भारतीय स्वाधीनता संग्राम में राजनीतिक चेतना का विकास

विकिपुस्तक से

उन्नीसवीं शताब्दी में राजनीतिक चेतना का विकास[सम्पादन]

19वीं सदी में धार्मिक तथा सामाजिक सुधार आन्दोलनों से भारतीय राष्ट्रीयता के विकास का एक नया युग प्रारम्भ होता है। इस समय समाज को सती प्रथा, जाति प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, मूर्तिपूजा, छुआछूत एवं बहुदेववाद आदि बुराइयों ने दूषित कर रखा था, जबकि विभिन्न आडम्बरों के कारण धर्म भी संकीर्ण होता जा रहा था। इस समय ईसाई मिशनरियों द्वारा किए जा रहे प्रचार कार्य के कारण लोगों का ध्यान ईशाई धर्म की तरफ आकृष्ट हो रहा था तथा वे हिन्दू धर्म के प्रति उदासीन होते जा रहे थे। इस समय देश में पुनर्जागरण हुआ तथा विभिन्न सुधारकों ने देश की सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति में अनेक सुधार किए, जिसके कारण आधुनिक भारत के निर्माण को प्रोत्साहन मिला।

विभिन्न धार्मिक तथा सामाजिक सुधारवादी आन्दोलन

केशवचन्द्र का भारतीय ब्रह्म समाज[सम्पादन]

केशचन्द्र सेन 1857 ई. में ब्रह्म समाज के सदस्य बने। उन पर पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का बहुत प्रभाव था, अतः उनका देवेन्द्रनाथ ठाकुर से मतभेद हो गया तथा 1866 ई. में उन्होंने भारतीय ब्रह्म समाज की स्थापना की।

सेन के धार्मिक विचार

केशवचन्द्र सेन पर पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति तथा ईसाई धर्म का बहुत प्रभाव था। अतः उनके नेतृत्व में भारतीय ब्रह्म समाज का हिन्दू धर्म एवं भारतीय संस्कृति से नाता टूट गया। इस समाज के सदस्य ईसा मसीह को अपना ईश्वर मानकर पूजने लगे। इसके अलावा वे ईसाई ग्रन्थों तथा बाइबल का भी अध्ययन करने लगे। सेन विश्व धर्म की स्थापना के इच्छुक थे, अतः उन्हों सभी धर्मो की उपासना आरम्भ कर दी। इस समाज की प्रार्थनाओं में हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, बौद्ध, चीनी, यहूदी आदि सभी धर्मो की प्रार्थानाएँ सम्मिलित थीं। इसके सदस्य सड़कों पर सामूहिक कीर्तन करते हुए चलते थे।

सामाजिक सुधार

केशचन्द्र सेन एक महान् सामाजिक सुधारक थे। उन्होंने बाल विवाह, बहु विवाह, पर्दा प्रथा, जाति प्रथा आदि बुराइयों का विरोध करते हुए स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह तथा अन्तर्जातीय विवाह पर बल दिया। उनके प्रयासों से सरकार ने 1872 में एक कानून बनाकर अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता प्रदान कर दी तथा विवाह हेतु लड़कों के लिए न्यूनतम आयु 18 वर्ष तथा लड़कियों हेतु 14 वर्ष निर्धारित कर दी। उन्होंने स्त्रियों व मजदूरों की दशा में सुधार हेतु 1870 ई. में भारतीय सुधार संघ की स्थापना की। अपने विचारों के प्रसाह हेतु सेन ने सुलभ समाचार नामक समाचार पत्र का प्रकाशन किया।

भारतीय ब्रह्म समाज ने सेन के नेतृत्व में काफी विकास किया। 1866 ई. मं इसकी बंगाल में 50, उत्तर प्रदेश में 2 एवं पंजाब व मद्रास में एक-एक शाखा स्थापित हो चुकी थी। इस समाज के सिद्धान्तों के प्रसार हेतु विभिन्न भाषाओं में 37 पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थी। 1878 ई. में उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह कूच बिहार के राजकुमार से कर दिया। विवाह के समय वर-वधू दोनों नाबालिग थे अर्थात् 18 व 14 वर्ष की आयु से कम थे। सेन के विरोधियों ने इस विवाह की आलोचना करते हुए अपना अलग समाज साधारण ब्रह्म समाज स्थापित कर लिया। इस पर सेन ने भी एक नवीन समाज विधान समाज का गठन किया, जिसका ईसाई धर्म की तरफ बहुत अधिक झुकाव था।

साधारण ब्रह्म समाज[सम्पादन]

आनन्द मोहन बोस, शिवनाथ शास्त्री, विजय कृष्ण गोस्वामी आदि ने केशवचन्द्र सेन से मतभेद होने पर साधारण ब्रह्म समाज की स्थापना की। इसने समाज एवं धर्म में महत्त्वपूर्ण सुधार किए। इसके प्रयासों से कलकत्ता में एक स्कूल की स्थापना की गई, जो आगे चलकर सिटी कॉलेज ओफ कलकत्ता के नाम से विख्यात हुआ। इस समाज के सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए तत्त्व कौमुदी नामक बांगला एवं ब्रह्म पब्लिक ओपिनियन नामक अंग्रेजी समाचार पत्र प्रकाशित होने लगे। इसने 1884 ई. में संजीवीनी नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन किया तथा 1880 ई. में ब्रह्म बालिका नामक स्कूल की स्थापना की।

यद्यपि आज ब्रह्म समाज लगभग लुप्त हो चुका है, किन्तु फिर भी धर्म तथा समाज सुधार के क्षेत्र में इसका योगदान कभी नहीं भुलाया जा सकता। इसने प्रेस की स्वतन्त्रता पर बल देकर भारतीयों में राष्ट्रीयता की एक नई बावना जाग्रत की।

प्रार्थना समाज[सम्पादन]

इसकी स्थापना 1867 ई. में डॉ. आत्माराम पाण्डुरंग ने महाराष्ट्र में की थी। यह समाज एवं धर्म में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के उद्देश्य से स्थापित किया गया था। कालान्तर में आर.जी. भण्डाकर तथा महादेव रानाडे भी इस समाज से जुड गए। इस समाज ने जाति प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल विवाह आदि बुराईयों का विरोध किया तथा एकेश्वारवाद, स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह, निराकार उपासना आदि पर बल दिया। इसके प्रयासों से महाराष्ट्र में अनेक अनाथालयों, विधाश्रमों एवं रात्रि पाठशालाओं की स्थापना हुई।

आर्य समाज[सम्पादन]

19वीं सदी के सुधारवादी आन्दोलनों में आर्य समाज अपना प्रमुख स्थान रखता है। इसकी स्थापना 10 अप्रेल, 1875 ई को स्वामी दयानन्द सरस्वती ने बम्बई में की थी। वह वैदिक धर्म पर आधारित था। स्वामी दयानन्द के अवतीर्ण होने से पूर्व हिन्तुत्व जर्जर हो चुका था एवं उसमें अनेक आडम्बरों, कर्मकाण्डों एवं रूढ़ियों ने प्रवेश कर लिया था। ईसाई और इस्लाम धर्म प्रचारक हिन्दू धर्म का खुला उपहास उड़ा रहे थे एवं अपने धर्म का प्रचार कर रहे थे। केशवचन्द्र सेन के ब्रह्म समाज का झुकाव भी ईसाई धर्म की तरफ था।

इन परिस्थितियों में दयानन्द ने हिन्दू धर्म में व्याप्त बुराईयों को दूर करते हुए हिन्दुओं का ध्यान उनके धर्म के मूल स्वरूप की ओर आकृष्ट किया। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि भारतीय संस्कृति विश्व की श्रेष्ठतम् संस्कृति है। उनकी धारणा थी कि हिन्दू धर्म ही सच्चा धर्म है तथा वेद ज्ञान के भण्डार है। स्वामी दयानन्द का मानन था कि यदि वैदिक धर्म की बुराइयों को दूर कर उसे पुनः प्रतिष्ठित किया जाए, तो भारत पुनः विश्व का गुरू बनने में सक्षम है। इस प्रकार जहाँ राजा राममोहन राय का झुकाव ईसाई धर्म की तरफ था, वहीं स्वामी दयानन्द का झुकाव हिन्दू धर्म की तरफ था। उन्होंने हिन्दू धर्म में एक नए प्राण फूंक दिए। रोमा रोलां के शब्दों में, दयानन्द इलियड् अथवा गीता के प्रमुख वाचक के समान थे, जिसने हरक्युलिस की शक्ति के साथ हिन्दू अन्धविश्वासों पर प्रबल प्रहार किया। वस्तुतः शंकराचार्य के बाद इतनी महान् बुद्धि का सन्त दूसरा नहीं जन्मा। रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार, स्वामी दयानन्द सरस्वती आधुनिक भारत के एक महान् पथ-दर्शक थे।

स्वामी दयानन्द सरस्वती (1824-1883 ई.)[सम्पादन]

स्वामी दयानन्द सरस्वती जन्म 1824 ई. में गुजरात के भैरवी क्षेत्र में निकट टंकरा नामक गाँव में एक धनी तथा रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम मूलशंकर था। उनके पिता का नाम अम्बाशंकर था। 14 वर्ष की आयु में एक बार महाशिवरात्रि के पर्व पर अपने पिता के साथ शिव के मन्दिर में गए वहाँ उन्होंने एक चूहे को शिवलिंग पर चढ़कर प्रसाद खाते हुए देखा। यह देखकर मूर्तिपूजा पर से उनका विश्वास उठ गया। जब उनके पिता 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह करने लगे, तो वह घर छोड़कर भाग गए। इसके बाद वे 15 वर्ष तक सम्पूर्ण देश में घूमते रहे। 1860 ई. में उन्होंने मथुरा आकर स्वामी विरजानन्द को अपना गुरू बनाया तथा वेदों का ज्ञान प्राप्त किया। इसके बाद अपने गुरू के आदेश के अनुरूप इन्होंने आजीवन वैदिक धर्म में व्याप्त बुराइयों को दूर करने एवं वैदिक संस्कृति की श्रेष्ठता स्थापित करने का प्रयत्न किया।

जहाँ राजा राममोहन राय पर पाश्चात्य संस्कृति एवं अंग्रेजी भाषा का प्रभाव था, वहीं स्वामी दयानन्द सरस्वती हिन्दू धर्म एवं भारतीय संस्कृति से बहुत प्रभावित थे। उनका उद्देश्य हिन्दू धर्म में व्याप्त बुराइयों को दूर करते हुए एक बार पुनः उसकी श्रेष्ठता स्थापित करना था। उन्होंने मूर्तिपूजा का डटकर विरोध किया। वेदों में आस्था होनेे के कारण उन्होंने वेदों की तरफ लौटो का नारा दिया। उन्होंने सम्पूर्ण देश का भ्रमण कर हिन्दू धर्म का प्रचार किया तथा विभिन्न विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती संस्कृत के महान विद्वान थे। 1822 ई. में उन्होंने ब्रह्म समाज के साथ मिलकर कार्य करने का प्रयत्न किया, किन्तु प्रयत्न विफल रहा, क्योंकि ब्रह्म समाज के सदस्यों का वेदों की प्रामाणिकता तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त में कोई विश्वास नहीं था एवं उनका झुकाव पाश्चात्य संस्कृति तथा ईसाई धर्म की तरफ था। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने केशवचन्द्र सेन के परामर्श पर ंसस्कृत भाषा के स्थान हिन्दी भाषा में अपने विचारों का प्रचार करना आरम्भ कर दिया। स्वामीजी ने 10 अप्रेल, 1875 ई. को बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की। यहाँ से दिल्ली गए, जहाँ सत्य की खोज हेतु हिन्दू, ईसाई एवं मुस्लिम धर्म प्रचारकों का सम्मेल बुलाया गया था। इस सम्मेलन में दो दिन तक वाद-विवाद होता रहा, किन्तु सम्मेलन किसी निर्णय पर न पहुँच सका। स्वामी जी ने इसके बाद पंजाब में जाकर अपने विचारों का प्रचार किया। इसके परिणामस्वरूप पंजाब में स्थान-स्थान पर आर्य समाज की शाखाएँ स्थापित हुए। इसके बाद वे ग्वालियर, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात आदि स्थानों पर आर्य समाज का प्रसार किया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने तीन ग्रन्थों की रचना की-

1. प्रथम ग्रन्थ ऋग्वेदादि भाष्य में उन्होंने वेदों के सम्बन्ध में विचार व्यक्त किए।

2. द्वितीय ग्रन्थ में वेद भाष्य में उन्होंने ऋग्वेद तथा यजुर्वेद के सम्बन्ध में टीका लिखी।

3. स्वामी दयानन्द का तीसरा ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश था, जो बहुत अधिक प्रसिद्ध है।

इस ग्रन्थ में उन्होंने सभी धर्मों के दोषों पर प्रकाश डालते हुए यह प्रामाणित करने का प्रयत्न किया है कि वैदिक धर्म ही सभी धर्मों श्रेष्ठ है। इसमें उन्होंने इस्लाम तथा ईसाई धर्म के आडम्बरों तथा कर्मकाण्डों की भी खुलकर आलोचना की है। इससे हिन्दू इन धर्मों के दोषों से परिचित हुए तथा वे समझ गए कि ये धर्म हिन्दू धर्म से श्रेष्ठ नहीं है। इससे हिन्दुओ का विश्साव इन धर्मों से उठने लगा तथा पुनः हिन्दू धर्म की तरफ आकर्षित होने लगा। उन्होंने ईसाई एवं इस्लाम धर्म की श्रेष्ठता पर पानी फेर दिया। यह उनकी महान् देन थी। डॉ. ताराचन्द ने लिखा है कि, दयानन्द को आपत्ति तो इस बात पर थी कि इस्लामी और ईसाई तत्त्व हिन्दू धर्म पर आक्रमण करने से बाज नहीं आ रहे थे और इसलिए अपने धर्म के बचाव में उन्होंने प्रत्याक्रमण के शस्त्र का सहारा लिया, ताकि हिन्दू धर्म पर हमले के बजाय उन्हें अपनी स्थिति बचाने की फिक्र हो। एम.ए. चमूपति ने लिखा है कि, मुल्लाओं और पादरियों ने पहली बार यह अनुभव किया कि अनेक विश्वास की बिना किसी संकोच के आलोचना हो सकती है।

स्वामी दयानन्द सरस्वती का अन्तिम समय राजस्थान में व्यतीत हुआ। उनके उपदेशों से प्रभावित होकर यहाँ के अनेक राजा तथा सामन्त उनके भक्त बन गए। उनके राजनीतिक विचार बड़े उँचे थे। उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि, विदेशी राज्य से स्वराज्य हर प्रकार से अच्छा है। स्वामी जी ने जोधपुर के व्यसनी नरेश महाराज जसवन्तसिंह को खूब लताड़ा था, अतः महाराज की कृपापात्र नन्हीं जान ने स्वामी जी के भोजन में विष मिला दिया, जिसके कारण 30 अक्टूबर 1883 ई. को स्वामी जी की अजमेर में मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के सम्बन्ध में मादाम ब्लोवाट्स्की ने लिखा था कि, यह बिल्कुल सही बात है कि शंकराचार्य के बाद भारत में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं हुआ, जो स्वामी जी से बडा संस्कृतज्ञ, उनसे बड़ा दार्शनिक, उनसे अधिक तेजस्वी वक्ता तथा कुरीतियों पर टूट पडने में उनसे अधिक निर्भीक रहा हो। दी थियोसोफिस्ट ने स्वामी जी की मृत्यु के बाद प्रशंसा में लिखा था कि, उन्होंने जर्जर हिन्तुद्व के गतिहीन जन-समूह पर भारी बम प्रहार किया और अपने भाषणों से लोगों के हृदय में आग लगा दी। सारे भारत वर्ष में उनके समान हिन्दी और संस्कृत का वक्ता दूसरा कोई नहीं था। पाल रिचार्ड ने लिखा है कि, स्वामी दयानन्द निःसन्देह एक ऋषि थे। उनका प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त करने और जाति बन्धन तोड़ने के लिए हुआ था। मैक्समूलर ने लिखा है कि, स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हिन्दू धर्म के सुधार का बड़ा कार्य किया। जहां तक समाज सुधार का सम्बन्ध है, वे बड़े उदार हृदय थे। वे अपने विचारों को वेदों पर आधारित और उन्हें ऋषियों के ज्ञान पर अवलम्बित मानते थे।

इन्होंने वेदों पर बड़े-बड़े भाष्य किए, जिससे मालूम होता है कि वे पूर्ण विद्वान थे। उनका स्वाध्याय बड़ा व्यापक था। रोमा रोला ने लिखा है कि, ऋषि दयानन्द उच्चतम् व्यक्तित्व के पुरूष थे। दयानन्द ने अपह्व व अछूतपन के अन्याय को सहन न किया और उससे अधिक उनके अपह्यत अधिकारों का उत्साही समर्थक दूसरा कोई न हुआ। भारत में स्त्रियों की शोचनीय दशा को सुधारने में भी दयानन्द ने बड़ी उदारता व साहस से काम लिया। वास्तव में राष्ट्रीय भावन और जाग्रति के विचार को क्रियात्मक रूप देने से सबसे अधिक प्रबल शक्ति उन्हीं की थी। वह नव-निर्माण और राष्ट्रीय संगठन की जो मशाल जलाई थी, उसका कोई जवाब नहीं था। वे जो कुछ कर रहे थे, उसका उत्तर न तो मुसलमान दे सकते थे, न ईसा, न पुराणों पर पलने वाले हिन्दू पण्डित और विद्वान। हिन्दू पुनर्जागरण अब पूरे प्रकाश में आ गया था और उनके समझदार लोग यह अनुभव करने लगे कि सच ही पौराणिक धर्म में कोई सार नहीं है। एर्मसन ने लिखा है, यह स्वीकार महत्त्वपूर्ण है। उनकी मान्यताओं और सिद्धान्तों ने एक बार तो हीनभाव ग्रस्त इस जाति को अपूर्व उत्साह से भर दिया। श्री ए. ओ. ह्यूम ने लिखा है, स्वामी दयानन्द के सिद्धान्तों के विषय में कोई मनुष्य कैसी ही सम्मति स्थिर कर ले, परन्तु वह सबको मान लेना पड़ेगा कि स्वामी दयानन्द अपने देश के लिए गौरव रूप थे। दयानन्द को खोकर भारत को महान् हानि उठानी पड़ी है। वह एक महान और श्रेष्ठ मनुष्य थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा है, महर्षि दयानन्द के उपदेशों ने करोड़ों लोगों को नवीजनव, नई चेतना और नया दृष्टिकोण प्रदान किया। उन्हें श्राद्धांजिल अर्पित करते हुए हमें व्रत लेना चाहिए कि उनके बताए हुए मार्ग पर चलकर हम देश को शान्त और वैभवपूर्ण बनाएँगे। डॉ. राधाकृष्ण ने लिखा है कि, स्वामी दयानन्द एक महान् सुधारक और प्रखर क्रान्तिकार महापुरूष तो थे ही, साथ ही उनेक हृदय में सामाजिक अन्यायों को उखाड़ फेंकने की प्रचण्ड अग्नि भी विद्यमान थी। उनकी शिक्षाओं का हम सबके लिए भारी महत्त्व है। उन्होंने हमे यह महान संदेश दिया हि हम सत्य को कसौटी पर कसकर ही किसी बात को स्वीकार करे।

आर्य समाज के सिद्धान्त[सम्पादन]

स्वामी दयान्नद सरस्वती ने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में आर्य समाज के 10 सिद्धान्तों का वर्ण किया है, जो इस प्रकार हैं-

1. ईश्वर ही ज्ञान का मुख्य कारण है। सभी सत्य, विद्या एवं जो पदार्थ विद्या से जाने जाते है, उन सबका मूल कारण परमेश्वर है।

2. ईश्वर सच्चिदानन्द, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, न्यायकारी, अजन्मा, दयालु, अनादि, अजर, अमर, अभय, नित्य पवित्र, सृष्टिकर्ता एवं निर्विकार है। हम सभी को उसकी भक्ति व उपासना करनी चाहिए।

3. वेद ज्ञान के भण्डार हैं। अतः प्रत्येक आर्य का कर्तव्य है कि वह वेदों को पढ़ें और सुने।

4. असत्य का त्याग करने तथा सत्य को ग्रहण करने हेतु सदैव उद्यथ रहना चाहिए।

5. सबसे धर्मानुसार, प्रेमपूर्वक एवं यथायोग्य व्यवहार करना चाहिए।

6. विद्या का सृजन एवं अविद्या का नाश करना चाहिए।

7. सभी कार्य सत्य एवं असत्य पर विचार करने ही करने चाहिए।

8. समाज का उद्देश्य सभी व्यक्तियों की शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति के लिए प्रयत्ना करना है।

9. प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उन्नति से सन्तुष्ट न रहते हुए दूसरों की उन्नति को भी अपनी उन्नति समझना चाहिए।

10. व्यक्तिगत हित सम्बन्धी कार्यों में सभी व्यक्तियों को स्वतन्त्रता होनी चाहिए। किन्तु सार्वजनिक हित सम्बन्धी विषयों पर आपसी मतभेद भुलाकर परस्पर सहयोग से कार्य करना चाहिए।

आर्य समाज के सुधार[सम्पादन]

आर्य समाज के निम्नलिखित सुधार किए-

(1)सामाजिक सुधार

स्वामी दयानन्द सरस्वती एक महान् सामाजिक सुधारक थे। उन्होंने बाल विवाह, बहु विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा, जाति प्रथा, छुआछुत, अशिक्षा आदि का विरोध करते हुए स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह एवं अन्तर्जातीय विवाह पर बल दिया।

स्वामी जी का मानना था कि लड़को का विवाह 25 वर्ष तथा लड़कियों का विवाह 16 वर्ष की आयु से पहले नहीं करना चाहिए। उन्होंने अन्तर्जातीय विवाह एवं विधवा विवाह पर बल दिया। वे नियोग प्रथा के भी समर्थक थे, जिसके अनुसार विधवा स्त्री अपने पति के छोटे भाई अथवाछोटा भाई न होने पर परिवार के किसी सदस्य के साथ मिलकर सन्तान उत्पन्न कर सकती थी, जिसके उसे सम्पत्ति में अधिकार मिल जाता था। आर्य समाज ने हजारों विधवाओं का विवाह करवाया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने स्त्रियों की शिक्षा तथा स्त्रियों को पुरूषों के समान अधिकार दिए जाने पर बल दिया। उनका मानना था कि स्त्रियों को भी वेदों का अध्ययन करने एवं यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार है। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा हेतु अनेक पाठशालाओं की स्थापना करवाई।

स्वामी दयानन्द ने वर्ण व्यवस्था, जाति-पाँति एवं ऊँच-नीच का विरोध करते हुए सामाजिक समानता पर बल दिया। उन्होंने वर्ण व्यवस्था को जन्म के स्थान पर कर्म पर आधिरत माना और कहा कि हमें मनुष्य के जन्म से नही, उसके कर्म से धृणा करनी चाहिए। उन्होंने ब्राह्मणों के प्रभुत्व का विरोध करते हुए सभी वेदों के अध्ययन का अधिकार दिया। उन्होंने अछूतों के उद्धार के लिए अथक् प्रयास किया, अतः उन्हें समाज में कुछ सम्मान प्राप्त हुआ। दिनकर ने लिखा है कि, उन्होंने धीरे-धीरे पपडियों (सामाजिक कुरीतियों की पपडियाँ) तोड़ने काम न करके उन्हें एक ही चोट के धक कर देने का निश्चय किया।...दयानन्द के अन्य समकालीन सुधारक केवल सुधारक मात्र थे, किन्तु दयानन्द क्रान्ति के वेग से आए।

शुद्धि आन्दोलन

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने शुद्धि आन्दोलन चलाया। ऐसे हिन्दू को बलपूर्वक ईसाई अथवा ईस्लाम धर्म में दीक्षित कर दिए गए थे एवं जो पुनः हिन्दू धर्म ग्रहण करना चाहते थे, उन्हे शुद्ध कर हिन्दू धर्म की दीक्षा दी जाती थी। यह आन्दोलन शुद्धि आन्दोलन कहलाया। दिनकर ने लिखा है, यह केवल सुधार की वाणी नहीं थी, जाग्रत हिन्दुत्व का समरनाद था। इसके फलस्वरूप लाखों हिन्दूओं ने, जिन्होंने इस्लाम तथा ईसाई मत धारण कर लिया था, पुनः हिन्दू बन गए। इस प्रकार इन आन्दोलन ने हिन्दू धर्म की रक्षा की। आगे चलकर हिन्दू समाज के उद्धार का कार्य लाल हंसराज तथा स्वामी श्रद्धानन्द ने किया।

(2) धार्मिक सुधार

दयानन्द ने हिन्दू धर्म में व्याप्त मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, बलि प्रथा, प्रचलित मत-मतान्तरों, अवतारवाद, आडम्बरों, अन्धविश्वास आदि की आलोचना करते हुए एकेश्वरवाद, यज्ञ, हवन, मन्त्रपाठ इत्यादि पर बल दिया। उनका माना था कि कोई भी व्यक्ति सत्कर्म, ब्रह्मचर्य एवं ईश्वर की उपासना का सहारा लेकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। स्वामी जी का मानना था कि वैदिक धर्म श्रेष्ठतम् है क्योंकि यह वेदों पर आधारित है, जो ईश्वरीय देन है, उन्होंने ईसाई धर्म तथा इस्लाम के साथ-साथ हिन्दू धर्म की बुराइयों पर भी प्रकाश डाला। मृतकों के श्राद्ध का विरोध करते हुए कहा कि परलोक में मृतक की आत्मा की शान्ति हेतु यहाँ दान देना एवं भोजन करवाना मूर्खता है। इस प्रकार आर्य समाज ने हिन्दू धर्म में सुधार करते हुए उसकी पुनः श्रेष्ठता स्थापित करने का प्रयत्न किया।

(3) साहित्यिक तथा शैक्षणिक देन

साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में स्वामी जी का योगदान बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहा है। उन्होंने हिन्दी भाषा में अनेक ग्रन्थों की रचना की। वे संस्कृत के महत्त्व को पुनः स्थापित करना चाहते थे तथा स्त्रियों को शिक्षा दिए जाने के प्रबल समर्थक थे। वे प्राचीन गुरूकुल शिक्षा प्रणाली के समर्थक थे, ताकि विद्यार्थी उचित ढंग से शिक्षा प्राप्त कर सके। वे शिक्षण संस्थाओं में सभी बच्चों के साथ समान व्यवहार किए जाने के समर्थक थे।

स्वामी दयानन्द की मृत्यु के बाद शिक्षा के प्रश्न को लेकर आर्य समाज दो भागों में विभाजित हो गया। एक के नेता लाल हंसराज तथा दूसरे के नेता महात्मा मुन्शीराम थे। लाला हंसराज पर पाश्चात्य शिक्षा का बहुत प्रभाव था। उनके प्रयत्नों से अनेक स्थानों पर डी.ए.वी. (दयानन्द एंग्लो वैदिक) के नाम से स्कूलों एवं कॉलेजों की स्थापना हुई। महात्मा मुन्शीराम प्राचीन गुरूकुल प्रणाली के समर्थक थे। उनके प्रयत्नों से 1900 ई. में गुरूकुल कांगड़ी नामक संस्था की स्थापना हुई, जो आगे चलकर विख्यात विश्वविद्यालय बन गया। महात्मा मुन्शीराम स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से लोकप्रिय हुए। उन्होंने भी शुद्धि आन्दोलन को बहुत लोकप्रिय तथा प्रबल बनाया, अतः एक मुसलमान ने उनकी हत्या कर दी। आर्य समाज ने कई अनाथालयों, गो-शालाओं एवं विधवाश्रमों की स्थापना की, जो आज भी समाज सेवा के कार्य में संलग्न हैं।

(4)राष्ट्रीय आन्दोलन में योगदान

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने राष्ट्रीय आन्दोलन में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनके दो प्रमुख नारों भारत भारतीयों का है तथा वैदिक सभ्यता को अपनाइए ने भारतीयों में नवीन उत्साह भर दिया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हिन्दू समाज में नवचेतना का संचार किया और हिन्दुओं में आत्म-सम्मान की भावना जाग्रत की। उन्होंने हिन्दुओं को यह बताया कि उनकी संस्कृति विश्व की प्राचीन और महान् संस्कृति है। इस पर वे अपनी संस्कृति पर गर्वन करने लगे। आर्य समाज ने नमस्ते शभ्द को प्रचलित किया, जो आज भी भारत तथा विदेशों में लोकप्रियता प्राप्त किए हुए है। स्वामी जी ने भारतवासियों में भी राजनीतिक चेनता जाग्रत की। स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनी के एक लेखक ने उनके बारे में लिखा है, दयानन्द का मुख्य लक्ष्य राजनीतिक स्वतन्त्रता था। वास्तव में वह प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिश्कार करना तथा स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करना सिखाया। वह प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया। जयसवाल ने लिखा है, सन्यासी दयानन्द ने हिन्दुओं की आत्मा को उसी प्रकार स्वतन्त्रता प्रदान की, जिस प्रकार लुथर ने यूरोपियन आत्मा को प्रदान की थी और उन्होंने इस स्वतन्त्रता का निर्माण भीतर से अर्थात् हि ्‌नदू साहित्य के आधार पर किया। उन्होंने हिन्दुओं में देशप्रेम की भावना उत्पन्न करते हुए कहा कि विदेशी राज्य कभी स्वराज्य का मुकाबला नहीं कर सकता कर्नल आल्काट ने लिखा है, दयानन्द ने अपने अनुयायियों पर बड़ा भारी राष्ट्रीय प्रभाव डाला। एनीबेसेण्ट ने लिखा है,

दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने लिखा कि भारत भारतीयों के लिए है। स्वामी जी ने हिन्दुओं में स्वाभिमान और स्वदेश प्रेम की भावना जाग्रत की थी। उन्होंने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि अच्छा से अच्छा विदेशी राज्य स्वदेशी राज्य का मुकाबला नहीं कर सकता है। इस प्रकार, स्वामी जी ने भारतीयों में देशभक्ति की भावना का संचार किया और उन्हें अपनी सभ्यता से प्रेम करना सिखाया।

1855 में हरीद्वार में विशाल कुम्भ मेला लगा। स्वामी दयानन्द भी इस मेले में भाग लेने के लिए हरिद्वार पहुँचे। इस समय अंग्रेजों के अत्याचारों के कारण सम्पूर्ण देश की जनता में उनके विरूद्ध भयंकर असंतोष व्याप्त था। नाना साहब अजीमुल्ला खाँ, तात्या टोपे, कुँवरसिंह, महारानी लक्ष्मीबाई आदि मेले में भाग लेने के लिए के लिए हरिद्वार पहुँचे। वहाँ वे स्वामी जी से मिले। स्वामी जी ने उन्हें अंग्रेजों के विरूद्ध कान्ति करने के लिए प्रेरित किया।

1857 की क्रान्ति का पूर्ण नियोजित तथा संगठित थी। क्रान्ति के प्रमुख सेनानायकों ने 31 मई, 1857 की तिथि विद्रोह के लिए तय की थी और इसकी सूचना देश भर की छावनियों में बड़े ही गोपनीय ढंग से पहुँचा दी गई थी, किन्तु दुर्भाग्यवश कुछ घटनाओं के कारण वह क्रान्ति निर्धारित तिथि से पूर्व ही प्रारम्भ हो गई थी। पहली घटना कलकत्त के पाक बैरकपुर छावनी में 23 जनवरी को चर्बी वाले कारतूसों के प्रयोग के विरूद्ध हुई। बैरकपुर के सैनिकों ने चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग करने से इन्कार कर दिया। ब्रिटिश अधिकारियों ने इसे अनुशासनहीनता का अपराध समझकर सैनिकों को दण्ड दिया। 29 मार्च, 1857 ई. को एक ब्राह्मण सैनिक मंगल पाण्डे ने चर्बी वाले कारतूसों की आज्ञा से कुर्द्ध होकर अपने अन्य साथियों के सहयोग से कुछ अंग्रेज सैनिक अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया। परिणामस्वरूप मंगल पाण्डे तथा उसके साथियों को फाँसी के तखते पर लटका दिया गया।

मई, 1857 को मेरठ छावनी में कुछ सैनिकों ने चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग करने से इन्कार कर दिया। इसलिए उन्हें 9 मई को प्रातः 5-5 वर्ष की कैद की सजा सुनाई। इस पर 10 मई, 1857 ई. को मेरठ के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। जेल खानें में बन्दी सिपाहियों को छुड़ा लिया गया और मैरठ की सेना ने दिल्ली की ओर कूच कर दिया। क्रान्तिकारियों ने दिल्ली पर अधिकार कर बहादुरशाह को पुनः सम्राट घोषित कर दिया।

इसके पश्चात क्रान्ति देश के अन्य भागों में फैलती गई। उत्तर भारत के अनेक राज्यों पर क्रान्तिकारियों ने अधिकार कर लिया। इसी समय लार्ड केनिंग ने एक और हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट पैदा कर दी तथा दूसरी ओर क्रान्ति को कुचलने के लिए पटियाला, नाभा, जीन्द, नेपाल, हैदराबाद और ग्वालियर के शासकों से सहायता प्राप्त की। सिक्खों और गोरखों ने इस क्रान्ति को दबाने हेतु ब्रिटिश सरकार को पूरी-पूरी सहायता दी। फलस्वरूप 24 सितम्बर, 1857 ई. को ब्रिटिश सेना का दिल्ली पर अधिकार हो गया। मुगल सम्राट बहादुरशाह को बन्दी बना लिया गया और उसके दो पुत्रों को नंगा करके मौत के घाट उतार दिया गया तथा उनके सिर काटकर सम्राट के पास भेटं के रूप में भेजे गए। अंग्रेजी सेना ने एक सप्ताह तक दिल्ली में जी भरकर लूटमार की तथा कत्लेआम किया। उत्तर भारत के गाँव के गाँव मशीनगनों से स्वाहा कर दिए गए। बहादुरशाह पर मुकदमा चलाया गया और उसे उम्र कैद की सजा देकर रंगून भेज दिया गया, जहाँ 1862 में उसकी मृत्यु हो गई।

1857 ई. की क्रान्ति का केन्द्रस्थल उत्तर भारत ही रहा। दिल्ली के अतिरिक्त मेरठ, आगरा, इलाहाबाद, अवध, पटना एव रूहेलखण्ड आदि आस-पास के प्रदेशों के क्रान्तिकारियों ने अपनी सरकारों की स्थापना की और कुछ क्षेत्रो में तो थोड़े समय के लिए ब्रिटिश शासन समाप्त ही हो गया। नाना साहब, बहादुरशाह, तात्या टोपे, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, कुँवरसिंह, मौलवी अहमदशाह, बेगम हजरत महल एवं खान बहादुर खाँ आदि नेताओं ने जगह-जहग पर क्रान्ति का नेतृत्व किया। झाँकी रानी लक्ष्मीबाई वीरतापूर्वक लड़ती हुई 18 जून, 1857 ई. में ग्वालियर के युद्ध में शहीद हुई। तात्या टोपे को उसके साथी मानसिंह ने धोखे से अलवर में बन्दी बनवा दिया। अंग्रेज सरकार ने तात्या टोपे को फाँसी पर लटका दिया। मौलवी अहमदशाह की हत्या कर दी गई। इस प्रकार, इस क्रान्ति को अंग्रेजों ने कुचल दिया। इस क्रान्ति में लगभग 30 हजार भारतीय सैनिक और एक लाख नागरिक मारे गए।क्रान्ति को कुचलने के बाद अंग्रेजों ने क्रान्ति में भाग लेने वाले भारतीयों पर अमानवीय अत्याचार किए। उन्होंने बदला लेने के उद्देश्य से लूटमार तथा कत्लेआम करने की खुले रूप से घोषणा कर दी। इस क्षेत्र में तो उन्होंने नादिरशाह को भी मात कर दिया था। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1857 से 1883 तक के काल में भारतीय जनता में राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने का हर सम्भव प्रयास किया। 1857 की क्रान्ति की असफलता के बारे में स्वामी जी का विचार था कि यदि देशी रियासतों के नरेशों ने भी स्वाधीनता संग्राम में सहयोग दिया होता, तो भारत 1857 में ही स्वतन्त्र हो जाता, परन्तु कुछ देशी रियासतों के शासकों ने क्रान्ति का साथ देने के स्थआन पर क्रान्ति को कुचलने के लिए अंग्रेजों को सहायता दी।

स्वामी दयानन्द सरस्वती 1872 में कलकत्ता पहुँचे। वहाँ उनकी तात्कालीन गवर्नर लार्ड नार्थ बुर्क से भेंट हुए। लार्ड नाथ ब्रुक ने स्वामी जी से कहा कि आप अपने भाषणों में अखण्ड अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना पर बल दिया करें, परन्तु स्वामी जी ने कहा कि मै तो हमेशा भारत की स्वतन्त्रता और अंग्रेजी राज्य की समाप्ति के लिए कहता हूँ। इस प्रकार वार्ता भंग हो गई। इसके पश्चात् लार्ड नार्थ ब्रुक ने स्वामी जी को अंग्रेजों का शत्रु समझकर उनके पीछे गुप्तचर लगा दिए। इस पर स्वामी जी ने अपने प्रचार कार्य जारी रखा। उन्होंने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि, प्रभो हमारे देश में कभी विधेली राजा का राज न रहे। उन्होंने आगे लिखा कि, कोई कितना ही करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है...प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा, न्याय एवं दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।

इन भूले बिसरे क्रांतिकारियों के बारे में राष्ट्रीय अभिलेखागारों से जानकारी प्राप्त हुई है। इसके अतिरिक्त शोधकर्ता भी कुछ अज्ञात क्रांतिकारियों को प्रकाश में लाए हैं।

स्वामी जी ने पराधीनता के जुए को उतार फैंकने की बात उस समय की कही, जबकि अंग्रेजी सरकार की ज़डें पाताल तक पहुँच चुकी थी। जब स्वतन्त्रता की माँग करना राजद्रोह माना जाता था। डॉ. श्याम प्रसाद मुखर्जी ने स्वामी जी के सम्बन्ध में कहा है कि, महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में एक स्वतन्त्र भारत की कल्पना की थी, जिसमें स्वकीय संस्कृति तथा सभ्यता की अमूल्य परम्पराएँ अक्षुण्ण रहे। तिलक ने स्वामी जी को स्वराज्य का प्रथम सन्देश वाहक कहा था और सावरकर ने उन्हें स्वाधीनता संग्राम का सर्वप्रथम यौद्धा।

स्वामी जी पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने स्वधर्म, स्वदेशी, स्वभाषा व स्वसंस्कृति का प्रचार किया। उनका कहना था कि अच्छा से अच्छा विदेशी राज्य स्वराज्य का मुकाबला नहीं कर सकता है। उन दिनों सरकारी कार्यालयों में देशी जूते पहनकर जाने पर प्रतिबन्ध था। स्वामी जी को यह बात बहुत बुरी लगी। उन्होंने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में इस सम्बन्ध में एक स्थान पर लिखा है कि, जब इन लोगों को हमारे देश के बने हुए जूतों से भी इतनी घृणा है, तब हमारे देश के मनुष्यों से तो पता नहीं कितनी घृणा इन्हें होगी। अंग्रेजों द्वारा लूटी जा रही भारत की सम्पत्ति के बारे में स्वामी जी ने अनपे ग्रन्थ में एक अन्य स्थान पर लिखा है कि हमने सुना है, पारस पत्थर नाम का कोई पत्थर होता है, जिसके स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है, परन्तु आज तक यह पत्थर किसी के देखने में नहीं आया। हमारा तो अनुमान यह कि भारत देश ही वह पारस पत्थर है, जिसमें बाहर से जो भी दरिद्र विदेशी लोहा बनकर आए, वे यहाँ से सोना बनकर ही गए।

1857 के स्वतन्त्रता संग्राम का एक प्रमुख कारण गाय का प्रश्न था। इस समय सैनिकों को ऐसे कारतूस दिए गए, जिनमें गाय की चर्बी का प्रयोग होता था। बन्दूक भरने से पूर्व सिपाहियों को कारतूस का खोल मुँह से काटना पड़ता था। जब सिपाहियों को यह पता चला कि अंग्रेजों द्वारा (कारतूस में गाय की चर्बी का प्रयोग कर) उनका धर्म भ्रष्ट किया जा रहा है, तो उन्होंने इसका विरोध भी किया, पर उन्हें उपेक्षित सफलता नहीं मिली। स्वामी जीने 1857 के बाद गोकरूणानिधि नामक एक पुस्तक लिखी, जिसमें गाय की उपयोगिता पर प्रकाश डाला गया था। इस पुस्तक में स्वामी जी ने एक स्थान पर तो यहाँ तक लिख दिया था कि, जो गाय के रक्षक नहीं, भक्षक है, वे म्लेच्छ हैं। भारत की पुण्य भूमि में एक क्षण भी म्लेच्छों को रहने का अधिकार नहीं है। स्वामी जी ने उन दिनों गो-वध बन्द करवाने के लिए एक स्मृति पत्र भी महारानी विक्टोरियो को भिजवाया था।

स्वामी जी पहले व्यक्ति थे, जिन्होने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की आवश्यकता पर बल दिया। वे अंग्रेजी से अनभिज्ञ थे। अतः इस सम्बन्ध में केशवचन्द्र सेने ने उनसे कहा कि महाराज, आपने एक बहुत बड़ी भूल की जो अंगेजी नहीं पढ़ी। यदि आप अंग्रेजों जानते, तो वेदों का संदेश अमेरिका, इंग्लैण्ड और जर्मनी में जाकर देते। इस परस्वामी जी ने हँसकर उत्तर दिया कि, केशव बाबू, एक भूल आपसे भी हुई। आपने संस्कृत नहीं पढ़ी। यदि आप संस्कृत जानते, तो पहले हम दोनों मिलकर अपने घर का सुधार करते, बाद में समय रहता तो बाहर भी चलते। सारांश यह कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने लेखों और उपदेशों से जनता में जाग्रति उत्पन्न कर दी थी। इस प्रकार, निःसन्देह वे एक महान् राष्ट्र-निर्माता थे। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने स्वामी जी और उनके आर्य समाज के बारे में ठीक ही लिखा है कि, स्वामी दयानन्द के आर्य समाज की शिक्षाएँ, सार्वभौम हिन्दुत्व के आदेश से चाहे जितनी भिन्न हों, किन्तु वह यह मानना पड़ेगा की आर्य समाज ने ब्रह्म समाज के बुद्धिवादी आन्दोलन की अपेक्षा नई राष्ट्रीय चेतना के विकास में अधिक महत्त्वपूर्ण योग दिया है। आर्य समाज के महान् कार्यों में हम वैदिक धर्म का उद्धार, समाज सुधार, शुद्धि आन्दोलन, जाति भेद, अछूतोद्वार, राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति, हिन्दी का प्रसार और राष्ट्रीय जागरण का उल्लेख कर सकते है।

थियोसोफिकल सोसायटी[सम्पादन]

थियोसोफिकल सोसायटी भी एक प्रमुख सुधारवादी आन्दोलन था। थियोसोफी शब्द ग्रीक भाषा के थियो व सोफी शब्दों से मिलकर बना है। थियो का अर्थ ईश्वर एवं सोफी शब्द का अर्थ ज्ञान होता है। इसकी स्थापना सर्व प्रथम रूसी महिला ब्लेवाट्स्की एवं अमेरिकन कर्नल एच.एस. आलकाट ने 7 सितम्बर, 1875 ई. को अमेरिका के न्यूयार्क नगर में की। इसके प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार थे।-

(1) प्रथम उद्देश्य प्रकृति के नियमों की खोज करना एवं जनता में दैवी शक्ति में विश्वास उत्पन्न करना था। इसका मानना था कि देवता हिमालय में निवास करते हैं एवं मनुष्य के भाग्य के निर्माण करते हैं। पुनर्जन्म में भी इनका विश्वास था।

(2) सभी धर्मों के साथ सहिष्णुता का व्यवहार करते हुए उनमें समन्वय स्थापित करना।

(3) प्राचीन धर्म, दर्शन एवं ज्ञान का अध्ययन तथा प्रसार करना।

(4) विश्व बन्धुत्व के सिद्धान्त में विश्वास करना तथा ब्रह्मा को सारी सृष्टि का निर्माता मानना।

(5) पूर्वी देशों के धर्मों एवं दर्शनों का अध्ययन तथा प्रसार करना।

1879 ई. में ब्लेवाट्स्की तथा आर्ल्काट स्वामी दयानन्द के निमन्त्रण पर भारत आए। उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म विश्व का श्रेष्ठतम् धर्म है तथा सम्पूर्ण सता इसी में निहित है। कर्नल आर्ल्काट ने अपनी सोसायटी का उद्देश्य भारतीयों को उनकी संस्कृति के गौरव तथा महानता का स्मरण करवाना बताया, ताकि भारत पुनः अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा प्राप्त कर सके। इस सोसायटी के संस्थापक ने 1879 से 1881 तक स्वामी दयायनन्द के साथ मिलकर भारत में ईसाई धर्म के बढ़ते प्रसार को रकोने का प्रयत्न किया, किन्तु यह प्रयत्न अधिक समय तक न चल सका, क्योंकि जहां दयानंद वेदों को प्रामाणिक तथा ईश्वरीय ज्ञान मानते थे, वहीं थियोसोफिकल सोसायटी के प्रवर्तक इससे सहमत नहीं थे। अतः इन्होंने 1886 ई. में मद्रास के समीप अडयार नामक स्थान पर थियोसोफिकल सोसायटी का केन्द्र स्थापित किया एवं भारत में अपने विचारों का प्रचार करना आरम्भ किया।

श्रीमती एनीबिसेंट[सम्पादन]

भारत में इस आन्दोलन का नेतृत्व एक अंग्रेज महिला एनीबिसेंट ने किया, जिन पर भारतीय सभ्यता का बहुत प्रभाव था। उनका जन्म 1847 ई. में हुआ था एवं 10 मई, 1889 ई. को वे इस सोसायटी की सदस्या बनी थीं। 16 नवम्बर, 1893 ई. में वे भारत आते ही भारत की सांस्कृतिक पुनर्जागरण में लग गई। उनसे प्रभावित होकर कई विद्वान इस सोसायटी के सदस्य बन गए। 1900 ई. में आल्काट की मृत्यु के पश्चात् वह इस सोसायटी की अध्यक्ष बनी।

एनीबिसेंट का हिन्दू प्रेम

एनीबिसेंट को हिन्दू धर्म से बहुत प्रेम था और उनका मानना था कि हिन्दू धर्म के जागरण से ही विश्व का कल्याण हो सकता है। एक भाषण में उन्होंने कहा, भारत और हिन्दुत्व की रक्षा भारतवासी और हिन्दू ही कर सकते हैं। हम बाहरी लोग आपकी चाहे कितनी भी प्रशंसा करें, किन्तु आपका उद्धार आप ही के हाथ है। आप किसी प्रकार के भ्रम में न रहें। हिन्तुत्व के बिना भारत के सामने कोई भविष्य नहीं है। हिन्दुत्व ही वह मिट्टी है, जिसमें भारतवर्ष का मूल गड़ा हुआ है। यदि यह मिट्टी हटा ली गई, तो भारत रूपी वृक्ष सूख जाएगा। भारत में आश्रय पाने वाले अेक धर्म हैं, अनेक जातियाँ हैं, परन्तु इसमें से किसी की भी शिक्षा भारत के अतीत तक नहीं पहुँची है। इसमें से किसी ने भी यह दम नहीं है कि भारत को एक राष्ट्र के रूप में जीवित रख सके। इनमें से प्रत्येक भारत में विलीन हो जाए, तब भी भारत, भारत ही रहेगा, किन्तु यदि हिन्दुत्व विलीन हो गया, तो शेष कुछ नहीं बचेगा।

एनीबिसेंट की हिन्दू धर्म के प्रति सेवाएँ

एनीबिसेंट ने हिन्दू धर्म की बड़ी सेवाएँ की। उन्होंने बहुदेववाद, यज्ञ, मूर्तिपूजा, तीर्थ, व्रत, कर्मवाद, पुनर्जन्म तथा धार्मिक अनुष्ठान आदि हिन्दुओं के विश्वासों एवं कर्मकाण्डों का प्रबल समर्थन किया। इससे हिन्दुओ का अपने धर्म में विश्वास पुनः जाग्रत होने लगा। उनका कर्म एवं पुर्नजन्म के सिद्धान्त में भी विस्वास था। उनका मानना था कि मोक्ष प्राप्ति पर आत्मा जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाती है।

1914 में एनीबिसेंट ने एक भाषण में कहा, विश्व के अनेक धर्मों के 40 वर्षों के अध्ययन के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि मुझे हिन्दुत्व के समान कोई धर्म इतना पूर्ण, वैज्ञानिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक नहीं जचता। जितना अधिक तुमको इसका भान होगा, उतना ही अधिक तुम इससे प्रेम रखोगे। श्रीमती एनीबिसेंट ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मूर्तिपूजा पर बल दिया।

हिन्दुओं में आत्म-सम्मान की भावना जाग्रत करना

एनीबिसेंट के भारत में आने के समय हिन्दुत्व जर्जर हो चुका था एवं शिक्षित लोगों का पाश्चात्य संस्कृति के प्रति झूकाव बढ़ता जा रहा था। वे अपनी संस्कृति के प्रति उदासीन हो रहे थे। ऐसे समय में एनीबिसेंट ने भारतीय संस्कृति की महानता तथा गौरव को भारतीयों के सम्मुख रखा। एक विदेशी के मुख से अपनी संस्कृति की महानता सुन भारतीयों में एक नया आत्मसम्मान जाग्रत हुआ। सर वेलेन्टाइन शिरोल ने लिखा है कि, जब अतिश्रेष्ठ बौद्धिक शक्तियों तथा अद्भूत वक्तुत्व शक्ति से सुसज्जित यूरोपियन भारत में जाकर भारतवासियों से यह कहें कि उच्चतम् ज्ञान की कुँजी युरोप वालों के पास नहीं है, तुम्हारे पास है, तुम्हारे देवता, तुम्हारे दर्शन तथा तुम्हारी नैतिकता की यूरोप वाले छाया भी नहीं, छू सकते, तब इसमें क्यां आश्चर्य है कि भारतवासी हमारी सभ्यता से पीठ फेर लें। इस सम्बन्ध में श्री प्रकाश ने लिखा है कि, श्रीमती एनीबिसेंट को इस बात का श्रेय है कि उन्होंने एक उदासनी और सोती हुई जाति को नींद से जगा दिया, उसने अपने आत्म-सम्मान तथा गौरव को पुनजीर्वित कर दिया। उनको (भारतीयों को) विवश कर दिया कि वे अपने कदम टेक सकें एवं संसार के राष्ट्रों में अपना नाम ले सकें।

सामाजिक तथा शैक्षणिक देन

एनीबिसेंट ने 1914 में भारत की राजनीति में प्रवेश किया तथा कॉमनवील व न्यू इण्डिया नामक समाचार-पत्रों का प्रकाशन किया। उन्होंने 1916 ई. में तिलक के साथ मिलकर स्वराज्य की प्राप्ति हेतू होमरूल आन्दोलन चलाया व भारतीयों में जाग्रति उत्पन्न की। डॉ. जकारिया ने लिखा है कि, उनकी योजना उग्र राष्ट्रीय व्यक्तियों को क्रान्तिकारियों के साथ इकट्ठा होने से रोकने की थी। वे भारतीयों को ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वराज्य दिलवाकर संतुष्ट रखना चाहती थी। श्रीमती एनीबिसेंट का कहना था कि, होमरूल भारत का अधिकार है तथा राजभक्ति के पुरस्कार के रूप में इसे प्राप्त करने की बात कहना मूर्खतापूर्ण है। भारत राष्ट्र के रूप में अपना न्यायिक अधिकार ब्रिटिश साम्राज्य से माँगता है। मद्रास अधिवेशन में उन्होंने कहा था कि, भारत साम्राज्य के शिशु गृह में एक शिशु (छोटे बच्चे) की भाँति बन्द नहीं रहना चाहता। भारत को स्वराज्य देना आवश्यक है।

इस आन्दोनल के सम्बन्ध में जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है कि, देश के वातावरण में बिजली सी दौड़ गई और हम नवयुवक एक अजीब उत्साह तथा स्फूर्ति का अनुभव कर रहे थे, जिसका परिणाम भविष्य में कुछ होगा। के. वी. पुन्निया ने लिखा है कि सारा देश नए विचारों से आन्दोलित हो उठा और ऐसे नवजीवन से भर उठा, जैसा कि इससे पहले कभी नहीं हुआ था। 1917 ई. में एनीबिसेंट को बन्दी बनाने पर जनता ने प्रबल विरोध किया, अतः उन्हें छोड़ना पड़ा। गुरूमुख निहालसिंह ने लिखा है कि, देश के एक कोने से दूसरे कोने तक विरोध और रोष का तूफान खड़ा कर दिया। सारे देश में श्रीमती एनीबेसण्ट की नजर बन्दी में विरोध में सभाएँ हुईं। वे राष्ट्रीय नेता, जो अब तक होमरूल आन्दोलन में अलग थे, होमरूल लीग के सदस्य हो गए और उन्होंने इसमें उत्तरदायी पदों को सम्भाला। वे कांग्रेस की अध्यक्ष भीं बनीं।

एनीबिसेंट ने विदेशी होते हुए भी भारतीयों की बहुत सेवा की। 20 सितम्बर, 1933 ई. को अडयारप में उनकी मृत्यु हो गई। उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए गाँधी जी ने कहा था कि, जब तक भारतवर्ष जीवित है, एनीबिसेंट की सेवाएँ बी जीवित रहेंगी। उन्होंने भारत को अपनी जन्मभूमि मान लिया था, उनके पास देने योग्य जो कुछ भी था, भारत के चरणों में अर्पित कर दिया था। इसलिए वे भारतवासियों की दृष्टि में इतनी प्यारी और श्रद्धेया हो गईं।

रामकृष्ण मिशन[सम्पादन]

यह 19वीं सदी का अन्तिम सुधारवादी आन्दोलन था। रामकृष्ण परमहंस ने बंगाल में अपने विचारों का प्रचार किया था। कालान्तर में उनके नाम पर स्वामी विवेकानन्द ने 1887 ई. में बारानगर में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की।

रामकृष्ण परमहंस (1836-1886 ई.)[सम्पादन]

रामकृष्ण परमहंस का जन्म 1836 ई. में पश्चिमी बंगाल के हुगली जिले के कमारप्रकुर नामक गाँव में एक निर्धन ब्राह्मण परिवार मं हुआ था। उनका मूल नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था। उनका शिक्षा से विशेष लगाव न था एवं उन्हें साधुओं की संगति पसंद थी। 17 वर्ष की आयु में पिता की मृत्यु ोहने पर वे कलकत्ता आ गए। अपने बड़े भाई की मृत्यु के बाद वे कलकत्ता के समीप दक्षिणेश्वर में रासमणि द्वारा स्थापित काली के मन्दिर में पुजारी बन गए। वे काली के परम भक्त थे तथा उसे माँ कहकर पुकारते थे। 24 वर्ष की आयु में उनका विवाह 5 वर्षीया शारदामणी से हो गया। विवाह के पश्चात् 12 वर्ष तक रामकृष्ण ने काली मन्दिर में कई प्रकार की तपस्याएँ की। उन्होंने भैरवी नामक सन्यासिन से 2 वर्ष तक तांत्रिक साधना सीखी एवं तोतापुरी नामक साधु से वेदान्त साधना सीखी। उन्होंने वैष्णव धर्म की साधना से कृष्ण के साक्षात् दर्शन किए। उन्होंने इस्लाम तथा ईसाई धर्म की भी साधना की। निरन्तर साधना से वे शुद्ध एवं विरक्त हो चुके थे। दूर-दूर से लोग उनके दर्शनार्थ आते थे। उनकी पत्नी शारदामणी जब उनके पास आईं, तो उन्होंने उसे माँ कहकर पुकारा था। 16 अगस्त, 1886 ई. में कैंसर से उनका देहान्त हो गया।

रामकृष्ण ने किसी नए धर्म का प्रतिपादन नहीं किया। वे स्वयं धर्म के जीते-जागते स्वरूप थे। वे निराकार तथा साकार ईश्वर दोनों की उपासना में विश्वास रखते थे तथा वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, पुराण आदि को पवित्र धार्मिक ग्रन्थ मानते थे। उनका मूर्तिपूजा, एकेश्वरवाद तथा बहुदेववाद में भी विश्वास था। श्री दिनकर ने उनके सम्बन्ध में लिखा है कि हिन्दू धर्म में जो गहराई और माधुर्य है, परमहंस रामकृष्ण उनकी प्रतिमा थे।...सिर से पाँव तक वे आत्मी की ज्योति से परिपूर्ण थे। आनन्द, पवित्रता और पुण्य की प्रभा उन्हें घेरे रहती थी। वे दिन-रात परमार्थ चिन्तन में रत रहते थे। सांसारिक सुख, समृद्धि यहाँ तक कि सुयश का भी उनके सामने कोई मुल्य नहीं था।

रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाएँ

रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है-

(1) मानव जीवन का मूल्य लक्ष्य ईश्वर से साक्षात्कार है।

(2) उनका मानना था कि व्यक्ति गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी सांसारिकता से दूर रहकर ईश्वर की उपासना द्वारा उसे प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार गृहस्थ जीवन ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में बाधक नहीं है।

(3) मनुष्य विषय वासना को त्यागने पर ही ईश्वर के दर्शन कर सकता है।

(4) शरीर और आत्मा को अलग-अलग बताते हुए रामकृष्ण ने कहा, कामिनी कंचन की आसक्ति यदि पूर्णरूप से नष्ट हो जाए, तो शरीर अलग है व आत्मा अलग है, यह स्पष्ट दिखने लगता है। नारियल का पानी सूख जाने पर जैसे उसके भीतर का खोपरा नरेटी से खुलकर अलग हो जाता है, खोपरा और नरेटी दोनों अलग-अलग दिखने लगते हैं, वैसे ही शरीर और आत्मा के बारे में मानना चाहिए।

(5) उनका मानना था कि मूर्तिपूजा, पुनर्जन्म एवं अवतारवाद को लेकर शास्त्रार्थ करना व्यर्थ है। जो कुछ दिखता है, वह ईश्वरमय है एवं ईश्वर शास्त्रार्थ की शक्ति से परे है।

(6) मूर्तिपूजा का समर्थन करते हुए रामकृष्ण ने कहा, जैसे वकील को देखते ही अदालत की याद आती है, वैसे ही प्रतिमा को देखते ही ईश्वर की याद आती है।

(7) उनका मानना था कि अनुभूति से भी ईश्वर को साक्षात्कार हो सकता है। इससे व्यक्ति को शान्ति मिलती है एवं उसकी इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं।

(8) उनका मानना था कि मनुष्य समान हैं तथा उनमें एक ही ईश्वर निवास करता है।

(9) ईश्वर की उपासना का सरल मार्ग बताते हुए रामकृष्ण ने कहा, जब तुम काम करते हो, तो एक हाथ से काम करो औरदूसरे हाथ से भगवान का पाँव पकड़े रहो। जब काम समाप्त हो जाए तो भगवान के चरणों को दोनों हाथों से पकड़ लो।

(10) एक विद्वान को सदाचारी, अनुशासनपूर्ण, नैतिकतापूर्ण एवं विनम्र होना चाहिए।

(11) रामकृष्ण का मानना था कि धर्म ईश्वर तक पहुँचने के अलग-अलग मार्ग हैं तथा सभी में सत्य है।

इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा कि, ईश्वर एक है, लेकिन उसके विभिन्न स्वरूप हैं. जैसे एक घर का मालिक एक के लिए पिता, दूसरे के लिए भाई तथा तीसरे के लिए पति है और विभिन्न व्यक्तियों द्वारा नामों से पुकारा जाता है। उसी प्रकार ईश्वर भी विभिन्न कालों व देशों में भिन्न-भिन्न नामों व भावों से पूजा जाता है। इसलिए धर्मों की अनेकता देखने को मिलती है।

पी. सी. मजूमदार ने लिखा है, श्री रामकृष्ण के दर्शन होने से पूर्व धर्म किसे कहते है, यह कोई समझता भी न था। आडम्बर ही था। धार्मिक जीवन कैसा होता है, यह बात रामकृष्ण की संगति होने पर जान पड़ी।

रामकृष्ण परमहंस की देन

आध्यात्मवाद-रामकृष्ण की प्रथम देन आध्यात्मवाद है। वे आध्यात्मवाद के जीते-जागते स्वरूप थे। उन्होंने अपने उपदेशों द्वारा वेदों व उपनिषदों के जटिल ज्ञान को सरल बना दिया एवं हिन्दुओं को उनकी संस्कृति के गौरव से परिचित करवाया। उन्होंने विश्व के सम्मुख आध्यात्मिक सत्य को रखा। उनके विचारों से प्रभावित होकर मैक्समूलर, रोम्यां रोला आदि विद्वानों ने उनकी जीवनी लिखी।

विविध धर्मों की एकता में विश्वास

रामकृष्ण का मानना था कि ईश्वर एक है तथा विविध धर्म उसकी प्राप्ति के अलग-अलग मार्ग हैं। व्यक्ति किसी भी मार्ग पर चलकर ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार वे विविध धर्मों की एकता के समर्थक थे।

मानव मात्र की भलाई

रामकृष्ण मानव मात्र की सेवा एवं भलाई के समर्थक थे। उनका मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में ईश्वर निवास करता है, अतः मानव सेवा ही ईश्वर की सेवा है। इसी आधार पर उनके शिष्य विवेकानन्द ने आजीवन दरिद्र नारायण की सेवा की। डॉ. सिल्वेन लीवी ने रामकृष्ण के योगदान के सम्बन्ध में टिप्पणी करते हुए लिखा है, ...क्योंकि रामकृष्ण का हृदय और मस्तिष्क सभी देशों के लिए था, इसलिए उनका नाम सम्पूर्ण मानव मात्र की सम्पत्ति है।

स्वामी विवेकानन्द (1863-1902)[सम्पादन]

स्वामी विवेकानन्द रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे, जिन्होने सम्पूर्ण विश्व में अपने गुरू के विचारों का प्रसार कर दिया। उनका जन्म 12 जनवरी, 1863 ई. को कलकत्ता में एक क्षत्रिय परिवार में हुआ था। उनका मूल नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने बी.ए. तक अध्ययन किया। वे बड़े प्रतिभावान छात्र थे। उनके सम्बन्ध में एक बार उनके आचार्य ने कहा था, मैने दूर-दूर देशों की यात्रा की, परन्तु मैंने नरेन्द्रनाथ के समान प्रतिभा सम्पन्न युवक नहीं देखा। यहाँ तक कि जर्मन विश्वविद्यालयों में भी ऐसा जिज्ञासु युवक नहीं देखा।

नरेन्द्रनाथ व्यायाम में रूची रखते थे। वे जॉन स्टुअर्ट मिल, ह्यूम, हर्बर्ट स्पेन्सर एवं रूसो के दार्शनिक विचारों से बहुत प्रभावित हुए। वे ब्रह्म समाज के सम्पर्क में आए, किन्तु उनकी जिज्ञासा शान्त नहीं हुई। उनके सम्बन्धी ने उन्हें रामकृष्ण परमहंस से मिलने को कहा, अतः वे 1881 ई. में उनसे मिलने दक्षिणेश्वर चले गए।

रामकृष्ण परमहंस से सम्पर्क

जब प्रथम बार नरेन्द्र रामकृष्ण से मिले, तो उनके विचार रामकृष्ण से अलग थे। नरेन्द्र पर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव था, किन्तु रामकृष्ण के सम्पर्क ने उनके विचारों में क्रान्ति कारी परिवर्तन कर दिया। नरेन्द्र ने रामकृष्ण से पूछा क्या आपने ईश्वर को देखा है? तो उन्होंने कहा कहा, हाँ, मैं ईश्वर को वैसे ही देखता हूँ, जैसे मैं तुम्है देखता हूँ। तुम भी चाहो तो उसे देख सकते हो। उन्होंने नरेन्द्र से कहा, मैंने ाज तक इस संसार में यह देखा कि कोई व्यक्ति अपने माता-पिता के लिए, कोई अपने पत्नी के लिए, कोई सन्तान के लिए रो रहा है, परन्तु मैने आज तक ऐसा कोई व्यक्ति नहीं देखा, जो ईश्वर के लिए रो रहा हो। इन विचारों का नरेन्द्र पर बहुत प्रभाव पड़ा। दूसरी मुलाकात के समय रामकृष्ण ने अपना दांया पाँव नरेन्द्र के शरीर पर रखा। इस स्पर्श के सम्बन्ध में नरेन्द्र ने लिखा है, आँखें खुली होने पर भी मैंने दीवारों सहित सारे कमरे को शून्य में विलीन होते देखा। मेरे व्यक्तित्व सहित सारा ब्रह्माण्ड ही एक सर्वव्यापक रहस्यमय शून्य में लुप्त होते हुए दिखाई पड़ा। इसके बाद नरेन्द्र ने रामकृष्ण को अपना गुरू बना लिया। यही नरेन्द्र आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुए।

विवेकानन्द के तीन उद्देश्य थे-

(1) हिन्दुओं की अपने धर्म में पुनः आस्था उत्पन्न करना।

(2) बुद्धिजीवियों की धर्म में श्रद्धा उत्पन्न करने हेतु धर्म की पुनः स्थापना करना।

(3) भारतीयों को उनकी गौरवशाली संस्कृति से परिचित करवाकर उनमें आत्म-सम्मान की भावना उत्पन्न करना।

विवेकानन्द ने अपनी 39 वर्ष की अल्पायु में ही इन उद्देश्यों को पूरा कर दिखाया था। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति विश्व की श्रेष्ठतम् संस्कृति है।

रामकृष्ण मठ की स्थापना

रामकृष्ण की मृत्यु के पश्चात् विवेकानन्द ने 1887 ई. में काशीपुर के निकट बारा नगर में अपने गुरू के नाम पर रामकृष्ण मठ की स्थापना की। अब विवेकानन्द ने सन्यास ग्रहण किया तथा उनका नाम स्वामी विवेकानन्द रखा गया।

शिकागो सर्वधर्म सम्मेलन (1893 ई.)

सन्यास लेने के बाद विवेकानन्द ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया। जब वे कन्याकुमारी में थे, उस समय अमेरिका के शिकागो में सर्वधर्म सम्मेलन हो रहा था। वे निम्न कारणों से इस सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लेना चाहते थे-

(1) इस समय हिन्दू समुद्र यात्रा पाप मानते थे एवं उनका मानना था कि विदेशियों के हाथ का छुआ खाने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है। स्वामी जी उनके इस अन्धविश्वास को दूर करना चाहते थे।

(2) वे शिक्षित भारतीयों को यह दिखाना चाहते थे कि पाश्चात्य देशों में भारतीय संस्कृति के प्रति कितनी श्रद्धा है।

(3) वे सभी धर्मों को एक ही मानते थे तथा उनमें एकता स्थापित करने के इच्छुक थे।

1893 ई. में शिकागो में स्वामी जी ने सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लिया। उन्होंने अपने भाषण का आरम्भ भाइयों और बहनों के सम्बोधन से किया, तो वहाँ उपस्थित अमेरिकनों ने तालियों की भारी गड़गड़ाहट के साथ इसका स्वागत किया। इसके बाद उन्होंने अपने 10-12 भाषणों द्वारा अमेरिका में हिन्दू धर्म तथा भारतीय संस्कृति की धाम जमा दी। इन भाषणों के सम्बन्ध में द न्यूयार्क हेराल्ड नामक पत्र ने लिखा, धर्मों की पार्लियामेन्ट में सबसे महान् व्यक्तित्व विवेकानन्द है। उनका भाषण सुन लेने पर अनायास यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि ऐसे ज्ञानी देश को सुधारने के लिए धर्म प्रचारक भेजने की बात कितनी बेवकूफी की बात है। शिकागो सर्वधर्म सम्मेलन की विज्ञान शाखा के अध्यक्ष श्री मार्विनमेरी स्नैल ने कहा था, इस सर्वधर्म सम्मेलन का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि उसने ईसाई जगत को विशेषतः अमेरिका के लोगों को यह पाठ सिखाया कि विश्व में दूसरे धर्म भी है, जो ईसाई धर्म की अपेक्षा कहीं अधिक ठोस, स्वतन्त्र विचार की दृष्टि से कहीं अधिक शक्तिशाली एवं मानवीय सौहार्द्र की दृष्टि से कहीं अधिक शक्तिशाली एवं मानवीय सौहार्द्र की दृष्टि से कहीं अधिक उदार तथा व्यापक हैं। वे पूर्ण कला और सौन्दर्य की दृष्टि से उससे यक्तिचित भी कम नहीं है। निवेदाति ने लिखा है, स्वामी विवेकानन्द भारत का नाम लेकर जीते थे। वे मातृभूमि के अनन्य भक्त थे और उन्होंने भारतीय युवकों को उसकी पूजा करना सिखाया।

विदेशों में भारतीय संस्कृति का प्रचार

शिकागो सर्वधर्म सम्मेलन के बाद स्वामी जी ने तीन वर्ष इंग्लैण्ड तथा अमेरिका में रहकर अपने भाषणों, लेखों, वक्तव्यों एवं कविताओं द्वारा सम्पूर्ण यूरोप में भारतीय संस्कृति का बहुच प्रचार किया। उन्होंने अमेरिका में वेदान्त समाज की स्थापना की। जनवरी 1897 ई. वे भारत लौट गए।

विवेकानन्द ने 1897 ई. में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। 1899 ई. में उन्होंने अपना प्राचीन मठ वेलूर में स्थापित किया। रामकृष्ण मिशन के सदस्य शिक्षित होते थे एवं अकाल, महामारी व बाढ़ के समय जनता की सेवा करते थे। 1897 ई. में मुर्शिदाबाद के अकाल और कलकत्ता में प्लेग के समय इसके सदस्यों ने समाज की महत्त्वपूर्ण सेवा की। इस मिशन ने कई चिकित्सालयों, अनाथालयों, विद्यालयों, विधवाश्रमों एवं सेवाश्रमों की स्थापना की।

1899 ई. में विवेकानन्द पुनः अमेरिका गए। उन्होंने न्यूयार्क, लांस एंजिल्स, सैन फ्रांसिसकों तथा केलीफिर्निया आदि स्थानों पर वेदान्त समाज की स्थापना की। उन्होंने पेरिस के धार्मिक सम्मेलन में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व किया। इस प्रकार स्वामी जी ने हिन्दू धर्म एवं भारतीय संस्कृति की धाक जमाते हुए भारत में ईसाइयो के द्वारा किए जा रहे प्रयासों पर पानी फेर दिया। जब भारतीयों को अपनी संस्कृति की महानता का पता चला, तो उनमें आत्म-गौरव की भावना उत्पन्न हुई। दिनकर ने लिखा है, हिन्दुत्व को जीतने के लिए अंग्रेजी भाषा, ईसाई धर्म और यूरोपीयन बुद्धिवाद के पेट से जो तूफान उठा था, वह विवेकानन्द के हिमालय जैसे विशाल वृक्ष से टकराकर वापस लौट गया। हिन्दू जाति का धर्म है कि वह जब तक जीवित रहे, विवेकानन्द को उसी श्रद्धा से याद करे, जिस से वह व्यास तथा वाल्मिकि को याद करती है। हेन्स कोहने ने लिखा है, स्वामी विवेकानन्द ने देश को आत्मविश्वास, आत्मशक्ति और स्वामभिमान की शिक्षा दी। उन्होंने नवयुवकों को विदेशी सत्ता का विरोध करने के लिए नवीन उत्साह प्रदान किया। जवाहरलाल नेहरू ने विवेकानन्द के विषय में लिखा है, विवेकानन्द का व्यक्तित्व निराश एवं निरूत्साहित हिन्दू जाति के लिए एक स्फूर्तिवर्द्धक औषधि सिद्ध हुआ। उन्होंने हिन्दू जाति को स्वावलम्बन का सबक दिया एवं इतिहास से प्रेम करने का पाठ पढ़ाया। 4 जुलाई, 1902 ई. को 39 वर्ष की अल्पायु में विवेकानन्द की मृत्यु हो गई।

स्वामी विवेकानन्द के आदर्श[सम्पादन]

मानव सेवा सम्बन्धी विचार-

विवेकानन्द का प्रथम आदर्श मानव सेवा का था। उन्होंने भारतीयांें को मानव सेवा की प्रेरणा दी तथा उसे ही ईश्वर की सच्ची उपासना बताया। उन्होंने यूरोप व अमेरिका के लोगों को संयम की शिक्षा दी। उन्होंने कहा कि, जब पड़ौसी भूखा मरता हो, तो मन्दिर में भोग चढ़ाना पुण्य नहीं, पाप है। जब मनुष्य दुर्बल और क्षीण हो, तब हवन में धृत मिलाना अमानुषिक कर्म है। उन्होंने गरीबों तथा दुःखियों के लिए दरिद्रनारायण शब्द का प्रयोग करते हुए कहा कि इनकी सेवा करना ही ईश्वर की सच्चा उपासना है। उनका मानना था कि ईश्वर सभी मनुष्यों में निवास करता है। समाज में व्याप्त बुराइयों के सम्बन्ध में उन्होंने अपने एक साथी को लिखा था, निर्धन, नासमझ, अशिक्षित और असहाय को अपना ईश्वर बनाओ। उनकी सेवा करना ही महानतम् धर्म है। नारियों के सम्बन्ध में उन्होंने भारतवासियों से कहा, यदि तुमने नारियों को ऊपर नहीं उठाया तो यह मत सोचो कि तुम्हारी अपनी उन्नति का कोई मरा ्‌ग है। संसार की सभी जातियाँ नारियों को सम्मान करके ही महान् हुई हैं। जो जाति नारियों का सम्मान करना नहीं जानती, वह न तो अतीत में उन्नति कर सकी। वे आजीवन दरिद्रों तथा मानव मात्र की सेवा में लगे रहे। एक बार उन्होंने कहा था, जब तक कि करोड़ों व्यक्ति मूखे और अज्ञान में रहते हैं, तब तक मैं हर व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूँ, जो उन्हीं के खर्चे पर शिक्षा प्राप्त करता है और उनकी बिल्कुल परवाह नहीं करता।

धार्मिक विचार

विवेकानन्द का सभी धर्मो की एकता में विश्वास था। उनका मानना था कि सभी धर्मो का मूल एक जैसा है, केवल बाहरी साधनों में कुछ अन्तर है। धर्म की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा था, धर्म मनुष्य के भीतर निहित देव तत्त्व का विकास है। धर्म न तो पुस्तकों में है, न धार्मिक सिद्धान्तों में। यह केवल अनुभूति में निवास करता है। विश्व में अनेक धर्मों के अस्तित्व के सम्बन्ध में उन्होंने कहा था, मनुष्य सर्वत्र अन्न खाता है, किन्तु अन्न से भोजन तैयार करने की विधियाँ संसार में अलग-अलग है। इसी प्रकार धर्म मनुष्य की आत्मा का भोजन है, किन्तु अलग-अलग देशों में इसके स्वरूप अलग-अलग हैं, जबकिं सभी धर्मों के लक्ष्यों में एकता है। विवेकानन्द ने कहा, हिन्दू संस्कृति विश्व की प्राचीन और महान् संस्कृतियों में एक है, जो सत्यम् शिवम् और सुन्दरम् पर आधारित है। हिन्दू राष्ट्र संसार का शिक्षक रहा है। और भविष्य में भी रहेगा। इसलिए प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है कि वह अपने धर्म तथा संस्कृति की रक्षा करे। विवेकानन्द की मान्यता थी कि भारत की आध्यात्मिक विचारधारा तथा पश्चिमी देशों की भौतिकवादी विचारधारा में समन्वय करने से ही भारतीयों को वास्तविक सुख प्राप्त हो सकता है एवं उनकी उन्नति हो सकती है।

राष्ट्रीयता का प्रसार

विवेकानन्द ने राष्ट्रीयता का भी प्रसार किया। उन्होंने यूरोप तथा अमेरिका में भारतीय संस्कृति तथा हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता स्थापित कर दी एवं भारतीयों में उनके धर्म व संस्कृति के प्रति गौरव की भावना उत्पन्न कर दी। उन्होंने भारतीयों से कहा, अब हमें दासता से मुक्त होकर खुद अपना मालिक बनना है। इस प्रकार उन्होंने भारतीयों में राजनीतिक स्वाधीनता की प्रेरणा जाग्रत की। स्वामी विवेकानन्द ने यह जयघोष किया, लम्बी से लम्बी रात्रि अब समाप्त हो जान पड़ती है।

हमारी यह मातृभूमि अब गहरी नींद से जाग रही है, कोई भी शक्ति उसे अब उन्नति से नहीं रोक सकती। संसार की कोई भी शक्ति उसे अब पीछे नहीं धकेल सकती, क्योंकि वह अनन्त शक्तिशाली देवी अपने पैरों पर खड़ी हो रही है। सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था, स्वामी विवेकानन्द का धर्म राष्ट्रीयता को उत्तेजना देना वाला धर्म था। एस.एन. नटराजन ने लिखा है, विवेकानन्द ने अपना जीवन भारत के करोड़ों पीड़ित लोगों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया। वह राष्ट्र का पुननिर्माण करना चाहते थे। श्री दिनकर ने लिखा है, स्वामी विवेकानन्द ने अपनी वाणी तथा कर्म से भारतवासियों में यह अभिमान जगाया कि हम अत्यन्त प्राचीन सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं। हमारे धार्मिक ग्रन्थ सबसे उन्नत तथा इतिहास सबसे प्राचीन है, महान् है। हमारा धर्म ऐसा है कि विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरा है और विश्व के सभी धर्मों का सार होते हुए भी उन सबसे कुछ अधिक है। स्वामी जी के प्रचार से हिन्दुओं में यह विश्वास उत्पन्न हुआ कि उन्हें किसी के भी सामने सर झुकाने की आवश्यकता नहीं है। भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रीयता पहले उतपन्न हुऊ, राजनैतिक राष्ट्रीयता बाद में जन्मी। इस सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के पिता विवेकानन्द थे। हिन्दू सभ्यता सदैव विवेकानन्द की ऋणी रहेगी। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है, यदि को ी भारत को समझना चाहता है, तो उसे विवेकानन्द को पढ़ना चाहिए। अरविन्द ने लिखा है, पश्चिमी जगत में विवेकानन्द को जो सफलता मिली, वह इस बात का प्रमाण है कि भारत केवल मृत्यु से बचने को नहीं जागा है, वरन् वह विश्व विजय करके दम लेगा। पण्डित नेहरू ने लिखा है, एक बार इस हिन्दू सन्यासी को देख लेने के पश्चात् उसे और उसके संदेश को भूला देना मुश्किल है।

अन्य सुधार आन्दोलन[सम्पादन]

इसके अतिरिक्त श्री शिव दयाल ने 1861 ई. में आगरा में राधा स्वामी सत्संग की नींव रखी। छठे गुरू के समय दयालबाग आगरा की नींव रखी गई, जिसमें सभी धर्मों को माना जाता है।

पण्डित शिवनारायण अग्निहोत्री ने देव समाज आन्दोलन की स्थापना की, जिसका परमात्मा के स्थान पर प्रकृति में विश्वास था। फीरोजपुर में देव समार्ज गर्ल्स कॉलेज ने स्त्री शिक्षा की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य था। महादेव गोविन्द रानाडे ने शिक्षा के विकास हेतु दक्षिण शिक्षा समाज की संस्था की स्थापना की।

मुस्लिम सुधार आन्दोलन[सम्पादन]

मुस्लिम धर्म में अनेक आडम्बर तथा रूढ़ियाँ प्रवेश कर चुकी थीं। अतः सर्वप्रथम इस दिशा में आन्दोलन सैयद अहमद बरेवली ने किया। यह आन्दोलन वहाबी आन्दोलन कहलाया। उन्होंने एक अल्लाह की पूजा पर बल देते हुए मुसलमानों की उन्नति का प्रयास किया, किन्तु ब्रिटिश सरकार ने इस आन्दोलन को कुचल दिया। दूसरा आन्दोलन सर सैयद अहमद खाँ (1817-1888 ई.) ने चलाया, जो अलीगढ आन्दोलन कहलाया है। वे पाश्चात्य शिक्षा द्वारा मुसलमानों का सर्वांगीण विकास करना चाहते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने अलीगढ़ में ऐंग्लो मोहम्मडन कॉलेज की स्थापना की, जो आगे चलकर अलीगढ़ विश्वविद्यालय के नाम से विख्यात हुआ। उन्होंने मुस्लिम समाज में पर्दा तथा अन्य बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न किया। उन्होंने मुसलमान जाति को राजभक्त बना दिया तथा उसे राष्ट्रीय आन्दोलन से पृथक् करने का प्रयत्न किया। इस प्रकार यह आन्दोलन राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधक था।

सुधारवादी आन्दोलनों का राष्ट्रीय आन्दोलनों पर प्रभाव[सम्पादन]

इन सुधारवादी आन्दोलनों ने भारतीय समाज के पतन को रोक कर उसकी मानसिक तथा आध्यात्मिक दुर्बलता को दूर कर दिया एवं भारतीयों में एक नई चेतना का संचार किया। इन्होंने भारतीयों को किसी भी बात को तर्क की कसौटी पर कसना सिखाया एवं समाज में व्याप्त अन्धविश्वासों को दूर किया। इन्होंने भारतीय के सम्मुख उनकी प्राचीन गौरवपूर्ण संस्कृति का चित्र प्रस्तुत किया, जिससे उनमें आत्म-सम्मान की नई भावना जाग्रत हुई। इन आन्दोलनों ने एक ऐसी पृष्ठभूमि तैयार कर दी, जिस पर चलकर भारत में राष्ट्रीयता की भावना का विकास हुआ एवं स्वतन्त्रता प्राप्त कर सका। इन आन्दोलनों ने धर्म तथा समाज में एकता उत्पन्न की। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा स्वामी विवेकानन्द आदि सुधारक राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत थे तथा उनका मानना था कि स्वतन्त्रता से श्रेष्ठ कुछ नहीं होता। श्री ए.आर. देसाई ने लिखा है, सामाजिक क्षेत्र में जाति प्रथा के सुधार और उसके उन्मूलन, स्त्रियों के लिए समान अधिकार, बाल विवाह के विरूद्ध आन्दोलन, सामाजिक और वैधानिक असमानताओं के विरूद्ध जेहाद किया गया। धार्मिक क्षेत्र में धार्मिक अन्धविश्वासों, मूर्तिपूजा तथा पाखण्डों का खण्डन किया गया। ये आन्दोलन कम अधिक मात्र में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और सामाजिक समानता के लिए संघर्ष थे तथा इनका चरम लक्ष्य राष्ट्रवाद था। इन्होंने भारतीयों को देशभक्ति का पाठ पढ़ाया। डॉ. जकारिया ने लिखा है, भारत की पुनर्जाग्रति मुख्यतः आध्यात्मिक थी तथा एक राष्ट्रीय आन्दोलन का रूप धारण करने के पूर्व अनेक धार्मिक तथा सामाजिक आन्दोलनों का सूत्रपात किया।

भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के उदय के कारण[सम्पादन]

1857 ई. की क्रान्ति का दमन करने के पश्चात् भारत में कम्पनी के शासन की समाप्ति हुई और ब्रिटिश सरकार ने सुधारों के लिए अनेक कदम उठाकर भारतीय जनता को सन्तुष्ट करने का हर सम्भव प्रयास किया। यह सत्य है कि क्रान्ति की असफलता से राष्ट्रवादी तत्त्वों को गहरा आघात पहुँचा था, फिर भी राष्ट्रीयता की भावना समाप्त नहीं हो पाई और नए परिवेश में निरन्तर विकसित होती जा रही ही थी। इसके अतिरिक्त, वह अभिव्यक्ति का नया साधन तलाश कर रही थी। अन्ततः 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना ने वह साधन उपलब्ध करा दिया, जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आन्दोलना का जन्म हुआ। राष्ट्रीय आन्दोलन का जन्म तथा विकास आधुनिक भारतीय इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण तथा मनोरंजक घटना मानी जाती है। इस आन्दोलन का नेतृत्व क्रांग्रेस ने किया था। इसलिए पट्टाभि सीताभैया का मानना है कि, कांग्रेस का इतिहास ही भारतीय स्वतन्त्रता के संघर्ष का इतिहास है। परन्तु डॉ. आर.सी. मजूमदार इस कथन को ऐतिहासिक दृष्टि से सही नहीं मानते हैं, क्योंकि, कांग्रेस की स्थापना के पूर्व और पश्चात् दूसरी अनेक शक्तियों के द्वारा भी इस उद्देश्य से कार्य किया गया था, लेकिन कांग्रेस ने भारतीय स्वतन्त्रता के संघर्ष में सदैव ही केन्द्र का कार्य किया। यह वह धुरी थी, जिसके चारों ओर स्वतन्त्रता की महान गाथा की विविध घटनाएँ घटित हुई।भारतीय जनता ने ब्रिटिश शासन के प्रति असंतोष था, इसलिए देश में राजनीतिक आन्दोलन का सूत्रपात हुआ। इस आन्दोलन का नेतृत्व राष्ट्रीय कांग्रेस ने किया।

भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के जन्म तथा विकास के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे :

1857 ई. का स्वतन्त्रता संग्राम[सम्पादन]

1857 ई. का विद्रोह एक सैनिक विद्रोह से कही अधिक था। यह भारत में इतनी तीव्रगति से फैला कि उसने जन विद्रोह तथा भारतीय स्वतन्त्रता के युद्ध का रूप धारण कर लिया। कुछ कारणों से यह क्रान्ति असफल रही। ब्रिटिश सरकार ने विद्रोह को कुचलने के बाद जिस प्रकार से अमानवीय अत्याचार यहाँ किए, उससे जनता के असंतोष में बहुत अधिक वृद्धि हुई। ब्रिटिश सरकार की अमानुषिक कार्यवाही का वर्णन करते हुए सर चार्ल्स डिल्के ने लिखा है कि, अंग्रेजों ने अपने कैदियों की बिना न्यायिक कार्यवाही के और ऐसे ढंग से हत्या कर दी, वे सभी भारतीयों की दृष्टि में पाशविकता की चरम सीमा थी।...दमन के दौरान गाँव के गाँव जला दिए गए। निर्दोष ग्रामिणों का वह कत्लेआम किया गया कि मुहम्मद तुगलक भी शरमा जाएगा। अंग्रेजो की इस बदले की भावना ने भारतीयों के असंतोष में और वृद्धि की, जैसे-जैसे अंग्रेजों के अत्याचार बढ़ते गए, वैसे-वैसे भारतीयों में अंग्रेजों के शासन को जडमूल से नष्ट करने की भावना बढ़ती गई। 1857 ई. की क्रान्ति ने अंग्रेजों में भारतीयों के प्रति और भारतीयों को अंग्रेजों के प्रति घृणा की भावना को बहुत अधिक बढ़ा दिया। एडवर्ड थाम्पसन के अनुसार, विद्रोह के बाद भारतीयों में अंग्रेजों के प्रति भयंकर घृणा की भावना आ गई थी और भारतीयों में विद्रोह का विचार आते ही अंग्रेजों से बदला लेने की भावना बढ़ती ही जाती थी।

धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आन्दोलन[सम्पादन]

19वीं शताब्दी में धार्मिक और सामाजिक सुधार आन्दोलन प्रारम्भ हुए। उन्होंने एक ओर, धर्म तथा समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया, तो दूसरी ओर भारत में राष्ट्रीयता की भाव भूमि तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉ. रघुवंशी एवं लाल बहादुर ने इस सम्बन्ध में राष्ट्रीय विकास एवं भारतीय संविधान में लिखा है कि, यह भारतीय नवजागरण का काल था। राजा राममोहन राय इस नवयुग के प्रतीक थे। इनके बाद भारतीय शिक्षित वर्ग में अंग्रेजी साहित्य और विचारधारा का प्रचार एवं प्रसार बढ़ा। अंग्रेजी विद्वानों ने भारतीय साहित्य और संस्कृति की खोज करके भारतीय विद्वानों में उनकी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के प्रति अनुराग एवं अध्ययन की लग्न पैदा की। परिणामस्वरूप देश में नई जाग्रति की लहर आई और प्रगतिवादी विचारों को प्रेरणा मिली। धार्मिक सुधार आन्दोलन ने भी राष्ट्रीय आत्म-सम्मान व देशभक्ति की भावनाएं उत्पन्न की, जिसका प्रगट रूप हमें राजैनतिक आन्दोलन में दिखाई पड़ता है। विदेशी शासन और विदेशी सभ्यता के प्रगतिशील तत्त्वों ने देश में नई राष्ट्रीय चेतना और स्वाधीनता, दमन और शोषण नीतियों ने हमारी इस चेतना को उस दिशा की ओर मोड़ा, जिसका लक्ष्य अनिवार्य रूप से राष्ट्रीय आन्दोलन था। डॉ. जकारिया ने इस सम्बन्ध में ठीक ही लिखा है कि, भारत की पुर्नजागृति मुख्यतया आध्यात्मिक थी तथा एक राष्ट्रीय आन्दोलन का रूप धारण करने के पूर्व इसने अनेक सामाजिकऔर धार्मिक आन्दोलनों का सूत्रपात किया। इस प्रकार के आन्दोलनों में ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन एवं थियोसोफिकल आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिसके प्रवर्तक क्रमश राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द एवं श्रीमती एनीबेसेन्ट आदि थे। इन सुधारकों ने भारतीयों में आत्म विश्वास जागृत किया तथा उन्हें भारतीय संस्कृति की गौरव गरिमा का ज्ञान कराया, जिससे उन्हें संस्कृति की श्रेष्ठता के बारे में पता चला।

ब्रह्म समाज

इन महान् व्यक्तियों में राजा राममोहनराय को भारतीय राष्ट्रीयता का अग्रदूत कहा जा सकता है, जिन्होंने समाज तथा धर्म में व्याप्त बुराइयों को दूर करने हेतु अगस्त 1828 ई. में ब्रह्म समाज की स्थापना की। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा, छुआ-छुत, जाति-भेदभाव एवं मूर्तिपूजा आदि बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। उनके प्रयासों के कारण आधुनिक भारत का निर्माण सम्भव हो सका। इसलिए उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कहा जाता है। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने लिखा है कि राजाराममोहन राय को बेकन तता मार्टि लूथर जैसे प्रसिद्ध सुधारों की श्रेणी में गिना जा सकता है। एस.सी. सरकार तथा के.के. दत्त का मानना है कि राजा राममोहनराय ने आधुनिक भारतवर्ष में राजनीतिक जागृति एवं धर्म सुधारक का आध्यात्मिक युग प्रारम्भ किया। वे एक युग के प्रवर्तक थे। इसलिए डॉ. जकारिय ने उन्हें सुधारकों का आध्यात्मिक पिका कहा है। बहुत से विद्वान उन्हें आधुनिक भारत का पिता तथा नए युग का अग्रदूत मानते हैं। राजा राममोहनराय ने भारतीयों के लिए राजनीतिक आधिकारों की माँग की। 1823 ई. में प्रेस ऑडिनेन्स के द्वारा समाचार-पत्रों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। इस पर राजा राममोहन राय ने इस ऑडिनेन्स का प्रबल विरोध किया और इसको रद्द करवाने का हरसम्भव प्रयास किया। इसके पश्चात् उन्होंने ज्यूरी एक्ट के विरूद्ध एक आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। डॉ. आर.सी. मजूमदार के शब्दों में, राजा राममोहनराय पहले भारतीय थे, जिन्होंने अपने देशवासियों की कठिनाई तथा शिकायतों को ब्रिटिश सरकार के सम्मुख प्रस्तुत किया और भारतीयों को संगठित होकर राजनीतिक आन्दोलन चलाने का मार्ग दिखलाया। उन्हें आधुनिक आन्दोलन का अग्रदूत होने का श्रेय दिया जा सकता है।

आर्य समाज

राजा राममोहनराय के बाद स्वामी दयानन्द सरस्वती एकस महान सुधारक हुए, जिन्होंने 1875 ई. में बम्बई में आर्य समाज लकी स्थापना की। आर्य समाज एक साथ ही धार्मिक और राष्ट्रीय नवजागरण का आन्दोलन था। इसने भारत और हिन्दू जाति को नवजीवन प्रदान किया। स्वामी दयानन्द ने न केवल हिन्दू धर्म तथा समाज में व्याप्त बुराइयों का विरोध किया, अपितु अपने देशवासियों में राष्ट्रीय चेतना का संचार भी किया। उन्होंने इसाई धर्म की कमियों पर प्रकाश डाला और हिन्दुत्व के महत्त्व का बखान कर भारतीयों का ध्यान अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की ओर आकर्षित किया। उन्होंने वैदिक धर्म की श्रेष्ठता को फिर से स्थापित किया और यह बताया कि हमारी संस्कृति विश्व की प्राचीन और महत्त्वपूर्ण संस्कृति है। उनका मानना था कि वेद ज्ञान के भण्डार हैं और संसार में सच्चा हिन्दू धर्म है, जिसके बल पर भारत विश्व में अपनी प्रतिष्ठा फिर से स्थापित कर गुरू बन सकता है।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में निर्भींकता पूर्वक लिखा है, विदेशी राज्य चाहे वह कितनी ही अच्छा क्यों न हो, स्वदेशी राज्य की तुलना में कभी अच्छा नहीं हो सकता। एच.बी. शारदा ने लिखा है कि, राजनीतिक स्वतन्त्रता की प्राप्ति स्वामी दयानन्द का मुख्य उद्देश्य था। वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने स्वराज्य शब्द का प्रयोग किया और अपने देशवासियों को विदेशी माल के प्रयोग के स्थान पर स्वेदशी माल के प्रयोग की प्रेरणा दी। उन्होंने सबसे पहले हिन्दी को राष्ट्रीय बाषा स्वीकार किया। श्रीमती ऐनीबेसेण्ट ने लिखा है, स्वामी दयानन्द सरस्वती पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने सबसे पहले यह नारा लगाया था कि भारत भारतीयों के लिए है। ग्रिफिथ्स के शब्दों में, हिन्दुत्व पर पाश्चात्य विचारधारा के प्रभाव के परिणामस्वरूप भारत में दो प्रमुख विचारधाराओं की उत्पत्ति हुई, जिनके संयोग से कालान्तर में भारतीय राष्ट्रवाद रूपी विचारधारा स्थापित हुई। ब्रह्म समाज ने बहुत से भारतीय नेताओं को प्रजातन्त्र एवं स्वतन्त्रता के नए विचार ग्रहण करने के सिखाए तथा आर्य समाज एवं सत्य धर्मावलम्बी हिन्दुओं के पुनरूद्धार से उनमें शौर्य का संचार हुआ। वास्तव में इससे हिन्दू भारत में प्रथम बार वास्तविक एकता स्थापित हुई तथा जागरूक एवं वीरतापूर्ण राष्ट्रीयता की भावना का निर्माण हुआ।

रामकृष्ण मिशन

स्वामी विवेकानन्द ने यूरोप और अमेरिका में भारतीय संस्कृति का प्रचार किया। उन्होंने अंग्रेजों को यह बता दिया कि भारतीय संस्कृति पश्चिमी संस्कृति से महान् है और वे बहुत कुछ भारतीय संस्कृति से सीख सकते है। इस प्रकार, उन्होंने भारत में सांस्कृतिक चेतना जागृत की तथा यहाँ के लोगों को सांस्कृतिक विजय प्राप्त करने की प्रेरणा दी। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भारत का स्वतन्त्र होना आवश्यक है। इस प्रकार, उन्होंने भारतीयों की राजनीतिक स्वाधीनता का समर्थन किया, जिससे राष्ट्रीय भावनाओं को असाधारण बल मिला। निवेदिता के अनुसार, स्वामी विवेकानन्द भारत का नाम लेकर जीते थे। वे मातृभूमि के अनन्य भक्त थे और उन्होंने भारतीय युवकों को उसकी पूजा करना सिखाया।

थियोसोफिकल सोसाइटी

सोसायटी की नेता श्रीमती एनीबेसण्ट ने भी भारतीय राष्ट्रवाद के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। श्रीमती एनीबेसेण्ट एक विदेशी महिला थीं, जब उसके मुँह से भारतीयों ने हिन्दू धर्म की प्रशंसा सुनी, तो वे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके, जब उन्हें अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता का ज्ञान हुआ, तो उन्होंने अंग्रेजों के विरूद्ध स्वाधीनता की प्राप्ति हेतु आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया।

श्रीमती एनीबेसण्ट ने हिन्दुओ को बताया कि, तुम्हारे पास सर्वोत्कृष्ट ज्ञान की कुँजी है और तुम्हारे देवी-देवता, दर्शन एवं चरित्र के स्तर को पहुँचने में पश्चिम को अभी बहुत समय लगेगा। के.सी. व्यास ने लिखा है थियोसोफिकल सोसाइटी की गतिविधियों से भारत में बढ़ती हुई राष्ट्रीयता की भावना को पर्याप्त प्रेरणा मिली। एनीबेसेण्ट ने इस सम्बन्ध में लिखा है, इस आन्दोनल में एनीबेसण्ट ने जितना संगठन एवं पुष्टीकरण सम्बन्धी कार्य किया है, उतना किसी हिन्दू ने नहीं किया होगा।सारांश यह है कि 19वीं शताब्दी के सुधारकों ने भारतीय जनता में राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न की। उन्होंने ऐसा वातावरण तैयार किया,जिसके कारण भारत स्वतन्त्रता के लक्ष्य को प्राप्त कर सका।

जी.एन. सिंह के अनुसार, राष्ट्रीय आन्दोलन के पूर्वगामी एवं प्रेरक धार्मिक सुधार आन्दोलन मुख्यतः धार्मिक एवं सामाजिक आन्दोलन के साथ ही राष्ट्रीय भी थे। इन्होंने भारतवासियों को अपने महान् उत्तराधिकार के प्रति सचेत किया और उनमें राष्ट्रीय भावना जागृत की। माइकल एर्डवर्डस ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में धर्म के योगदान का वर्णन करते हुए लिखा है, धार्मिक राष्ट्रीय का बड़ा ही व्यापाक प्रभाव पड़ा। इसने ब्राह्मणों को, जो हिन्दू समाज में सर्वोच्च वर्ण के थे तथा उसके स्वाभाविक नेता थे, उत्तेजित किया क्योंकि ब्रिटिश शासन में उनके परम्परागत अधिकारों को चुनौती दी गई थी, इसने मध्य श्रेणी के लोगों को भी अपने बेकारी के असंतोष के प्रकट करने का तथा अपने समाज में पुनः आकर सक्रिय कार्य करने का अवसर प्रदान किया, जिससे वे अलग हो गए थे। इसने कृषकों को भी राष्ट्रीय आन्दोलन में कूदने के लिए उत्प्रेरित किया और इसने नवयुवकों को भाषण से हटाकर व्यावहारिता की ओर अग्रसर किया। ए.आर.देसाई ने इस सम्बन्ध में लिखा है, ये आन्दोलन कम अधिक मात्रा में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और सामाजिक समानता के लिए संघर्ष थे और इनका लक्ष्य राष्ट्रवाद था।

भारत की राजनीतिक एकता[सम्पादन]

1707 ई. के बाद भारत में राजनीतिक एकता का लोप हो चुका था, किन्तु अंग्रेजों के समय लगभग सम्पूर्ण भारत में प्रशासन एक केन्द्रीय सत्ता के अन्तर्गत आ गया था। समस्त साम्राज्य में एक जैसे कानून एवं नियम लागू किए गए। सम्पूर्ण भारत में ब्रिटिश सरकार का शासन होने से भारत एकता के सूत्र में बंध गया। इस प्रकार, देश में राजनीतिक एकता स्थापित हुई। यातायात के साधनों तथा अंग्रेजी शिक्षा ने इस एकता की नींव को और अधिक ठोस बना दिया, जिससे राष्ट्रीय आन्दोलन को बल मिला। इस प्रकार, राजनीतिक दृष्टि से भारत का एकरूप हो गया। भारतीय लेखक पुन्निया के शब्दों मे, हिमालय से कुमारी अन्तरीप तक सम्पूर्ण भारत एक सरकार के अधीन आ गया और इसने जनता में राजनीतिक एकता की भावना को जन्म दिया।

नेहरू के शब्दों में, ब्रिटिश सासन द्वारा स्थापित भारत की राजनीतिक एकता सामान्य अधीनता की एकता थी, लेकिन उसने सामान्य राष्ट्रीयता की एकता को नज्म दिया।

प्रो. मून ने ठीक ही लिखा है, ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने कई अनेकताओं के बावजूद भारत को एक तीसरे दल के अधीन राजनैतिक एकता प्रदान की।

ऐतिहासिकअनुसंधान[सम्पादन]

विदेशी विद्वानों की ऐतिहासिक खोजों ने भी भारतीयों की राष्ट्रीय भावनाओं को बल प्रदान किया। सर विलियम जोन्स, मैक्समूलर जैकोबी, कोल ब्रुक, रौथ, ए.बी. कीथ, बुर्नफ आदि विदेशी विद्वानों ने भारत के संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध ऐतिहासाकि ग्रन्थों का अध्ययन किया ओर उनका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया। अंग्रेजों द्वारा संस्कृत साहित्य को प्रोत्साहन देने से संस्कृत भाषा का पुनर्द्धार हुआ। इसके अतिरिक्त, पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीय ग्रन्थों का अनुवाद करने के पश्चात् यह बताया कि ये ग्रन्थ संसार की सभ्यता की अमूल्य निधियाँ हैं। पश्चिमी विद्वानों ने प्राचीन कलाकृतियों की खोज करने के पश्चात् यह मत व्यक्ति किया कि भारत की सभ्यता और संस्कृति विश्व की प्राचीन और श्रेष्ठ संस्कृति है। इससे विश्व के समक्ष प्राचीन भारतीय गौरव उपस्थित हुआ। जब भारतीयों को यह पता लगा कि पश्चिम के विद्वान भारतीय संस्कृति को इतना श्रेष्ठ बताते हैं, तो उनके मन में आत्महीनता के स्थान पर आत्मविश्वास की भावनाएँ जागृत हुई तथा उन्होंने उसकी श्रेष्ठता स्थापित करने का प्रयत्न किया। राजा राममोहनराय, स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा स्वामी विवेकानन्द ने भी भारतीयों को उनकी संस्कृति की महानता के ज्ञान से अवगत कराया।

इन अनुसंधानों ने भारतीयों के मन में एक नया उत्साह और आत्मविश्वास जागृत किया। इससे उनके मन में यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि फिर हम पराधीन क्यों है? डॉ.आर.सी. मजूमदार के अनुसरा, यह खोज भारतीयों के हृदय में चेतना की भावना व देशभक्ति से भर गये। श्री के.एम. पन्निकर लिखते हैं कि इन ऐतिहासिक अनुसन्धानों ने भारतीयों में आत्मविश्वास जागृत किया और उन्हें अपनी सभ्यता और संस्कृति पर गर्व करना सिखलाया। इन खोजों से अपने भविष्य के सम्बन्ध में भारतीय आशावादी बन गए।

पश्चिमी शिक्षा का प्रभाव[सम्पादन]

भारतीय राष्ट्रीय धारा में पश्चिमी शिक्षा के सराहनीय योग दिया। 1835 ई. में लार्ड मैकाले के सुझाव पर भारत में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा को निश्चित कर दिया गया। इसका मुख्य उद्देश्य भारत की राष्ट्रीय चेतना को जड़मूल से नष्ट करना था।

मैकाल ने कहा था, भारतीयों का एक ऐसा वर्ग तैयार किया जाए, जो अपने वंश रंग की दृष्टि से तो भारतीय हो, पर रूचि विचारों, आदर्शों एवं समझ-बूझ में पूर्णतः अंग्रेज हो। एलफिन्स्टन ने लिखा है, अन्य अंग्रेज भी यह समझते थे कि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् भारतीय जनता सहर्ष अंग्रेजी राज्य स्वीकार कर लेगी। दत्त ने सही लिखा है कि, भारत में ब्रिटिश शासन द्वारा पाश्चात्य शिक्षा प्रारम्भ किए जाने का उद्देश्य यह था कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति का पूर्णरूप से लोप हो जाए ौर एक ऐसे वर्ग का निर्माण हो, जो रक्त और वर्ण से तो भारतीय हो, किन्तु रूचि, विचार, शब्द और बुद्धि से अंग्रेज हो जाए। इस उद्देश्य में अंग्रेजों का काफी सीमा तक सफलता भी प्राप्त हुई, क्योंकि कुछ शिक्षित भारतीय लोग अपनी संस्कृति को भूलकर पाश्चात्य संस्कृति का गुणगान करने लगे, परन्तु पाश्चात्य शिक्षा के भारत को हानी के अपेक्षा लाभ अधिक हुआ। इससे भारत में राष्ट्रीय चेतना जागृत हुई। अतः इस दृष्टि से पाश्चात्य शिक्षा भारत के लिए एक वरदान सिद्ध हुई। अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के कारण भारतीय विद्वानों ने पश्चिमी देशों के साहित्य का अध्ययन किया। जब उन्हें मिल्टन, बर्क, हरबर्ट स्पेन्सर, जान स्टुअर्ट मिल आदि विचारकों की कृतियों का ज्ञान प्राप्त हुआ, तो उनमें स्वतन्त्रता की भावना जागृत हुई।

मेक्डॉनल्ड के अनुसार, स्पेन्सर का व्यक्तिवाद तथा मार्ले का उदारवाद वह शस्त्र है, जिन्हें भारत ने हमसे छीनकर हमारे ही विरूद्ध प्रयुक्त करना शुरू कर दिया। डॉ. ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में, पश्चिम के राजनीतिशास्त्र विशेषज्ञ लॉक, स्पेन्सर, मैकाले, मिल औ बर्क के लेखों ने केवल भारतीयों के विचारों को ही प्रभावित नहीं किया, अपितु राष्ट्रीय आन्दोलन की रूपरेखा और संचालन पर गहरा प्रभाव डाला।

भारतीयों पर पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव का वर्णन करते हुए ए.आर. देसाई लिखते हैं कि, शिक्षित भारतीयों ने अमेरिका, इटली और आयरलैण्ड के स्वतन्त्रता संग्रामों के सम्बन्ध में पढ़ा। उन्होंने ऐसे लेखकों की रचनाओं का अनुशीलन किया, जिन्होंने व्यक्तिगत और राष्ट्रीय स्वाधीता के सिद्धान्तों का प्रचार किया है, ये शिक्षित भारतीय भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के रानजीति और बौद्धिक नेता हो गए।

रवीन्द्रनाथ टैगोरने लिखा है, हमको इंग्लैण्ड का परिचय उसके गौरवमय इतिहास से मिला, जिसने हमारे नवयुवकों में एक नवीन स्फूर्ति तथा प्रेरणा को उत्पन्न किया। अंग्रेज लेखकों की रचनाएँ मानव प्रेम, स्वतन्त्रता तथा न्याय से परिपूर्ण थीं। इन्हें पढ़कर भारतीयों में नया उत्साह उत्पन्न हुआ। रोनाल्ड के शब्दों में, पश्चिमी शिक्षा की नवीन शराब से भारतीय युवक झूम उठे। उन्होंने इसका पान स्वतन्त्रता तथा राष्ट्रवाद के साधनों से किया। इससे उनके विचारों में क्रान्तिकारी परिवर्तन आ गया।

प्रो. विजयलक्ष्मी ने लिखा है, ब्रिटिश साम्राज्यवादी तो भारतीयों को इस उद्देश्य से शिक्षा दे रहे थे कि ब्रिटिश प्रशासन और व्यापारिक फर्मों की र्क्लकों की आवश्यकता पूरी हो सके, किन्तु जब उन्हें वाल्तेयर, रूसो, मेजिनी, मिल्टन, शैली और वायरन जैसे साहित्यकारों के साथ-साथ उन लोगों केविचारों के अध्ययन का मौका मिला, जो ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की निरंकुशता के विरूद्ध थे, तो उनमें राष्ट्रीयता के भाव उत्पन्न हो गए और उनमें साम्राज्यवादियों से लड़ने का दृढ़ संकल्प पैदा हुआ। रजनी पामदत्त ने इसी प्रकार के विचार व्यक्त करते हुए लिखा है, भारत में पाश्चात्य शिक्षा प्रारम्भ किए जाने का उद्देश्य यह था कि भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का पूर्णरूप से विनाश हो जाए और एक ऐसे वर्ग का अविर्भाव हो सके, जो रक्त और वर्ण से तो भारतीय हो, किन्तु जो विचार और बुद्धि से अंग्रेज हो। इस सम्बन्ध में यह स्मरणीय है कि राजा राममोहनराय, दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, गोपाल कृष्ण गोखले, वोमेशचन्द्र बनर्जी आदि नेता अंग्रेजी शिक्षा की ही देन थे। अंग्रेजी शिक्षा के कारण भारतीय नेताओं के दृष्टिकोण का विकास हुआ। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए अनेक भारतीय इंग्लैण्ड गए और वहाँ के स्वतन्त्र वातावरण से बहुत प्रभावित हुए। भारत में आने के पश्चात् उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रोत्साहन दिया, क्योंकि वे यूरोपियन देशों की भाँति अपने देश में भी स्वतन्त्रता चाहते थे। श्री गुरूमुख निहाल सिंह लिकथे हैं कि, इंग्लैण्ड में रहने से उन्हें स्वतन्त्र राजनीतिक संस्थाओं की कार्यविधि का घनिष्ठ ज्ञान प्राप्त हो जाता था, वे स्वतन्त्रता और स्वाधीनता का मूल्य समझ जाते थे तथा उनके मन में जमी हुई दासता की मनोवृत्ति घट जाती थी।

अंग्रेजी भाषा लागू होने से पूर्व भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों के भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोली जाती थी। इसलिए वे एक-दूसरे के विचारों को नहीं समझ सकते थे। सम्पूर्ण भारत के लिए एक सम्पर्क भाषा की आवश्यकता थी, जिसे अंग्रेज सरकार ने अंग्रेजी भाषा को लागू कर पूरा कर दिया। अब विभिन्न प्रान्तों के निवासी आपस में विचार-विनिमय करने लगे और इसने उन्हें राष्ट्र के लिए मिलकर कार्य करने की प्रेरणा दी। परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आन्दोलन को बल मिला। सर हेनरी कॉटन के अनुसार, अंग्रेजी माध्यम से और पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर शिक्षा ने ही भारतीय लोगों को विभिन्नताओं के होते हुए भी एकता के सूत्र में आबद्ध करने का कार्य किया। एकता पैदा करने वाला अन्य कोई तत्त्व सम्भव नहीं था, क्योंकि बोली का भ्रम एक अविछिन्न बाधा थी। श्री के.एम. पन्निकर ने लिखते हैं कि, सारे देश की शिक्षा पद्धति और शिक्षा का णआध्य एक होने से भारतीयों की मनोदशा पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उनके विचारों, भावनाओं और अनुभूतियों से एकरसता होनी कठिन न रही। परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्रीयता की भावना दिन-प्रतिदिन प्रबल होती गई।

सारांश यह है कि पाश्चात्य शिक्षा भारत के लिए वरदान सिद्ध हुई। डॉ. जकारियाने ठीक ही लिखा है कि, अंग्रेजों ने 125 वर्ष पूर्व भारत में शिक्षा का जो कार्य आरम्भ किया था, उससे अधिक हितकर और कोई कार्य उन्होंने भारतवर्ष में नहीं किया।

रवीन्द्रनाथ टेगोर ने लिखा है कि, अंग्रेजी लेखकों की रचनाएँ मानव प्रेम, न्याय और स्वतन्त्रता की भावनाओं से परिपूर्ण थीं। उनके अध्ययन से हमें क्रान्ति युग को बढ़ाने वाली महान साहित्यिक परम्परा का ज्ञान हुआ। वर्ड्सवर्थ की मानव स्वतन्त्रता सम्बन्धी कविताओं में हमकों इस शक्ति का आभास प्राप्त हुआ। शैली की कुछ रचनाओं ने भारतीयों की कल्पना को उत्तेजित किया। हमें विश्वास हो गया कि विदेशी सत्ता के विरूद्ध विद्रोह के लिए पश्चिम का सहयोग आवश्यक है। हमने अनुभव किया कि इंग्लैण्ड भी स्वतन्त्रता के प्रश्न पर हमारे साथ है। इसीलिए प्रायः यह कहा जाता है कि भारतीय राष्ट्रीयता की भावना पश्चिमी शिक्षा का पोष्य शिशु था। इस प्रकार, पश्चिमी शिक्षा ने भारतीय राष्ट्रीय चेतना में नवजीवन का संचार किया। लार्ड मैकाले ने 1833 ई. में कहा था कि, अंग्रेजी इतिहास में यह गर्वर् का दिन होगा, जब पाश्चात्य शिक्षा में शिक्षित होकर भारतीय पाश्चात्य संस्थाओं की माँग करेंगे। उसका वह स्वप्न इतना जल्दी साकार हो जाएगा, इसकी कल्पना भी उसने कभी न की होगी।

भारतीय समाचार-पत्र तथा साहित्य[सम्पादन]

मुनरो ने लिखा है कि, एक स्वतन्त्र प्रेस और विदेशी राज एक-दूसरे के विरूद्ध है और ये दोनों एक साथ नहीं चल सकते। भारतीय समाचार-पत्रों पर यह बात पूरी उतरती है। राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति तथा विकास में भारतीय साहित्य तथा समाचार पत्रों का भी काफी हाथ था। इनके माध्यम से राष्ट्रवादी तत्त्वों को सतत् प्रेरणा और प्रोत्साहन मिलता रहा। उन दिनों भारत में विभिन्न भाषाओं में समाचार-पत्र प्रकाशित होते थे, जिनमें राजनीतिक अधिकारों की माँग की जाती थी। इसके अतिरिक्त उनमें ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति की कड़ी आलोचना की जाती थीं। उस समय के प्रसिद्ध समाचार-पत्रो में संवाद कौमुदी, बाम्बे समाचार (1882), बंगदूत (1831), रास्त गुफ्तार (1851), अमृत बाजार पत्रिका (1868), ट्रिब्यून (1877), इण्डियन मिरर, हिन्दू, पैट्रियट, बंग्लौर, सोम प्रकाश, कामरेड, न्यू इण्डियन, केसरी, आर्यदर्शन एवं बन्धवा आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। फिलिप्स के अनुसार, 1877 में देशी भाषाओं में बम्बई प्रेसीडेन्सी और उत्तर भारत में 62 तथा बंगाल और दक्षिण भारत में क्रमशः 28 और 20 समाचार-पत्र प्रकाशित होते थे, जिनके नियमित पाठकों की संख्या एक लाख थी। 1877 ई. तक देश में प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्रों की संख्या 644 तक जा पहुँची थी, जिनमें अधिकतर देशीय भाषाओं के थे। इन समाचार-पत्रों में ब्रिटिश सरकार की अन्यायपूर्ण नीति की कड़ी आलोचना की जाती थी। ताकि जनसाधारण में ब्रिटिश शासन के प्रति घृणा एवं असंतोष की भावना उत्पन्न हो। इससे राष्ट्रीय आन्दोलन को बल मिलता था। इन समाचार-पत्रों के बढते हुए प्रभाव को रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1878 ई. में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट पारित किया, जिसके द्वारा भारतीय समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता को बिल्कुल नष्ट कर दिया गया। इस एक्टने भी राष्ट्रीय आन्दोलन की लहर को तेज कर दिया।

भारतीय साहित्यकारों ने भी देश प्रेम की भावना को जागृत करने में महत्त्वपूर्ण योग दिया। श्री बंकिम चन्द्र चटर्जी ने वन्दे मातरम् के रूप में देशवासियों को राष्ट्रीय गीत दिया। इससे भारतीयों में देश प्रेम की भावना जागृत हुई। मराठी साहित्य में शिवाजी का मुगलों के विरूद्ध संघर्ष विदेशी सत्ता के विरूद्ध संघर्ष बताया गया। श्री हेमचन्द्र बन्रजी ने अपनी राष्ट्रीय गीतों द्वार स्वाधीनता की भावना को प्रोत्साहन दिया। श्री विपिनचन्द्र पाल लिखते हैं कि, राष्ट्रीय प्रेम तथा जातीय स्वाभिमान को जागृत करने में श्री हेमचन्द्र द्वारा रचित कविताएँ अन्य कवियों की एसी कविताओं से कहीं अधिक प्रभावोत्पादक थी। इसी प्रकार, केशवचन्द्र सेन, रवीन्द्रनाथ टेगोर, आर.सी.दत्त, रानाडे, दादाभाई नौरोजी आदि ने अपने विद्वता पूर्ण साहित्य के माध्यम से भारत में राष्ट्रीय भावना को जागृत किया। इन्द्र विद्या वाचस्पति के अनुसार, इसी समय माइकेल मधुसूदन दत्त ने बंगाल में, भारतेन्द्र हरिश्चन्द्र ने हिन्दी में, नर्मद ने गुजराती में, चिपलूणकर ने मराठी में, भारती ने तमिल में तथा अन्य अनेक साहित्यकारों ने विभिन्न भाषाओं में राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण उत्कृष्ट साहित्य का सृजन किया। इन साहित्यिक कृतियों ने भारतवासियों के हृदयों में सुधार व जागृति की अपूर्व उमंग उत्पन्न कर दी।

भारत का आर्थिक शोषण[सम्पादन]

मि. गैरेटने के अनुसार, राष्ट्रीयता में शिक्षित वर्ग का अनुराग हमेशा ही कुछ हद तक धार्मिक और कुछ हद तक आर्थिक कारणओं से हुआ है। भारतीय राष्ट्रीयता पर यह बात पूरी उतरती है। ब्रिटिश सरकार की आर्थिक शोषण की नीति ने भारतीय उद्योगों को बिल्कुल नष्ट कर दिया था। यहाँ के व्यापार पर अंग्रेजों का पूर्ण अधिकार हो गया था। भारतीय वस्तुओं पर, जो बाहर जाती थीं, भारी कर लगा दिया गया और भारत में आने वाले माल पर ब्रिटिश सरकार ने आयात कर में बहुत छुट दे दी। इसके अतिरिक्त अंग्रेज भारत में कच्चा माल ले जाते तथा इंग्लैण्ड से मशीनों द्वारा निर्मित माल भारत में भेजते थे, जो लघु एवं कुटीर उद्योग-धन्धों के निर्मित माल से बहुत सस्ता होता था। परिणामस्वरूप भारतीय बाजार यूरोपियन माल से भर गए एवं कुटीर उद्योग-धन्धों का पतन हो जाने से करोड़ों की संख्या में लोग बेरोजगार हो गए। भारत का धन विदेशों में जा रहा था। अतः भारत दिन-प्रतिदिन निर्धन होता गया।

आर्थिक शोषण की नीति का भारतीय कवि भारतेन्दु हरिशचन्द्र जी ने बड़े रोचक शब्दों में वर्णन किया हैः-

अंग्रेज राज सुख साज सारे महा भारी।
पै धन विदेश चलि जाए यह है दुःख भारी।।

डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है, खद्दर जो ईश्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा निर्यात किया जाता था, लंकाशायर के कपड़े के आयात के साथ समाप्त होने लगा। इस प्रकार ग्रामीण दस्तकारों को मिलने वाला धन बन्द हो गया। लंकाशायर से आयात होने वाले धन का मूल्य 1803 में तीन लाख रूपए था, जो 1919 ई. तक बढ़कर 72 करोड़ रूपए तक जा पहुँचा, जिसके परिणामस्वरूप बीस लाख भारतीय जुलाहे आजीविका से वंचित हो गए तथा तीन करोड़ सूत कातने वाले बर्बाद हो गए। अन्य शिल्पाकरों की भी यही स्थिति हो गई।

रजनी पाम दत्त ने लिखा है, भारत का आर्थिक ढाँचा भी 1813 के बाद ही निश्चित तौर पर उस समय टूटा, जब इंग्लैण्ड के औद्योगिक सामान ने भारतीय बाजार पर धावा बोल दिया। भारत के आर्थिक ढाँचे को टूटने का प्रभाव 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध पर क्या पड़ा, इसका विवरण मार्क्स ने ठोस तथ्यों के साथ पेश किया है। 1780 से 1850 के बीच भारत में ब्रिटेन से जो माल आया उसकी कीमत 3,86,152 पौण्ड से बढ़कर 80,24,000 पौण्ड हो गई अर्थात् ब्रिटेन द्वारा अन्य देशों के निर्यात किए गए कुछ माल का 32वां भाग पहले भारत से आता था, पर अब कुल निर्यात का आठवाँ हिस्सा भारत पहुँचने लगा। 1850 में ब्रिटेन के सूती कपड़ा उद्योग का जो माल विदेशों को निर्यात किया जाता था, उसका चौथाई हिस्सा अकेले भारत पहुँचता था। उस समय ब्रिटेन की आबादी का आठवाँ हिस्सा इस उद्योग में लगा हुआ था और इस उद्योग से ब्रिटेन की कुल राष्ट्रीय आय का बारहवाँ हिस्सा मिलता था।

कार्ल मार्क्स ने लिखा है, 1818 से 1836 के बीच ग्रेट ब्रिटेन ने भारत को धागे का जो निर्यात किया उसकी वृद्धि का अनुपात 1 और 5,200 का था। 1824 में ब्रिटेन ने भारत को मुश्किल से 60,00,000 गज मलमल भेजा था पर 1837 में इसने 6,40,00,000 गज से भी अधिक मलमल का निर्यात किया। लेकिन इसके साथ ही ढाका की आबादी 1,50,000 से घटकर 20,000 हो गई। इसका सबसे बुरा परिणाम उन नगरों का पतन था जो अपने कपड़ो के लिए सुविख्यात थे। ब्रिटश भाप और विज्ञान के समूचे हिन्दुस्तान में कृषि उद्योगो की एकता को जड़ से उखाड़ फेंका।

कार्ल मार्क्स ने आगे लिखा है कि, सूती कपड़ों के निर्माण के लिए ब्रिटेन ने जो प्रणाली संगठित की उसका भारत पर बहुत गम्भीर असर पड़ा। 1834-35 में गर्वनर जनरल ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि इनका दुःख-दर्द व्यापार के समूचे इतिहास में अतुलनीय है। कपड़ा बुनकरों की अस्थियों से भारत की धरती सफेद हो गई है। इसलिए 1900 ई. में सर विलियम डिग्वी ने लिखा था कि, करीब दस करड़ो मनुष्य ब्रिटिश भारत में ऐसे हैं, जिन्हें किसी समय भी भरपेट अन्य नहीं मिलता, इस अधःपतन की दूसरी मिलास इस समय किसी सभ्य और उन्नतिशील देश में कहीं भी दिखाई नहीं दे सकती। हण्टरने लिखा है, 1773 ई. में सचमुच करोड़ों भारतीयों को ठीक से भोजन भी नहीं मिलता था। भारतीयों की आर्थिक दशा के बार में आर्गल के ड्यूक ने जो 1875-76 तक भारत के सचिव थे, लिखा है कि, भारत की जनता में जितनी दरिद्रता है तथा उसके रहन-सहन के स्तर जिस तेजी से गिरता जा रहा है, इसका उदाहरण पश्चिमी जगत में नहीं मिलता है।

उद्योगों एवं दस्तकारी के पतन के कारण इनमें कार्यरत व्यक्ति कृषि की ओर झुके, जिससे भूमि पर दबाव बहुत अधकि बढ गया। परन्तु सरकार ने कृषि के वैज्ञानिक ढंग की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया, जिसके कारण किसानों की दशा इतनी खराब हो गई कि 75 प्रतिशत के अधिक व्यक्तियों को पेट भरकर खाना भी नसीब नहीं होता था। अचानक फूड पड़ने वाले अकालों ने उनकी स्थिति को और अधिक दयनीय बना दिया। आर्थिक असन्तोष ने राष्ट्रीय आन्दोलन की आधारभूमि के रूप में जो भूमिका निभाई वह डॉ. ताराचन्द के अनुक्रमशः तीन सोपानों मे विकसित हुईः

पहले सोपान में शिक्षित मध्य वर्ग, ब्रिटिश शासन को एक दैवी वरदान समझता था। उसकी दृष्टि में अंग्रेजो ने जो अमन-चैन और कानून का राज्य स्थापित किया था, वह ऐसा वरदान था, जो भारत के लिए एक शताब्दी से दुर्लभ था और जान-माल की रक्षा के साथ ही कल्याण और प्रगति के लिए यह अनिवार्य था। इस कारण वह वर्ग ब्रिटिश शासन का प्रशंसक था। शिक्षा और सामाजिक तथा नैतिक सुधार के लिए नई सुविधाएँ पैदा हुई, राष्ट्रीय उत्थान के लिए नया मार्ग खुल था और इस तरह यह समझ जाता था कि भगवान ने अंग्रेजो को, एक प्राचीन जाति को नवजीवन देने के लिए भारत भेजा है।

दूसरे सोपान में शान्ति और व्यवस्था को लोग साधारण बात समझने लगे। इसके अलावा विदेशी कानून पद्धति, मजिस्ट्रेटों और जजों के प्रशासन के कारण, अंग्रेजी शासन के प्रति प्रारम्भ में जो प्रशंसा का भाव था वह मद्धिम पड़ गया। अंग्रेजो की संस्कृति, विज्ञान और ब्रिटिश प्रशासन के व्यावहारिक पहलू से अब लोग उस प्रकार से आश्चर्यान्वित नहीं होते थे, जैसे कि पहले-पहले हुए थे। कई बार जब-तक किसानों का असंतोष दंगो में फूट पड़ता था और ऐसे में एलबर्ट बिल जैसे राजनीतिक विवादों में अंग्रेजी राज के प्रति भ्रम भी शुरू हो गया। पर 1885 तक आलोचना और आन्दोलन के साथ राजभक्ति भी मिली हुई थी।

तीसरे सोपान में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से राजनैतिक आन्दोलन अखिल भारतीय पैमाने पर संगठित हो गया। प्रारम्भ में कांग्रेस को यह आशा बनी रही कि जनता जिन कष्टों से पड़ित है, सरकार उन्हें हटाएगी। इस आस्था में कोई परिवर्तन नहीं आया। जब यह आशा चकनाचूर हो गई, तब भारत में अंग्रेज अफसरों की जगह लोगों में इंग्लैण्ड के मालिकों पर आशा उत्पन्न हुई। अब भारतीय शिष्टमण्डल इंग्लैण्ड जाने लगे और लोग ब्रिटिश नेताओ और भारत के प्रति सहानुभूति रखने वाले अंग्रेज संसद सदस्यों से जाकर मिले और उसका सहयोग माँग। इंग्लैण्ड के पत्रों पर प्रभाव डाला गया और वहाँ भारतीय दृष्टिकोण का प्रचार करने के लिए सभा-सोसाइटियों की स्थापना की गई। यह भी 1905 तक चला। भारतीय राष्ट्रीयता की आर्थिक पृष्ढभूमि के अपने सम्पूर्ण विवेचान का उपसंहार डॉ. ताराचन्द ने इस प्रकार प्रस्तुत किया हैंः

1858 से 1905 तक ब्रिटिश सम्राट के प्रत्यक्ष 50 साल के शासन के फलस्वरूप संचार और परिवहन के सधानों में विस्तार हुआ, भारत के विदेश व्यापार में बहुत वृद्धि हुई और भारतीय अर्थव्यवस्था आधुनिकरण हुआ। भारत अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में खिंच गया और अब एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक इकाई समझा जाने लगा। इस समय आधुनिक उद्योग-धन्धों और खान उद्योग की भी नींव पड़ी। पटसन और सूत कपड़ा, कोयला, मैगझीन और अभ्रक के उद्योग भी इस दौरान काफी प्रगति करते रहे। जब कांग्रेस ने स्वदेशी आन्दोलन शुरू किया, तो टाटा कम्पनी के समाने एक आधुनिक स्पात का कारखाना शुरू करने की योजना प्रस्तुत की। इन आर्थिक परिवर्तनों के कारण व्यापारी वर्ग, जमींदारों, साहूकारों की स्थिति में काफी उन्नति हुई। दाम बढ गई और इस प्रकार मुनाफा भी बढ़ गया। नतीजा यह हुआ कि भारतीय पूँजीवाद अब यूरोपीयन ढंग का व्यापार संगठन विकसित करने लगा। जवाइण्ट स्टॉक कम्पनिनयों की संख्या और उनकी पूँजी में बहुत वृद्धि हुई।

बहुत से ऐसे घटक थे, जिनसे ब्रिटिश शासन के प्रति विरोध उत्पन्न हुआ, पर आर्थिक असन्तोष और कठिनाई उनमें सबसे प्रमुख थी। भारत की ब्रिटिश शासन के प्रति विरोध उत्पन्न हुआ, पर आर्थिक असन्तोष और कठिनाई उनमें सबसे प्रमुख थी। भारत की ब्रिटिश औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था ने ब्रिटिश हितों को आगे बढ़ाया, पर उसने औद्योगीकरण का गला घोटं दिया। इसी के साथ साथ पाश्चात्य शिक्षा का विस्तार, आधुनिक राजनैतिक चिन्तन का प्रभाव, आधुनिक विज्ञान और शिल्प तथा मध्यम वर्ग की वृद्धिने राजैनितक क्रान्ति के लिए आधार और साधन प्रस्तुत कर दिए। स्वतन्त्रता और समानता के विचार तथा अंग्रेज उग्रपंथियों से सीखे हुए ये विचार कि कोई भी बिना प्रतिनिधित्व के न दिया जाए, औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के साथ नहीं चल सकते थे। भारतीय समाज पर ब्रिटिश प्रभाव के फलस्वरूप भारतीय राष्ट्रीयता का उदय हो चुका था। अब उसे जनता की गीरीब से, जिससे असन्तोष पैदा होता था और बढ़ता था, गतिशील प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। इस गरीबी, इस कमरतोड़ कर भारत, इस भारी खर्च और धन के विदेश जाने की जड़ में एक ही तथ्य था कि भारत स्वतन्त्र और स्वशासित राष्ट्र नहीं था। 17वीं कांग्रेस के अध्यक्ष पद के भाषण देते हुए डी.एन. वाचा ने कहा, तथ्य यह है कि भारत अपनी सरकार को चुनने के लिए स्वतन्त्र नहीं है। यदि भारत इसके लिए स्वतन्त्र होता, तो क्या इसमें जरा भी सन्देह है कि पूरा प्रशासनिक तन्त्र देशी होता, जो अपना सारा धन देश में ही खर्च करता और यहीं रहता।

विलियम हण्टरने लिखा है कि, ब्रिटिश साम्राज्य में रैयत ही सबसे अधिक दयनीय है, क्योंकि उनके मालिक ही उसके प्रति अन्यायी हैं। फिशर के शब्दों में, लाखों भारतीय आधा पेट भोजन कर जीवन बसर कर रहे हैं। भारतीयों के शोषण के बारे में डी.ई.वाचा ने लिखा है कि, भारतीयों की आर्थिक स्थित ब्रिटिश शासन काल में अधिक बिगड़ी थी। चार करोड़ भारतीयों को केवल दिन में एक बार खाना खाकर संतुष्ट रहना पड़ता था। इसका एक मात्र कारण वह था कि इंग्लैण्ड भूखे किसानों से भी कर प्राप्त करता था तथा वहाँ पर अपना माल भेजकर लाभ कमाता था। डब्ल्यू टी. थार्नटन ने 1880 में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा था, भारतीय लोग इंग्लैण्ड को, जो वार्षिक कर देते है, उसके कारण भारत का अपना सारा रूधिर चुस गया है तथा उसकी औद्योगिक स्थिति के मुख्य स्रोत सूख चूके हैं।

सारांश यह है कि अग्रेजों के आर्थिक शोषण के विरूद्ध भारतीय जनता में असंतोष था। वह इस शोषण से मुक्त होना चाहती थी। इसलिए भारतीयों ने राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने प्रारम्भ कर दिया। गुरूमुख निहालसिंह के शब्दों में, इस तथ्य को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता कि बिगड़ती आर्थिक दशा तथा सरकार की राष्ट्र विरोधी आर्थिक नीति का अंग्रेज विरोधी विचारधारा तथा राष्ट्रीय चेतना को जगाने में काफी हाथ था।

गैरेंट ने भी इस मत का समर्थन करते हुए लिखा है कि, सरकार की राष्ट्र विरोधी आर्थिक नीति तथा भारतीयों को बड़े-बड़े पदों से वंचित रखने की नीति ने ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध भारतीयों की भावनाओं को भड़काया और राष्ट्रवाद को जन्म दिया। संक्षेप में भारतीयों ने इस सत्य को समझ लिया था कि उनकी इन हीन स्थिति का दोष विदेशी शासन पर है और उसका अन्त करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए।