा गया। सबसे पहले संस्कृत में वेदों आदि की रचना हुई। इसलिए इस युग की संस्कृत भाषा को वैदिक संस्कृत की संज्ञा दी जाती है। वैदिक संस्कृत में रचित साहित्य निम्न प्रकार का है: वेद (संहिताएँ )- ऋक, साम यजु और अथर्व

ब्रामहन ग्रंथ - ऐतरेय, शतपथ, पांड्य आदि

आरण्यक- ऐतरेय, वृहद् आदि 

उपनिषद -ईश, केन, कठ, प्रश्न आदि।

"वेद" शब्द "विद्" (जानना) धातु से बना है। वेद का अर्थ है ज्ञान। चारों वेदों में कुल मिलाकर वैदिक धर्म के स्वरूप का परिचय है, दर्शन का विवरण है और युग के जीवन का वर्णन है। ऋग्वेद में विभिन्न वैदिक देवताओं की स्तुतियाँ हैं। सामवेद में वैदिक मंत्रों के गाने का विधान है। यजुर्वेद यज्ञ का विधान स्पष्ट करता है। अथर्ववेद जन-जीवन के अन्य पक्षों को उद्घाटित करता है।


वेदों की रचना के बाद ब्राह्मण ग्रंथों की रचना की गयी। हर वेद के अपने-अपने ब्राह्मण ग्रंथ है। ये वेदों के व्याख्या ग्रंथ हैं, जिनमें कथाओं और आख्यान-उपाख्यानों के माध्यम से वैदिक मंत्रों की व्याख्या की गयी है। ये ग्रंथ वेदों को समझने के लिए आवश्यक है।


आरण्यक शब्द अरण्य से निष्पन्न होता है। अतः विद्वान इन्हें वानप्रस्थ आश्रम के ग्रंथ मानते हैं। आरण्यकों में यज्ञ की आध्यात्मिक व्याख्या है।


उपनिषद् वैदिक साहित्य के अंतिम सोपान कहलाते हैं। आरण्यकों में जो आध्यात्मिक चिंतन उभरा, वह उपनिषदों में परिपक्व हुआ। उपनिषद् वेदों के दार्शनिक पक्ष को उद्घाटित करते हैं इसीलिए इन्हें वेदों का सार भी कहा जाता है। इन ग्रंथों में जीव, ब्रह्म, आत्मा, सृष्टि आदि पर विचार किया गया है।


ये चारों प्रकार के ग्रंथ - वैदिक संहिताएँ, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक और उपनिषद् - एक ही श्रृंखला के चार अंग हैं। इनमें एक वैचारिक क्रम है, जो उस युग में उत्तरोत्तर विकसित हुए। वैदिक साहित्य की इतिश्री वेदांगों में होती है। वेदांग छह है- शिक्षा, कल्प, ज्योतिष, निरूक्त, व्याकरण और छंद। इनमें वेदों के संदर्भ में अलग-अलग विषयों पर विशिष्ट प्रकार का विवेचन है। ये सूत्रों में लिखे गए हैं। इसलिए इन्हें सूत्र साहित्य भी कहा जाता है। शिक्षा वैदिक मंत्रों के उच्चारण पक्ष को विश्लेषित करता है, कल्प सूत्रों में पारिवारिक और सामाजिक जीवन के संदर्भ में रीति की व्यवस्थाओं और नियमों का उल्लेख है। वेदांग वैदिक साहित्य के उपर्युक्त चारों ग्रंथों से अलग है, इसलिए विद्वान इन्हें उत्तर वेद भी कहते हैं।


लौकिक साहित्य


वैदिक साहित्य और लौकिक साहित्य में दो प्रकार के अंतर हैं। पहले दोनों में धर्म के स्वरूप में अंतर है। वैदिक धर्म यज्ञ प्रधान था। उसके देवता भिन्न थे। लौकिक संस्कृत में भक्ति धर्म का स्वरूप प्रस्फुटित होता है और वैदिक देवताओं की जगह राम, कृष्ण दोनों अवतार प्रमुख देवता माने जाते हैं।


लौकिक संस्कृत का काल ई.पू. 500 से है। कब तक है यह बताना कठिन है, क्योंकि संभवतः लौकिक साहित्य के शुरू से ही संस्कृत का बोलचाल की भाषा के रूप में प्रचलन समाप्त होने लगा था, लेकिन बाद में सदियों तक यह पूरे भारत में प्रमुख साहित्यिक भाषा बनी रही और आज तक विद्वान संस्कृत में काव्य रचना करते रहे हैं। लौकिक संस्कृत के अधिकांश साहित्य का इतिहास ई.पू. 500 से 1500 ई. तक रचा गया। सुविधा के लिए आगे हम लौकिक संस्कृत को सिर्फ संस्कृत कहेंगे।


संस्कृत साहित्य के प्रकार


1 महाकाव्य और पुराण


संस्कृत के दो प्रमुख महाकाव्य हैं बाल्मीकि रचित रामायण और व्यास रचित महाभारत। इनमें क्रमश: दो अवतारों-राम और कृष्ण का वर्णन है। रामायण बृहदाकार ग्रंथ है। इसमें सात कांड हैं और कुल 24,000 श्लोक हैं। इसका रचना काल 200ई. पू. और 200ई. के बीच का माना जाता है। इसकी कथा इतनी प्रसिद्ध है कि उसे यहां दुहराने की आवश्यकता नहीं है। महाभारत अपने वर्तमान आकार में विशालकाय है। विद्वानों का मत है कि इसका मूल आकार छोटा होगा, लेकिन कालांतर में इसमें प्रसंग जुड़ते गये। महाभारत की कथा भी सर्वविदित है। यह पांडवों और कौरवों के बीच संघर्ष और युद्ध की कहानी है। कृष्ण इसमें सच्चाई का साथ देने वाले व्यक्तित्व के रूप में चित्रित हैं।


इन महाकाव्यों में राम और कृष्ण का अवतारी रूप अधिक मुखर नहीं हुआ। इनसे भक्ति के स्वरूप का बीजारोपण अवश्य हुआ, लेकिन पुराणों में अवतार महिमा और भक्ति को स्वर मिला। जैसे भागवत पुराण कृष्ण के अवतार स्वरूप को अधिक स्पष्टता से वर्णित करता है। पुराण अठारह हैं- ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, वायुपुराण, भागवत पुराण आदि। ये अलग-अलग समय पर लिखे गये। इनका रचना काल पाँचवीं शताब्दी से पंद्रहवीं शताब्दी तक माना जाता हैं।


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नीति कथाओं में पंचतंत्र, हितोपदेश, बृहत्कथा, कथा सरित्सागर, वेताल पंचविशतिका (बेताल पचीसी) आदि महत्वपूर्ण हैं।


03 गद्य साहित्य या आख्यान साहित्य

यह संस्कृत साहित्य की ही विशेषता है कि आदि काल से ही इसमें गद्य साहित्य की रचना होने लगी। दशकुमार चरित, वासवदत्ता, हर्षरचित, कादंबरी आदि प्रसिद्ध गद्य आख्यान हैं।


04 कलात्मक काव्य

संस्कृत साहित्य के इतिहास में इसका मध्य युग सबसे महत्वपूर्ण है। इस युग में कालिदास, माघ, भवभूति आदि श्रेष्ठ साहित्यकारों ने इस साहित्य को चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया। इनका समय 600ई. के आसपास माना जाता है।


महाकवि कालिदास ने सात महत्वपूर्ण कृतियाँ रची हैं। उनके काव्य ग्रंथ हैं - ऋतुसंहार, कुमारसंभव, रघुवंश और मेघदूत, नाटक है मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय और शाकुंतल । इनके अलावा अन्य प्रमुख लेखकों को हम उनकी प्रमुख कृतियों के कोष्ठक में उल्लेख के साथ आगे दे रहे हैं।


भारवि (किरातार्जुनीय) माघ (शिशुपाल वध) श्री हर्ष (नैषधचरित) कुमारदास (जानकीहरण)


05 अन्य वागम्य साहित्यिक कृतियों के अलावा संस्कृत में गणित, ज्योतिषशास्त्र, चिकित्सा, दर्शन, धर्मशास्त्र आदि विविध वागम्यक्षेत्रों पर कई ग्रंथ लिखे गये । अर्थशास्त्र के क्षेत्र में कौटिल्य द्वारा रचित "अर्थशास्त्र और काम के क्षेत्र में वात्स्यायन रचित "कामशास्त्र" विश्वविख्यात ग्रंथ हैं। चिकित्सा के क्षेत्र में चरक, सुश्रुत तथा गणित के क्षेत्र में आर्यभट्ट आदि प्रख्यात विद्वान हैं।