भारत का आधुनिक रूप में लिखित इतिहास

विकिपुस्तक से

लौटें, भारतीय इतिहास का विकृतीकरण


भारत के इतिहास को आधुनिक रूप में लिखने की परम्परा देश में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन की स्थापना के साथ-साथ ही शुरू हो गई थी। कम्पनी के शासन काल में देश के राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, शैक्षिक, आर्थिक आदि क्षेत्रों में पाश्चात्य ढंग की नई-नई खोजें, व्याख्याएं और प्रक्रियाएं चालू हो गई थीं। इनमें से भारतवासियों के लिए कुछ यदि लाभकर रहीं, तो काफी कुछ हानिकर भी। फिर भी वे चलाई गईं और उन्हें मान्यता भी मिली क्योंकि वारेन हेस्टिंग्स के समय तक सत्ता की बागडोर अंग्रेजों के हाथों में पूरी तरह से पहुँच चुकी थी और देश में सभी कार्य उनकी ही इच्छाओं और आकांक्षाओं के अनुरूप होने लगे थे।


इतिहास-लेखन का श्रीगणेश[सम्पादन]

इतिहास-लेखन का श्रीगणेश जहाँ तक उस समय देश में इतिहास-लेखन के क्षेत्र का सम्बन्ध था, उसमें भी अन्य क्षेत्रों की भाँति ही नए ढंग से अनुसंधान और लेखन के प्रयास शुरू किए गए। इस दृष्टि से यद्यपि सर विलियम जोन्स, कोलब्रुक, जॉर्ज टर्नर, जेम्स प्रिंसेप, पार्जिटर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं तथापि इस दिशा में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य कलकत्ता उच्च न्यायालय में कार्यरत तत्कालीन न्यायाधीश सर विलियम जोन्स ने किया। उन्होंने भारत के इतिहास को आधुनिक रूप में लिखने के लिए नए ढंग से शोधकार्य करने का सिलसिला शुरू किया। इस कार्य में उन्हें कम्पनी के तत्कालीन गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स का पूरा-पूरा सहयोग मिला। फलतः एक व्यापारिक कम्पनी भारत मंे एक सशक्त राजशक्ति बन गई।

1757 ई. में हुए प्लासी के युद्ध के परिणामों से प्रोत्साहित होकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भारत पर अंग्रेजी राज्य की स्थापना का जो स्वप्न सजाया गया था, उसे सार्थक करने के लिए न केवल भारत में कार्यरत कम्पनी के लोगों ने ही वरन इंग्लैण्ड के सत्ताधीशों ने भी पूरा-पूरा प्रयास किया। इस संदर्भ में मैकाले द्वारा अपने एक मित्र राउस को लिखे गए पत्र की यह पंक्ति उल्लेखनीय है-

‘‘अब केवल नाम मात्र का नहीं, हमें सचमुच में नवाब बनना है और वह भी कोई पर्दा रखकर नहीं, खुल्लमखुल्ला बनना है।‘‘ (मिल कृत ‘भारत का इतिहास‘,खण्ड 4, पृ. 332-स्वामी विद्यानंद सरस्वती कृत ‘आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता‘, पृ. 9 पर उद्धृत)

इतिहास-लेखन के लिए अंग्रेजों के प्रयास[सम्पादन]

भारत के इतिहास को आधुनिक रूप में अर्थात अपनी इच्छानुसार लिख सकें अथवा लिखवा सकें, इसके लिए कम्पनी सरकार ने अंग्रेज इतिहासकारों के माध्यम से सघन प्रयास कराए जिन्होंने भारत की प्राचीन सामग्री, यथा- ग्रन्थ, शिलालेख आदि, जिसे पराधीन रहने के कारण भारतीय भूल चुके थे, खोज-खोज कर निकाली। साथ ही भारत आने वाले विदेशी यात्रियों के यात्रा विवरणों का अनुवाद अंग्रेजी में करवाया और उनका अध्ययन किया किन्तु भारतीय सामग्री में से ऐसी सामग्री बहुत कम मात्रा में मिली जो उनके काम आ सकी। अतः उन्होंने उसे अनुपयुक्त समझकर अप्रामाणिक करार दे दिया।

मनगढ़न्त सिद्धान्तों का निर्धारण[सम्पादन]

बाद में स्व-विवेक के आधार पर उन्होंने भारत का इतिहास लिखने की दृष्टि से अनेक मनगढ़न्त निष्कर्ष निर्धारित कर लिए और सत्ता के बल पर उनको बड़े जोरदार ढंग से प्रचारित करना/करवाना शुरू कर दिया। कतिपय उल्लेखनीय निष्कर्ष इस रूप में रहे -

(1) प्राचीन भारतीय विद्वानों में ऐतिहासिक लेखन-क्षमता का अभाव रहा।
(2) भारत में विशुद्ध ऐतिहासिक अध्ययन के लिए सामग्री बहुत कम मात्रा में सुलभ रही।
(3) भारत के प्राचीन विद्वानों के पास कालगणना कीकोई निश्चित और ठोस विधा कभी नहीं रही।
(4) भारत के इतिहास की अधिक सही तिथियाँ वे रहींजो भारत से नहीं, विदेशों से मिलीं।
(5) भारत के इतिहास की प्राचीनतम सीमा 2500-3000 ईसा पूर्व तक ही रही।
(6) आर्यों ने भारत में बाहर से आकर यहाँ के पूर्वनिवासियों को युद्धों में हराकर अपना राज्य स्थापित किया और हारे हुए लोगों को दास बनाया।
(7) प्राचीन भारतीय पौराणिक साहित्य में वर्णित राजवंशावलियाँ तथा राजाओं की शासन अवधियाँ अतिरंजित होने से अप्रामाणिक और अविश्वसनीय हैं।
(8) रामायण, महाभारत तथा अन्य प्राचीन भारतीय ग्रन्थ ‘मिथ‘ हैं।
(9) भारत का शासन समग्र रूप में एक केन्द्रीय सत्ता के अधीन अंग्रेजी शासन के आने से पूर्व कभी नहीं रहा।

उक्त निष्कर्षों को प्रचारित करके उन्होंने भारत के समस्त प्राचीन साहित्य को तो नकार ही दिया, साथ ही भारतीय पुराणों, धार्मिक ग्रन्थों और प्राचीन वाङ्मय में सुलभ सभी ऐतिहासिक तथ्यों और कथ्यों को भी अप्रामाणिक और अविश्वसनीय करार दे दिया।

विलियम जोन्स द्वारा निर्धारित मानदण्ड[सम्पादन]

ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सर विलियम जोन्स के माध्यम से इस देश के इतिहास को नए ढंग से लिखवाने की शुरूआत की। जोन्स ने भारत का इतिहास लिखने की दृष्टि से यूनानी लेखकों की पुस्तकों के आधार पर 3 मानदण्ड स्थापित किए-

(१) आधार तिथि-भारत पर सिकन्दर के आक्रमण के समय अर्थात 327-328 ई. पू. में चन्द्रगुप्त मौर्य विद्यमान था और उसके राज्यारोहण की तिथि 320 ई. पू. थी। इसी तिथि को आधार तिथि मानकर भारत के सम्पूर्ण प्राचीन इतिहास के तिथिक्रम की गणना की जाएक्योंकि इससे पूर्व की ऐसी कोई भी तिथि नहीं मिलती जिसे भारत का इतिहास लिखने के लिए आधार तिथि बनाया जा सके।

(२) सम्राट का नाम- यूनानी लेखकों द्वारा वर्णित सेंड्रोकोट्टस ही चन्द्रगुप्त मौर्य था और सिकन्दर के आक्रमण के पश्चात वही भारत का सम्राट बना था।

(३) राजधानी का नाम- यूनानी लेखकों द्वारा वर्णित पालीबोथ्रा ही पाटलिपुत्र था और यही नगर चन्द्रगुप्त मौर्य की राजधानी था।

इतिहास-लेखन में धींगामुस्ती[सम्पादन]

इतिहास-लेखन के कार्य में उस समय कम्पनी में कार्यरत जहाँ हर अंग्रेज ने पूरा-पूरा सहयोग दिया, वहीं कम्पनी ने भी ऐसे लोगों को सहयोग और प्रोत्साहन दिया, जिन्होंने भारतीय इतिहास से सम्बंधित कथ्यों और तथ्यों को अप्रामाणिक, अवास्तविक, अत्युक्तिपूर्ण और सारहीन सिद्ध करने का प्रयास किया। पाश्चात्य विद्वानों के भारतीय इतिहास-लेखन के संदर्भ में उक्त निष्कर्षों और मानदण्डों को आधार बनाकर तत्कालीन सत्ता ने आधुनिक रूप में भारत का इतिहास-लेखन कराया।

भारत के इतिहास को आधुनिक रूप में लिखने के लिए पाश्चात्य विद्वानों द्वारा जो सघन प्रयास किए गए, वे इसलिए तो प्रशंसनीय रहे कि विगत एक हजार वर्ष से अधिक के कालखण्ड में इस दिशा में स्वयं भारतवासियों द्वारा ‘राजतरंगिणी‘ की रचना को छोड़कर कोई भी उल्लेखनीय कार्य नहीं किया गया था किन्तु इतने परिश्रम के बाद भारत का जो इतिहास उन्होंने तैयार किया, उसमें भारत के ऐतिहासिक घटनाक्रम और तिथिक्रम को इस ढंग से प्रस्तुत किया गया कि आज अनेक भारतीय विद्वानों के लिए उसकी वास्तविकता सन्देहास्पद बन गई। फिर यही नहीं, इस क्षेत्र में जो धींगामुस्ती अंग्रेज 200 वर्षों में नहीं कर पाए, वह पाश्चात्योन्मुखी भारतीय इतिहासकारों ने स्वाधीन भारत के 50 वर्षों में कर दिखाई। वस्तुतः इतिहास किसी भी देश अथवा जाति की विभिन्न परम्पराओं, मान्यताओं तथा महापुरुषों की गौरव गाथाओं और संघर्षों के उस सामूहिक लेखे-जोखे को कहा जाता है जिससे उस देश अथवा जाति की भावी पीढ़ी प्रेरणा ले सके। जबकि भारत का इतिहास आज जिस रूप में सुलभ है उस पर इस दृष्टि से विचार करने पर निराशा ही हाथ लगती है क्योंकि उससे वह प्रेरणा मिलती ही नहीं जिससे भावी पीढ़ी का कोई मार्गदर्शन हो सके। उससे तो मात्र यही जानकारी मिल पाती है कि इस देश में किसी का कभी भी अपना कुछ रहा ही नहीं। यहाँ तो एक के बाद एक आक्रान्ताआते रहे और पिछले आक्रान्ताओं को पददलित करके अपना वर्चस्व स्थापित करते रहे। यह देश, देश नहीं, मात्र एक धर्मशाला रही है, जिसमें जिसका भी और जब भी जी चाहा, घुस आया और कब्जा जमाकर मालिक बनकर बैठ गया।