भारत के इतिहास में विकृतियाँ की गईं, क्यों?

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लौटें, भारतीय इतिहास का विकृतीकरण

भारत के इतिहास को आधुनिक रूप में लिखने या लिखवाने के लिए अंग्रेजों ने जो धींगामुस्ती की थी उससे यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि उन्होंने यह इतिहास भारतीयों के ज्ञानवर्धन के लिए नहीं वरन अपने उद्देश्य विशेष की पूर्ति हेतु लिखवाया था।

इतिहास लेखन का निमित्त उद्देश्य विशेष की प्राप्ति[सम्पादन]

जब भारत पर अंग्रेजों ने छल से, बल से और कूटनीति से पूरी तरह से कब्जा कर लिया तो उन्हें उस कब्जे को स्थाई बनाने की चिन्ता हुई। भारत में अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए उन्हें तलवार के बल की अपेक्षा यह मार्ग सरल लगा कि इस देश का इतिहास, भाषा और धर्म बदल दिया जाए। उनका दृढ़ विश्वास था कि संस्कृति के बदले हुए परिवेश में जन्मे, पले और शिक्षित भारतीय कभी भी अपने देश और अपनी संस्कृति की गौरव-गरिमा के प्रति इतने निष्ठावान, अपनी सभ्यता की प्राचीनता के प्रति इतने आस्थावान और अपने साहित्य की श्रेष्ठता के प्रति इतने आश्वस्त नहीं रह सकेंगे। इसीलिए उन्होंने अधिकांशतः तो जान-बूझकर और कुछ मात्रा में अज्ञान और असावधानी के कारण भारत के इतिहास की प्राचीन घटनाओं, नामों और तिथियों को तोड़-मरोड़कर अपनी इच्छानुसार प्रस्तुत करके उन्हें अपने उद्देश्य की पूर्ति में सहायक बनाया।

उद्देश्य-प्राप्ति के लिए योजना[सम्पादन]

कम्पनी सरकार ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति के निमित्त एक बहुमुखी योजना बनाई। इस योजना के अन्तर्गत पाश्चात्य चिन्तकों और वैज्ञानिकों ने, इतिहासकारों और शिक्षा-शास्त्रियों ने, लेखकों और अनुवादकों ने, अंग्रेज प्रशासकों और ईसाई धर्म प्रचारकों ने भारत की प्राचीनता, व्यापकता, अविच्छिन्नता और एकात्मता को ही नहीं, समाज में ब्राह्मणों यानीविद्वानों के महत्त्व और प्रतिष्ठा को नष्ट करने के उद्देश्य से एक सम्मिलित अभियान चलाया। इस अभियान के अन्तर्गत ही यह प्रचारित किया गया कि भारतीय सभ्यता इतनी प्राचीन नहीं है जितनी कि वह बताईजाती है, रामायण और महाभारत की घटनाएँ कपोल-कल्पित हैं - वे कभी घटी ही नहीं, आदि-आदि। सत्ता में रहने के कारण उन्हें इस प्रचार का उचित लाभ भी मिला। अंग्रेजी सत्ता से प्रभावित अनेक भारतीय, जिनमें वेतनभोगी तथा धन और प्रतिष्ठा के लोलुप संस्कृत के कतिपय विद्वान भी सम्मिलित थे, ‘हिज मास्टर्स वॉयस‘ के अनुरूप जमूरों की तरह नाचने लगे। अंग्रेजों के शासनकाल में सत्ता से व्यक्तिगत स्तर पर पद-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, धन-सम्पदा आदि की दृष्टि से लाभ उठाने के लिए भारत के एक विशिष्ट वर्ग द्वारा उनकी चाटुकारिता के लिए किए गए प्रयासों की तो बात ही क्या स्वाधीनता के बाद भी भारत में गुलामी की मानसिकता वाले लोगों की कमी नहीं रही, न तो प्रशासनिक स्तर पर, न शिक्षा के स्तर पर, न लेखन के स्तर पर और न ही चिन्तन या दर्शन के स्तर पर। देशभर में बड़े पैमाने पर व्याप्त इस मानसिकता को अनुचित मानते हुए भारत के पूर्व राष्ट्रपति एवं आधुनिक भारत के प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन ने पराधीनता की मानसिकता को धिक्कारते हुए एक स्थान पर लिखा है -

“The Policy inaugurated by Macaulay, with all its cultural value, is loaded on one side. While it is so careful as not to make us forget the force and validity of western culture, it has not helped us to love our own culture and refine it where necessary. In some cases, Macaulay’s wish is fulfilled and we have educated Indians who are ‘more English than English themselves’ to quote his well known words. Naturally some of these are not behind the hostile foreign critic in their estimate of the History of Indian culture. They look upon India’s cultural evolution as one dreary scene of discord, folly and superstition. They are eager to imitate the material achievements of Western States and tear up the roots of ancient civilisation, so as to make room for the novelities imported from the West. One of their members recently declared that if India is to thrive and flourish, England must be her ‘spiritual mother’ and Greece her ‘spiritual grand mother’

(‘आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता‘, पृ. 28 पर उद्धृत)

योजना का आभास[सम्पादन]

भारत का इतिहास, धर्म और भाषा बदलकर उसे ईसाई देश बनाने की कम्पनी सरकार की योजना बहुत ही गुप्त थी। इसका निर्माण कब, कहाँ और कैसे हुआ, इसके सम्बन्ध में कोई निश्चित जानकारी उस समय किसी को भी नहीं मिल सकी। यह तो बाद में उन्हींके लोगों द्वारा जब लिखित रूप में माना गया, तभी पता चला। इस संदर्भ में इंग्लैण्ड के लॉर्ड मैकालेतथा मोनियर विलियम्स और जर्मन विद्वान मैक्समूलर के निम्नलिखित विचार उल्लेखनीय हैं-

लॉर्ड टी.वी. मैकाले -1834 ई. में भारत के शिक्षा प्रमुख बने लार्ड मैकाले ने भारतीयों को शिक्षा देने के लिए बनाई अपनी नई नीति के संदर्भ में अपने पिता को लिखा था-

‘‘मेरी बनाई शिक्षा पद्धति से यहाँ (भारत में) यदि शिक्षाक्रम चलता रहा तो आगामी 30 वर्षों में एक भी आस्थावान हिन्दू नहीं बचेगा। या तो वे ईसाई बनजाएंगे या नाम मात्र के हिन्दू बने रहेंगे। धर्म पर या वेद शास्त्रों पर उनको विश्वास नहीं होगा। स्पष्ट रूप सेहिन्दू धर्म में हस्तक्षेप न करते हुए भी, बाह्य रूप

से उसकी धार्मिक स्वतंत्रता कायम रखते हुए भी हमारा उद्दिष्ट सफल होगा।‘‘

-- (डॉ. लीना रस्तोगी कृत, ‘विश्वव्यापिनी संस्कृति‘, पृ. 90 पर उद्धृत)

मोनियर विलियम्स- विलियम्स ने ‘मॉडर्न इण्डिया एण्ड दी इण्डियन्स‘, के तीसरे संस्करण, 1879 के पृष्ठ 261 पर लिखा था:

When the walls of the mighty fortrees of Brahmanism are

encircled, undermined and finally stormed by the soldiers of the cross, the victory of christiannity must be signal and complete.

(जब ब्राह्मणों के शक्तिशाली दुर्ग की प्राचीरें ईसाई सिपाहियों द्वारा घेर ली जाएंगी, दुर्बल बना दी जाएंगी और नष्ट कर दी जाएंगी तभी ईसाइयत की विजय का पूर्ण संकेत मिलेगा।‘‘ )

-- (पं. भगवद्दत्त कृत ‘भारतवर्ष का बृहद इतिहास‘, भाग-1, पृ. 43 पर उद्धृत)

फ्रैडरिक मैक्समूलर - इनका वास्तविक मन्तव्य इनके पत्रों से, जो इनकी पत्नी ने1902 ई. में छपवाए थे, ज्ञात होता है -

पत्नी को: ‘‘वेद का अनुवाद और मेरा (सायण-भाष्य सहित ऋग्वेद का) यह संस्करण उत्तर काल में भारत के भाग्य पर दूर तक प्रभाव डालेगा। यह उनकेधर्म का मूल है और मैं निश्चय से अनुभव करता हूँ कि उन्हें यह दिखाना कि मूल कैसा है, गत तीन सहस्रवर्ष में उससे उपजी सब बातों के उखाड़ने का एकमात्र उपाय है।

-- (पं. भगवद्दत्त कृत ‘भारतवर्ष का बृहद इतिहास‘, भाग-1, पृष्ठ 41 पर उद्धृत)

भारत सचिव (डयूक ऑफ आर्गाइल) को : ‘भारत का प्राचीन धर्म नष्टप्राय है और यदि ईसाई धर्म उसका स्थान नहीं लेता तो यह किसका दोष होगा ?‘ -- (‘विश्वव्यापिनी संस्कृति‘, पृ. 92 पर उद्धृत)

योजना को सफल बनाने में सहयोग[सम्पादन]

भारत में अंग्रेजी राज्य को स्थाइत्त्व प्रदान कराने के लिए कम्पनी सरकार ने भारत के इतिहास, धर्म और भाषा को बदलने की जो योजना बनाई थी उसमें जोन्स के साथ-साथ वारेन हेस्टिंग्ज का तो सहयोग था ही, उसे आगे बढ़ाने में मैक्समूलर, वैबर, विल्सन, विंटर्निट्स, मैकाले, मिल, फ्लीट बुहलर आदि का भी पूर्ण योगदान रहा है। जोन्स, मिल, विंटर्निट्जने जहाँ भारत के इतिहास को परिवर्तित रूप प्रदान करने में अग्रणी भूमिका निभाई, वहीं पाश्चात्य पादरीगण ईसाई धर्म को अधिक से अधिक व्यापक और विस्तृत परिवेश दिलाने में किसी से पीछे नहीं रहे। मैकाले ने जहाँ शिक्षा के माध्यमों को बदल कर संस्कृत और भारतीय भाषाओं के स्थान पर अंग्रेजी का वर्चस्व स्थापित कराने में मदद की वहीं मैक्समूलर, वेबर, विल्सन आदि ने भारतीय ग्रन्थों का भ्रष्ट अनुवाद औरगलत व्याख्याएँ प्रस्तुत करके तथाकथित शिक्षित लोगों के मनों में धर्म के प्रति अनास्था और भाषा के प्रति अरुचि पैदा करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। फ्लीट और बुहलर सरीखे पुरातात्त्विक भी इस दृष्टि से किसी से पीछे नहीं रहे। अंग्रेजी सत्ता भारत में ईसाइयत फैलाने के लिए कितनीउत्सुक थी, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण निम्नलिखित उद्धरणों से प्राप्त होता है -

लॉर्ड पामर्स्टन, इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री (1859 ई)

‘‘यह हमारा कर्त्तव्य ही नहीं, अपितु हमारा अपना हित भीइसी में है कि भारत भर में ईसाइयत का प्रचार हो।‘‘ (एक घोषणा)

मि मेंगल्स, अध्यक्ष, बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स, ईस्ट इण्डिया कम्पनी-

‘‘विधाता ने हिन्दुस्तान का विशाल साम्राज्य इंग्लैण्ड केहाथों में इसलिए सौंपा है कि ईसामसीह का झण्डा इस देश में एक कोने से दूसरे कोने तक लहराए। प्रत्येक ईसाई का कर्त्तव्य है कि समस्त भारतीयों को अविलम्ब ईसाई बनाने के महान कार्य मेंजुट जाए‘‘

--(इंग्लैण्ड की पार्लियामेन्ट में दिया गया भाषण)

(‘आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता‘, पृ. 27-28पर उद्धृत)

विकृतीकरण की स्वीकारोक्ति[सम्पादन]

यह ठीक है कि भारत के इतिहास को बिगाड़ने के लिए अंग्रेजों ने अनथक और अविरल प्रयास किए किन्तु किसी ने भी इस बात को इतने स्पष्ट रूप में नहीं स्वीकारा है, जितना कि एडवर्ड थौमसन नाम के एक अंग्रेज इतिहासकार ने। इसने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है -

‘‘हमारे इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को एक विशेष दृष्टिकोण प्रदान किया है। उस दृष्टिकोण को बदलने के लिए जो साहसपूर्ण एवं सशक्त समीक्षाशक्ति अपेक्षित है, वह भारतीय इतिहासकार अभी बहुत समय तक नहीं दे सकेंगे।‘‘

-- (भजनसिंह कृत, ‘‘आर्यों का आदि निवास मध्य हिमालय‘‘, पृ. 19 पर उद्धृत)